एक और आकाश की खोज में / अरुण माहेश्वरी

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मासिक 'वागर्थ` में प्रभा खेतान को श्रद्धांजलि
लेखक - अरुण माहेश्वरी (नवम्बर, २००८)

एक और आकाश की खोज में उनका अनन्त सफर

प्रसिद्ध लेखिका, उपन्यासकार, कवयित्री, प्रबंधकार, स्त्रीवादी चिंतक, विदूषी शोधकर्ता और उद्यमी प्रभा खेतना हमारे बीच नहीं रहीं। १९ सितम्बर की तड़के सुबह सीने में दर्द की तकलीफ के कारण उन्हें अस्पताल ले जाया गया और उसी दिन आपात परिस्थितियों में उनकी बाईपास सर्जरी हुई और उसी सर्जरी के बाद उनकी स्वाभाविक हृद्य गति लौट कर नहीं आ सकी तथा रात के वक्त उन्हें मृत घोषित कर दिया गया।

१ नवम्बर, १९४२ में जन्मी प्रभा खेतान के निजी जीवन से परिचित हर व्यक्ति उनके विद्रोही, उदार, संघर्षशील और स्वतंत्रचेता व्यक्तित्व का साक्षी रहा है। हाल में प्रकाशित उनकी आत्मजीवनी 'अन्या से अनन्या` में उनके विद्रोही चरित्र के आत्म संघर्ष की जो झलक मिलती है, उसने देश भर के हिन्दी पाठकों का ध्यान आकर्षित किया था। कोलकाता के प्रतिष्ठित प्रेसीडेंसी कालेज से दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर डिग्री हासिल करके उन्होंने प्रसिद्ध फ्रांसीसी दार्शनिक ज्यां पाल सार्त्र के अस्तित्ववाद के सिद्धांत पर डाक्टरेट किया था। लेखन की दुनिया में प्रभा जी ने एक कवि के रूप में कदम बढ़ाये थे, उनके कई कविता संकलन भी प्रकाशित हुए। उनका पहला कविता संकलन था 'अपरिचित उजाले` जो १९८१ में प्रकाशित हुआ था। फिर एक के बाद एक, सीढ़िया चढ़ती हुई मैं, एक और आकाश की खोज में, कृष्णधर्मा मैं, और हुस्नबानों और अन्य कविताएं, कविता संकलन प्रकाशित हुए। लेकिन जल्द ही उन्होंने उपन्यास विधा को अपना लिया और अपने प्रारंभिक उपन्यास 'छिन्नमस्ता`, 'आओ पेपे घर चलें`, 'तालाबंदी` और 'अग्निसंभवा` के जरिये व्यापक पाठक समाज का ध्यान अपनी ओर खींचा। एक उपन्यासकार के रूप में उनके उनके अत्यंत परिपक्व, परिष्कृत और सर्वोत्कृष्ट रूप का परिचय मिला उनके उपन्यास 'पीली आंधी` से। इस उपन्यास के माधो बाबू और पद्मावती की तरह के चरित्र अपनी खास रंगत लिये हुए अविस्मरणीय चरित्र कहे जा सकते हैं।

'पीली आंधी` को हिन्दी के वरिष्ठ आलोचकों से भारी प्रशंसा मिली और इस पर प्रभाजी को कई राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले। प्रभाजी एक बेहतरीन अनुवादिका भी थी। सीमोन द बोउवार की विश्वप्रसिद्ध पुस्तक 'द सेकंड सेक्स` का 'स्त्री उपेक्षिता` शीर्षक से उनका हिन्दी में काफी पढ़ा और सराहा जाता है। सार्त्र पर उनकी थिसिस के अलावा उनके द्वारा लिखी गई सार्त्र की जीवनी 'शब्दों का मसीहा सार्त्र` और अल्बेयर कामू पर उनकी पुस्तक 'अल्बेयर कामू : वह पहला आदमी` हिन्दी में पश्चिम के विशिष्ट चिंतकों और लेखकों के बारे में प्रकाशित अब तक प्रकाशित पुस्तकों में अपना निजी स्थान रखती है। उन्होंने 'सांकलों में कैद कुछ क्षितिज` शीर्षक से कुछ दक्षिण अफ्रीकी कविताओं के हिन्दी अनुवाद का भी एक संकलन प्रकाशित करवाया था। प्रभाजी के लेखन और व्यक्तित्व की चर्चा तब तक अधूरी रहेगी जब तक उनके स्त्रीवादी नजरिये और स्त्रीवादी लेखन की चर्चा नहीं की जाती। 'स्त्री उपेक्षिता` के अनुवाद के साथ ही उन्होेंने यथार्थ को देखने की एक ऐसी विद्रोही स्त्रीवादी दृष्टि अर्जित कर ली थी, जिससे उनके समूचे लेखन की अपनी विशिष्टता रेखांकित की जा सकती है। गौर करने लायक बात है कि स्त्री-स्वातंत्र्य की दृढ़ पक्षधर प्रभाजी इसके पश्चिमी संस्करण के अंधानुकरण की नहीं बल्कि उसके प्रति आलोचनात्मक और साथ ही विधेयात्मक दृष्टिकोण की समर्थक थी। खास तौर पर हाल के वर्षों में प्रकाशित उनकी दो कृतियां 'उपनिवेश में स्त्री : मुक्ति कामनाएं की दस वार्ताएं` और 'बाजार के बीच : बाजार के खिलाफ, भूमंडलीकरण और स्त्री के प्रश्न` आज के वैश्वीकरण की पृष्ठभूमि मे स्त्री प्रश्न पर विमर्श की ऐसी पुस्तकें हैं जिनकी अवहेलना नहीं की जा सकती है। इस विषय में उनकी यह मान्यता काफी विचारोत्तेजक रही है, जब वे कहती हैं

'स्त्री के जीवन पर भूमंडलीकरण के प्रभाव बहुमुखी, लेकिन विरोधाभासी है। राष्ट्र बनाम भूमंडलीकरण या फिर बाजार बनाम समाज जैसे सरलीकरणों पर सवार होकर स्त्री की आजादी के पैरोकार इन प्रभावों का आकलन नहीं कर सकते।`

प्रभाजी कोई स्त्रीवादी एक्टिविस्ट नहीं थी, लेकिन हिन्दी में यदि कोई स्त्रीवादी विमर्श है तो उसमें प्रभाजी का अपना खास स्थान भी जरूर है। प्रभाजी के व्यक्तित्व का एक और विशष पहलू उनके उद्यमी जीवन का रहा है। संभवत: इसी के चलते उन्होंने दुनिया के अनेक देशों की यात्राएं की थीं और इन यात्राओं ने ही उनकी सोच के क्षितिज को काफी विस्तार दिया था। वे मार्क्सवाद से गहराई से प्रभावित थीं और शुरू से ही अपने लेखन में समाज के कमजोर तबकों को शक्ति देने और उनके दर्द के साथ एकात्म होकर उसे गहराई से अभिव्यक्ति देने की एक प्रगतिशील रचना-दृष्टि को उन्होंने आत्मसात किया था। सन् १९८७ में प्रकाशित हुए उनके कविता संकलन 'हुस्नबानों और अन्य कविताएं` की सभी रचनाएं उनकी इस रचना-दृष्टि का प्रमाण है। इसी संकलन की उनकी कविता 'बड़ी अच्छी मेमसाब` की इन अंतिम मार्मिक पंक्तियों को भला कोई कैसे भुला सकता है-

'इतनी अच्छी मेम साब
इतने भले हमारे साब
फिर ऐसा क्यों होता है मीरा दी
ऐसा क्यों?
मालकिन का गुस्सा
मुझे क्यों बना जाता है बकरी?`

प्रभाजी की इस असमय और आकस्मिक मृत्यु ने निश्चित तौर पर कोलकाता के हिन्दी साहित्य के जगत को काफी झकझोर दिया है। कोलकाता का शायद ही कोई लेखक, साहित्यकार, पत्रकार होगा जो कभी प्रभाजी के संपर्क में न आया हो। उनके द्वारा स्थापित किये गए प्रभा खेतान फाउंडेशन ने भी कोलकाता के समाज में अपना अपना विशेष स्थान बना लिया था और देश भर की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों को इसकी सहायता ने समय-समय पर बल पहुंचाया है। वे लम्बे समय से जनवादी लेखक संघ के साथ जुड़ी हुई थीं और जलेस के पटना राष्ट्रीय सम्मेलन में उन्होंने उपस्थित होकर उसके कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी की थी। आज प्रभाजी का इस प्रकार अकस्मात् चले जाना हिन्दी साहित्य जगत की एक अपूरणीय क्षति है। हिन्दी जगत को उनसे अभी और बहुत अपेक्षाएं थीं। हिन्दी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इन दिनों नियमित उनका लेखन प्रकाशित हो रहा था। उनकी मृत्यु को एक बड़ा आघात कहा जा सकता है। दुख और शोक की इस वेदनामयी घड़ी में हम उनके परिवार के सभी लोगों के प्रति गहरी संवेदना प्रेषित करते हैं। - साल्टलेक, कोलकाता-७०००६४


मासिक 'वागर्थ` (कोलकाता), नवम्बर, २००८ में प्रभा खेतान को श्रद्धांजलि-