एक और प्रतिज्ञा / उर्मिला शिरीष

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राजा शांतनु के समक्ष गंगा द्वारा की गई प्रतिज्ञा - 'मेरे किसी कार्य को आप नहीं टालेंगे और न ही कोई कार्य करने से मुझे रोकेंगे, सो मेरी प्रतिज्ञा विरुद्ध कोई बात नहीं करेंगे तो मैं आपकी भार्या बनकर रहने को उद्यत हूँ और ज्यों ही आपने मेरी प्रतिज्ञा को भंग किया, मैं आपको छोड़कर चली जाऊँगी।' (महाभारत, आदिपर्व)

'तुम मेरे किसी भी काम में, बात में, निर्णय में, रहन-सहन में दखलअंदाजी नहीं करोगे। न मुझे रोकोगे-टोकोगे। न मेरे साथ कहीं आओगे-जाओगे। घर में कौन आता-जाता है... इस बारे में कोई सवाल-जवाब नहीं करोगे। यदि ये सारी शर्तें तुम्हें मंजूर हैं। तुम्हें तो मैं तुम्हारे साथ रहने के लिए तैयार हूँ। तुम अपना जीवन जिओ और मुझे अपना जीवन जीने दो।' वह लगातार बोले जा रही थी और वह ठीक उसके सामने सोफे पर निर्जीव-सा बैठा सुने जा रहा था। चश्मे से झाँकती उसकी आँखों में निरीहता थी... खामोश रहने की विवशता थी और वह... वह अँगुली दिखाती, उसको धमकाए जा रही थी अपनी बातों से, अपनी भावमुद्राओं से और अपनी उपस्थिति से। उसकी आँखों में क्षोभ, घृणा और कठोरता थी। उसे यानी उसके पति सोमेश को लगा कि इस समय उसने एक भी शब्द प्रतिवाद में या सफाई में या यूँ ही बोला तो वह जान-बूझकर शोर मचाएगी, चीखेगी और फिर से कोई ऐसा बहाना बना देगी जिससे उसे जाना न पड़े। यानी गलती वह करेगी और कसूरवार ठहराएगी उसको! सोमेश जानता है कि उसका व्यवहार ऐसे पलों में हिंसक हो उठता है - क्या पता वह पहले की तरह चीजें उठाकर फेंकना शुरू कर दे, दरवाजा बंद कर ले या स्वयं को ही चोट न पहुँचा ले। ये सोमेश के खिलाफ सबको करने की उसकी साजिश होती थी।

'और अम्मा बाबूजी के सामने बच्चों की तरह रोने की क्या जरूरत थी? उनसे दबाव डलवाकर तुम या तुम्हारे परिवार के लोग मेरे साथ प्यार से रह सकेंगे।'

'मैंने उनसे कोई शिकायत नहीं की।'

'तो उन्हें क्या सपना आ रहा था कि हमारे बीच कोई संबंध नहीं है।'

'क्या उन्हें समझ में नहीं आता है?'

'उन्हें समझ में आता होता तो जीजी की जिंदगी की बर्बादी दिखाई न दी होती...! मैं जीजी नहीं हूँ... समझे।' इस बार मैं केवल उनका मन रखने के लिए जा रही हूँ... समझे।' वह बैग में एक-एक सामान जमाती जा रही थी। उसका सामान रखने का ढंग ऐसा था मानो वह अपने घर नहीं जेल की सजा काटने जा रही हो।

रात के बारह बज चुके थे। चारों तरफ सन्नाटा छाया था। परिवार के सभी सदस्य सो चुके थे। इक्की-दुक्की गाड़ियाँ या साइकिलें आती-जाती दिखाई दे रही थीं। बच्ची निकिता सो चुकी थी। उसे नहीं मालूम था कि पापा के आने पर उसे कैसा व्यवहार करना चाहिए, उनकी गोद में चढ़ना चाहिए या नहीं, उनके गले में बाँहें डालना चाहिए या नहीं, उनके गाल चूमना चाहिए या नहीं। कभी-कभार आने वाले पापा को उसने हमेशा उदास... खामोश... होंठ चबाते... आँखें मलते हुए ही देखा था। माँ और पापा उसके लिए दो खंभों की तरह थे, जो अपनी-अपनी जगह जमकर खड़े हुए थे।

'मेरी किस्मत ही खराब थी कि ऐसा बेवकूफ घुन्ना पति मिला। जिसके कोई सपने नहीं हैं... जिसमें कोई रंगीनियत नहीं है, केंचुए की तरह एक ही जगह चिपका हुआ है... अम्मा-बाबूजी को इसी से मेरी शादी करनी थी... मैंने कितनी बार मना किया था कि पढ़ाई पूरी होने के बाद शादी करना... पर उन्हें तो अपना बोझ उतारना था... सो इसी को पकड़कर कर दी मेरी शादी... प्राइवेट कंपनी में अदना-सा सब-इंजीनियर जिसके पास न खुद का मकान है, न पैसा, न कोई स्टेट्स।' वह मन ही मन बड़बड़ाती जा रही थी। टप्-टप् टपकते आँसुओं को आस्तीनों से पोंछती वह सचमुच अपने जीवन की इस बर्बादी का मातम मना रही थी।

उसने बिना सोमेश की तरफ देखे कमरे का दरवाजा लगाया, कपड़े बदले और सीधी... पलंग पर लेट गई। उसकी गोरी सुडौल बाँहें माथे पर टिकी थीं और निगाहें छत पर। छत और निगाहें अपने-अपने सूनेपन के परस्पर एक दूसरे की पर्याय लग रही थीं।

जाने के पहले अलस्सुबह उसने साइकिल उठाई और नरेंद्र सर के घर जा पहुँची। नरेंद्र सर जो बाबूजी के मित्र थे जिनका घर में आना-जाना था और जिनसे वह पढ़ा करती थी...। पढ़ाई के दौरान मन की बातें कर लिया करती थी। नरेंद्र सर उसे साहित्य, शिक्षा, जीवन, संसार और दुनिया जहान की बातें सुनाया करते थे... जीवन की बारीकियाँ बताया करते थे। उन बारीकियों को देखते-समझते कब वह उनके करीब आ गई थी उसे एहसास ही न हुआ था। नरेंद्र सर उसके जीवन का आईना थे। उसके सपनों को उड़ान देने वाले स्वप्न-पुरुष थे। उसका मन उन्हीं के सामने खुलता था।

'आपने बाबूजी को कहा होगा कि हमें भेज दो। वह हमें लेने आया है।'

'तो इसमें बुराई क्या है? तुम्हें उसके साथ जाना चाहिए। रहना चाहिए। आखिर वो तुम्हारा ब्याहता पति है।'

'मैं उसका चेहरा नहीं देख सकती। आपको नहीं मालूम कि वह कितना दकियानूसी है, कितना शक्की। उसके साथ रहना है इस कल्पना मात्र से ही पूरे शरीर में आग की लपटें उठने लगती हैं।'

'इस कस्बे के बाहर का जीवन भी तो तुम्हें देखना चाहिए। कब तक यहाँ रहकर तुम अपनी प्रतिभा का हृास करती रहोगी। तुम्हारे भीतर अनंत संभावनाएँ हैं। सपने है और सबसे बड़ी बात कि तुम जैसा सोचती हो वैसे ही जीना भी चाहती हो! वहाँ तुम्हें खुला, पढ़ा-लिखा बौद्धिक समाज मिलेगा। काम करने का मौका मिलेगा... सोमेश की आँखें भी खुलेंगी वह तुम्हें समझ सकेगा।'

'वह तो चाहता है कि मैं गाँव की नई-नवेली दुल्हन की तरह बनकर रहूँ... उसकी प्रतीक्षा करती... उसके लिए रोटियाँ बनाती उसकी बात मानती रहूँ।'

'ये घिसी-पिटी बातें तुम्हारे मुँह से अच्छी नहीं लगती हैं। इन बहसों में व्यर्थ समय बर्बाद करने से बेहतर है कि तुम अपने भविष्य के बारे में सोचो। फिलहाल उसके साथ रहो, बाद में अपना रहने का ठिकाना अपने हिसाब से बना लेना।'

'तब आप और बाबूजी फिर आ जाओगे उसकी वकालत करने के लिए।'

'जानती हो न कि कस्बाई समाज में जवान वो भी शादीशुदा लड़की का माता-पिता के घर में रहना कितने सवाल पैदा करता है। बाहर से हम आधुनिक दिखते हैं। ढोंग है... यह सब... महज दिखावा। अंदर से हम सब वही हैं दकियानूसी... या फिर हिम्मत दिखाओ... परवाह करना बंद कर दो और अपनी मरजी से जिओ।'

'आप कब से समाज और परिवार की परवाह करने लगे हैं।'

'सो तो... नहीं करता... तुम भी जानती हो कि परिवार और समाज को मैं अपने जूतों की नोंक पर रखता हूँ... मैंने अपना जीवन अपनी शर्तों पर जिया है... पर हर वक्त... हर बात को दूसरे संदर्भ में नहीं देखना चाहिए।'

'मैं उसके साथ बंधकर नहीं रहना चाहती।'

'आपकी स्वतंत्रता कौन छीन रहा है सवाल यह नहीं है, सवाल यह है कि आप अपनी स्वतंत्रता किसे छीनने देती हैं और क्यों?'

'बहलाने की बातें मत करिए। आपको कोई नई लड़की मिल गई होगी, इसलिए चाहते हैं कि हम चले जाएँ।'

'हम क्या यूँ दबने वालों में से हैं। नई लड़की आएगी तो तुमको खबर लग जाएगी। फिलहाल तो तुम अच्छे मन से जाओ। बाकी हम सब तो हैं ही तुम्हारी खैर-खबर लेने वाले।'

इस समय नरेंद्र सर से बाकी बातों पर बहस करने का उसका मन नहीं था। उसे हर रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा नजर आ रहा था। रास्ते में उसकी साइकिल कई बार लड़खड़ाई। उसे लगा साइकिल की तरह वह भी अभी सीधे-साधे ढंग से नहीं चल पा रही है।

सोमेश ने किराए का छोटा-सा फ्लैट लिया था। एक कमरे में उसने अपना सामान जमाया और दूसरे में बच्ची और आया का।

बड़े शहर की चकाचौंध...। जगमगाता शहर...। हलचल करती सड़कें... लोगों की अपार भीड़। मादकता बिखरेती रातें। नई चीजों से पटा पड़ा बाजार! उसका मन खिल उठा। नरेंद्र सर ने सही कहा था शहर का माहौल ही अलग होता है। नरेंद्र सर ने जिन परिचितों के नाम-पते दिए थे, उनसे मिलने जाना उसके लिए रोमांचक अनुभव था। नरेंद्र सर ने कहा था कि अपनी अभिरुचि के अनुसार वह काम कर सकती थी। कोई संस्था ज्वाइन कर सकती थी। दुबली-पतली छरहरी काया की मलिका मानसी पहली नजर में कस्बाई युवती लगती थी, पर उसकी देह में, आँखों में, मुस्कान में ऐसा जादुई आकर्षण था कि जो भी उसे देखता अभिभूत हुए बिना न रहता, खासकर उस समाज में उसका आकर्षण आलोक की तरह फैलाने वाला था, जो कवियों, साहित्यकारों, चित्रकारों, थिएटर और बौद्धिकों का समाज था, जिनके लिए सौंदर्य... प्रकृति... और स्त्रियाँ खास मायने रखती थीं।

मानसी में बचपना था, चंचलता थी... वाक् चातुर्य था। वह यहाँ सोमेश के लिए नहीं परिस्थितियों के कारण आई थी, इसलिए घर से ज्यादा वह बाहर रहना चाहती थी। उसकी प्रकृति स्वाधीन रहने की थी। वहाँ भी उसके किस्से चला करते थे। लड़कों के पत्रों का आना... उन्हें मजे लेकर पढ़ना-पढ़ाना... उन्हें बेवकूफ बनाना, छुपकर फिल्में देखना... नरेंद्र सर के साथ घूमना और हर उस बात को, हर उस बंधन को नकारना-तोड़ना, जो उसके जीवन में उसके खिलाफ जाता था।

'तुम नाटकों में भाग क्यों नहीं लेती?'

'तुम्हें तो मॉडलिंग करना चाहिए।' कोई दूसरा कहता।

एक युवा आकर्षक महिला को इस शहर ने हाथोंहाथ लेना चाहा था, बस उसे आगे बढ़कर पहल करने की जरूरत थी।

'मैं और नाटक...?' वह हँसती।

'देखो, अपना चेहरा देखो। अपनी खूबसूरती देखो, यह छुपाने की चीज नहीं है। तुम्हारी आँखों में गजब का आकर्षण है। जादू है...। तुम्हारी आँखें आमंत्रित करती हुई आँखें हैं। हाँ... बुरा मत मानना, पर तुम्हें कपड़े पहनने का तमीज नहीं है, जो सिखा दिया जाएगा।' कहकर एक लंबी खिलखिलाहट के साथ... गहरा कश खींचा संजना ने सिगरेट का।

'क्या आप सिगरेट सबके सामने पी सकती हैं? हमारे यहाँ की महिलाएँ तो बीड़ी पीती हैं। हमने भी एक बार बीड़ी पी थी, तो अम्मा ने जमकर चाँटा मार दिया था।'

'हाँ, क्यों नहीं। शराब... सिगरेट क्या मर्दों की बपौती है। क्या बुराई है। मानसी को लगा यह जीवन तो उसने देखा ही न था... इतना उन्मुक्त... इतना सहज.. इतना निश्चिंत। फिर तो मानसी की बैठक संजना के घर में जमने लगी। जहाँ शहर और शहर के बाहर के लोग इकट्ठे होते, उनमें देर रात तक गप्पें चलतीं, बहसें होतीं। नए विषयों पर। नए आइडियाज बनाए जाते। दोस्तियाँ और गहरी और प्रगाढ़ होती गईं। संबंधों में ऊष्मा पैदा होती गई और जीवन की धारा निर्द्वंद्व बहने लगी। मानसी के लिए ये नया जीवन, नया काम, नए दोस्त और उनका अपनापन भीतर से ताकत देने वाला साबित हुआ। कभी-कभी वह उन सबको अपने घर बुलाती पर... घर पर उसे हीनताबोध घेर लेता। छोटा-सा घर, छोटी-सी बैठक...। उसने आनन-फानन में एप्लीकेशन दी और उसके दोस्त समाज ने उसके लिए गवर्नमेंट क्वार्टर एलॉट करवा दिया। सोमेश के लिए नया क्वार्टर इस मायने में फायदेमंद था कि उसका किराया बचने वाला था। उसकी छोटी-सी आमदनी में इतनी बचत काफी मायने रखती थी। मानसी अपनी मर्जी की मालिक थी। वर्षों की दबी-छुपी इच्छा ने पंख पसार लिए। क्वार्टर में नए सोफे... नया पलंग... कलात्मक अलमारियाँ... नए परदे... नई क्रॉकरी आ गई! सब कुछ शानदार। सुंदर। उसकी तरह आकर्षक।

अब बड़े-बड़े लोगों को बुलाने में उसे शर्म महसूस नहीं होती थी। संजना के घर के अलावा मानसी के घर में कविताओं, गजलों, नाटकों और विमर्शों का दौर चलता...। शराब, सिगरेट और ड्रिंक्स बेहिचक पिए जाते...। मजे की बात यह है कि उन सबके बीच उसकी बच्ची खिलौना बन गई थी, सबका प्यार उसे... मिल रहा था। इतनी हलचल, इतनी उन्मुक्तता के बावजूद इन सबके बीच मानसी का आन्तरिक जीवन बड़ी धीमी गति से चल रहा था। रोमांचित होने... उत्तेजित होने... और सपने देखने का उसके पास आज भी कोई बड़ा फलक नहीं था। शादीशुदा होने का ठप्पा उस पर लगा हुआ था। हालाँकि उस शादी को न वह मानती थी और न ही महत्व देती थी, सो वह बिंदास जीवन की राहों पर महिला मित्रों के साथ-साथ, पुरुष मित्रों के साथ दौड़ रही थी। मानसी को एक बात गहरे तक छू गई कि वह जहाँ भी जाती वहाँ उसके सौंदर्य की चर्चा होती, इसलिए उसने जाना, माना और महसूस किया... कि... वह बेशकीमती, बेइंतिहा खूबसूरत देह की धारिणी है।

साथ की महिलाएँ उसको लेकर अक्सर चर्चा करती रहतीं - 'बिंदास है... अपने काम निकलवाने और करवाने की कला जानती है! हमेशा मस्ती करती रहती है। हँसेगी मुस्कराएगी क्यों नहीं? आप त्याग दो सारी चीजों को, मिडिल क्लास मानसिकता को, सबकी परवाह करना बंद कर दो। खुलकर मर्दों से दोस्ती करो, उनके साथ उठो-बैठो, इतनी हिम्मत है हम सबमें? आपके जीवन में भी वैसी ही मस्ती आ जाएगी। यहाँ तो सपने तक में मियाँ दिखता है... दूसरे मर्द की तो बात अलग... वह तो... सरेआम सैकड़ों मर्दों को अपने इशारे पर नचाती हैं और मर्द नाचते हैं...। भई हमें तो उसका यह अंदाज पसंद है। कोई तो है जो अपनी शर्तों पर जीता है।'

'सुना है उसके कई लोगों से संबंध हैं... पति को पूछती नहीं है।'

'भई, अपना-अपना नजरिया है। किसी की पर्सनल लाइफ में नहीं झाँकना चाहिए।'

सचमुच ही मानसी के बारे में इस तरह की बातें हमेशा चर्चा में रहतीं। मानसी की माया और कामना बढ़ती जा रही थी। उसके लिए बड़ी उम्र के सौंदर्यप्रेमी पुरुष कुत्ते की तरह थे, जिनका वह भरपूर मजाक उड़ाती। उसको हमउम्र, खूबसूरत, पैसेवाले, समृद्ध लोग ही पसंद आते थे... बल्कि ऐसे ही लोग उस पर जान न्यौछावर करते थे। सोमेश सुबह से जाता और रात नौ बजे तक लौटता। उसके आने तक यार-दोस्तों की महफिल सज जाती।

'उसको भी बिठाया करो, बेचारा अकेला घूमता रहता है बच्चे की तरह।'

'बच्चा ही तो है, आज्ञाकारी, संस्कारवान बच्चा... वो इस लायक नहीं है कि हमारी बातें समझे...।' वह मजाक उड़ाती हुई कहती।

सोमेश अपने कमरे में छुप जाता कोई बहाना बनाकर। चश्मे के भीतर से झाँकती उसकी आँखें आँसुओं में डूबी होती। वो ऐसा बेबस बदनसीब पति था जो मानसी की शर्तों से बँधा था। वह जानता था कि जिस दिन उसने मानसी के किसी काम में, किसी बात में दखलअंदाजी की, तो वह दो टूक जवाब दे देगी या बहुत संभव है कि उसे जलील करके घर से ही निकाल दे।

इधर मानसी की गतिविधियाँ लगातार बढ़ती जा रही थीं। नाटक और अन्य कार्यक्रमों में लगातार शिरकत। कभी-कभी तो वह रिहर्सल से या दोस्तों के बीच से रात बारह एक बजे तक लौटती। शराब के नशे में... सिगरेट पीती ठहाके लगाती। कभी कोई दोस्त छोड़ने आता तो वहीं बैठक में पड़ा सो जाता। ऐसे मामलों में उसकी उदारता बढ़ती जा रही थी। एक अच्छे इनसान और दोस्त के रूप में वह अपनी पहचान बना रही थी।

'अपनी मैडम से कहो कि समय पर घर आया करें... बच्ची का तो ख्याल करें।' सोमेश पिछले महीनों की भड़ास निकाल रहा था - 'मैं कुछ बोलता नहीं हूँ तो इसका मतलब ये नहीं है कि मैं बेवकूफ हूँ।'

दूसरी सुबह वह सोमेश के सामने फट पड़ी - 'जो बात कहनी है सीधे मुझसे कहा करो नौकरानी से नहीं। मुझसे बात करते हुए क्या डर लगता है या...।'

सोमेश खून का घूँट पीकर रह गया - 'मैं केवल निकिता की बात कर रहा था। उसके बारे में सोचना चाहिए। क्या असर पड़ेगा उस पर इन बातों का?'

'निकिता को पालने वाली आया है, उसके लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है। मैं समझती हूँ कि उसके लिए अच्छा-बुरा क्या है।'

चूँकि सोमेश और मानसी दोनों ही मध्यवर्गीय परिवार से आए थे, इसलिए उनके भीतर अपनी-अपनी कुंठाएँ तो थी हीं। उनसे बाहर निकलने की छटपटाहट भी थी। मानसी ने उस कुंठा के खोल को उतार फेंका था और वह अपर क्लास में शामिल होने, उनके बीच उठने-बैठने के लिए स्वयं को ऐसी विशिष्टता प्रदान करना चाहती थी जिससे लोग उसके इर्दगिर्द मँडराएँ।... उसे अपने समाज में शामिल करें। सम्मान दें। उसकी महत्वाकांक्षाओं को बढ़ने दें।

वह तरह-तरह के काम करती। मसलन, कुछ कच्ची सी कविताएँ लिखती... कार्यक्रमों का संचालन करती, किसी पत्रिका के अंक का संपादन करती, कुछ नहीं तो बड़े-बड़े कलाकारों का इंटरव्यू ले डालती। वह हर काम से, रिश्ते से अपने लिए ऐसी मजबूत दीवार बना लेना चाहती थी, जिसको कोई भी गिरा न सके। नारी सुलभ चंचलता उसके स्वभाव में थी... जिससे सारे लोग सम्मोहित रहते। उसके स्वभाव की नरमाई और सहजता सबका मन मोह लेती।

एक दिन सोमेश ने देखा कि मानसी ने अपने लंबे बाल कटवा लिए हैं। उसकी प्यारी-सी चोटी काटी जा चुकी थी। दरअसल, उसने बाल नहीं कटवाए थे, बालों के बहाने उन बंधनों को काट डाला था जो उसे बचपन से बाँधे हुए थे। हर कदम पर उसको हर एक चीज से चिढ़ थी, जो उसके लिए दबाव का काम करती थी। वह जानती थी कि सोमेश उसके बालों को पसंद करता है। यह पसंद उसे तब अखरने लगी थी जब सोमेश उसे एक निहायत ही घरेलू कामकाजी पत्नी के रूप में देखने लगा था और उसके सौंदर्य के प्रतिमानों में चूड़ियाँ, बिंदी, बिछिया के साथ लंबे बाल भी थे।

'यह क्या किया तुमने... अम्मा-बाबूजी देखेंगे तो क्या कहेंगे, कितना नाराज होगें।' सोमेश अपनी बात अम्मा-बाबूजी के नाम से कहा करता था।

'अम्मा-बाबूजी नाराज होंगे या तुम्हें बुरा लग रहा है...।'

'तुम्हारे बाल इतने लंबे थे...।' कहते हुए सोमेश की आवाज लड़खड़ाने लगी। बाल उसके कटे थे और दुखी सोमेश हो रहा था...। सोमेश को किसी जमाने की उसकी दो चोटियाँ याद आ रही थीं...।

बात बालों तक रहती तब भी सोमेश शांत रहता, अब तो उसका पहनावा भी बदलता जा रहा था... साड़ी तो लगभग उसने त्याग ही दी थी। कभी-कभार पहनती थी वह... हाँ घर में वह स्लीवलैस कुर्ता, टीशर्ट या हाफपेंट पहनने लगी थी और बाहर जींस और टॉप। सोमेश के लिए यह एक और सदमा था। वह लड़की को समझाता। उसको ऐसी पोशाकें पहनने के लिए मना करवाता।

'मम्मी, आपकी खुली टाँगें अच्छी नहीं लगतीं।' एक बार निकिता ने टोक दिया।

'तू मुझे सिखाएगी कि मुझ पर क्या अच्छा लगता है क्या बुरा...। तू खुद बोल रही है... या तेरा बाप बुलवा रहा है?'

निकिता सहम गई।... एक बार सोमेश ने एक और गलती कर दी... उसकी छोटी-सी टीशर्ट, जिसमें पूरी देह चिपक जाती थी, उसे छुपाकर रख दी... बस फिर क्या था मानसी ने हंगामा मचा दिया - 'इस आदमी का मेरे कपड़े पहनने पर एतराज है। दुनिया कहाँ से कहाँ जा रही है और ये आदमी उसी दकियानूसी मानसिकता में जी रहा है। इतनी घटिया और ओछी मानसिकता... छि... छि...।'

सोमेश को काटो तो खून नहीं...। टॉप इतना छोटा था कि... लोग हँसी उड़ाते... शरारत भरी निगाहों से देखते, उसको लगता जैसे तमाम लोग उसके मर्दानेपन पर अँगुली उठाने लगे हो।

'मुझे शर्म आती है... तुम कोई बॉलीबुड की हीरोइन नहीं हो कि इस तरह के कपड़े पहनो।' सोमेश ने हिम्मत करते कहा।

'शर्म तुम्हें आती होगी मुझे नहीं और यही सब फिल्मों में देखते हो तब... दूसरे की औरतें यही ड्रेस पहनें तो खुश होते हो।' वह तुनककर बोली। सोमेश को छीलने में उसे आनंद आता था।

'कुछ तो शालीनता होनी चाहिए। निकिता बड़ी हो रही है। घर में हर समय लोगों का आना-जाना... पड़े रहना... शराब पीना... धमा-चौकड़ी मचाना... मुझे कई बार नीचे वालों ने टोका है। मुझे अपनी बेटी की चिंता है।'

'तो तुम्हें कहना चाहिए था कि मुझसे बात करें। कालोनी वाले कौन होते हैं हमारी जिंदगी में दखल देने वाले। वे लोग फालतू के काम कहते रहते हैं। मैंने तो कभी कुछ नहीं कहा। बताओ कौन कह रहा था मैं बात करती हूँ।'

'कोई नियम-कायदा होता है या नहीं!'

'तो तुम निभाओ।' वह सोमेश पर चीख रही थी - 'तुमने मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी है तुमने...। याद करो शादी के वे साल जब तुम मेरे पीछे पड़े रहते थे। हर बात में टोका-टाकी करते थे... गालियाँ देते थे... मुझे पढ़ने नहीं दिया था... अपने भाई की तरह तुम्हें एक बेवकूफ पाँचवीं पास गोरी चिट्टी लड़की चाहिए थी...। मेरी सोच का दायरा क्या है, मेरा पहनावा... मेरे बाल मेरी जिंदगी। इससे आगे तुम्हें सोचना ही नहीं है, तुम केंचुए हो, तुम्हें खाने-पीने और सेक्स से मतलब है, जो तुम्हें मुझसे नहीं मिलता... मैं ऐसे आदमी से प्यार नहीं कर सकती... नहीं रह सकती जिसकी कोई सोच ही न हो। और...'

'मैंने कहा था... मेरी जिंदगी में दखलंदाजी मत करना।'

मानसी चीखती-चिल्लाती घर से निकल जाती... और जब लौटकर आती तो सोमेश घर से जा चुका होता या अपना कमरा बंद करके सोने का बहाना बना लेता। उसकी छाती धू-धू करके जलती रहती...। अपनी छोटी-सी प्राइवेट कंपनी की नौकरी में उससे जो बन पड़ता था वह करने की कोशिश करता...। उसने तो आँख खोलते ही घर की स्त्रियों को घर सँभालते, बच्चों को पढ़ाते... पतियों की सेवा करते हुए ही देखा था...। वे स्त्रियाँ कभी भी अपने पतियों की, भाइयों की, पिताओं की, खिलाफत नहीं करती थीं। न खाने में, न पहनने में, न जीने में कोई इच्छा-अनिच्छा जाहिर करती थीं। यहाँ तक कि सेक्स के मामले में भी उनकी अपनी कोई इच्छा-अनिच्छा न होती थी। लेकिन उसकी पत्नी - जो वह स्वयं को नहीं मानती थी - वह तो हर बात की खिलाफत करती है और उसे सबसे ज्यादा दुख इसी बात का होता कि... वह अपनी आँखों के सामने सब कुछ होते हुए देखकर भी विरोध नहीं कर पाता था। विरोध करता भी तो नपुसंक सा विरोध, जिसमें उसकी आवाज तक सही ढंग से नहीं उठती थी... उस मायने में वह घर का सबसे सभ्य पुरुष था जिसने कभी अपनी पत्नी को गालियाँ नहीं दीं और न ही 'मरखू गाय' को रस्से से बाँधकर रखा, हाथ उठाना तो दूर की बात थी।

दिन-ब-दिन चर्चा में आती मानसी अब सफलता और सौंदर्य की पर्याय बन चुकी थी। उसके आत्मीय दोस्तों का - कहना चाहिए प्रेमियों का - एक सुंदर संसार था... जिनके बीच उसका कॅरियर, उसकी कामयाबी महफूज थी पर... एक भूख... एक अधूरापन... एक अभीप्सा उसके भीतर लगातार फैलती जा रही थी। हर रोज अपने पति की बाँहों में होने की कशिश... उसी की तरह खुला... बिंदास आदमी... जो उसके भीतर के स्त्रीत्व को प्यार दे सके... उसके भीतर उठती उत्ताल लहरों को पी सके। जो बातें उसके लिए सामान्य थी वही बातें उसके माता-पिता के लिए अपयश की प्रतीक थीं। उसकी तथाकथित हरकतों से माता-पिता बेहद नाराज थे। उसके नाते-संबंधों और दोस्तियों की खबर नरेंद्र सर को भी थी, पर उनकी सोच बड़ी थी, दिल बड़ा था। वह इतना स्पेस देते थे... कि चिड़िया आकाश में मनचाही उड़ान भर सके, उनका मानना था कि जितना उपयोग वे मानसी का कर सकते थे, कर लिया है, अब वह अपना जीवन जीने के लिए स्वतंत्र है। मानसी को अब इन सबकी परवाह भी नहीं थी... उसे अपने अंदाजे-बयाँ और अंदाजे-जुनून में मजा आने लगा था। अपनी भाभियों, चाचियों और माँ की तरह वह एकरस एक ही स्थान पर बँधे सुबह-शाम खाना बनाते-खिलाते... टी.वी. देखते... डाँट खाते... पतियों के सामने हर बात के लिए गिड़गिड़ाते... लपलपाते जीवन नहीं जीना चाहती थी।

उसका बाहर जाना... शो करना... और घूमना सोमेश को भीतर ही भीतर खाक किए दे रहा था। वह देख रही थी... समझ रही थी और मौके का इंतजार कर रही थी कि सोमेश को कब छेड़ा जाए...।

'तुम्हें कुछ पूछना नहीं है?'

वह खामोश।

'नहीं पूछना कि मैं कहाँ आती-जाती हूँ।'

वह खामोश।

'तुम्हें अपने जीवन में कभी भी कोई भी चीज पाने की आकांक्षा नहीं होती है?'

वह खामोश।

दरअसल, मानसी जानना चाहती थी कि उसे उसके नए प्रेम संबंध की जानकारी है या नहीं। जिस आदमी के साथ इन दिनों मानसी का प्रेम चल रहा था वह काफी अच्छी पोस्ट पर था। भरपूर पैसा था उसके पास। उसका रुतबा था। उसने अपनी पत्नी को तलाक दे दिया था और वह दोस्ती करने और संबंध बनाने की कला में माहिर था। उन दोनों का यह संबंध कुछ-कुछ स्थायित्व की शक्ल अख्तियार कर रहा था।

'पापा, आप शादी क्यों नहीं कर लेते मानसी आंटी से?' एक दिन उसके बेटे ने मजाक में पूछ लिया।

'तुम्हें और तुम्हारी माँ को बुरा तो नहीं लगेगा?'

'नहीं, वह अपनी दुनिया में खुश है।'

'अच्छा सोचते हैं... तुमको मानसी कैसी लगती है?'

'बहुत अच्छी।'

उन दोनों के लिए यही मौका था जब वे कोई निर्णय ले सकते थे!

मानसी भी शादी करना चाहती थी पर... सोमेश... उसका क्या किया जाए। यूँ तो पिछले बारह-तेरह वर्षों से वे अलग ही थे। दैहिक-आत्मिक संबंधों से अलग। सोमेश इन दिनों एकदम चुप रहता था... उसके मुँह से एक शब्द न निकलता... उसकी चुप्पी ने सन्नाटे का रूप ले लिया था। जबकि मानसी चाहती थी कि वह कुछ बोले। विरोध करे। उससे छुटकारा पाने का रास्ता उसे नहीं सूझ रहा था। बिना तलाक लिए दूसरा विवाह नाजायज होता। एक दिन उसने सारे दोस्तों की पार्टी रखी, जिसमें देर रात तक हंगामा चलता रहा, खाना-पीना... नाच-गाना... चुटकुले... ठहाके। सोमेश उस रात बाहर से ही लौटकर चला गया। उसके भीतर का मर्द पूरी तरह पराजित हो चुका था...। अतीत की छाया उसके भीतर पसरी थी। मानसी की जिंदगी उसको घुन की तरह खाए जा रही थी।

दूसरे दिन एक दोस्त शराब पीकर रात भर बड़बड़ाता रहा... उस रात भी सोमेश नाइट ड्यूटी पर चला गया। सवाल-जवाब... विरोध-झगड़ा... सब बेअसर हो गए।

लेकिन... तीसरी रात...। उस रात वह अपनी भावनाओं पर... अपने गुस्से पर काबू न रख सका। एक कोमल जीव उसके भीतर भी साँस ले रहा था। थका-हारा वह आया था...। उसने देखा कमरे में उसका होने वाला पति सिगरेट पी रहा है यानी उसका कमरा भी अब उसके लिए न बचा था।

'यह सब क्या है?'

'क्या है? क्या मेहमानों को एक रात घर में नहीं रुकवा सकते हैं?'

'घर में या बेडरूम में?'

'तुम कहना क्या चाहते हो?'

'जो देख रहा हूँ। यह सब मेरे घर में नहीं चलेगा।'

'सुनो मिस्टर..., पहले तो यह जान लो कि यह घर तुम्हारा नहीं मेरा है। मैं अपने घर में अपने दोस्तों को रुकवाऊँगी। तुम्हें पसंद नहीं है तो इसकी मुझे परवाह नहीं। मैं अपना पैसा खर्च करती हूँ।'

'पैसे की बात कहाँ से आ गई।'

'पैसे की बात है...। तुम कुंठित व्यक्ति हो। कंजूस हो। किसी को चाय नहीं पिला सकते। तुम चार लोगों के बीच बैठ नहीं सकते। बात नहीं कर सकते। तुमने मेरी किसी बात में कोई रुचि नहीं ली, न तुम्हें खुशी हुई है। कुढ़-कुढ़ कर तुम्हारा दिमाग कुंद हो गया है। मुझे मालूम है कि तुम मेरी चुगली भइया-भाभी से करते हो, अम्मा-बाबूजी से करते हो। करो... खूब करो।'

'तो क्या मुँह सिलकर बैठ जाऊँ। लोग हँसते हैं।'

'हँसने दो।'

'तुम्हें पति की नहीं, पैसों की भूख है।'

'हाँ है... क्यों न हो! अच्छी जिंदगी कौन नहीं जीना चाहता है।'

'इस कीमत पर।'

'किस कीमत पर? मैं अपना कमाती हूँ।'

'तो कुछ भी करो।'

'बकवास बंद करो। मैंने यहाँ आने के पहले ही कह दिया था कि मेरे मामलों में नहीं बोलेगे। क्या तुम्हें मेरी शर्तें याद नहीं हैं?'

'बोलूँगा...। दस बार बोलूँगा।' आज सोमेश भी चिल्ला रहा था।

'अच्छा...!' मानसी उसे उकसाते हुए बोली।

मानसी ने पाँव पसारे और सामने बैठ गई। उसकी पतली गोरी सुंदर टाँगें पलंग पर पसरी थीं और हाथ हवा में लहरा रहा था - 'तुमने मेरा जीवन बर्बाद कर दिया है। जीवन के बारह साल...। बारह साल कुछ होते हैं। अपनी जिद से शादी करके क्या साबित करना चाहते थे...। तुम किसलिए चिपके हो मुझसे। मेरी जिंदगी से! हमारे बीच कुछ भी एक जैसा नहीं है। हमारी शादी एक धोखा थी...'

'तो अब क्या चाहती हो...?'

'छुटकारा! तुमसे मुक्ति! मैं अलग रहना चाहती हूँ।'

'ताकि किसी तरह की रोक-टोक न रहे।'

'रोक-टोक करने वाले तुम कौन होते हो?'

'पति!'

'पति!' मानसी ने पाँव मोड़े। हाथों को आपस में मिलाया। क्षणो तक सोमेश को देखती रही दुबला-पतला। सीधा-सादा सा दिखने वाला... यह आदमी कितना घुन्ना है... यानी उसका पति... पति... पति... मानसी उठी। अलमारी खोली। अलमारी में से कपड़े निकाले... उनको लपेटा और एयर बैग में ठूँसकर... उसको बाहर फेंकते हुए चिल्लाई - 'दरवाजा खुला है... निकल जाओ। यह घर मेरा है। मेरा। समझे। याद करो शादी के बाद किसी बात पर तुमने मुझे थप्पड़ मारा था... मारा था न... क्या मुझे वो थप्पड़ खाना चाहिए था... मैंने तुमसे कहा था न कि जब तक जिस दिन तक तुम मेरी जिंदगी में दखलअंदाजी नहीं करोगे तब तक इस घर में रह सकोगे।'

सोमेश हक्का-बक्का सा उसका चेहरा देखता रह गया। ...मानसी की आँखों में, उसकी देह में, उसकी बातों में सोमेश के लिए वितृष्णा थी।

'अब इस वक्त मैं कहाँ जाऊँगा? यह तुम ठीक नहीं कर रही हो...।'

'कहीं भी मेरी बला से... मैं तुम्हारी शक्ल नहीं देखना चाहती हूँ। तुम्हारी शक्ल देखकर मेरे दिमाग की नसें फटने लगती हैं।'

सोमेश को लगा आसमान का कोई टुकड़ा धड़ाम से उसके ऊपर गिर पड़ा हो। कशमशाकर रह गया। उसका मन, उसकी आत्मा, उसका हृदय इस अपमान पर फटा पड़ रहा था। सँभलने और सोचने का समय भी उसके पास नहीं था। एक छोटा-सा एयरबैग बाहर पड़ा था... उसके संबंधों की परिणति... यही एयरबैग था।

बाहर रोशनियों से सड़क जगमगा रही थी, लेकिन उसके भीतर उतना ही सघन अंधकार फैला था। गहरा दर्द से धुनकता अँधेरा। अपनी ही आहों-कराहों से भींगता अँधेरा। हाथ में बैग लिए वह पैदल चल रहा था। उसे अब भी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर उसने कौन-सी प्रतिज्ञा भंग की थी जिसकी सजा उसे मानसी ने इस तरह दी है।

मानसी तो शुरू से ही ऐसी ही थी। वह बचपन से मानसी के पीछे भागता आ रहा था और मानसी उसको हर बार पीछे छोड़कर भाग जाती थी...। उसको लगता था कि शादी के बाद मानसी को वह बाँध लेगा, कंट्रोल कर लेगा, पर इस बार मानसी फिर उससे आगे निकल गई...। उसे अब भी विश्वास नहीं हो रहा था कि मानसी उसकी सोच से ज्यादा ताकतवर हो गई है। उसे लगता रहा था कि रोजमर्रा की लड़ाइयाँ एक दिन थम जाएँगी, उसका भी वैवाहिक जीवन नॉर्मल हो जाएगा, पर... वह...।

रात भर वह सोफे पर पसरी रही थी। उसका सिर भारी हो रहा था।... रोई तो वह भी थी। सुबह होते ही उसने गाड़ी उठाई और चल दी अपनी सहेली के यहाँ। वह अपना मन हल्का करना चाहती थी!

'क्या हुआ? इतनी सुबह... तबियत तो ठीक है...।'

'आज मैंने फैसला ले लिया है।'

'किस बात का?'

'सोमेश से तलाक लेने का।'

'तलाक! क्यों! उस मूक प्राणी ने क्या बिगाड़ा तुम्हारा? बेचारा कुछ भी तो नहीं कहता।'

'उसका चेहरा देखते ही मेरा सिर घूमने लगता है। हर बात की चुगली करता है। रात में झगड़ा इतना बढ़ गया कि मैंने कह दिया मेरे घर से निकलो।'

'और वह निकल गया।'

'नहीं निकलता तो धक्का मारकर निकाल देती। मैं अपनी पसंद से जीवन जीना चाहती हूँ। मुझे भी अपनी पसंद का पति चाहिए।'

'मिल गया क्या?'

'हाँ... पहले इससे तलाक लूँगी... फिर शादी करूँगी।'

'यह अंतिम फैसला है? सोच लो...।'

'एकदम अंतिम। सोच लिया।'

'पहले चाय पिओ फिर आराम से बात करना।'

'हाँ आँ... सिर की नसें चटक रही हैं... अभी तो निकिता को बताना होगा। क्या पता वह उसके साथ रहने की जिद न करने लगे, जबकि पलाश का बेटा... पलाश से जिद कर रहा था कि पापा शादी कर लो। साला अपना पेट तो ठीक से भर नहीं पाता - निकिता को क्या खिलाएगा... कैसे पढ़ाएगा? दस साल से उसी एक कंपनी में अटका पड़ा है। उसकी सोच... सोच कितनी घटिया है वो भी आज के जमाने में। बात-बात पर उसका मुँह फूला रहता। घुन्ना कहीं का। पूरा विरोध उसका इस बात में रहता है कि मैं क्या पहनती हूँ, क्या खाती हूँ... किससे बात करती हूँ, कहाँ जाती हूँ...। कोई और सोच है ही नहीं उसके पास।'

वर्षा जानती थी कि मानसी का गुस्सा शांत होने में वक्त लगेगा...। वह वर्षों की लड़ाई को एक दिन में कैसे खत्म कर सकती है...।

घर पहुँची तो देखा सामने अम्मा-बाबूजी और नरेंद्र सर बैठे हैं। यानी सोमेश सीधा इन्हीं लोगों के पास गया था।

'शादी-ब्याह क्या गुड़ियों का खेल है। फैसला लेने के पहले किसी से सलाह लेनी थी?' बाबूजी चिल्ला रहे थे।

'सलाह किस बात की? क्या आप लोगों को मुझसे सलाह नहीं लेनी थी? आपने कभी पूछा कि मैं उसके साथ खुश हूँ या नहीं?'

'खुशी की परिभाषा क्या होती है? तुम्हें कभी खुशी नहीं मिल सकती... इस तरह तो।'

'पतियों को देखा नहीं है कि वे कैसे रखते हैं पत्नियों को?'

'तो क्या मैं उसके अंडर में रहूँ? उसकी घटिया बातें मानूँ।'

'तुम्हारी वेशभूषा... तुम्हारी दोस्तियाँ... तुम्हारे जायज-नाजायज संबंध... क्या कभी कुछ कहा उसने? इतना सीधा लड़का... तभी तो तू... सिर पर चढ़ गई...' फिर उन्होंने अपना अंतिम अस्त्र फेंकते हुए कहा इससे तो अच्छा था कि, तू होते ही मर जाती...। पैसे और प्रसिद्धि की भूख ने तुझे इतना गिरा दिया कि, हमारे साथ तेरा कोई संबंध नहीं रहा...। कर तू दूसरी, तीसरी... चौथी शादी। इस खानदान में तलाक होना भी लिखा था! हे राम! किसने तुम्हारी मति भ्रष्ट कर दी?' अम्मा रोते-रोते अनवरत बोले जा रही थीं। उनकी आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा था। रोते-रोते गला रुंध गया था। इस लड़की ने उन्हें और उनके खानदान को कहीं का नहीं छोड़ा था... उनकी हर बात का यही निष्कर्ष था...। वह उन तीनों की बातें चुपचाप सुनती रही... उसे अब कोई सफाई नहीं देनी थी, न अपने लिए खानदान का ठप्पा चाहिए था उसे... पर उसकी 'चुप' को वे बेशर्मी समझ रहे थे।।'

वे तीनों जिस तरह से आए थे, उसी तरह से चले भी गए। उसने न उन्हें रोका, न मनाया... वह नहीं समझा सकती थी कि देह की दुनिया के आगे एक और दुनिया होती है, जो जीने का सबब बनती है और जिसकी सत्ता किसी को गुलाम नहीं बना सकती...।