एक और फल / जयप्रकाश मानस

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

स्कूटर पर लौटते हुए थैले से झाँकता आमों का पैकेट चौराहे पर गिर गया। वहीं, वहीं—जहाँ से मुड़ना था। जहाँ हर स्कूटर अपनी जगह जकड़े हुए था, हर कार का हॉर्न हवा को काट रहा था और पैदल चलते लोगों की नज़रें सिर्फ़ सिग्नल के लाल-हरे पर टँगी थीं। रुकना असंभव था। भीड़ और हॉर्नों के बीच मन ने कहा: "अब ये आम नहीं, सड़क का हिस्सा हों चुके होंगे।"

किनारे लगाकर जब पलटा, तो एक महिला मेरे पास खड़ी थी—हाथ में वही पैकेट, उसके आम बिलकुल सही। "लीजिए," उसने कहा, "फल गिरते ही नहीं, उठाए भी जाते हैं।"

मैंने पूछा: "आपने इतनी जल्दी स्कूटर रोककर इन्हें कैसे बचा लिया?"

वह मुस्कुराई: जहाँ गाड़ी नहीं रुकती, वहाँ इंसान रुक जाता है। काँटों को देखकर रुक जाएँ, तो फूलों के हाथ किसके पास जाएँगे? "

आमों का पैकेट अब भारी लग रहा था। शायद इसलिए कि उसमें एक और फल समा गया था—वह सवाल जो मैं बाज़ार से लाना भूल गया था।

-0-