एक और महाभारत / गिरिराजशरण अग्रवाल

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अब तक कितने स्टेशन बीत गए थे, उसे पता नहीं चला। बस जगह-जगह रुकती थी, सवारियाँ चढ़ती थीं, उतरती थीं, कितु वह सबसे अनजान मानो अपनी तंद्रा में लीन बीते दिनों की स्मृतियाँ समेटता हुआ, घटनाओं के विभिन्न सूत्र जोड़ता जा रहा था। आगे जा रही किसी गाड़ी या ताँगे को पीछे छोड़ने अथवा पीछे से आते किसी वाहन को जगह देने के लिए जब ड्राइवर बस का पहिया सड़क से नीचे उतारता था, अथवा अचानक सामने दौड़कर सड़क पार करते किसी जानवर से बचने के लिए तेजी से ब्रेक लगाता था, तभी यह अहसास दोहराया जाता था कि वह बस में बैठा है, अन्यथा उसका शरीर ही बस में था, मन तो कही दूर अपने घर के आसपास भटक रहा था-उस घर के आस-पास, जिसे एक सप्ताह पूर्व क्रोध और ग्लानि के आवेश में वह ऐसे छोड़ आया था, जैसे अब उस घर से उसका कोई सम्बंध नहीं है, वहाँ रहने वालां से उसका कोई रिश्ता नहीं है। उस क्षण उसे लगा कि सब पराए हो गए हैं, उसकी परिधि से बाहर की अनावश्यक वस्तुएँ मात्र।

वह प्रायः घर से बाहर रहता है। कई-कई दिन तक घर आना नहीं होता। उसकी नौकरी ही ऐसी है। जंगल के ठेकेदार का आपि़्ाफ़स उसे ही चलाना पड़ता है। अधिकांश रातें जंगल में बीतती हैं। कितु सप्ताह में एक बार या कभी-कभी दो सप्ताह बाद अपने घर आ जाता है और एक रात से अधिक वहाँ ठहर ही नहीं पाता। जब भी जाता है तो निरंतर घर और बच्चे याद आते हैं और मन करता है कि किसी प्रकार उड़कर अपनी मंजिल पर पहुँच जाए-सबसे मिलने के लिए. कितु आज वह अजीब-सा उत्पीड़न महसूस कर रहा है। घर पहुँचने की इच्छा आज भी बहुत तेज है, कितु लग रहा है कि उसके पैरों में बड़े-बड़े पत्थर बँध गए हैं और वह चल ही नहीं पा रहा है। पता नहीं घर पर क्या स्थिति होगी? कल दीवाली है। उसका मन पश्चात्ताप की ऐसी आग में जल रहा है, जो शायद बुझाने पर भी न बुझ सकेगी। उसने शीला को कितना दुःख दिया है! क्या वह कभी उसे माफ़ कर पाएगी, क्या वह उसे पहले की तरह स्वीकार कर सकेगी?

उसका मन-पाखी उड़ता रहा। उसे याद आई वह मनहूस सुबह, जब वह जुए में एक बड़ी राशि हारकर घर पहुँचा था। उस हार और रात-भर के जागरण ने उसका दिमाग़ लगभग ख़राब कर दिया था। अपनी जेब के पाँच सौ रुपयों के साथ-साथ वह साथियों से उधार लेकर भी चार सौ रुपये हार चुका था। जागने के कारण थकी लाल-लाल आँखें लिए जैसे ही वह घर के अंदर घुसा, वैसे ही शीला ने नाराजी-भरे स्वर में सवाल उछाल दिया, 'कहाँ रहे रात भर?'

वह इस सवाल के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था अतः झुँझलाता हुआ बोला, 'कहीं भी रहा, तुम्हें क्या मतलब? क्या तुम्हारे हर सवाल का जवाब देना ज़रूरी है? यह तो पूछा नहीं कि एक कप चाय भी पिओगे या नहीं, आते ही सवाल-जवाब शुरू कर दिए. जाओ और अपना काम करो। मुझे जोर की नींद आ रही है।'

शीला बड़बड़ती रही। पता नहीं क्या कहा उसने! वह जाकर बिस्तर पर लेटा और जब उठा तो दोपहर चढ़ आई थी। हड़बड़ाकर उसने बिस्तर छोड़ा। अभी कल का उधार चुकाना था। अभी तो शीला को भी यह नहीं बताया था कि महीने का पूरा वेतन जुए की भेंट हो चुका है और उधार ऊपर से चढ़ गया है।

उसके पैर दोस्तों के बीच जाने के लिए फिर से व्याकुल होने लगे। खुजलाते हाथ बार-बार पत्ते थामने के लिए ऐसे व्यग्र हो रहे थे, जैसे सारे संसार की संपत्ति उसकी अंजुरियों में आकर एकत्र हो जाएगी।

लेकिन जुआ पैसे के बिना हो नहीं सकता और जब तक पिछला नहीं चुकाया जाएगा, नया उधार मिलने की कोई संभावना दिखाई नहीं देती। कोई-न-कोई उपाय तो करना ही होगा। 'हाँ, एक उपाय हो सकता है' , उसने सोचा। 'नहीं, नहीं, कैसे कर सकता है वह ऐसा?' 'कर क्यों नहीं सकते,' दूसरे मन ने समझाया, 'तुम्हें ऐसा ही करना होगा। ऐसा नहीं करोगे तो रात भी खोओगे और दोस्तों के सामने नाक भी कटाओगे।' वास्तव में उसे ऐसा ही करना चाहिए. हाँ, हाँ करना ही चाहिए. आख़िर शीला के पास जो कुछ है, वह भी तो उसका ही है।

मन में उमड़ते द्वंद्व को वश में करके उसने शीला को जोर से आवाज दी। वह रसोई में रोटी तैयार करने में लगी थी। उसने वहीं से कहा, 'तनिक हाथ धो लूँ, अभी आई. ऐसा क्या काम आ पड़ा?'

उसने फिर से पुकारा, 'जरा जल्दी आओ.'

शीला हाथों को अपनी धोती के पल्लू से पोंछती हुई उसके सामने आकर खड़ी हो गई. चेहरे की उदासी दूर नहीं हुई थी। आँखों की चमक ग़ायब हो चुकी थी, निरंतर रोने के कारण वे सूज गई थीं। होठों की मुस्कराहट खो गई थी। उसने क्षण-भर के लिए उसकी ओर देखा, कितु मन के किसी कोने में बैठे दानव पर इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ।

आते ही उसने सीधा सवाल किया, 'मुझे कुछ रुपये चाहिए. तुम्हारे पास कितने रुपये हैं?'

स्तंभित-सी शीला चुपचाप खड़ी रही। शीला के मौन ने उसका क्रोध और अधिक भड़का दिया। वह चीख़-सा उठा, 'बोलती क्यों नहीं हो, क्या साँप सूँघ गया है?'

'रुपये तो सब ख़त्म हो गए हैं, दस-बीस पड़े होंगे, सो वे मुन्ना की किताबों के लिए रखे हैं। पिछले महीने दिला नहीं पाए थे।' शीला ने डरते हुए कहा।

उसका स्वर और भी ज़्यादा कड़वा हो गया-'क्यों पिछले महीने सात सौ रुपये दिए थे। सारे ख़र्च कर डाले! जल्दी बताओ बाक़ी रुपये कहाँ हैं?'

शीला ने भर्राए स्वर में उत्तर दिया, 'कई महीने बाद आपने पिछले महीने रुपये दिए थे।' फिर अपने स्वर को स्थिर करती हुई बोली, 'आख़िर बच्चों का घर है, कितना ख़र्च हो जाता है, आप तो ख़्याल रखते नहीं। जैसे-तैसे इंतजाम करती हूँ। पड़ोसियों से उधार लेकर महीना खींचती रही हूँ। इस बार आपने रुपये दिए तो पिछला क़र्ज उतार, थोड़ी चैन की साँस ली। आख़िर कब तक किसका उधार रखा जा सकता है। आपने कुछ बताया नहीं। कह देते तो ख़र्च न करती। अब बताओ कहाँ से लाऊँ?'

उस समय उसका स्वर कितना तीखा हो गया था, इसका पता उसे नहीं चला, क्योंकि तब जुआ उसके रक्त में दौड़ रहा था, पत्ते उसकी आँखों में नाच रहे थे। जुए के खिलाड़ी उसके कानों में पुकारते प्रतीत हो रहे थे। उसकी साँस-साँस जुए के रंग में रँग रही थी और इस रंग ने उसे पागल बना दिया था। वह बौखलाए स्वर में बोला, 'तुम्हारे बाप ने मुझे कोई दौलत नहीं वख़्श दी है। ख़र्चे को रुपये मैं नहीं देता तो कहाँ से ले आती हो? मेरे पास जितना है, उतना ही दूँगा। आमदनी से ज़्यादा ख़र्च है तो कहीं से डाका मारकर नहीं लाऊँगा, कहीं चोरी या राहजनी नहीं करूँगा।'

'लेकिन जुआ तो खेलोगे, जुए में सब-कुछ हार जाओ तो दोस्तों से उधार भी ले लोगे? लेकिन बच्चों की कोई चिता नहीं करोगे?' शीला ने तिलमिलाते हुए कहा।

'तो बच्चों के लिए तू कमाकर लाती है, गँवार, जाहिल, बदतमीज।' न जाने कितनी न देने-योग्य गालियाँ उसने शीला को दे डालीं।

वह भी लगभग चीख़ती हुई बोली, 'तुम्हारी दीवाली तो हो ली। जुआ खेलकर तुमने अपना त्यौहार मना लिया, गृहस्थी जाए भाड़ में, बच्चे जाएँ चूल्हे में। मकान अपने हाल पर आँसू बहा रहा है, चार दिन बाद दीवाली है, अभी तक सफ़ाई-लिपाई भी नहीं हुई. बच्चों के भी कुछ अरमान हैं। उन्हें तो त्यौहार पर कुछ चाहिए. मेरी कोई चिता नहीं। मेरे लिए आपकी ये गालियाँ ही काफ़ी हैं, लेकिन गालियाँ देते समय यह भी ख़्याल नहीं रख सकते कि क्या कह रहे हो? जो मुँह में आया बकना शुरू कर दिया। अश्लीलता और पागलपन की हद ही कर दी।'

'हाँ, हाँ, मैं पागल हूँ। मैं बदतमीज हूँ। यही कहना चाहती हो न! मैं तो ऐसी की गालियाँ दूँगा। तुम्हें मेरे साथ रहना हो, रहो_ न रहना हो तो जहाँ मन करे, वहाँ जाओ.' उसने विष-सा उगलते हुए कहा।

शीला सर्पिणी की तरह फुंकार उठी, 'तो इसी दिन के लिए मेरी डोली उठवाकर लाए थे। विवाह की वेदी पर यही प्रतिज्ञा की थी। तुम मर्द लोग सोचते क्या हो? पराए घर की लड़की से जैसा चाहे व्यवहार किया जाए और वह मूक पशु की भाँति सब-कुछ सहती रहे, अपमान को मान समझकर मुस्कराती रहे। अपशब्दों को शिव की तरह कड़वा घूँट मानकर पी पाए. आख़िर क्या सोचते हैं आप? आप पहले से नहीं जानते थे कि पत्नी के आने पर उत्तरदायित्व बढ़ जाएँगे, आप कौनसी जिम्मेदारी पूरी करते हैं-सिवा इसके कि महीने दो महीने में कुछ रुपये मेरे हाथ पर रख देते हैं और महीने-भर के लिए निश्चित हो जाते हैं। क्या आपने कभी बीमारी में भी मेरे पास बैठकर प्यार के दो शब्द कहे? मैं तो उनके लिए भी तरसती रही। अपना मतलब हुआ तो कुछ भी बहाने बनाते रहे अथवा शैतान की तरह अपनी प्यास बुझाकर भागते रहे-मेरे मन पर क्या बीती, इसकी चिता करने का कोई वक़्त आपको कभी मिला? बच्चों की बीमारी में भी तीमारदारी मैं ही करूँ और अपनी बीमारी में भी दवा मैं ही लाऊँ। यह कहाँ का इंसाफ़ है? ख़ुद तो आठ-दस दिन में मेहमान की तरह आते हैं और स्वागत-सत्कार करवाकर वापिस चले जाते हैं। फिर मैं ही रह जाती हूँ, इस गृहस्थी की चक्की में पिसने के लिए.'

आवेश में उसके नथुने फूल गए थे। शीला की जली-कटी बातों को सुनकर उसका क्रोध सातवें आसमान को पार कर गया। उसने शीला का हाथ पकड़कर जोर का एक झटका दिया। वह चीत्कार करती हुई दरवाजे से टकराई और उसके माथे से गाढ़े ख़ून की धार निकल पड़ी।

शीला सिसक रही थी और वह गंदी गालियाँ दे रहा था, 'मुझे व्यवहार करना सिखाती है। पति न हुआ तेरा नौकर हो गया मैं।'

वह गालियाँ बकता जाता था और शीला के गहनों को ढूँढ़ता जाता था। कंगन और कर्णफूल ही उसके हाथ लग पाए. उसने मन में सोचा कि आज रात के लिए काफ़ी हैं। तभी शीला ने अपना मंगलसूत्र उतारकर उसके हाथ में थमा दिया-'लो, इसे भी लेते जाओ, बस यही बाक़ी बचा है।'

'हाँ-हाँ ला। इसे देकर मुझे डराती है। तेरे इन आँसुओं का मेरे ऊपर कोई असर नहीं है, मैं जा रहा हूँ। मेरा इंतजार मत करना।'

उसके पैरों में ग़जब की फ़ुर्ती भर गई थी। मानो जुआ ही उसके लिए सर्वस्व बन चुका था। वह आवेश और तनावपूर्ण स्थिति में अड्डे पर पहुँचा तो खेल जोर-शोर से चल रहा था। पता नहीं उसने कैसे सोच लिया कि जीत आज उसकी ही होगी और इसी उन्माद में उसने अपनी सारी पूँजी दाँव पर लगा दी।

घर से आते समय उसने सोचा था कि ख़ुशी के काफ़िले उसके घर के क़रीब से निकलकर जानेवाले हैं, कितु उसे आँधियों के सफ़र का पता नहीं था।

अब उसे होश आया। वह घबराया। जीतनेवाले ने अट्टहास करते हुए उसकी ओर देखा। उसकी निगाहें नीची हो गईं। उसे लगा कि शकुनि ने एक और चाल चली और समय का युधिष्ठिर सब-कुछ हार गया। उसकी आँखों के आगे शीला का नंगा शरीर नाचने लगा। अपनी द्रौपदी के लिए वह स्वयं दुःशासन बन गया था। महाभारत की द्रौपदी की गुहार पर तो कृष्ण ने आकर चीर बढ़ाया था, अब कौनसा कृष्ण आएगा उसे उबारने के लिए, उसकी रक्षा के लिए.

अजीब भय और दहशत से वह काँपने लगा।

वह हार चुका था, उसका मन हार गया था। भौतिक पदार्थों की हार को जीत में बदला जा सकता है, कितु आत्मा के हार जाने की व्यथा अकथनीय होती है। वह लज्जा और ग्लानि के अथाह समुद्र में गोते लगा रहा था। उसके पैर घर की ओर न बढ़ पाए. अपने काम पर वापिस आ गया वह, सब-कुछ भूल जाने के लिए, सारे अहसानों को भुला देने के लिए, भाग्य से समझौता करने के लिए.

कितु अतीत को भुलाने की वह जितनी कोशिश करता, घटनाएँ उतनी ही अधिक स्पष्ट हो उठतीं। आँखें बंद करता तो सारे दृश्य काले पर्दे पर नाचने लगते। वह समझता था कि भागने पर सब-कुछ पीछे छूट जाएगा, कितु उसके दानव-जैसे पाप और अधिक विशाल होकर उसका रास्ता रोकने लगे।

उसके हृदय में एक ऐसा महाभारत मचा था, जिसने उसके अंग-अंग को जर्जर कर दिया था। उसे अनुभव हुआ कि घर के किसी कोने में देर तक रोकर ही वह अपने मन को हलका कर सकता है_ और इसी अहसास को लिए उसके पैर विवश होकर घर की ओर बढ़ चले थे।

अचानक जोर का झटका लगा। उसने महसूस किया कि उसका सिर किसी चीज से टकरा गया है। पास बैठे सज्जन उसे निरीह भाव से देख रहे थे।