एक और मानवी / अलका प्रमोद

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मानवी दिल्ली में अपनी कम्पनी की वार्षिक बैठक में भाग ले कर वापस पूना लौट रही थी। स्टेशन पर पहुँची तो गाड़ी प्लेटफार्म पर लग चुकी थी, गाड़ी में अपना सामान व्यवस्थित करके उसने एक पुस्तक निकाली और पढ़ने लगी, तभी एक और परिवार ने गाड़ी में प्रवेश किया, संभवत: मानवी के सामने वाली बर्थ पर उन्हीं का आरक्षण था। वे लोग भी अपना सामान यथास्थान पर रखने में व्यस्त हो गए. मानवी अपनी पुस्तक पढ़ने में लीन थी तभी आगन्तुक युवती ने अपने पति से कहा, “उत्कर्ष यह बैग ज़रा ऊपर रखना।”

उत्कर्ष का नाम सुन कर मानवी की तंद्रा भंग हुई उसने दृष्टि उठायी तो उसका अंदेशा सही निकला, यह तो उसी का उत्कर्ष था। साथ में उसकी पत्नी और चार-पाँच वर्ष की एक बेटी थी। अब तक निश्चिंत-सी बैठी मानवी अव्यवस्थित हो उठी। इसके पूर्व कि वह आगे कुछ सोचती, उत्कर्ष की दृष्टि उस पर पड़ चुकी थी। वह भी क्षण भर को चौंका पर तुरंत स्वयं को प्रकृतिस्थ करते हुए स्वाभाविक स्वर में पूछा, “अरे मानवी तुम! कहो कैसी हो? “ उसके स्वर में न तो अचानक पत्नी के सामने उसके मिल जाने के कारण कोई दुविधा थी न अपने किये की ग्लानि। उसकी स्वाभाविकता ने मानवी को कुंठित कर दिया पर स्वयं को संयत करते हुए उसने नपे-तुले शब्दों में कहा, “ठीक हूँ...”औपचारिकता वश उत्कर्ष को अपनी पत्नी नेहा का परिचय कराना पड़ा। उसने पत्नी से कहा, “नेहा इनसे मिलो, यह हैं हमारी एक पूर्व परिचिता मानवी, हम लोग साथ पढ़ते थे।” मानवी ने उत्कर्ष को व्यंग्य से देखा मानो कह रही हो कि बस साथ पढ़ते ही थे और कोई संबंध नहीं था? उससे दृष्टि मिलने पर उत्कर्ष झेंप गया और इधर-उधर देखने लगा। वे लोग अपना सामान व्यवस्थित करने में लग गए. मानवी उत्कर्ष से मुँह मोड़ कर लेट गयी पर उत्कर्ष से मुँह मोड़ कर भी वह उन यादों से मुँह मोड़ नहीं पायी जो अनचाहे ही उसके मस्तिष्क पर दस्तक देने लगीं थीं।

आज उत्कर्ष ने कितनी सरलता से कह दिया कि वह उसकी मात्र पूर्व परिचिता है। क्या वह भूल गया कि वे दोनों एक दूसरे के लिये क्या महत्त्व रखते थे, माना कि उनके मध्य कोई सामाजिक बंधन की डोर नहीं थी पर उत्कर्ष ही तो उसका सबकुछ था। उसके लिये तो उसने मम्मी पापा को भी छोड़ दिया था। फिर मन-ही-मन अपनी ही बात को काटते हुए उसने सोचा - मम्मी पापा से तो वह कब की दूर हो चुकी थी, उत्कर्ष से मिलने से बहुत पहले।

उसे आज भी याद है - जब वह नन्हीं-सी थी, करीब इतनी ही बड़ी जितनी इस समय उत्कर्ष की बेटी होगी। जब वह आँख खोलती तो मम्मी और पापा जा चुके होते ओर उसे काली कलूटी मोटी मालती झिंझोड़ कर उठाते हुए कहती, “बेबी उठो स्कूल का समय हो गया है”, यदि वह ना-नुकुर करती तो पकड़ कर खड़ा कर देती। मानवी को उसका चेहरा देख कर ही गुस्सा आ जाता था। उसका मन होता कि मम्मी उसे प्यार से उठाएँ जैसे छुट्टी के दिन कभी-कभी वह उठातीं थीं, उस दिन तो वह एक बार में ही उठ जाती थी पर मम्मी के पास तो समय ही नहीं रहता था। स्कूल से लौटती तो भी मालती ही मिलती। वह संध्या की प्रतीक्षा करती कि जब मम्मी पापा आयेंगे तो उन्हें वह ढेर सारी बात बताएगी पर वह लोग इतने थके और व्यस्त होते कि उसकी बात ही नहीं सुनते।


वह समझ नहीं पाती कि अपनी बात किसको बताए. उसे स्कूल की कितनी बातें बतानी होती थीं और मालती की शिकायत भी तो करनी होती थी कि मालती ने उसे डाँटा और उसके कहने पर भी आमलेट नहीं बनाया। उस दिन जब मम्मी पापा सोते समय उसे प्यार करने आए तो उसने कहा कि आज वह तभी सोएगी जब वे उसकी बात सुनेंगे तब जा कर उन्होंने उसकी बात सुनी। मालती की शिकायत सुन कर पापा ने मम्मी से कहा, “मालती को डाँटो कि बच्ची का ध्यान रखें” तो मम्मी ने कहा अरे तुम भी कहाँ बच्ची की बात में आ गए. ज़्यादा टोका तो वह चली जाएगी, फिर मानवी को कौन संभालेगा? इतनी मुश्किल से मिली है, जैसी भी है इसी से काम चलाना पड़ेगा।”


उस दिन मानवी को समझ में आ गया कि मम्मी पापा से कहना बेकार है। अब उसने स्वयं ही अपनी समस्या का हल निकालने का निश्चय किया। अब यदि मालती उसे डाँटती तो वह भाग कर बिस्तर के नीचे छिप जाती। यदि उसके मन का नाश्ता न हो तो प्लेट फेंक देती। एक दिन उसने ऐसे ही प्लेट फेंक दी थी तो मालती ने उसे दंड देने के लिये उसे कुछ भी नहीं दिया और वह भूखी ही स्कूल चली गयी। जब वह लौटी तो भूख से बुरा हाल था। उसने खाना माँगा तो मालती ने कहा “पहले हाथ मुँह धोलो” मानवी हठ पर अड़ गयी कि आज वह बिना हाथ मुँह धोए ही खाएगी इस पर मालती ने उसे चाँटा मार दिया। मानवी को तो आज तक किसी ने छुआ भी नहीं था और आज मालती ने मारा, उसने भी उसके हाथ में दाँत गड़ा दिये, मालती के खून निकल आया। उस दिन मम्मी पापा आए तो मालती ने कहा, “अब बेबी हमसे नहीं संभलती, हम नौकरी नहीं करेंगे।” मम्मी ने उसे मनाया पर वह नहीं मानी और चली गयी।


मानवी मन ही मन प्रसन्न हो गयी कि चलो मालती से पीछा छूटा। हो सकता है कि अब मम्मी ही उसका ध्यान रखें पर उसे यह नहीं पता था कि यह घटना उसके जीवन में नया मोड़ ला देगी। मालती के जाने पर नयी आया की खोज आरम्भ हो गई पर कोई विश्वसनीय आया नहीं मिली। उसको रखने की समस्या गंभीर थी। पापा मम्मी से कहते, “तुम छुटटी ले लो।” मम्मी कहतीं, “मैं ही क्यों लूँ तुम लो।” बात बहस पर पहुँच जाती और बहस झगड़े पर। पापा का तर्क था कि मम्मी माँ हैं अत: मानवी को संभालना उनका दायित्व है और मम्मी का कहना था कि उसे दोनों ने पैदा किया है अत: दोनों का दायित्व बनता है। एक बार पापा ने कहा था कि “बच्चों के लिये तो माँ सब कुछ त्याग देती हैं।” तो मम्मी ने तड़ाक से उत्तर दिया कि “तुम मेरी उन्नति और सफलता से ईष्या करते हो।” यह पापा के अहम् पर चोट थी। वह बिफर गए और आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। इसी मध्य मानवी ने कुछ कह दिया तो उसे भी डाँट पड़ गयी। धीरे-धीरे यह नित्य की बात हो गयी। एक बार झगड़ा प्रारम्भ होता तो कई कई दिनों तक घर का वातावरण कलहपूर्ण रहता, परिणामत: मानवी का प्यार-दुलार भी कम हो गया था। मानवी सहमी-सहमी-सी रहती और सोचती इससे अच्छा तो जब मालती थी तभी था पर अब क्या हो सकता था। जब कोई हल नहीं निकला तो मम्मी पापा ने निश्चय किया कि उसे छात्रावास में रख देंगे। यह सुन कर नन्ही मानवी डर गयी, मम्मी पापा से इतनी दूर छात्रावास में अकेले रहना और अकेले सोना पड़ेगा। वह खूब रोई और मम्मी पापा से मिन्नत की, यहाँ तक कि गॉड प्रामिस किया पर उसकी एक न चली और उसे छात्रावास भेज दिया गया। उसके कोमल मन मस्तिष्क में यह बात घर कर गयी कि वह अवांछित है और मम्मी पापा की उन्नति में बाधक है।


जैसे जैसे वह बड़ी होती गयी उसका मन विद्रोही होता गया उसे मम्मी पापा ओर समाज के विरुध्द कुछ करने में विशेष आनन्द आने लगा और वह स्वच्छन्द प्रकृति की हो गयी।अब तो छुटिटयों में भी वह घर न जाने के बहाने ढूंढती। हाँ इतना अवश्य था कि वह कुशाग्र बुध्दि की थी तथा पढ़ाई में सदा प्रथम आती परिणामत: उसको पूना के इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश मिल गया। अब उसके जीवन का ध्येय स्वयं को सिध्द करना ही रह गया था।




कॉलेज के प्रथम दिन कक्षा में उसके बगल की सीट पर एक आकर्षक युवा बैठा था जब शिक्षक में कक्षा में सबका परिचय पूछा तो ज्ञात हुआ कि उस युवा का नाम उत्कर्ष सिंह है और वह अहमदाबाद से पढ़ने आया है तथा प्रवेश परीक्षा में उसका प्रथम स्थान आया है। कक्षा के बाद वह अपना सामान समेट रही थी तो उत्कर्ष ने शालीनतापूर्वक कहा, “हम लोगों का परिचय तो कक्षा में हो ही चुका है और हम तोग एक ही कक्षा में पढ़ते हैं तो क्या हम लोग दोस्त नहीं बन सकते”? मानवी को सर्वगुण सम्पन्न उत्कर्ष पहली दृष्टि में ही भा गया था अत: उसने सिर हिला कर अपनी स्वीकृति दे दी। उसकी स्वीकृति से उत्कर्ष को तो मानो मन माँगी मुराद मिल गई हो। दोनों कॉलेज की कैन्टीन में काफी पीने चल दिये। उस प्रथम दिन की मित्रता समय के साथ-साथ प्रगाढ़ और अति प्रगाढ़ होती गई. बचपन से नेह को तरसते मानवी के मन के तपते रेगिस्तान पर उत्कर्ष के प्रेम की छींटे पड़े तो वह उस प्रेम में सराबोर होती चली गई. उत्कर्ष के सान्निध्य ने उसके जीवन में बसन्त ला दी। पढ़ाई के चार वर्ष कैसे व्यतीत हो गए उसे पता ही नहीं चला। इन्जीनियरिंग के अन्तिम वर्ष की परीक्षा समाप्त हो गई थी। अब मानवी को छात्रावास छोड़ना था पर घर तो उसे काट खाने दौड़ता था, वह परीक्षा के बाद भी घर नहीं गई तो मम्मी का एक पत्र उसे बुलाने के लिये आया। एक तो उस घुटन भरे वातावरण में जाना फिर उत्कर्ष का साथ छोड़ना वह उदास हो गई.


जब संध्या को उत्कर्ष मिला तो मानवी का उतरा हुआ चेहरा देख कर उसने कारण पूछा तो मानवी की आँखें नम हो आईं, एक वही तो है, जो उसे समझता है और किसी को तो उसकी भावनाओं से कुछ भी लेना देना नहीं।


उसने कहा, “मम्मी का पत्र आया है कि लौट आओ पर मेरा वहाँ जाने का मन नहीं है।” उत्कर्ष ने उसकी समस्या का हल बताते हुए कहा, “इसमें क्या समस्या है, लिख दो कि तुम यहाँ रह कर नौकरी ढूँढोगी। वैसे भी भोपाल में तो कोई अच्छी नौकरी मिलने से रही।”


“पर मैं रहूँगी कहाँ अभी तक तो छात्रावास था।”


“अरे मेरा इतना बड़ा बंगला है मैं अकेला ही तो रहता हूँ। मेरे मम्मी पापा तो अहमदाबाद में रहते हैं।”


यह सुन कर मानवी हिचकिचायी, “ऐसे मैं तुम्हारे घर कैसे रह सकती हूँ।” तो उत्कर्ष ने कहा, “आख़िर तुम किसी के घर में तो रहोगी। अंजान के घर में रहने से अच्छा है कि मेरे घर में पेईंग-गेस्ट बन कर आगे वाले कमरे में रहो।”


मानवी को भी यह प्रस्ताव आकर्षक और सुविधाजनक लगा। कम-से-कम घर तो नहीं लौटना पड़ेगा, उसने उसी दिन नौकरी के अच्छे अवसर का बहाना बना कर पूना में ही रहने का निर्णय मम्मी पापा को लिख दिया। उसने यह भी लिख दिया कि वह एक मित्र के घर रह रही है। मम्मी-पापा को इतना अवकाश नहीं था कि देखने आते कि वह कहाँ रह रही है। उसको कमरा मिल गया यह जान कर ही वह निश्चिंत हो गए.


मानवी उत्कर्ष के ही घर में बाहर के कमरे में रहने लगी। मानवी को पूना में ही एक कम्पनी में नौकरी मिल गई और उत्कर्ष ने एम बी ए में प्रवेश ले लिया। उत्कर्ष का नौकर खाना बनाता। दोनों अपने अपने गन्तव्य के लिये प्रात: ही निकल जाते। मानवी को अपनी नई नौकरी में उन्नति पानी थी और उत्कर्ष को भी बहुत आगे जाना था अत: दोनों दिन भर अति व्यस्त रहते, रात में जब अवसर मिलता तो होटल जाते, घूमते और देर रात तक लौटते। कोई रोकने-टोकने वाला था नहीं, स्वतंत्र रूप से स्वर्णिम दिन व्यतीत हो रहे थे। जब दो विपरीत ध्रुव इतने समीप थे तो प्रकृति के शाश्वत नियम का पालन तो होना ही था, एक दिन दोनों ने एक घर से एक कमरे में ही रहने का निर्णय ले ही लिया।


दिन निर्विघ्न व्यतीत हो रहे थे कि एक दिन मानवी के मम्मी-पापा अचानक आ गए उन्हें पूना में किसी बैठक में भाग लेना था। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मानवी अपने पुरुष मित्र के घर में रह रही है और वह भी उसी के कमरे में तो उनके पाँव तले धरती सरक गई. पापा ने तुरंत मानवी को सामान बाँधकर वापस चलने का आदेश दिया। मानवी के लिये यह अप्रत्याशित था अब वह किसी के आदेश से चलने वाती बच्ची नहीं रह गई थी वह स्वच्छंदता का स्वाद चख चुकी थी। वह भी अड़ गई कि यह उसका जीवन है और वह अपने मन के अनुसार चलेगी। मम्मी पापा ने ऊंच नीच समझाई अपने प्यार का दुहाई पर सब व्यर्थ था। हार कर उन्होंने उत्कर्ष से विवाह का प्रस्ताव रखा पर मम्मी पापा के रिश्तों की कड़ुवाहट ने उसका इन संबंधों से विश्वास ही समाप्त कर दिया था उसने व्यंग्य से कहा, “आप चाहती हैं कि मैं और उत्कर्ष जो प्यार से रह रहे हैं वह भी न रहें हम दोनों विवाह करके एक दूसरे पर अधिकार जताएँ लड़ाई करें और बच्चे पैदा करके उन्हें नौकर और छात्रावास के सहारे छोड़ दें? “मम्मी पापा उसका आक्रोष पहली बार देख रहे थे आज उन्हें समझ में आ रहा था कि मानवी का यह निर्णय उनके आपस के कटु संबंधों का परिणाम है पर अब भूल सुधारने के लिये बहुत देर हो चुकी थी। उन्होंने साम, दाम, दंड, भेद सभी तरीके अपना कर देख लिये पर निराशा ही उनके हाथ लगी। हार कर उन्होंने समस्या के समाधान के लिये उत्कर्ष के माता-पिता से सम्पर्क किया पर उन्होंने मानवी जैसी स्वच्छंद लड़की को वधू बनाने में कोई रुचि नहीं ली। अन्तत: वे उत्कर्ष के पास गए पर वह आकाश की ऊँचाइयों को छूना चाहता था और विवाह को अपनी उन्नति में बाधा मानता था। साथ रहने में उसे कोई आपत्ति नहीं थी पर दायित्वों से वह दूर ही रहना चाहता था। जब मानवी पर ही वश नहीं था तो उत्कर्ष पर क्या वश चलता। हार कर मम्मी पापा उससे नाराज हो कर संबंध तोड़ कर चले गए.


मानवी ने चैन की साँस ली उसके दिन उत्कर्ष के साथ सुखपूर्वक व्यतीत हो रहे थे। पूरी मनमानी, प्रिय का साथ और परिवार वालों का कोई झंझट नहीं। धन का अभाव नहीं, और क्या चाहिए था। दो वर्ष व्यतीत हो गए. उत्कर्ष ने एम बी ए कर लिये और मानवी के कार्य से प्रभावित हो कर उसकी कम्पनी ने उसे प्रोन्नत कर दिया। एक दिन मानवी अपने कार्यालय से बाहर निकली तो उत्कर्ष उसे लेने के लिये गाड़ी ले कर खड़ा प्रतीक्षा कर रहा था। मानवी उसके देख कर प्रसन्न हो गई, गाड़ी में बैठते हुए उसने पूछा, “आज लेने कैसे आ गए? “ उत्कर्ष ने कहा, “आज का दिन हम सेलिब्रेट करेंगे “ मानवी ने पूछा क्यों तो उसने कहा “मुझे बैंगलोर में एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में नौकरी मिल गई है, वे लोग मुझे 50, 000 रु। प्रति माह देंगे।” मानवी चौंक पड़ी, “क्या तुम बैंगलोर चले जाओगे और मैं? “ उत्कर्ष अपनी धुन में कहता रहा, “तुम क्या, मैं कोई घर खाली करने को थोड़े ही कह रहा हूँ। मेरे बंगले में जब तक चाहो रहो।” यह सुन का मानवी आहत हो गई वह बोली “उत्कर्ष मजाक मत करो...घर तो मैं कहीं भी ले सकती हूँ। मैं तो तुम्हारे अपने साथ की बात कर रही हूँ।” इस पर उत्कर्ष ने गंभीर होते हुए कहा “मैं तुम्हारे लिये अपना भविष्य तो दाँव पर नहीं लगा सकता।” फिर रुक कर बोला “पूना और बैंगलोर कौन-सा बड़ा दूर है मैं तुमसे मिलने आता रहूँगा।” मानवी ने कभी सोचा भी नहीं था उत्कर्ष उससे दूर रह सकता है पर वह उत्कर्ष को इतना अच्छा अवसर छोड़ने को भी तो नहीं कह सकती थी और न ही स्वयं नौकरी छोड़ सकती थी वैसे भी उत्कर्ष ने तो एक बार भी उससे कहा ही नहीं कि वह नौकरी छोड़ कर साथ चले या वह उसके बिना नहीं रह सकता। इस समय तो वह अपने स्वर्णिम भविष्य में खोया हुआ था। प्रति सप्ताह आने का आश्वासन दे कर वह चला गया। प्रारम्भ में तो वह हर साप्ताहांत पर आता रहा फिर धीरे-धीरे उसकी व्यस्तता बढ़ने लगी और आना कम होने लगा।



नौकरी लगने पर उत्कर्ष के माता पिता उसके विवाह के लिये दबाव डालने लगे। अब उत्कर्ष का मानवी के प्रति आकर्षण भी कम हो चला था। दीपावली पर जब वह अपने घर अहमदाबाद गया तो मम्मी पापा ने उसे अपने मित्र की बेटी नेहा से मिलवाया। नवीन के आकर्षण ने पुराने संबंधों पर जम रही धूल की परत को और भी गहरा कर दिया और मम्मी-पापा की आज्ञा पालन की आड़ में उसने नेहा को जीवन साथी बनाने का निर्णय ले लिया। मानवी को पता चला तो वह अवाक् रह गयी। भले ही उसे स्वीकार न था पर मन तो न जाने कब उत्कर्ष के बंधन में बंध गया था। आज उसी उत्कर्ष ने उसके विश्वास और भावनाओं को ठेस पहुँचा कर सारे बंधन तोड़ दिये, जिसके लिये उसने संसार की चिन्ता नहीं कि थी। मन से विवश मानवी ने अपना स्वाभिमान ताक पर रख कर उसे मनाने का प्रयास किया। यहाँ तक कि अपनी मान्यताओं के विपरीत उससे विवाह का भी प्रस्ताव रखा पर जो लड़की विवाह के पूर्व ही साथ रह रही हो उसके साथ रहने में उसे तो कोई आपत्ति न थी पर विवाह करके उसे अपने परिवार का अंग बनाना उसे स्वीकार नहीं था, फिर इस समय तो नेहा का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा था। जब उत्कर्ष ने विवाह कर ही लिया तो मानवी ने उसका घर छोड़ कर किराये का घर ले लिया।


आज वह पूर्णत: एकाकी हो गई थी, उसकी सभी मित्रो ने घर बसा लिया था और उनके संसार इतने भिन्न हो गए थे कि मानवी से उनकी मित्रता औपचारिकता मात्र रह गई थी। उसकी कुछ हितैषी अन्तरंग मित्रो ने उसे समय रहते जब विवाह की सलाह दी थी तब स्वतंत्रता और उत्कर्ष के प्यार के जुनून में उसने उनकी बात को हँसी में उड़ा दिया था और मम्मी-पापा तो नाता तोड़ ही चुके थे। अब वह किसके पास जाती? हाँ, उत्कर्ष से विलग होने के बाद कुछ पुरुष मित्रो ने अवश्य मित्रता का हाथ बढ़ाया पर जिससे भी उसने विवाह का प्रस्ताव रखा उसने किनारा कर लिया।


उत्कर्ष से अलग होने के बाद एक बार उसके जीवन में उसके बास रवि का पदार्पण हुआ था, जो कब से उस पर आसक्त थे, पर उत्कर्ष मध्य में दीवार बना हुआ था। अब मार्ग साफ था अब वह प्राय: उसके घर आने लगे थे दुखी मानवी उनसे विशेष प्रभावित तो नहीं थी पर एकाकीपन से घबरा कर उसने उन्हीं से विवाह का निर्णय कर लिया। इससे पूर्व कि वह उनसे कहती, एक दिन उन्हीं ने कहा “मानवी मैं अब तुमसे दूर नहीं रह सकता। मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे ही घर पर आ कर रहो।” मानवी ने कहा, “ मैं तैयार हूँ आप विवाह की तिथि तय करिये।” यह सुन कर मानो रवि को बिच्छू ने डंक मार दिया हो वह बोला सौ-सौ चूहे खा कर बिल्ली हज को जाय, मैं तुमसे साथ रहने की बात कर रहा हूँ विवाह का नहीं, ऐसा तुमने सोचा भी कैसे? “ अपमानित तिरस्कृत मानवी ने उसी समय उन्हें घर से निकाल दिया और विवाह का विचार ही त्याग दिया। अब तो बस वह थी और उसका काम।


उन्नति के सोपान चढ़ते चढ़ते आज वह उच्चतम पद पर आसीन है पर जीवन धन, पद ऐश्वर्य मिल कर भी उसके जीवन के अंधकार को दूर करने में असफल हैं। आज उत्कर्ष का परिवार देख कर उसके घाव पुन: हरे हो गए. वह और उत्कर्ष एक ही राह पर चले थे पर वह अपने घर परिवार में सुखी और संतुष्ट जीवन व्यतीत कर रहा है जबकि वह आजीवन एकाकीपन का अभिशाप भुगतने को विवश है।उसके मन में विद्रोह और बदले की अग्नि प्रज्जवलित हो गई. यदि वह सुखी नहीं है तो उत्कर्ष को भी दंड भुगतना होगा। उसने निश्चय कर लिये कि वह उत्कर्ष की पत्नी नेहा को अपने और उत्कर्ष के अतीत के विषय में अवश्य बताएगी। इसी योजना के अन्तर्गत उसने नन्हीं रिया से घनिष्टता स्थापित की। रिया थी भी प्यारी और वाचाल कुछ ही देर में मानवी से ढेरों बातें कर डाली, पापा उसे कैसे डाँटते हैं, मम्मी कैसे प्यार करती है, दादी इस बार उसके लिये क्या लाई थीं, आदि। रिया से बातें करते करते नेहा से बातें होने लगीं। उत्कर्ष वार्तालाप से बच रहा था। संभवत: उसे भय था कि कहीं अतीत का कोई प्रसंग न आ जाए. मानवी ने बातों बातों में नेहा से उसके पूना आने का प्रयोजन, कार्यक्रम और रुकने कर स्थान ज्ञात कर लिया। उत्कर्ष किसी कार्य वश पूना आया था और वे लोग होटल में रुके थे। पूना पहुँच कर मानवी ने उत्कर्ष के जाने के बाद नेहा से फोन पर होटल में सम्पर्क किया और कहा कि वह उसे कुछ बताना चाहती है। नेहा को आश्चर्य और उत्सुकता हुई कि मानवी उसे क्या बताना चाहती है। अत: निश्चित हुआ कि वह दोनों होटल के रेस्ट्रां में मिलेंगी। आज मानवी ने सोच लिया था कि वह उत्कर्ष के संसार को भी नष्ट कर देगी। वह अभी अपने विचारों में मग्न ही थी कि नेहा और रिया आ गईं। नेहा ने उत्सुकता से कहा, “मानवी दीदी आप कौन-सी बात बताना चाहती थीं? “ इससे पूर्व कि वह कुछ कहती रिया गंभीरता से बोली, “आंटी मैं भी आप को कुछ बताना चाहती हूँ।” उसके बड़ों जैसे गंभीर बनने के प्रयास को देख कर मानवी को अनायास ही हँसी आ गई उसने भी नाटकीय गंभीरता से कहा, “ठीक है पहले आप ही बताइये।” रिया उठी और उसकी गोद में बैठती हुई बोली, “आंटी आप मेरी बेस्ट फ्रेंड हैं।” मानवी उसका भोला चेहरा देखने लगी, तो नेहा ने टोका, “दीदी आप क्या बता रही थीं? “ तो मानवी ने कुछ क्षण रुक कर कहा मैं तुम्हे बताना चाहती थी कि उत्कर्ष सदा से एक अच्ठा मित्र रहा है और तुम भाग्यशाली हो कि उस जैसा पति मिला।” नेहा का चेहरा प्रसन्नता मिश्रित लज्जा से आरक्त हो उठा। मानवी स्वयं ही आश्चर्य चकित थी कि वह सोच कर क्या आई थी और क्या कह दिया। कहीं ऐसा तो नहीं कि वह अभी भी उसके मन में उत्कर्ष के लिये प्यार है। नहीं नहीं उत्कर्ष के लिये तो बस उसके मन में यदि कुछ शेष है तो वह है नफ़रत तो क्या यह उसके अंतस में सोई ममता थी, जो रिया के सान्निध्य में मन के बन्द द्वार की झिर्री से झाँकने लगी थी, जिसकी क्षणिक अनुभूति ने ही वर्षों से उसके मन में पल रहे क्षोभ की अग्नि पर शीतल जल के छींटे डाल दिये थे।


उनसे विदा लेने के बाद मानवी नन्ही रिया को देखती रही जो उसकी बेटी भी हो सकती थी। उसने संतोष की साँस ली कि यदि वह जो कहने आई थी कह देती तो संम्भवत: नेहा और उत्कर्ष के मध्य जो खाई बनती उसमे गिर कर नन्ही रिया भी जीवन में मानवी जैसा ही कोई ग़लत निर्णय ले लेती जो उसके जीवन में अंधकार ला देता। आज उसने एक सही निर्णय ले कर नन्हीं रिया को एक और मानवी बनने से बचा लिया था।