एक और लक्ष्मण-रेखा / गिरिराजशरण अग्रवाल

Gadya Kosh से
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'नारी तो सचमुच धरती के समान है। वह केवल उत्पत्ति चाहती है, आनंद नहीं-लेकिन पुरुष—।'

आभा ने इतना कहकर मंजू की ओर देखा और ख़ामोश-ख़ामोश आँखों से तैरती हुई नमी को अपने अंदर ही समेट लिया। मानो बादल बरसने से पहले ही हवा के पंखों पर उड़ते हुए पर्वतों की ओर कूच कर गए हों।

कुछ क्षण दोनों के बीच सन्नाटा छाया रहा। वह फिर बोली-'पुरुष, वह तो बस तैयार फ़सल काटने में ही विश्वास रखता है—तैयार फ़सल काटने में।'

'क्या ऐसा नहीं है?' आभा ने मंजू की आँखों में झाँककर देखा और उसके उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी। अभी शाम की परछाइयाँ पूरी तरह धरती से ग़ायब नहीं हुई थीं, खिड़कियों से छनकर आती हुई पीली-पीली धूप ड्राइंग रूम की पूर्वी दीवार पर टुकड़ा-टुकड़ा होकर बिखर गई थी, बाहर खड़े गुलमोहर के दो पेड़ अपनी पतली-पतली शाखें झुकाए धरती का नमन करते दिखाई देते थे। हवा शांत थी और दिनभर के थके-हारे पक्षियों ने अपने बसेरों की ओर लौटना आरंभ कर दिया था।

आभा ने शीशा लगी खिड़कियों से झाँकते हुए आसमान के नीले टुकड़े की ओर देखा। बगुलों का एक जोड़ा आँखों के सामने दो सफ़ेद धावकों की तरह उभरकर ग़ायब हो गया था। मेज पर रखी हुई चाय की प्याली से उठती हुई भाप निरंतर अपनी ऊष्मा कम करती जा रही थी। मौसम अभी अधिक ठंडा नहीं हुआ था, लेकिन हवा के स्वभाव में आया हुआ परिवर्तन संकेत दे रहा था कि आनेवाले दिनों में जब आसमान से शीत बरसेगा और धरती की कोख ठंडी हो जाएगी तो याँ ठहर-ठहरकर चाय की चुस्कियाँ लेना आसान नहीं रहेगा।

'तुमने दो मौसमों के मिलने का दृश्य देखा है मंजू?' आभा ने हलकी गर्म चाय का घूँट कंठ से नीचे उतारते हुए कहा। ऐसा लगा मानो आभा के मस्तिष्क में गड्ड-मड्ड होते हुए विचार स्वयं ही मुखरित हो उठे हां—'ठीक वह दृश्य, जब शरद ऋतु आ रही होती है और ग्रीष्म ऋतु के होंठों पर अलविदा-अलविदा का स्वर नाच रहा होता है। आने वाली और जाती हुई ऋतु एक मिलन-बिन्दु पर कितनी देर मिली हैं? बस इतनी देर, जितना मैं और धीरज एक बार जीवन के एक मोड़ पर मिले थे और बिछड़ गए. मौसम तो एक बार अपना पूरा चक्र काटकर पुनः मिल लेते हैं, लेकिन आदमी—।'

आभा ने ख़ामोश बैठी मंजू की ओर देखा और चुप हो गई. उसे लगा जैसे आदमी मौसम से भी अधिक अविश्वसनीय हो गया हो। मंजू, जो कई वर्ष बाद उससे मिली थी, जानती थी कि इन बीते बरसों में वह कितनी भयंकर पीड़ा से गुजरती आई है।

'तुम ठीक कहती हो आभा। नारी तो सचमुच धरती के समान है। वह तो बस उत्पादन करना चाहती है, फ़सल देना चहती है और फ़सल—?'

'फ़सल तैयार होती है तो उसका स्वामी—।' मंजू कुछ कहना चाहती थी कि अचानक बराबर के कमरे से अबोध बालक की आवाज गूँज उठी-

'मम्मी-मम्मी।'

चौंककर मंजू ने कमरे की ओर देखा-'क्या धीरज से तुमने अपना बच्चा वापस ले लिया था, आभा?' उसने पूछा और उसे लगा, जैसे कोई चीज चटाख से शीशे की तरह टूटकर उसके अंदर बिखर गई हो।

उसे याद आया कि आभा का बेटा, जिसे वह प्यार से मनु कहकर पुकारती थी, अभी दो वर्ष का भी नहीं हुआ था कि पति-पत्नी के बीच सम्बंधों की डोर ढीली पड़ने लगी थी। उसे याद आया कि पिछली भेंट में आभा ने उससे कहा था-

'मंजू, गृहस्थी का रथ समतल राहों पर खींचना मुश्किल हो गया है। हर पल ख़तरे-ही-ख़तरे हैं। यों समझो, अब मैं आशाओं से अधिक आशंकाओं के बीच जी रही हूँ।'

मंजू का माथा ठनका। उसने बहुत समय तक यही समझा था कि आभा और धीरज एक आदर्श और सुखी जीवन जी रहे हैं। कोई भेद-भाव, कोई मनमुटाव इन दोनों के बीच नहीं है। तो क्या यह धारणा सच नहीं थी? उसने आश्चर्य से आभा की ओर देखा था और ध्यान देकर उसकी बात सुनने लगी थी।

आभा कह रही थी-

'सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि अकेला धीरज ही नहीं, अधिकतर पुरुष नारी से अपेक्षा तो यह करते हैं कि वह आत्मनिर्भर हो, घर की स्थिति को मजबूत बनाने में आर्थिक सहयोग दे, नौकरी करे ताकि पैसा आए. इस सबके बावजूद वह यह भी चाहता है कि नारी पारिवारिक' बहू' का परंपरागत रूप भी बनाए रखे। दो विपरीत दिशाओं में यात्र करना क्या संभव है मंजू?

अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए आभा ने एक लंबी-ठंडी साँस ली और चुप हो गई. ढलती हुई शाम दीवारों का आिख़री चुंबन लेकर कब की विदा हो चुकी थी। कमरे में दो प्राणियों के होते हुए भी एकांत का अहसास लिए घर भायं-भायं कर रहा था। हाँ, दूर सड़क पर गुजरनेवाले वाहनों के हार्न और पहियों की खड़खड़ाहट से वातावरण पर छाई उदासी कम हो उठती थी। मेज पर रखी चाय की ख़ाली प्यालियाँ आश्चर्य सें खुले जबड़ों की तरह दिखाई दे रही थीं। यह एक मझोला औद्योगिक नगर था, जिसमें धीरज ने बाहर की घनी आबादी से दूर एक छोटे से फ्ऱलैट में आभा के साथ कुछ ही वर्ष पहले अपने वैवाहिक जीवन की शुरुआत की थी और आभा ने उसका हाथ थामकर सचमुच यह महसूस किया था, जैसे वह लंबे एकांत के बाद उन सशक्त बाहों के आश्रय में आ गई हो, जहाँ विश्वास है, परस्पर सहयोग है, शांति और सुख है।

बाल्यावस्था में ही माँ-बाप की छाया से वंचित हो जानेवाली आभा ने उच्चशिक्षा प्राप्त करने तक जिस प्रकार मामा-मामी के घर दिन बिताए थे, उसकी कड़वी-कसैली यादें उसकी झोली में थीं। जीवन के दुःख-भरे अनुभवों ने उसे हर अच्छी संभावना, हर सुंदर स्वप्न के सामने आत्मसर्पण के सिवाय सिखाया ही क्या था? वह सुंदर थी, आकर्षक थी और परिश्रमी भी। लेकिन थी तो एक बोझ ही, उस सीमित आयवाले परिवार के लिए, जिसके आँगन में नियति ने उसके अस्तित्व को ला पटका था। मंजू को याद थे वे दिन जब पहली बार वह धीरज से मिली थी। धीरज उन्हीं दिनों नया-नया आकर खाद के एक कारख़ाने में श्रम अधिकारी लगा था।

लंबे क़द, सुडौल शरीर और गोल चेहरेवाला धीरज देखते-ही-देखते आभा का एक ऐसा स्वप्न बन गया था, जो उसने जागती और खुली आँखों से एक बार नहीं, बार-बार देखा था और जिसे सोचकर वह शरमा-शरमा गई थी।

धीरज गाँव के एक सामान्य परिवार से निकलकर आया था। उसने एक बार स्वयं अपने बारे में बताया था कि उसके पिता गाँव के एक औसत भूस्वामी थे। उसके परिवार में महिलाओं को निःसंकोच घूमने-फिरने तथा कालेज और विश्वविद्यालय में शिक्षा पाने की स्वतंत्रता नहीं थी। उसके पिता एक ऐसे व्यक्ति थे, जो बदले हुए समय को देखते हुए भी पुरानी परंपराओं को अपनी छाती से लगाए और बनाए रखना चाहते थे। उसने बताया था कि वह उस परिवार का पहला सदस्य है, जिसने वहाँ के घुटे-घुटे माहौल से विद्रोह किया, सारी प्राचीन परंपराएँ तोड़ डालीं और परिवार की बच्चियों को आगे बढ़ने, शिक्षा पाने तथा खुली आँखों से दुनिया को देखने की प्रेरणा दी।

धीरज के रूप में एक आदर्शवादी और प्रगतिशील युवक के प्यार को पाकर आभा गद्गद् हो उठी थी।

विवाह के बाद के तीन वर्षों की घटनाओं का आँखों-देखा हाल मंजू को मालूम नहीं। वह केवल इतना जानती है कि अभी कोई छह-सात महीने पहले धीरज अपने इकलौते बेटे मनु को साथ लेकर परिस्थितियों की मारी आभा को एकांत में जलने के लिए छोड़ गया था।

रात की कालिमा ने पूरब के क्षितिज पर अपने पंख फैलाए और कमरे के अंदर की धुंध कुछ और गाढ़ी हो गई तो आभा ने उठकर कमरे की बत्तियाँ जला दीं। बिजली की जगमगाती रोशनी में मंजू ने उस चित्र की ओर देखा, जिसमें धीरज नन्हे मनु को गोद में लिए खड़ा मुस्करा रहा था।

मंजू ने कुछ सोचते हुए आभा की ओर देखा और धीमे स्वर में बोली, 'इतने छोटे बच्चे को पाल-पोसकर बड़ा करना मुश्किल तो होता ही पुरुषों के लिए. शायद इसी कारण धीरज ने वापस भेज दिया होगा, मनु को? समझ तो गया ही होगा कि यह तो बस नारी ही है, जो नौकरी करते हुए भी बच्चे को पाल-पोसकर बड़ा कर सकती है।'

इतने ही में बराबर के कमरे से एक बार फिर वही आवाज सुनाई दी-'मम्मी मम्मी'। आभा घबराकर उठी और लपककर कमरे में चली गई.

घड़ी की सुइयाँ अपने डायल पर सात बजाकर तीसवें मिनट की ओर बढ़ रही थीं। रात का पहला प्रहर आरंभ हो गया था। सामने खड़े गुलमोहर के दो पेड़ धुंध में लिपटे दो काले धब्बों की तरह दिखाई पड़ रहे थे। मंजू सोच रही थी कि क्या सचमुच पुरुष का मन इतना ही छोटा, इतना ही शंकालु होता है? उसे याद आया कि आभा ने नौकरी तो धीरज के कहने से ही की थी। तो फिर क्यों वह अपने-आपको इसके लिए तैयार नहीं कर सका कि नौकरी करनेवाली महिलाओं को उतनी आजादी भी दी जानी चाहिए, जितनी उनके लिए आवश्यक है। मंजू ने यह सवाल जैसे अपने-आपसे किया और विचारां के अथाह सागर में डूब गई. आभा किचन में थी, जहाँ से बर्तनों के खनकने की आवाज आ रही थी। उसके मस्तिष्क में आभा द्वारा बताई गई घटनाएँ केंचुओं की तरह रेंगने लगीं।

छोटी-छोटी घटनाएँ, छोटी-छोटी शंकाएँ बढ़कर कितना भयंकर रूप धारण कर लेती हैं। मंजू एकांत में यह सोचकर काँप गई.

दफ्ऱतर से कभी-कभी देर से घर लौटना क्या नौकरी करनेवाली महिला की मजबूरी नहीं हो सकती और क्या पुरुष हमेशा ही ठीक समय पर घर पहुँच जाते हैं? फिर जिस नियम का पालन वे स्वयं नहीं कर सकते, उस पर चलने की आशा महिलाओं से कैसे की जा सकती है? जबकि दोनों की मजबूरियाँ एक हैं, दोनों की विवशताएँ एक हैं।

मंजू ने एक बार सोचा तो सोचती ही चली गई—

क्या दफ़्तर में काम करनेवाले साथियों को कभी-कभी चाय पर घर बुला लेना, उनसे निःसंकोच घुल-मिलकर बात कर लेना किसी संदेह का आधार बन सकता है! क्या पुरुष स्वयं यह सब नहीं करता और क्या पत्नियाँ उस पर इसी तरह शक करती हैं, जैसे धीरज निरंतर आभा पर करता रहा?

उसे वह घटना याद आई, जिसने एक झटके के साथ उस डोर को तोड़ दिया था, जिसने इस छोटी-सी गृहस्थी को अपनत्व के रिश्ते में बाँध रखा था। लंबी चिट्ठी की वे पंक्तियाँ उसकी आँखों में घूम गईं, जो आभा ने इस घटना को लेकर उसको लिखी थीं।

उस दिन शाम बहुत ठंडी थी और हलकी-हलकी वर्षा ने माहौल को अत्यधिक सुहाना बना दिया था। आभा दफ्ऱतर से जल्दी घर लौटना चाहती थी, लेकिन हैंडलूम कारपोरेशन के जनरल मैनेजर ने, जहाँ वह स्टेनो-टाइपिस्ट थी, अचानक कर्मचरियों की मीटिग बुला ली। मीटिग दो घंटे से अधिक समय तक चली। अँधेरा होने पर जब वह घर पहुँची तो पाया कि धीरज ने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया है। उसने बार-बार कॉलबैल पर हाथ रखा, दस्तक दी, आवाजें दीं, दरवाजा खोलने की विनती की। देर तक वह द्वार पर खड़ी रोती रही। अंत में उसे एक ही जवाब मिला।

'अब यह रात भी तुम वहीं गुजारो, जहाँ यह शाम गुजारकर आई हो।' और आभा सारी रात अपनी एक सहेली के यहाँ पड़ी सुबकती रही थी।

सवेरे जब वह घर पहुँची तो धीरज अपना सामान बाँधकर तैयार हो चुका था। माँ के वियोग में चिल्ला-चिल्लाकर मनु बेसुध-सा पलंग पर पड़ा था। उसने धीरज से कुछ पूछना, उसे रोकना चाहा, लेकिन इससे पहले कि वह कुछ बोलती, कुछ कहती, उसने देखा कि धीरज दो वर्ष के मासूम मनु को साथ लेकर घर से बाहर हो गया और आभा उसे टुकर-टुकर देखती रह गई. सामने मेज पर चिट्ठी पड़ी थी, जो धीरज उसके नाम लिखकर छोड़ गया था-

'अब तुम जहाँ चाहो, आजादी से घूम-फिर सकती हो, मैं हमेशा के लिए घर छोड़कर जा रहा हूँ। मनु मेरा है, इस पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं।'

घटनाएँ एक-एक करके मंजू के मस्तिष्क में उभरीं और कमरे के उदास वातावरण को और बोझिल करके गुजर गईं।

आभा आई तो उसके चेहरे पर वही शांत उदासी थी, जो अब उसके अस्तित्व का हिस्सा बन गई थी।

मंजू ने बेचैनी से उसकी ओर देखा। धीमे से बोली-'क्या धीरज कभी देर से घर नहीं आया था, जो उसने इतनी कड़ी सजा तुम्हें दी!'

'क्यों नहीं, अक्सर और एक बार तो वह रात को ढाई बजे के बाद घर लौटा था। मैं सारी रात द्वार खोले उसकी प्रतीक्षा करती रही थी। दरवाजा खुला देखकर उसने हैरत से पूछा था,' तुमने द्वार नहीं बंद किया, जागती रहीं—क्यों? '

'द्वार क्यों बंद करती?' मैंने उत्तर दिया था, 'जिस नारी की सारी संपत्ति, सारी दौलत घर से बाहर हो, वह दरवाजा क्याँ बंद करेगी?'

यह घटना बताते हुए आभा की आँखें आँसुओं से भर गईं। इतने में बराबर के कमरे से फिर आवाज आई-'मम्मी-मम्मी'।

मंजू ने पूछा-'मनु को यहाँ क्यों नहीं ले आती? क्या उसकी तबीयत ठीक नहीं? लेटा हुआ है?'

आभा चुप रही—

मंजू ने कहा-'मुझे तो पता नहीं था, धीरज ने तुम्हारा बेटा वापस कर दिया होगा। यह जानती तो उसके लिए कोई उपहार ही ले आती। यह रुपये लो और उसके लिए एक अच्छी-सी शर्ट बाज़ार से मँगा देना।'

लेकिन आभा ने हाथ नहीं उठाया। बोली, 'यह पैसे तुम मनु ही को दे दो। जाओ उधर कमरे में-'

मंजू कमरे में पहुँची। देखा प्लास्टिक का एक बच्चा स्टैंड पर रखा है। बिस्तर सूना है। कमरे में कोई नहीं। हाँ, थोड़ी-थोड़ी देर बाद उस बच्चे के होंठ हिलते हैं और उनसे आवाज निकलती है-'मम्मी-मम्मी'।

मंजू खड़ी न रह सकी। सिर थामकर बैठ गई, जैसे वह कुछ भी सोच पाने की स्थिति में न हो।

उसे लगा कि जिदगी एक दायरा है और ममता उसके चारों ओर एक लक्ष्मण-रेखा खींचे हुए है। शायद कोई भी उससे बाहर नहीं निकल सकता।

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