एक और सितारा-पुत्र के आने की तैयारी / जयप्रकाश चौकसे
एक और सितारा-पुत्र के आने की तैयारी
प्रकाशन तिथि : 25 अगस्त 2012
सनी देओल के सुपुत्र करण अभिनय क्षेत्र में प्रवेश की तैयारी कर रहे हैं। ये देओल परिवार की तीसरी पीढ़ी है। मुंबई में श्रेष्ठि वर्ग के क्षेत्र जुहू में उनके बंगले को पंजाब का पिंड माना जाता है। पंजाब से आए अनेक लोगों को लंगर की सुविधा वहां प्राप्त होती है। सनी देओल आजकल सही पटकथा के चुनाव में व्यस्त हैं और 'यमला पगला दीवाना-२' की शूटिंग के लिए लंदन जा रहे हैं। इस फिल्म के प्रदर्शन के बाद और 'घायल-२' के प्रारंभ के पहले करण की फिल्म की पटकथा और निर्देशक का चुनाव हो जाएगा। इसके प्रेमकथा होने के कारण संभवत: पिता पुत्र को निर्देशित नहीं करना चाहता। सनी देओल की पहली फिल्म 'बेताब' राहुल रवैल ने निर्देशित की थी और 'घायल-2' भी वही बनाने जा रहे हैं। अत: करण के लिए कोई और निर्देशक लिया जाएगा। सनी देओल का विचार है कि आजकल सितारे का अच्छा अभिनेता होने से ज्यादा जरूरी है कि उसे मार्केटिंग की कला का ज्ञान हो। आज कुछ लोग ऊंचाई पर पहुंचे हैं केवल अपनी मार्केटिंग काबिलियत की वजह से। सनी देओल कभी भी प्रचार के काम में नहीं लगे। वह अपनी जिंदगी में संजीदा और खामोश किस्म के इंसान हैं। धर्मेंद्र ने भी अपने शिखर दिनों में मीडिया से दूरी बनाए रखी। सनी देओल का कहना है कि आज केवल सलमान खान ही शिखर सितारा होने के योग्य हैं क्योंकि वह निहायत-ही ईमानदार और दानी प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं तथा प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए दान देते रहते हैं। वह फिल्म उद्योग की राजनीति से दूर रहते हैं और केवल अपनी शर्तों पर काम करते हैं।
सनी देओल ने टेलीविजन के लिए कुछ दिन शूटिंग की थी, परंतु उन्हें इस क्षेत्र में काम करने की शैली रास नहीं आई। धर्मेंद्र ने अपने शिखर दिनों में खंडाला के पास सौ एकड़ जमीन खरीदी थी और बहुत बड़े प्रलोभन के बाद भी उन्होंने वहां स्टूडियो या व्यावसायिक कांप्लेक्स खोलने से इनकार कर दिया। वहां खेती होती है और उनका अपना डेयरी फॉर्म भी है। गोयाकि पंजाबी पुत्तर को जब अपने पिंड की याद आती है, तब वह अपने फॉर्म हाउस चला जाता है। धर्मेंद्र अपने प्रारंभिक दिनों में इस कदर जमीनी और भोले थे कि जब उन्होंने अपने बंगले पर राज कपूर को आमंत्रित किया, तब उनके यह पूछने पर कि कितना बड़ा बंगला है, धर्मेंद्र ने कहा कि चालीस-पचास मंजियां (खाट या पलंग) बिछ सकती हैं। भला पंजाब का आदमी इंच और फुट क्या जाने। धर्मेंद्र से लेकर तीसरी पीढ़ी के करण देओल तक सबके चेहरे पर मासूमियत है, परंतु जिस्म कसरती है। कोमलता और दृढ़ता का ये मेल ही इस परिवार की विशेषता रही है। इसी तरह लड़कियों में, बतर्ज श्रीदेवी के मासूमियत और मादकता का मेल कमाल करता है, जैसे वर्तमान में हम सोनाक्षी सिन्हा में देख रहे हैं। सनी देओल अपने बेटे को रोमांटिक छवि देना चाहते हैं, जैसी उन्होंने अपने भाई बॉबी देओल को 'बरसात' में दी थी। इसमें अड़चन ये है कि अवाम और खासकर पंजाब का दर्शक देओल से एक्शन की उम्मीद रखता है। प्रचलित छवियों को तोडऩा मुश्किल काम है। हिंदुस्तानी सिनेमा में भी सर्वाधिक फिल्में प्रेम या एक्शन आधारित रहती हैं।
सितारा पुत्रों के प्रति दर्शक में स्वाभाविक रुचि होती है और उनमें वे उनके सितारा पिता की झलक देखने को बेकरार रहते हैं। गैर-सितारा पुत्र का रास्ता कठिन होता है, परंतु उस पर छवि का भार नहीं होता। जब रणवीर सिंह 'बैंड बाजा बारात' में प्रस्तुत हुए, तब उन पर कोई अतिरिक्त दबाव नहीं था। सबसे अधिक दबाव रणबीर कपूर पर था, क्योंकि उनके पिता, दादा और परदादा सभी शिखर सितारे थे। 'सावरिया' की पहली झलक से ही वह सितारा हो गए क्योंकि उनका अंदाज कपूराना होते हुए भी कुछ अलग था। इस पहली झलक के कारण ही 'सावरिया' की असफलता के बावजूद उन्हें अनेक फिल्मों के प्रस्ताव मिले। उन्होंने हमेशा विविध भूमिकाएं की हैं। यहां तक कि प्रकाश झा की 'राजनीति' में वह आधा दर्जन कत्ल भी करते हैं। भारतीय समाज में सामंतवाद की जड़ें गहरी हैं। इसी कारण सितारा पुत्र के आने को युवराज का आगमन माना जाता है और ताजपोशी के लिए लोग बेकरार रहते हैं। राजनीति में भी परिवारवाद चला आ रहा है और रहुल गांधी को युवराज ही माना गया। उनकी ताजपोशी के लिए भी लोग अधीर थे, परंतु उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिली। उनके द्वारा किए गए अच्छे काम भी प्रचारित नहीं हो पाए और वे अपनी मौलिकता या किसी परंपरा के निर्वाह का कोई आभास ही नहीं दे पाए। अभी भी उनके पास अपने को साबित करने का अवसर है। दरअसल इतिहास गवाह है कि कोई भी वंश हमेशा नहीं चला है। लव-कुश के पुत्रों के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं है। हर व्यक्ति के चरित्र में पारंपरिक गुणों के साथ ही अपनी निजी मौलिकता भी होती है, तभी उसका असर होता है।