एक और सूरज / जितेन ठाकुर
अधिकांश लोगों ने मान लिया था कि वह पगला चुका है। कुछ अधिक उदार दृष्टि रखने वाले लोग पगलाने के स्थान पर 'सनकना' शब्द प्रयोग करते। परंतु यह तो लगभग तय था कि अब वह पहले जैसा सामान्य व्यक्ति नहीं रह गया है। इसके विपरीत वह अपने प्रति आश्वस्त था और अपने साथियों के प्रति चिंतित। वह अकसर सोचता कि उसके इन बाबू साथियों की आँखें इतनी सूनी क्यों हैं? इनमें कभी भी कोई सपना क्यों नहीं उभरता।
दरअसल, हुआ यों था कि उसने अपनी बेदाग़ नौकरी के सत्रहवें साल में स्कूटर ख़रीदने के लिए कर्ज़ की अर्ज़ी दी थी। दफ़तर ने कर्ज़ मंजूर करते समय जो काग़ज़ माँगे थे उनमें ड्राइविंग लाइसेंस भी शामिल था। वह लाइसेंस बनवाने आरटीओ गया था। उसने लाइसेंस बनवा भी लिया था। पर जब लाइसेंस उसके हाथ में आया तो वह चौंक गया! स्कूटर की जगह कार का लाइसेंस बना हुआ था।
दफ़्तरी भाषा में तो यह महज़ एक 'क्लैरिकल मिस्टेक' थी। पैन की निब स्कूटर पर टिकने की जगह कार पर टिक गई थी। इस ग़लती को बिना जद्दोजहद के सुधारा भी जा सकता था। परंतु उसके लिए तो यह एक ईश्वरीय संकेत था।
"हमें प्रभु की इच्छा का सम्मान करना चाहिए, "उसने पूरा प्रकरण साथियों को बतला कर बात समाप्त कर दी थी।
"अबे चरखी के. . . ईसाई हो गया है क्या, जो प्रभु की इच्छा गाए जा रहा है। चुप करके जा और लाइसेंस ठीक करवा ले। वरना कार तो दूर, स्कूटर का लोन भी न मिलने का," मुँहफट करनवाल से रहा नहीं गया। "मुझे अब स्कूटर का लोन नहीं चाहिए, "उसकी घोषणा ने बाबू समुदाय के सपाट चेहरों को परेशान कर दिया था। "तो क्या हवाई जहाज़ का लोन चाहिए," सभी हँस पड़े थे। "नहीं, हवाई जहाज़ का नहीं - कार का लोन चाहिए। मैं अब कार खरीदूँगा, स्कूटर नहीं," उसने बिना विचलित हुए उत्तर दिया। "कार। कौन-सी। शैवर लैट या बयूक।" एक बार फिर ठहाका फूट पड़ा था। कोई भी उसकी बात के प्रति गंभीर नहीं था। सब यही सोच रहे थे कि या तो वह मज़ाक कर रहा है या यह सब उसका दिमाग़ी फितूर है। दो चार घंटे न सही दो चार दिन में ठीक हो जाएगा। पर जब हालात नहीं बदले तो उसे समझाने की कोशिशें शुरू हो गई। "पागलपन छोड़ो। मान लो तुमने अपनी कुल जमा पूँजी लगाकर कार ख़रीद भी ली तो उस सफ़ेद हाथी को पालोगे कैसे? जितनी तुम्हारी तनख्व़ाह है उतना तो पेट्रोल ही फुँक जाएगा।" "नहीं ऐसा नहीं होगा, वक्त तेज़ी से बदल रहा है। किसने सोचा था कि एक दिन मोबाइल फ़ोन पाँच सौ में मिल जाएगा। बस इसी तरह एक दिन कार भी मिलेगी," उसका विश्वास नहीं दरका। "ये तुम्हारा दीवानापन है। ऐसा दिन शायद हमारी ज़िंदगी में कभी नहीं आएगा," साथी ने लंबी साँस ली थी। "न आए तो न सही। पर अब मैं स्कूटर नहीं ख़रीदूँगा। जब भी ख़रीदूँगा कार ही ख़रीदूँगा," वह स्थिर दृष्टि से शून्य में घूर रहा था जहाँ कई कारें सरसराती हुई फिसली जा रही थीं। "तेरे घर के दोहरे कोई पागलों का डाक्टर नहीं है क्या?" करनवाल फिर चिढ़ गया। वह चुप रहा। "अपने दिमाग़ का इलाज करवा ले। जो साहब ने तेरी बातें सुनीं तो बेवक्त रिटायर कर देगा।"
उसके बाकी साथी इतनी तल्ख बातें कहते तो नहीं थे पर उनकी रज़ामंदी भी इसी में शामिल थी। उसे भी इस हक़ीक़त का इल्म था। पर इस सबके बावजूद वह अडिग था। स्कूटर की जगह कार का लाइसेंस बन जाना उसके लिए न तो 'क्लैरिकल मिस्टेक' थी और ना ही कोई दुर्योग। वह इसे विशुद्ध ईश्वरीय संकेत मानता था जो उसे कार ख़रीदने के लिए प्रेरित कर रहा था। इसीलिए उसने एक मोटर ड्राइविंग स्कूल में दाखिला ले लिया था और सुबह-सवेरे उठकर कार सीखने जाने भी लगा था। उसे विश्वास था कि हालात बदलने वाले हैं।
उसने एक डायरी बनाई और उसमें कारों का विवरण दर्ज करने लगा। किस कार में क्या खूबी है? कितना माईलेज देती है? शो रूम का मूल दाम क्या है और इंश्योरेंस-टैक्स वगैरह लगाकर सड़क तक आने में कितना रुपया और लगेगा। यह सब उसकी डायरी में दर्ज रहता। इसके साथ ही वह देखी गई कारों के नाम, रंग और मॉडल भी तारीखवार नोट करता। उसका मानना था कि इससे, उसे एक ऐसी कार ख़रीदने में मदद मिलेगी जो शहर में सबसे अलग होगी। औ़र तब लोग उसकी कार देखकर उसे दूर से ही पहचान जाएँगे।
कुछ इतवार उसने कार बाज़ार में भी गुज़ारे। पर वहाँ जल्दी ही लोग उससे कतराने लगे। दलाल उससे बात करने में समय की बरबादी को समझ गए। किसी-किसी ने तो खीझकर उसे झिड़क भी दिया। अंत में उसने कार बाज़ार का रास्ता ही छोड़ दिया। वैसे भी अब उसके लिए कार बाज़ार का आकर्षण समाप्त हो चुका था। वहाँ इकठ्ठा सारी कारों का विवरण अब उसकी डायरी में दर्ज था।
कभी-कभी सड़क पर चलते-चलते, वह अचानक रुक जाता। जेब से सिगरेट की डिब्बी निकालता। सिगरेट सुलगाता और किनारे खड़ी किसी सुंदर कार से पीठ टिका कर धुएँ के गोले बनाने लगता। छुपी नज़रों से लोगों के चेहरे टटोलता। यदि किसी चेहरे पर कार से टिकी उसकी भंगिमा का दबदबा उभरता, तो उसका मन लहलहा उठता। उसकी ऐसी सनकाने वाली स्थिति से भला किसी को क्या एतराज़ हो सकता था, परंतु इसके बाद उसके बढ़ते जुनून ने कुछ मुश्किलें पैदा कर दी थीं। जैसे पास से गुज़रती किसी कार को रोक कर वह पुछता -"आपने यह जो सीट कवर लगाया है, बहुत सुंदर है। कहाँ से ख़रीदा?" या फिर रोक कर कहता -"आपका हार्न बहुत म्यूज़िकल है। मुझे भी अपनी गाड़ी में यही लगवाना है। कहाँ मिलेगा?"
बेवजह अचानक गाड़ी रुकवाए जाने पर कई बार प्रतिक्रिया अत्यंत विस्फोटक होती। पर उस पर इसका कोई असर नहीं पड़ता। सिर झुकाए हुए चुपचाप वह आगे बढ़ जाता। गाड़ियों के प्रति उसका रुझान जितना बढ़ रहा था, जिस्म और पहरावे के प्रति उतना ही घट रहा था। कई सुबह तो उसकी आँखों में मैला भरा रहता, दाढ़ी बढ़ी रहती और बालों में कंघी करना भी भूल जाता। मैले कफ-कॉलर वाली क़मीज़ हो, उधड़ी सिलाई वाला स्वेटर या बिना क्रीज़ की पैंट - उसे कोई अंतर नहीं पड़ता। कंधे पर लटकते झोले में डायरी, मफ़लर, टोपी, पानी की बोतल और टिफ़िन ठुँसे रहते। कई-कई बार तो घर से भर कर चला टिफ़िन शाम को भरा हुआ ही घर लौट आता। अलबत्ता उस दिन डायरी में किसी ख़ास गाड़ी के टायर से लेकर वाईपर तक का सारा विवरण अंकित रहता।
एक दिन तो हद ही हो गई। एक जनरल स्टोर के बाहर खड़ी कार का दरवाज़ा खोल कर वह उसमें बैठ गया। स्टेयरिंग घुमा कर देखा, सीट को आगे पीछे किया। हैंड ब्रेक को हिलाया डुलाया और मीटर की सुइयों को जाँच-परख कर नीचे उतर गया। गनीमत यह रही कि कार के मालिक ने उसकी यह हरकत नहीं देखी और वह एक बड़ी मुसीबत से बच गया।
ऐसे अविस्मरणीय कृत्य वह सड़कों पर ही करता था। दफ़तर में चुपचाप सिर झुकाए हुए काम करता रहता। यह बात अलग थी कि उसे अब ज़िम्मेदारी का काम दिया जाना बंद हो गया था। समझाने वाले कुछ साथी नियति को स्वीकार कर चुके थे, पर कुछ अब भी नाउम्मीद नहीं थे। हँसने वाले पहले भी हँसते थे और अब भी हँस रहे थे।
कार लोन के लिए उसने जो दरख़्वास्त दी थी पहले ही नामंजूर हो चुकी थी। प्राविडेंड फंड से रुपया निकालने की अर्ज़ी भी खारिज होने के बाद वह हताश हो गया। शाम को लोगों ने एक नया दृश्य देखा। वह दफ़तर की सीढ़ियों से उतरकर पोर्च में खड़ा हुआ और उँगलियों से चाबी फँसाने का उपक्रम करते हुए मुँह से कार स्टार्ट होने की ध्वनि निकालने लगा। फिर गीयर बदल कर अदृश्य स्टेयरिंग को घुमाया हुआ दफ़तर के अहाते से बाहर निकल गया। मुख्य सड़क पर आने से पहले हॉर्न देकर उसने राहगीरों को सचेत भी किया था। अब ये कौतुक प्रतिदिन देखने को मिलता। स्टेयरिंग घुमाते और हार्न बजाते हुए दफ़तर में आने के बाद वह पार्किंग वाले टीन शेड में जाता, अदृश्य कार खड़ी करता, दरवाज़ा बंद करके उसे बाकायदा लाक करता और फिर शालीनता से सिर झुकाए दफ़तर की बिल्डिंग में समा जाता। वह नहीं चाहता था कि उसके पास कार आने के बाद, उसके व्यवहार में कुछ ऐसा लक्षित हो कि साथी उसे घमंडी समझ लें।
यदि कोई कहता, "यार तुम्हारी कार में हमें दिखलाई नहीं देती।" तो वह तमक कर उत्तर देता, "आँख का इलाज करवाओ दिखलाई दे जाएगी।" कोई छेड़ता, "कार का क्या हाल बना रखा है। साफ़-सफ़ाई भी करते हो या नहीं?" "सर्विसिंग करवानी है यार। टाइम नहीं मिलता।" वह निहायत चिंतित स्वर में उत्तर देता या फिर कभी स्वयं ही कहता। "आज रास्ते में कुछ प्रॉब्लम कर रही थी। लगता है टयूनिंग करवानी पड़ेगी।" ऐसे ही कारणों से उसके लिए "पगला गया है" जैसा विशेषण प्रयोग होने लगा था। अन्यथा उसके व्यवहार में अन्य कोई ऐसा लक्षण नहीं था कि उसे पागल करार दिया जाता।
इकत्तीस दिसंबर की रात बेहद ठंडी थी। चारों तरफ़ घने कोहरे की परत जमी हुई थी। हाथ को हाथ सुझाई नहीं देता था। इसके बावजूद सड़कें आबाद थीं। गाड़ियों के पीछे गाड़ियाँ दौड़ी चली जा रही थीं। उसने भी अपनी अदृश्य कार सड़क पर निकाल ली। जब लाइट जलाने के बाद भी कुछ दिखलाई नहीं दिया तो उसने फॉग लाइट आन कर दी। अब कुछ दिखलाई देने लगा था। उसने गीयर बदला, एक्सीलेटर पर पैर का दबाव बढ़ाया। कार उड़ चली। कायदे से इंडिकेटर और डिपर देता हुआ वो बड़ी सड़क पर आ चुका था। पर जाने कैसे अचानक स्टेयरिंग बहक गया। कार लहरा कर सड़क के बीचो-बीच आ गई। और एक भयानक आवाज़ के साथ कोहरे की घनी चादर फट गई!
अगली सुबह! रंगीन फूलों के हज़ारों खुशनुमा गुलदस्तों से लदा हुआ सूरज, उसके क़रीब से गुज़रता हुआ शहर की तरफ़ बढ़ गया।