एक कच्ची प्रेमकथा / सुरेन्द्र स्निग्ध
चूल्हे से उठती हुई आँच की लौ आज चिता की उठती अग्नि शिखा-सी लगी थी। दो भिन्न स्थितियाँ और उनके बीच झूलता हुआ मैं-जहाँ चिता की अग्नि के बुझ जाने पर मौन निर्विकार घर लौट आया था, वहाँ आज चूल्हे की अग्नि के बुझ जाने पर फूट-फूट कर रो पड़ा था। धू-धू करती हुई चिता की अग्नि और पट्-पट् चट्-चट् करते हुए पास के सीसम के पेड़ के पत्ते भी मुझे इतने भयानक नहीं लगे थे जितनी कि आज इस चूल्हे की उठती हुई आँच की लौ तथा बगल में रेलिंग पर रखे गमले में मनीप्लाण्ट के स्थिरप्राय मोटे चौड़े पत्ते लगे थे।
स्मृति अभी भी ताज़ा है। मेरी माँ की देह पर ओढ़ाया गया श्वेत कफ़न मुझे ऐसे ही दीख पड़ा था, जैसे आज रीता की देह पर श्वेत रेशम की साड़ी। रीता-जवानी के भार से लदी विवाहिता रीता — मेरी प्रेमिका थी। रीता पत्नी किसी और की थी — प्रेमिका मेरी। मैं उसकी मांग के सिंदूर को अच्छी तरह पहचानता था, सिंदूर का महत्व भी समझता था — विज्ञान के विद्यार्थी के नाते मात्र इतना नहीं मानता था कि सिंदूर तो मात्र पारे का एक यौगिक है — केमिकल कम्पाउण्ड —’मरक्यूरिक सल्फाइड‘—जो पारे तथा फ्लावर और सल्फर को थोड़ा सोडियम हाइड्रॉक्साइड के साथ मिलाकर खरल में पीसने से बनता है। ऐसे वातावरण में पला हूँ जहाँ धार्मिक प्रवृतियों को सहज पोषण मिलता रहा था। मैं अच्छी तरह जानता था कि रीता की मांग का सिंदूर मुझे सदैव एक कर्त्तव्यबोध देता रहेगा। मैं यथार्थ से विमुख नहीं था, मैं जानता था हमारा प्यार एक भावनाप्रधान नाटक है। रीता ससुराल चली जाएगी और इस नाटक का अंत हो जाएगा। ऐसा मेरा विचार था। बहुत यथार्थवादी बनने का गर्व करता था न ! मैंने कई बार रीता को समझाया कि उसे अब अपने पति को प्यार करना चाहिए। लेकिन न जाने क्यों वह अपने पति को प्यार नहीं कर सकी। पत्नी बनी रही, प्रेमिका नहीं। मेरी प्रेमिका बनी रही-पत्नी किसी और की। चूल्हे की उठती आँच-धू-धू चट्-चट् करती चिता की अग्नि-मनीप्लाण्ट के स्थिर पत्ते!....
लेकिन सीसम के पत्ते मौन नहीं थे। ज़ोरों की चलती हुई पछिया हवा और पछिया हवा के साथ धू-धू कर उठती हुई चिता की अग्नि मेरी माँ की देह जला रही थी। चिरायन-सी उठती गंध ! कितना प्यार करती थी माँ मुझको ! प्यार की गंध....! श्मशान तक ले जाने के लिए मैंने अपनी माँ की अरथी उठाई थी — प्यार की अरथी ! और आज रीता की मांग में सिन्दूर देकर ऐसा ही कर दिया मैंने। ऐसा लगा रीता की ज़िन्दा लाश को कंधे पर उठाकर मैं पटने के हर श्मशान घाट में भटक आया हूँ। हर घाट पर भीड़ और हर भीड़ में मैं अपने को नंगा समझने लगता हूँ। मैं भाग खड़ा होता हूँ। अंत में उसी के घर में चूल्हे के निकट दफनाने की प्रक्रिया के लिए तैयार हूँ।
अग्नि जोरों पर थी। माँ की देह अग्नि-शिखाओं में पूरी तरह से घिर चुकी थी। सिर्फ गोरा पैर नज़र आ रहा था। रीता चूल्हे के समीप बैठी थी। चूल्हे की लौ धीमी गति से तवे में लग रही थी। अग्नि-प्रकाश से रीता का सुन्दर मुखड़ा चमक जाया करता था। सहज लज्जा, संकोच एवं समर्पण की त्रिवेणी, रीता की सुंदरता को और भी बढ़ा रही थी। लेकिन मुझे तो ऐसा लग रहा था मानो रीता पूरी तरह अग्नि में घिर चुकी है। सिर झुकाए बैठी रीता की खाली मांग स्पष्ट दृष्टिगोचर थी। विवाहिता रीता की ख़ाली-ख़ाली गोरी मांग —चिता पर रखे मेरी माँ के गोरे पैर।
सभी की घिघ्घी बँध गई थी, जब मैं चुपचाप माँ की लाश को देख रहा था। आँखों ने आँसू की एक भी बूँद न चुआई — कितना कठोर बन गया था मैं ! लेकिन रीता की मांग में सिंदूर भरकर मैं इतना क्यों रो पड़ा था?
दुहरी ज़िन्दगी मैं जी रही हूँ — आप क्यों रो पड़े ! आपके जीवन के हर क्षण में रीता आपके साथ रहेगी — आपकी प्रेमिका रीता। बाबूजी ने आज स्पष्ट कह ही दिया, ’ससुराल में पास ही तो रेलवे लाइन है, कट जाना, मैं तीन गज़ कफ़न भेज दूँगा।‘ मैं इस तरह मरना नहीं चाहती, सुदीप ! मुझे पुनर्जन्म का कोई विश्वास नहीं। तुम जब भी आवाज दोगे, रीता चली आएगी। और आज लगता है मेरी पत्नी रीता मर गई। मेरी आवाज़ अंतरिक्ष में बिला गई। प्रेमिका रीता तो अब भी ज़िन्दा है... हर साँस में बसी है।
’रीता तुम्हें यह व्रत नहीं करना चाहिए। तुम तो शादी शुदा हो न !‘ — गाँधी घाट मंदिर से पूजा कर लौटने पर मैंने पूछा था और वह भौंचक-सी रह गई थी।
“किसने कहा मेरी शादी हो गई है ! शारीरिक संबंध का ही नाम शादी है क्या? मेरी आत्मा ने स्वप्न में भी कभी ’उसे‘ चाहा है क्या? आज तो व्रत रखकर मैं अपनी आत्मा को परमात्मा बनाना चाह रही हूँ... इसकी शुद्धि कर।”
रीता की इन सारी बातों को सुनकर मैं अवाक् रह गया था। मुझे रीता के सारे पत्र याद आ जाते हैं जिनमें वह जिक्र करती थी — आज पति के संग सोई थी, मन आपके पास था। मन ने शरीर को जीत लिया। लगा आप मेरे संग सोए हैं। मैंने सोचा, आपको बाँहों का हार पहना ही दूँ। क्यों, आप भी स्वप्न में मेरी बाँहों का ही तकिया लेते हैं न ! मैंने कसकर आपको जकड़ लिया... कई गर्म चुम्बन ले डाले। जब स्वप्न भंग हुआ, मैं फफक कर रो उठी। पास में तो ’ये‘ सोए थे। हाय !... मैं बराबर इसी तरह टूटती जा रही हूँ। कब तक यह ज़िन्दगी?...या — ’आप दिन-दिन सूखते जा रहे हैं। हंसी का स्थान गहरी उदासी ने क्यों ले लिया है? आप कुछ भी बोलते क्यों नहीं? क्या मैं आपको खुश रखने के लिए कुछ भी नहीं कर सकती?
आप एक बार कुछ भी तो माँगिए, आपकी रीता जान तक दे डालेगी... आदि-आदि। मुझे लगता है रीता के सिर से किसी उपन्यास की ऐसी नायिका तो नहीं बोल रही है जो अपने प्रेमी के प्यार के लिए भटक-भटक कर मर जाती है। मुझे स्मरण है — मैंने एक दिन उसे ’अमृता प्रीतम‘ का एक उपन्यास ’एक थी अनीता‘ पढ़ने के लिए दिया था। किताब लौटाते समय रीता ने कहा था — मुझमें और अनीता में कुछ अन्तर है क्या ! मैं शुद्ध आत्मा अपने प्रेमी को दूँगी। रीता बोल उठी थी।
रीता, आत्मा का देह से परे भी कुछ अस्तित्व तुम मानती हो?
कैसी बातें करते हो, सुदीप ! तुम तो विशेष पढ़े-लिखे हो। आत्मा चिरंतन सत्य है। यह तो देह में वास करती है। देह को देह की भूख होती है आत्मा को आत्मा की। तुम इस बात को अच्छी तरह जानते हो, सुदीप, मेरी यह देह कई बार अपने पति की देह का आहार बन चुकी है। मेरे कई बार प्रत्यक्ष या परोक्ष चाहने पर भी तुमने अपनी देह की भूख मेरी देह से नहीं मिटाई। फिर भी हम दोनों एक दूसरे को प्यार करते रहे। जानते हो क्यों? मेरी आत्मा सिर्फ़ तुम्हारी आत्मा का आहार है। दोनों का मिलन ही परमात्मा के सृजन का सूचक होगा। देह की भूख तो वेश्यालयों में भी मिटाई जाती है। ’सेक्स और सोल‘ इसे तुम अच्छी तरह जानते हो। रीता की इन बातों को सुनकर मैं चौंक उठा था। लगा, जब तक रीता की आत्मा मेरी आत्मा का आहार न बनेगी, रीता की परमात्मा के सृजन की अभिलाषा अधूरी रह जाएगी। सिंदूर भर दिया मैंने रीता की ख़ाली मांग में।
उस दिन जब मैं मौन निर्विकार माँ की लाश को टकटकी लगाए देख रहा था, लग रहा था, माँ मरी नहीं वह सो गई है। उसकी आत्मा इर्द-गिर्द छाई रहेगी। और माँ के अधजले शरीर तथा गोरे पैरों का चिता की अग्नि में बुरी तरह झुलस जाना — आज ऐसा ही प्रतीत हुआ, मैं स्वयं अपनी माँ की लाश हूँ, जो रीता के प्यार की चिताग्नि में घिर गया हूँ। जल रहा हूँ धू-धू, चट्-चट् !
तुमने मेरी मांग भर दी, सुदीप ! मेरी आत्मा को अब शांति मिल गई। चूल्हे की अग्नि हमारी इस शादी की साक्षी है। कहकर रीता उठ गई थी। चेहरे पर लज्जा का गाढ़ा पोत लगता जा रहा था... गालों की अरुणाई बढ़ती जा रही थी।
तुम तो पहले से ही शादी-शुदा हो। मैंने तो सिंदूर से तुम्हारी मांग को और लाल कर गाढ़ा बना दिया है। मैंने पहले ही कह दिया है। आत्मा ने आज स्वीकार किया है तुम्हें। आत्माविहीन शरीर की क़ीमत तो बस मेडिकल कॉलेजों में ही लगती है — प्रैक्टिकल के लिए। सही माने में ऐसे शरीर की कोई क़ीमत नहीं है। जिस तरह आत्मा सत्य है, सुदीप, सेक्स भी उसी तरह सत्य है। सेक्स की भूख कई जगह कई तरह से मिटती है। क्या किसी ने आज तक किसी लाश से संभोग कर सेक्स की तृप्ति की है? नहीं, क्योंकि वहाँ तो शरीर आत्मविहीन है। वेश्यालयों को स्वीकृति समाज ही देता है। जिस तरह से मेरी शादी इस समाज ने कर दी है, वह तो महज वेश्यावृत्ति का प्रमाणपत्र साबित हुई। सही माने में लोगों ने मुझे वेश्या बना दिया। वेश्या और मुझमें क्या अन्तर? वेश्या भी ठण्डी देह देती है — पैसे लेती है। मेरी ठण्डी देह को भी तो मेरे माता-पिता ने मेरे पति को देकर मेरी सुरक्षा मुझे दिलवाई है।
आत्मा विहीन लाश को मानो मेडिकल कॉलेज में बेच दिया है। लेकिन मेडिकल कॉलेज में प्रैक्टिकल के बदले कोई ऐसी लाश से संभोग करने लग जाए तो? सुदीप मेरी आत्मा-युक्त शरीर की शादी तो तुमसे हुई है। शादी का उत्कर्ष ’सेक्स की संतुष्टि‘ माना जाता है न, इसे किसी ने आज तक अस्वीकारा नहीं। आओ सुदीप, आज तुम अपनी देह की भूख मेरी आत्मा युक्त देह खाकर मिटा लो। देख तो लो “तुम्हारी सच्ची पत्नी को समाज से प्रमाणपत्र प्राप्त ग्राहक ने किस कदर नोंच खाया है !” कहती हुई रीता फफक कर रो उठी थी।
मेरी देह रीता की देह से जा लगी। आत्मा-आत्मा से मिलकर प्रतिक्रिया करने लगी — एक नया यौगिक बन गया, जो ऊपर उठता चला गया। ऊपर से ही आत्माओं के इस नये यौगिक को ऐसा दिखाई पड़ा। रीता की देह धू-धू करती हुई चिता की अग्नि है तथा मेरी देह, मेरी माँ की लाश — जो बुरी तरह अग्निशिखाओं में उलझ चुकी है। चूल्हे की अग्नि ठण्डि हो गई। मनीप्लाण्ट का पत्ता कुछ-कुछ डोलने लगा था, अब ऐसा लग रहा था मानो चिता की राख को उड़ा-उड़ा कर यह चौड़ा मोटा पत्ता संसार में आँधी-सी ला देगा और हमारी आत्माओं का यौगिक ऊपर उठता चला जाएगा... उठता चला जाएगा... जहाँ कई परमात्माओं का सृजन होता ही रहता है, और....।