एक कतरा सुख / राजा सिंह
हर दिन का अपना महत्त्व होता है। उसकी बिंदास प्यार की चर्चा और चमक, चीफ कुरेशी साहब से अछूती न रह सकी। उन्होंने उसे ऑफिस के अंतिम घंटों में बुला भेजा। जी हाँ, चीफ ने जो दो पत्नियों से विवाहित थे। एक गाँव वाली और दूसरी शहर वाली और करीब आधा दर्जन बच्चों के पिता। उनकी नज़र में चाहे कितनी औरतों के संपर्क में आया जाए स्थायी बीवी सुरक्षित ठिकाना है जिसे हिलाया नहीं जा सकता। उनके लिए यह सुख था सबसे बड़ा सबसे बड़ा और विश्वसनीय और चमत्कारी भी। क्योंकि अगर कोई मामला फसा तो वह चार तक रख सकते है।
चीफ के चैम्बर में प्रवेश से पहले कुछ पल वह चुपचाप खड़ी थी। वह डर-सी गई थी। क्यों बुलाया, क्या ग़लती हो गई? वह आश्वस्त थी कि उसके दोनों इंचार्ज ने उसके विरुद्ध कोई ग़लत रेपोर्टिंग नहीं की होगी ! क्या ऑफिस में फैले उसके तथाकथित प्रेम प्रसंगों की चर्चा किसी जलनशील ने उनके कानों में ना डाल दी हो और उसे स्पष्टीकरण के लिए बुलाया गया हो? एक ठंडी-सी सिहरन उसकी पीठ पर फिसलने लगी। किन्तु उसे अपनी काया और छाया पर विश्वास था।
प्रवेश पूर्व उसने पूछा, “क्या मैं आ सकती हूँ?”
“हाँ... हाँ...! क्यों नहीं...?” वह गदगद था। फिर एक छोटी-सी मुस्कान उसके अधेड़ चेहरे पर फैल गई.। उसके चमकदार मुस्कराहट भरे प्रसन्न चित व्यक्तित्व से रूबरू होते ही वह उसे देखता ही रह गया, जैसे उसकी निगाहें किसी के मोहपास में बंध-सी गई हो। हालांकि चीफ उससे पहली बार नहीं मिल रहा था किन्तु इतने नज़दीक उसके चैम्बर में निहायत अकेले में...
“कहिए सर, पूछिए सर ?आपने बुलाया था ?” उसने चीफ को अपलक निहारते हुए एक स्वप्निल-सी मुस्कान से कहा।
“अरे! नहीं, कुछ नहीं। ऐसे ही। मैंने तो सिर्फ़ तुम्हारे हाल-चाल पूछने के लिए बुलाया था। सब ठीक तो है ?”
“हाँ... निश्चय ही सर... क्या कोई शिकायत आई है?” या अन्य कोई बात? उसने इतराते हुए पूछा। उसके भीतर एक शक घुस आया था कि कालरा-वर्मा अंतरंगता की भनक अवश्य ही चीफ तक पहुँची होगी?
“नहीं... नहीं... आप इतनी कार्य-योग्य है कि आपसे दोनों इंचार्ज प्रसन्न रहते है, तथा अन्य स्टाफ भी।” यह कहते हुए वह पल भर को विचलित से हो गए. क्योंकि उसके अधिकतर कार्य वर्मा और कालरा उससे निकटता की प्रतिद्वंद्विता में निपट जाते थे। वे सहसा समझ ना सके की क्या कहा जाए? वे अपने लिए जगह चाहते थे।
कुछ देर मौन के बाद चीफ ने पूछा, “कोई आपको परेशान तो नहीं करता है... ज़्यादा कार्य तो नहीं लादता... किसी से शिकायत हो तो बेहिचक बताएँ...?... मैं सबको ठीक कर दूंगा।”
“ऐसा कुछ भी नहीं है सर। सब बड़े सहयोग शील हैं। सब मुझे पसंद करते है और सहयोग करते हैं।” यह कहते हुए उसके चेहरे पर एक अजीब-सी चमक और प्रसन्नता खिल उठी जो कुछ देर पहले चली गई थी।
चीफ साहब उसके पति, परिवार, बच्चों और पुरानी पृष्ठभूमि के विषय में जानकारी लेते रहे और बहुत अच्छे बहुत, वेरी गुड कहते रहे फिर धीरे से उसके रूप लावण्य की प्रशंसा भी उसकी ओर सरकाते रहे। जिसे उसने बड़ी विनम्रता और शालीनता से स्वीकार करती रही। फिर वे विभिन्न ऑफिस संदर्भों के अतिरिक्त अन्य विषयों में उसकी राय और उसे अनुकूल पाकर प्रसन्न होते रहे। उन्हें जब इस बात का यक़ीन हो गया की वह उसे अपने प्रभाव में ले आए है और वह ख़ुद बुरी तरह उसकी तरह आकर्षित हो गायें है तो उसे अपने साथ प्रतिदिन लंच करने का ऑफर दिया। पहले तो वह हिचकी क्योंकि उसका लंच वर्मा और कालरा के बीच हिचकोले खाता रहता था,किन्तु प्रभावशाली और आकर्षित लोगों को मना करना उसकी फ़ितरत में नहीं था। वह अस्वीकार ना कर सकी।
चीफ साहब ख़ुश थे कि कार्यालय के सर्वोच्च पद में होने के कारण वह प्रथम स्थिति प्राप्त कर लेंगे। हालांकि मोहिनी यह नियमित ना कर सकी क्योंकि कालरा प्रेमी और दोस्त वर्मा उसके भक्त का दर्जा प्राप्त कर चुके थे। लेकिन चीफ कुरेशी के लिए उसकी ललक ख़त्म नहीं हुई थी।
वह घुटने मोड़कर सिर उसमें टिकाकर अव्यक्त भावना में विभोर हो रही है। ईश्वर ने उसे रूप-स्वरूप जी भरकर दिया था। अतः जो भी उसे मिलता था या पहली बार देखता तो बड़े प्रेम से और बड़ी कोमलता के साथ अग्रसर होता था। वह किसी को निराश करना नहीं चाहती। लेकिन वह क्या चाहती थी उसके क्या अरमान थे यह किसी ने जानने की कोशिश नहीं की।
उसके दिल में अपने पति के कितने अरमान थे कितनी कोमल भावनाएँ थी। वह सब कहीं दम तोड़ने लगी थी जब उस सख्त जान से मुलाकात हुई थी। उसके सपने टूट चुके थे। बचे थे तो सिर्फ़ आँसू और शरीर में होते दर्द से ज़्यादा मन का दर्द। लेकिन अपना घर नैनीताल पराया हो गया था, जो कल तक अपना था। जिसमें कोई अपनापन नहीं वह अपना घर है, यानी की पति का घर। यह कैसी विडंबना है? वह समझ ना सकी। वह कैसे उम्र भर साथ निभा पाएगी? स्त्री जाति को प्रताड़ित करना पुरुषों की मानसिक रुग्णता है, उसे यही बदला लेना है।
उसे अच्छी तरह याद है वह जब सुभाष उसके घर आया था और उसने उसे देखते ही उससे विवाह के लिए उसकी माँ से अपने लिए मांग लिया था। पिता विहीन कन्या के लिए वर स्वयं दरवाज़े पर आया है उसकी माँ मना ना कर सकी। बीस-इक्कीस साल की अभी स्नातक हुई. आगे के सपने सब सुभाष पंत के सेवा में समर्पित हो गए.
शुरू के दिन उसके काफ़ी अच्छे गुजरे जब तक की वह माँ नहीं बनी थी। तब वह पंत साहब के साथ पार्टियों में शिरकत करती। उसके अपने शर्मीले स्वभाव एवं संकोच के कारण शांत, निश्चल निर्भाव सीधी और सरल रूप का निरंतर परिवर्तन होता रहा। वह पक्षियों की तरह उड़ती, मछलियों की तरह तैरती और तितलियों की तरह फिरती। उसकी बोलती आँखें और चमकते चेहरे और तराशे शरीर और मनमोहक अदाओं के कारण वह पार्टियों की जान थीं। उसे लेकर सुभाष बेहद गर्व से भरे रहते। वह देखती है बड़े लोगों की पार्टियों में कैसा धीमा नशा चलता है, हंसी मजाक, मीठी छेड़छाड़, सिगरेट, शराब, एक गहरा रोमांच ख़ुशबुओं का,गले लगाना, चुंबन टाटा बाय बाय। उसे यह सब भाने लगा।
फिर जीवन ने उसके जीवन में प्रवेश किया और सब कुछ थम-सा गया।
जब अपना व्यक्ति दुख की दहलीज़ पर कर मर्मांतक पीड़ा से छटपटाता है तब सतह आने वाला व्यक्ति दोगुनी पीड़ा और वेदना में डूब जाता है और वह उसकी जीवन की लालसा उसकी मृत्यु को कई बार साक्षात देखता है,साथ रहने वाला व्यक्ति कई बार मरता है।
वह मानती है जीवन में सभी कुछ आवश्यक है। अंतस का दुख जब आँखों की तरलता में पिघलता है तो पुरुष की आँखों में तलाशता है और उनका उद्धेशय, भावनाओं का स्पंदन और उनका लक्ष्य वैचारिक उत्पत्ति और उसकी अर्थवत्ता अवसाद और आशा में निहित होती है और जीवन के बाद जल्दी ही दो बच्चों ने उसे फिर से उसे गतिशीलता से वंचित और शब्दों के प्रभावी सम्प्रेषण और सांद्र रूप से अपने भाव अभिव्यक्ति करने में असमर्थ कर दिया।
तीन बच्चे जिसमें सबसे बड़ा जीवन अपाहिज था। कमर का नीचे का हिस्सा पूरी तरह लकवा ग्रस्त था। उसका रंग सांवला था लेकिन बोलने और सोचने की क्षमता अद्भुत थी। इस समय वह तेरह साल का था। उसके चेहरे पर एक चमक थी जो धीरे धीरे समाप्त होती जा रही थी।
वही स्वर बस इस बार थकान भरा। एक लंबी तलाश के बाद हताश और बे-उम्मीद। सुभाष ने अपने को संयमित नहीं किया। किन्तु धीरे धीरे उसका मोहभंग होने लगा। वह सोच रही है कि कैसे समझाए उसे ? कैसे वापस लाएँ? कैसे बताए उसे की उसका भाग्य, सबका रहन सहन, सबकी ज़िन्दगी अलग है। प्रेम-मस्ती की तलाश में अपना वजूद खो देना ठीक है क्या ?
उस दिन वह स्वयं भी बहुत उत्साहित थी, अल्हादित थी। उसे उसकी खूबियों को पहचान मिली थी। जिस समय बड़ा लड़का 5-6 साल का था वह सरकारी नौकरी प्राप्त करने में सफल रही थी। उसने अपनी माँ को अपने साथ रहने के लिए राजी कर लिया था। उसे कोई आपत्ति नहीं थी। बिन पैसे के मिस्टर पंत को लड़के के लिए आया का प्रबंध हो गया था और पत्नी की नौकरी से पैसे की आमद बढ़ गई किन्तु उसके लिए समय और सुविधाएँ बढ़ नहीं पाई थी। परंतु उसे बाहर निकलने का मौका मिल गया था, जहाँ कुछ अपने लिए सोच सकती थी।
चीफ का तलब करना और अपनी लिप्सा जाहिर करना एक और एक अजीब उलझन से रूबरू करवा रही थी। परंतु उसे बुरा नहीं लगा। हालांकि वर्मा-कालरा इन दिनों वे दोनों काफ़ी सक्रिय थे।
मिसेस मोहिनी पंत थीं अड़तीस की किन्तु लगती थीं अपने से दस वर्ष छोटी. वह तीन बच्चों जीवन-13, रोली-12, व आयुष-10 की माँ थी। अधिकान्श लोगों को यह अहसास नहीं था कि उनका एक पति भी था लंब-तड़ंग ड्रुग इन्स्पेक्टर। उसमें ग़ज़ब का आकर्षण था और वह व्यवहार ऐसे करती जैसे कि 25-26 की कुवाँरी कन्या। उन्हे देखकर सभी उनके पास भटकना, मिलना और छूना चाहते थे। निश्चय ही वर्मा और कालरा इस बात को बखूबी जानते थे। किन्तु वर्मा को अपनी प्रेमाभिव्यक्ति पर और कालरा को अपने अकेलेपन और पैसे लुटाऊ व्यक्तित्व पर भरोसा कि वह उसे पा लेंगे। यह सब होते हुए भी वह सामान्य गति से घर और ऑफिस का दायित्व हरदिल प्रेमिका और आदर्श ग्राहिणी का रोल अच्छी तरह निभा रही थी।
उसकी अदाएँ देखकर वर्मा और कालरा विस्मय और कौतूहल से टूकुर टुकुर उनके चेहरे की रूपराशि, भावभंगिमा निहारते और लहूलुहान होते चले जाते। वे अक्सर मिल जाते। कभी एक दूसरे की डेस्क पर, कैन्टीन में, लाइब्रेरी, बरामदे में और सबसे सुरक्षित स्टोर में। उन दोनों को शनिवार बुरा लगता है ...तब वह जल्दी चली जाती है। शनिवार हाफ डे होता और रविवार छुट्टी फिर उसे देखना या मिलना सोमवार को ही हो पाता है। दोनों में यह होड़ मची रहती है कौन उसे ज़्यादा देर? जल्दी से जल्दी? पहले हड़प ले? कितनी ज़्यादा देर अपने दरमियान या उसके इर्दगिर्द मँडराने का मौका हासिल कर सके. कौन उसका दीदार करने में ज़्यादा सफल रहा है।
कालरा ने उसे अपनी तरफ़ ज़्यादा झुका लिया। वह कुछ अधिक स्मार्ट जवान और अच्छा लगता था। वह एकाकी होने के कारण उसे कई सारे उपहारों से उसे उपकृत करता रहता और घर की तरफ़ से वह निर्द्वंद्व था। कालरा का अपने सेक्शन में मन नहीं लगता था और वह जबसे उससे व्यक्तिगत जान-पहचान स्थापित की है तब से वह अपनी कमी उससे पूरी करने की तलाशने लगे है। वह डिवॉर्सी थे और उसे देखकर, मिलकर उसे ना जाने ऐसा क्यों लगता था कि एक अचिरपरिचित गंध की खट्टी-मीठी-सी ख़ुशबू उन्हें अपने में धीरे धीरे घेर रही है। उनके शरीर की एक एक गांठ खुलती जा रही है। जब से उनका डिवोर्स हुआ है वह उस सुख से वंचित रहे है जिससे तन वदन में ताप चढ़ता है, मन रुक जाता है और लगता है यही है मनमाफिक संगनी। हर कोण से उसे पा लेने को आतुर रहते है।
उधर वर्मा सर मोहिनी के इंचार्जे होने के कारण उसपर पहला अधिकार समझते है। वह निहायत घरेलू आदमी एक पत्नी और दो बच्चो के पिता को लगता है कि मिसेस पंत के सामने उसकी पत्नी कूड़ा है। हालांकि उनकी पत्नी रितु काफ़ी तेज और समझदार थी किन्तु यह पहले की बात थी। उसे देखकर वह एक अजीब-सी मायावी रहस्य से अभिभूत उस सपने में खो जाते जिसकी कल्पना से ही झुरझुरी पैदा होती थी और सोचते रहते क्या वह कभी उसकी हो सकती है? क्योंकि उसे देखकर महसूस हो कि अपना विवाह बेमानी है और रितु और दोनों बच्चे निरर्थक। जब मिसेस पंत अपनी मनमोहक मुस्कान के साथ बोलती, कहती और मुस्करा उससे रूबरू होती,... तो उन्हें लगता कि वह उससे प्यार करती है और वह उसके बगैर रह नहीं सकते। यह बात वह कई बार वह रितु से भी कह चुके थे। जिसे वह उसने हंसकर टाल दिया करती। लेकिन इस बात को लेकर उसने कोई हंगामा नहीं खड़ा किया था...
सवाल गणित की तरह पेचीदा और रहस्यमय था कि मिसेस मोहिनी पंत स्वयं शादीशुदा युवती थी और दो बच्चों की माँ और एक शक्ति शाली पुरुष की पत्नी। मोहिनी के लिए कालरा और वर्मा दो ऐसे गहरे धूधले गड्ढे थे जिसके भीतर वह फिसलते फिसकते बचती रहती और नहीं गिरती तो मोह रह जाता नहीं गिरने का, क्योंकि अधिकारी ख़ुद एक खाई से कम नहीं था। जिस पर ख़ुद उसके घर वालों ने धकेल दिया था, काफ़ी पहले... उसके साथ उसे रोना आता, गुस्सा आता है किन्तु उस खाई को पार करने की कूबत नहीं थी क्योंकि खाई से परे वह दोनों गहरे धूधले गड्ढे थे जिसकी सतह के ऊपर खड़े होकर वह प्रकृति का तमाशा देखती रहती और बारी से कालरा, वर्मा गड्ढों के पानी से खेलती रहती और खाई तो उसका स्थायी निवास था ही।
मिस्टर पंत की ख़ामोशी में एक अजीब-सा भय उभर आता था। उनका अपने प्रति उतना नहीं जितना उस अज्ञात नियति के प्रति जिसकी आशंका उन्हे घेरे रहती थी कि अगले समय में कुछ भी हो सकता है। किन्तु वह समय के साथ खेलने लगीं थी। जो इस असली नकली प्यार-मुहब्बत में घटित होने वाली थी।
वर्मा ने मोहिनी के घर के समीप स्कूटर रोका। कुछ देर सोचता रहा फिर घंटी बजा दी। आशा के विपरीत उसका पति आ गया।
“आप, पहचाना नहीं ?”
“मैं, मैडम पंत का ऑफिस इंचार्जे हूँ। ऑफिस जा रहा था सोचा यदि वह ना गई हो तो साथ ले लूँ।”
मिस्टर पंत तुरंत मना करने ही वाले थे की उन्हें मोहिनी का ख़्याल आया कि एक बार उससे पूछ लिया जाए. वह भीतर चले गए और वह अनिश्चित-सा गेट के बाहर खड़ा रहा। कुछ ही पल बीते थे कि वह एक हल्की-सी मुस्कराहट के साथ बाहर आती दिखी।
“अरे, आपने क्यों तकलीफ की, सर ! मैं तो समय से ऑफिस आ ही जाती हूँ।” हालांकि वह जानती थी कि वह क्योंकर आया है।
“नहीं यह बात नहीं है। मैं तो इधर से ही जाता हूँ। मैंने सोचा आप पैदल, ऑटो, या बस के धक्के खाते हुए आतीं है। मेरे साथ समय और सुविधा से पहुँच भी जाएँगी और मुझे भी साथ मिल जायेगा।” यह कहकर उससे एक कुटिल मुस्कान फेरी। वह उस मुस्कान का अर्थ समझती थी। वह भी फिस से हंस दी। इस तरह से वह उसके शारीरिक छूँवन से मालामाल हो सकेंगे और उसे इस कंजूस से कुछ अपने लिए निकाल सकेगी। जो कि मिस्टर कालरा से उसने खिल्ली उड़ाने के अंदाज़ में सांझा किए. कैसे वर्मा साहब ने आठ कि।मी। रास्ते में क्लच ,ब्रेक का बेहतर इस्तेमाल किया और शारीरिक छुअन से प्रफुल्ल दिखे। हद तो तब हो गई जब वह वापस साथ चलने के लिए जल्दी जल्दी उसके काम में मदद करने लगे। वह झेप रही थी। सबकी नजरें उस पर थीं। क्योंकि वर्मा साहब काफ़ी सख्त क़िस्म के अफसर थे उनसे इस तरह की उम्मीद रखना बे मानी था। अब मोहिनी पंत को लाने ले जाने की जिम्मेदारी वर्मा सर के पास आ गई थी। वह कब आएँगी, नहीं आएँगी या छुट्टी पर रहेंगी? इसके लिए चीफ साहब भी उन्हीं से पूंछ लिया करते थे या अन्य स्टाफ।
मिस्टर वर्मा काफ़ी ख़ुश दिखने लगे थे क्योंकि उनकी जानकारी के हिसाब से वह शारीरिक छुवन के मामले में वह अपने प्रतिद्वंद्वी से काफ़ी आगे हो गये है। यद्यपि वह अपने खाली समय में मिस्टर कालरा के पास अधिक बैठती थी। या कालरा मौके बेमौके वक़्त निकाल कर उसके पास आ धमकते और विजिटर चेयर में विराजमान होकर गुफ़्तगू में तल्लीन हो जाते जो अक्सर उनकी प्रशंसा में समाप्त होती थी। वह सिस्टम इंचार्जे थे, उनके पास समय और पैसे की कमी न थी। वह काफ़ी हद तक दूसरों को प्रभावित कर लेने की क्षमता में माहिर। वह भी उनकी तरफ़ खिंचाव ज़्यादा रखती थीं। वह डिवॉर्सी थे और फिर शेरो शायरी के शौकीन तथा अकसर उन्हें चुपके या प्रगट रूप से गिफ्ट दिया करते जिसे वह संकोच कर के स्वीकार कर लिया करतीं। मिस्टर कालरा की छूने-छुलाने महती आवश्यकता पूरी होती रहती, ऑफिस कैन्टीन स्टोर या कारीडोर में जिसे वह मुस्करा कर नजरंदाज किया करती थीं। उसके दिल के अनुसार कालरा प्रेमी था तो वर्मा मित्र।
उसे गर्मियों में परिवार सहित हिल स्टेशन जाना है, घूमने फिरने और गर्मियों की छुट्टी बिताने किन्तु एक एक अड़चन थी उनका अपना विकलांग बेटा। उसे साथ ले जाने का मतलब था कि कष्ट तकलीफ परेशानी। सारा समय उसके देखभाल में व्यतीत होना। क्या ख़ाक घूमना फिरना हो पाएगा? हालांकि उसकी देखभाल के लिए एक स्थायी पहाड़ी नौकर था। परंतु नौकर के सहारे उसे और घर को काफ़ी दिनों के लिए छोड़ा नहीं जा सकता था। कोई ऐसा मिले जो प्रतिदिन नियमित काफ़ी समय उसकी अनुपस्थिति में गुज़ार सके.
मिसेस पंत ने अपनी समस्या ज़िक्र कालरा से किया। उसे उम्मीद थी कालरा अकेला होने के कारण उसे सम्हाल लेगा। किन्तु उसकी दिलचस्पी सिर्फ़ मोहिनी में थी उसके सिवाय सब नगण्य कोटि में आते थे। उसने अफ़सोस जाहिर किया। असमर्थता व्यक्त थी। फिर उसने मुस्कराते हुए वर्मा को पकड़ने की सलाह दी। वह ख़ुशी से भर उठी।
“मेरे जीवन में कुछ पल भी ख़ुशी के नहीं है।“ उसने एकदम समीप आकर वर्मा से कहा।
“क्यों क्या बात है? मेरे होते यह बात आप कैसे कह सकती है?”
मोहिनी ने उसे बताया रोते हुए. हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी मैं अपने बच्चों को ख़ुश नहीं कर पाऊँगी।
“मैं आपके आँसू नहीं देख सकता... आप ख़ुशी-ख़ुशी जाए मैं सब सम्हाल लूँगा।” उसके आँसू उसे व्यथित कर रहे थे। उसने उसके आँसू अपने हाथ से पोंछे।
“कैसे ?” वह उसके भीतर गुजर कर देख रही थी।
“एक बार अकेले में सब समझा दीजिएगा।” और तब उसका दिल ज़ोर से धड़कने लगा। फिर कुछ सोचकर मुस्कराता है... अपने आप अकेले में !... ‘मैं ऑफिस के अलावा आपके घर में रहूँगा और उतने दिन अपने घर की छुट्टी. मैं अपने घर में कुछ समय के लिए ही जाऊँगा। ठीक है?’
तब उसने उसकी तरफ़ हैरानी से देखती है-कैसा आदमी है?
फिर एक दिन वह उसे अपने घर ले गई जब घर का कोई नहीं था। सिवाय उस विकलांग बेटे के.
“चेतन, मेरे साथ आओ !”
वह चिहुँक उठा। उसने उसे पहले नाम से पुकारा था। वर्षों बाद उसने नाम सुना था। वह भावना के अतिरेक में बह गया। उसे लगा कि वह उसके इतने नज़दीक पहुँच गया है, जितना शायद उसका पति सुभाष भी नहीं।
वह उसके पीछे चलता गया। एक लंबा गलियारा पार करने पर वह घर के सबसे पिछले भाग में, अलग कमरा, बाथरूम लेट्रिन और उससे जुड़ा बरामदा था। वह एक लंबा बड़ा कमरा था। कोने में एक तिपाई, जिसमें पानी, बिस्कुट और कुछ स्नैक्स आदि रखे थे, पीछे कपड़ों की वार्डरोब। उसने खिड़की खोली -एक रोशनी का सैलाब भीतर चला आया। रोशनी बिस्तर पर भी चली आई. किन्तु वह बिस्तर पर नहीं पास ही व्हील चेयर पर वह उसे दिखाई दिया। तब वह उपेक्षित असुरक्षित और नगण्य की श्रेणी में दयनीय नजरों से उसे निहार रहा था कि यह कौन? यह उसका आशियाना था। वह बिस्तर और व्हीलचेयर में खिचता घिसटता अदल बदल करता रहता था।
वर्मा ने उसे बेहद नकारा नजरों से देखा। तब उसे लगा कि वह बेहद बेढंगा है। जो शायद अपनी नित्यप्रति की दैनिक क्रियायें भी करने में असमर्थ है। बैठा-बैठा वह उन्हें देखकर मुस्कराया। उसे लगा कि जैसे उसने बेहद अशक्त एक प्रेत को देखा है। फिर अचानक उसे ध्यान आया कि उसे इसी प्रेत की देखभाल करनी है कम से कम एक सप्ताह।
“जीवन बेटा यह तुम्हारे अंकल है यह भी तुम्हारी देखभाल करेंगे। मेरी अनुपस्थिति में।
वह मुस्कराया किन्तु कुछ नहीं बोला। शीघ्र ही वे वहाँ से चल दिए. ड्रॉइंग रूम, किचेन, रोली, आयुष के कमरे, पूरा घर देखते हुए, वे बेड रूम में दाखिल हुए.
“यह हमारा बिस्तर है।” उसने कुछ हँसते हुए कहा।
उसने उसकी ओर देखा और तब उसका दिल ज़ोर जोर से धड़कने लगा। उसे लगा कि जैसे उसने किसी अदृश्य चीज को देखा है जो उसमें समाई है और बाहर निकलने को आतुर है। वह ठिठक जाता है। वह ख़ुद अपने से बोलने लगता है-अप्सरा। अकेले में उसे लगा की वस्तुतः उसे कोई दुख नहीं है वह एक टुकड़ा सुख के, पाने के लिए उत्सुक तत्पर कामुक है। वह एक अजीब डर से कांप रही है। किन्तु अस्वीकार नहीं था। उसे अपने पर नियंत्रण नहीं रहा था। वह जानती है कि कोई भी पुरुष हो अकेले में, यही पर-सुख चाहिए, जिसके लिए वे जाने कब से उत्सुक और प्रयत्नशील होते है। वह उसे छूने के लिए आगे बढ़ता है। उसके दोनों हाथ पकड़ कर दीवार की ओर ठेल देता है। दीवार से सटकर वह अजीब प्रेमत्रस्त निगाहों से उसे देखने लगती है-कि जीवन की चीख सुनती है। वह अजीब नफ़रत से उसे ठेल देती है और तब देखती है। वह व्हील चेयर से एकदम पास आ गया था, ठीक चेतन के पीछे। वह सुन्न खड़ी रह जाती है। वह घबरा कर पीछे हटता है और व्हील चेयर से उलझ कर गिर पड़ता है।
“तुम यहाँ क्या कर रहे हो?” वह बेहद तेज और हिकारत भरी आवाज़ में बोलता है।
दोनों स्तब्ध और निशब्द रह जाते है। मोहिनी आँसुओं के बीच हंसने लगती है,पुचकारने लगती है। चेतन की पीड़ा हवा हो जाती है और जीवन वापस लौट जाता है अपने कमरे में। वह वहाँ से बाहर आ गई और ड्रॉइंग रूम में आ गई और पीछे वह भी चला आया। खिसियाया हुआ अपने को छिपाता हुआ।
पंत परिवार वादे के मुताबिक हफ्ते में ही वापस आ गए थे। इस बीच वर्मा जी और जीवन में सम्बंध बिगड़े ही बने रहे। एक हद तक नफ़रत के स्तर पर। किन्तु उसने असहयोग नहीं किया था। उसने कई बार कहा कि वह अकेले कर सकता है किन्तु वर्मा ने आना नहीं छोड़ा।
निःसंदेह वर्मा साहब ने पंत परिवार में अपने प्रति बेहद प्यार और सम्मान अर्जित कर लिया था। उन्होंने जीवन की एक नर्स से बढ़कर सेवा की थी। वह सोचते थे कि उन्होंने प्रीतम कालरा के विरुद्ध निर्णायक विजय हासिल कर ली है और शीघ्र ही वह मोहिनी को अपने में पूर्णतया समाहित कर लेंगे। उन्होंने पंत फॅमिली से काफ़ी निकटता हासिल कर ली थी और उनका उनके घर आना जाना अक्सर हो जाता था। सम्बंध प्रगाढ़ करने हेतु वे अपनी पत्नी रितु के साथ उनके घर आए और उन्हें भी अपने घर आमंत्रित किया। मिसेस पंत को कार्यालय लाने ले जाने का कार्य वह पूर्ववत करते रहते थे।
अब वर्मा साहब मिस्टर पंत और उनकी फॅमिली में कालरा के विरुद्ध बड़े ही सोफियाना ढंग से विष वमन करते जिसे मोहिनी हंसी में उड़ा देती और सुभाष पंत और बच्चों के लिए अजनबी, उपेक्षणीय ज़िक्र था। ... ‘हमे क्या?’
और तब वर्मा जी ने सोचा, ध्यान सिर्फ़ मोहिनी पर केंद्रित करना चाहिए. क्योंकि अंतिम उद्देश्य तो वही है।
जब मोहिनी उनकी सारी बाते मिस्टर कालरा को सुनाती तो देर तक दोनों उनके ईर्षा, द्वेष, जलन पर हँसते हुए खिल्ली उड़ाते और मिनी पार्टी करते। उसे घोंचू खिताब आवंटित कर दिया था। वे और एक दूसरे के करीब आते गए.
एक दिन वर्मा जी ने मिसेस पंत को बुलाया। ऐसे जैसे कि बहुत ही गंभीर मामला हो? वह सशंकित हो उठी-आज क्या कहेंगे? वह जैसे ही उनके चैम्बर में घुसी कि बेसाख्ता बोल उठे,
“कभी कभी मेरे पर भी नजारे इनायत कर लिया करो?”
“मैं समझी नहीं वर्मा साहब?” उसे उनका बोलने का ढंग कुछ अजीब-सा लगा।
“अरे ! कुछ नहीं। मेरा मतलब था कि कालरा साहब से कुछ समय बचता हो तो, मैं भी तलबगार हूँ।” उनके ऐसे वाक्यों को सुनकर वह हतप्रभ रह गई. अक्सर ऐसी भाषा एवं शब्दों का प्रयोग कालरा किया करता था। क्योंकि वह शेरो शायरी किया करता था और उससे वह बहुत ही बेतकल्लुफ हो चुका था। वह उसके दिए गए गिफ्ट्स एवं तारीफ के शब्दों से उसे मालामाल किया करता था। वह छुट्टा होने के कारण और भी आकर्षक लगता था।
उसे वर्मा का इस तरह बोलना अच्छा नहीं लगा किन्तु वह निकटस्थ बॉस थे। वह बेमन से बैठ गई. परंतु उत्सुक थी वह क्या उलाहना देंगे? इधर उधर की बेमतलब की बाते करने के उपरांत वे फुसफुसाए, “जानती हो मोहिनी...!” उसे अटपटा लगा। उसका सपाट नंगा नाम लेने पर। परंतु वह चुप रही और उनकी तरफ़ कान लगा दिया।
“मिस्टर कालरा इम्पोटेन्ट हैं... मतलब नपुंसक हैं।” उन्होंने नंगा शब्द बोल दिया। जैसे कि वह इम्पोटेन्ट का मतलब ना जानती हो।
“आपको कैसे पता?” उसने प्रतिवाद किया।
“इसी आधार पर उनका तलाक हुआ है। उसके ससुर मिस्टर खन्ना ने बताया है।”
“वे आपको कैसे मिले, जानते हैं?”
“वे इसी कार्यालय के सेवानिवृति कर्मचारी है। अभी कुछ दिन पूर्व ही वे अपने पेंशन सम्बंधित कार्य के सिलसिले में मुझसे मिले थे तब यह राज खुला।” उसने बेहिचक बिना रुके कहा।
“अच्छा... !” उसे ताज्जुब हुआ। उसे विश्वास नहीं आ रहा था। क्योंकि वह जिस ढंग से बोलते, कहते एवं व्यवहार करते है, लगता नहीं था कि वे ऐसे होंगे?
“और क्या?” वर्मा साहब को अपनी बात प्रभावित करती लगी। उन्होंने सोचा अब तो मोहिनी उसके पास में आ गिरी !
“मुझे क्या... ?” उसने कंधे उचकाये और उठते उठते बोली, “तब तो और बेफिक्र...” अंत का वाक्य बेहद धीमी आवाज़ में कहा गया था किन्तु उसने पकड़ लिया।
वर्मा जी नाउम्मीद एवं बेतरह उदास निराश हो गये। उनका दांव उलटा पड़ा था। उन्होंने उससे विमुख करने की सोची थी। क्या वह और नज़दीक चली जाएगी? उन्हें हताशा ने घेर लिया।
समय बीतने लगा था। वर्मा को मिसेस पंत को कालरा के प्रति अनिच्छुक करने और अपने प्रति पूरी तरह खीचने में असफता हाथ लगी थी। परंतु वह जुटे हुए थे अपने अभियान में कि वह कालरा के ऊपर निर्णायक बढ़त बना लें। वह दोनों बंदों से निरंतर सौहार्दपूर्ण प्रेम सम्बंध विकसित करती जा रही थी। चेतन की मदद और प्रीतम के उपहार स्वीकार करने में उसे कोई संकोच नहीं रहा था।
ऑफिस समाप्त होने से कुछ देर पहले जब वर्मा साहब उसे वापस घर ले जाने आया तो लोगों ने बताया की चिड़िया उड़ गई है। तोता और मैना कहीं नहीं मिले। उसने सारे संभावित ठिकाने खोज डाले। उसे निहायत बुरा लगा। उसे बताना चाहिए था... अब वह क्या जवाब देगा? शायद अभी आ जायेगी ! उसे प्रतीक्षा करनी चाहिए?... आधा घंटा... वह रुक जाता है। एक घंटा बीत जाता है वह नहीं थी। कार्यालय खाली होने लगता है। उसे भी अब जाना चाहिए.। क्या उसे पहले उसके घर देखना चाहिए... ?... ।नहीं यह ठीक नहीं होगा ? अगले दिन पूछूँगा... ?
आज वह कालरा के प्रेरित करने पर और उसके संरक्षण में उसी के घर आई है, जो ऑफिस के कुछ कदमों की दूरी पर है। वह उसे देखना चाहती थी, परखना चाहती थी, मिलना चाहती थी, एकदम एकांत में। तो जब उसने प्रस्ताव किया तो वह सहर्ष राजी हो गई. वे कुछ पल एक दूसरे को तौलते है जहाँ वे बिना एक शब्द भी बोले एक दूसरे की इच्छा भांप लेते है। वह उसे उस कमरे में ले जाता है, जो कभी उसका बेडरूम था। अब काफ़ी समय से वीरान पड़ा था। उसकी अपनी पत्नी के छोड़कर जाने के बाद उसने भी उसमें क़दम नहीं रखा था। वह वहाँ नहीं सोता। उसका मानना था कि बगैर किसी साथी के बेडरूम, क्या मतलब?
वह कमरे के दरवाज़े खोल देता है। एक सन्नाटा होता है जो बाहर निकल जाता है। वह सीधे आकर उस कमरे में लेट जाती है। वह कमरा रोशन कर देता है। बेहतरीन कल्पनातीत था शयनकक्ष और उसमें एक प्रस्तर प्रतिमा विराजमान थी। अद्द्भुत अलौकिक तरंगित करती इंद्रधनुषी लहरे तैरने लगती हैं। फिर वह उसके पास बैठ जाता है। उसने इशारे से रोशनी बंद करने को कहा। वह देखने से ज़्यादा महसूस करना चाहती थी। दोनों अंधेरे में एक दूसरे की साँसे सुनने लगते है। वे दोनों अलग अलग, उस वक़्त एक ही बात सोचते है और करते होने के इच्छुक। इस समय वे बाहर से छूटकर एक दूसरे में चले जाते है, जहाँ उनका सोया सब कुछ जगने लगता है। वह उठ बैठती है और खेल शुरू हो जाता है। वह दोनों भूल जाते है कि वे क्या है?
वह एक परिचित खेल था। जिन्हें वे कभी साथ नहीं खेले थे। वे दोनों खेलते है। जब वे दोनों बहुत थक जाते है। वह उठ बैठती है थकी और निढाल किन्तु संतुष्ट। शीघ्र ही वह अपने को व्यवस्थित कर लेती है और बिना उसकी प्रतीक्षा किए निकल जाती है।
अगले दिन जब वह उसे लेने घर पहुँचा। वह जा चुकी थी। उसे फिर बुरा लगा। उसका मन का स्वाद कसैला हो गया। एक शक उसके भीतर घुस आया। वह उससे बच क्यों रही है?
जब वह ऑफिस पहुँचा तो वह प्रीतम के साथ हंस-हंस कर विभोर हो रही थी। उसने उसे कोई गिफ्ट दिया था जिसे वर्मा जी के देखने से पहले ही उसने छुपा लिया था। उसके कुछ बोलने से पहले ही अपनी सीट पर चली गई.
वह ऑफिस हाल में आती है और अपने कार्य में व्यस्त हो जाती है। वह अपने चैम्बर न जाकर पहले उसी के पास आता है।-उसकी तरफ़ चलते हुए क्षण भर के लिए ठिठकता है, सोचता है और फिर सिर हिलाकर उसी के सामने खड़ा हो जाता है।
“कल शाम को कहाँ चली गईं थीं?” उसके स्वर की तेजी उसे चौका देती है। उससे सुभाष के अलावा किसी ने भी उच्च स्वर में कभी बात नहीं की थी। उसे यह अपमान जनक लगता है। वह सुन्न-सी बैठी रहती है। वह अब भी खड़ा था अपने उत्तर की प्रतीक्षा में !
“क्यों... ?...क्या मैं अपने मन से कहीं जा नहीं सकती?... आप कौन है पूछने वाले?... कभी मेरे पति पंत साहब ने ऐसी पूँछ-ताछ नहीं की...!”
वह सनाका खा जाता है। मिसेस पंत के स्वर की तीक्ष्णता उसे चौकते हुए हक़ीक़त से रूबरू कराती है। अन्य स्टाफ का ध्यान उनकी ओर अनायास ही चला जाता है और तब सन्नाटा खुसुर-पुसुर में बदल जाता है। एक तमाशा बन गया था।
वह वापस अपने चैम्बर में आकर सिर पकड़ कर बैठ जाता है। उसे गहरा सदमा लगा था। उसे यह बेहद अपमानजनक लगता है कि मोहिनी- ऐसी प्रतिक्रिया। उसकी साँसों के साथ आँसू तिरते जिसे वह बखूबी छिपा लेता है।उसे एक शक घेर लेता है कि उसकी गीली आँखे कहीं उसका और उपहास ना उड़वाँ दें। उसे लगा की वह दुनिया की सबसे ज़्यादा झूठी, पाखंडी दो-मुँही लड़की... नहीं नहीं स्त्री से रूबरू हुआ है। वह निराश हताश और बेजान हो जाता है।
वह उठकर चीफ साहब के पास आती है और तुरंत घर जाने की अनुमति मांगती है। कारण पूछने पर जबरदस्ती अभिवाहक बने वर्मा जी के विषय में शिकायत करती है। चीफ साहब सहायता स्वरूप वर्मा जी को सावधान करने को, उनसे बात करने को कहते है। वह मना कर देती है। कहती है कि ‘वह डील कर लेगी।’
वह तुरंत वर्मा साहब के पास आती है, “सुनिए, ‘आपको मुझे ऑफिस लाने ले जाने की ज़हमत उठाने की ज़रूरत नहीं है। मैं सक्षम हूँ... आइंदा कोशिश मत करना... मैं मना करती हूँ।’ वह फटाक से उनके चैम्बर से निकल कर ऑटो लेकर घर चली गई. वर्मा जी हतप्रभ उसे देखते रह जाते है।
घर आकर कुछ देर तक लॉन पर खड़े होकर अपनी साँसों को काबू करती है और सीधी जीवन बेटे के पास आकर टिकती है। गिरती है, उसके पास। दुख में डूबती जाती। आँसू झरते है। वह कुछ नहीं समझता है किन्तु वह उसकी प्रतीक्षा में सदैव रहता है। माँ के अलावा सभी के लिए वह बोझ है। रोली और आयुष अभी तक स्कूल से नहीं आए थे। पंत साहब रात आठ में पहले कब आते हैं?
अभी शाम समाप्त हुए ज़्यादा समय नहीं गुजरा था कि वर्मा साहब उनके घर के सामने खड़े थे। शायद ऑफिस से सीधे ही उसके घर आ गए थे। गेट खुला था। ड्रॉइंग रूम भी खुला था। उसने देखा। उसमें सभी थे-सुभाष, मोहिनी रोली आयुष और जीवन। आपस में बातचीत करते, हंसते, इठलाते।
वह बिना आवाज़ दिए ही चलता चला आया। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए बरामदे में आते ही वह दिखा। यकायक सब उसे देखने लगे। वह चिहुँक उठी।
पंत साहब ने बाहर निकल कर उसे रूम तक आए. अनायास मोहिनी के मुंह से निकला, ‘अब यहाँ क्यों आया है?’ उसने सुन लिया।
“एक बार और कहो?” उसने कहा।
“क्या ?” वह झुँझलाई.
“जो अभी कहा ?” वह खिसियाया।
“कैसे कोई काम था?” पंत साहब ने पूछा।
“हाँ, मैं इस घर का हितैषी हूँ... मैं इनका कच्चा चिट्ठा खोलने आया हूँ।” उसने मोहिनी की ओर इशारा करते हुए कहा।
“बकवास करेगा और क्या?” वह चीखी।
“सुनते है, क्या बताते है, क्या कहते है...?” पंत ने उसे शांत किया और बच्चों को इशारा किया, वहाँ से जाने को।
वर्मा जी ने आदि से लेकर अंत तक मोहिनी और प्रीतम कालरा के प्रेम-प्रसंगों ऑफिस में लंच साथ करने, रहने मिलने और उपहार आदि विषय में और फिर ऑफिस के बीच या अंत में उसके कमरे जाने और देर तक रुकने का क्या औचित्य?... शायद शारीरिक...जिक्र किया। जिसे बीच बीच में वह टोकती, रोकती और ग़लत है, ग़लत, कहती रही। जिसे वह अनसुना करता रहा। परंतु पंत साहब धैर्यपूर्वक सुनते रहे फिर उन्होंने पूछा। “क्या तुम्हारे साथ भी।”
“नहीं... मैं ऐसा नहीं हूँ।’ वह तपाक से बोला।
अचानक पंत साहब गुस्से में भर उठे और उसका हाथ पकड़ कर गेट से बाहर कर दिया।
गेट बंद हुआ तो भी वह देर तक खड़ा रहा। वापस लौटते हुए चप्पलों की चरमराहट सुनता रहा। फिर भीतर से हँसने खिलखिलाने और हंसी के गुब्बारे का गोल फूटा-जिसमें सभी का संमलित स्वर था- गूँजा-पागल है... !”
वह लौट आया था, अपमानित, प्रताड़ित और बेहद उपेक्षित रूप में। क्रोध आवेश एवं आक्रोश से परिपूर्ण उसका चेहरा एवं शरीर ताप से दग्ध हो रहा था। नितांत एकांतित क्षणों में एकालाप आ जाता है-‘कोई फायदा नहीं मैं तो उनके लोक-लाज सम्मान और गरिमा को बचा ले जाने के लिए प्रयत्नशील था किन्तु मेरा प्रयास ना केवल निर्रथक रहा बल्कि उपहास का पात्र भी बन गया हूँ। मुझे स्वप्न में भी उम्मीद नहीं थी कि वे मेरा विश्वास नहीं करेंगे। मैंने कितना कुछ उनके लिए किया है। उसे सच्चा चाहा है और अपना समय और सुविधा उन्हें अर्पित की है।’
आखिर में उसे इस बात का संतोष था कि -उनके ऊपर आने वाली अनिष्ट की आशंका से उन्हें सचेत किया है।
अगले दिन वह जब ऑफिस आया तो वह कालरा के पास खड़ी कुछ कह रही थी। उसे देखते ही उसकी आवाज़ धीमी पड़ गई और फुसफुसाहट में बदल गई. जल्दी ही वह उससे निपटकर अपने सेक्शन में आती है और सीट में बैठते ही उसकी फफकती आँखों से कुछ कतरें आँसू के ढुलक पड़ते है। जिन्हें उसने बड़ी तत्परता से दूर कर दिया।
तीन-चार दिन से ज़्यादा हो गए थे वह किसी के पास बिना काम के नहीं गई थी। शांति से अपना काम निपटाती और सीधे चीफ को रेपोर्टिंग करती और वापस चली जाती। उसने सहजता सरलता धरण कर लिया था। कोई कुछ पूछता तो कहती ‘यहाँ कुछ सुनना,कहना, बोलना गुनाह है।’
यद्यपि वह अपने को पूरी तरह खाली कर आया था। किन्तु रह-रह कर उसे यह बात कचोटती थी कि न केवल वह पिछड़ गया है बल्कि उसके परिदृश्य से भी बाहर हो गया है। जो उसे बेहद नागवार गुजर रहा था। वह प्रतिदिन उसे बुलाता काम-हेतु, काम-चर्चा या अन्य कारण से। वह आती झिझकती हुई, सुनती और बिना बोले चली जाती काम करके लाती और उसके टेबल पर रख कर चली जाती। जैसे कोई फुदकती चिड़िया बहुत थक गई हो। उसे हार्दिक प्रसन्नता होती की वह उन्हें अलग करने में सफल रहा है। उनकी पनपती मुहब्बत को उजाड़ दिया है। शीघ्र ही वह उसे अपनी तरफ़ कर लेगा।
कालरा और वर्मा से अनबन, अबोला और उसकी दोनों से दूरी अन्य स्टाफ में चर्चित खटकने लगी। कालरा उससे किसी ना किसी बहाने कुछ क्षणों के लिए, कहीं न कहीं मिल लेता और वह भी उसे मना ना कर पाती।
उसके विग्रह को कुरेशी साहब ने नोट कर लिया और पता भी कर लिया कारण। उन्होंने उससे पूछा। “क्या करें साहब यहाँ किसी में मिलना, बोलना, कहना सब गुनाह है। जासूस लगें है, अनर्गल बातें घर में चुगली करते है। बिना मतलब के खैरख्वाह। चीफ ने आश्वस्त किया कि वह देखेगा। अपने लिए जगह बनाई. उसे लंच टाइम आमंत्रित करते। पहले वह झिझकी फिर राजी हो गई. खूसट चीफ के प्रसन्नता टपकने लगी और मिसेस पंत की एकाकीपन दूर होने लगा था। अब चीफ साहब के ठहाके और उसकी धीमी हंसी चैम्बर से निकल कर हाल तक पसरने लगे थे। उनके लिए यह स्थिति लाभप्रद थी।
मुश्किल से डेढ़-दो हफ्ता भी नहीं गुजरा था कि वह अपने पूर्व स्वरूप में आ गई थी। चहकती हुई आवाज, दमकता हुआ चेहरा और प्यार लुटाती आँखें। इसमें कोई शक नहीं था कि वह किसी भी तरीके से चीफ से जुड़ नहीं पाई थी किन्तु उनका आश्वासन सम्बल की तरह कार्य करता- आप पहली जैसी रहा करो जिससे तुम पहचानी जाती हो, बाक़ी मैं सब देख लूंगा। यह तुम्हारी ज़िन्दगी है तुम जैसा चाहती हो वैसा यहाँ रह सकती हो। यह एक दूर का दिलासा था किन्तु बेहद मारक। वह आश्वस्त थी।
किन्तु वह यह सोच भी नहीं सकते थे कि उनका अभयदान उसे फिर कालरा से जोड़ देगा।
वह फिर पहले जैसी हो गई. वह कालरा से गुप्त मिलती, चीफ से खुले में और वर्मा उपेक्षित। प्रीतम-मोहिनी फिर एक,चेतन तिरस्कृत और चीफ गैर।
चेतन वर्मा चिढ़ गया। खिसिया गया। उसने सोचा इससे बेहतर तो वह पहले था। उसके तन-वदन में आग लग गई. ऐसा लगता कि जून की तपती घुटती दोपहर-शाम बाहर और भीतर उसके शरीर में व्याप्त हो गई है। तब उसमें एक विचित्र विचार आया-उनके प्रसंग प्रचारित कर दिया जाए. मुझे नहीं तो किसी को नहीं... क्योंकि तब प्रेमालाप की आंच उनके घर पहुँचेगी। उनमें अवश्य विलगाव आयेगा... ! किन्तु इससे उसे क्या फायदा?... वह तो लावारिस ही रहेगा...? किन्तु ऐसी स्थिति में न्याय-अन्याय, प्यार-नफरत, पाप-पुण्य, झूठ-सही, जीवन-मृत्यु से परे रहकर वह इसे अंजाम देगा।
कई रातों की बेचैनी, उमस, तनाव भरी अनिंद्रा की कल्लाहट से कलपती हुई रात के बाद उसने एक असहनीय रात को उसे अंजाम दिया। इस तरह की कई पर्चियाँ - “विवाहित मोहिनी एवं प्रीतम का प्यार” उसने रात भर जागकर अपने लेटर पैड पर बना डाली, अपना लेटर हेड काटकर। उसने ऑफिस खुलने के पूर्व सुबह ही उन्हें अपनी ऑफिस की दीवारों और दूर स्थिति एक स्कूल में चस्पा कर दिए. बचपन में देखे-सुने प्रचार-प्रसार के माध्यम को उसने इस आधुनिक समय में अपनाया। एक संतोष मिला। फिर घर आया और बिस्तर में ढेर हो गया।
यह दूर की बात थी और उसे उस दिन आभास नहीं था कि उसने कितनी बड़ी मुसीबत मोल ले ली है।
उस दिन बेटी अंकिता ने जगाया, ‘पापा, आज ऑफिस नहीं जाना ही क्या?” तब वह जल्दी तैयार होकर बिना टिफिन और नाश्ता किए निकल पड़ा। उसे ख़ुद बहुत बेचैनी और उत्सुकता थी। उसकी की गई हरकत का क्या परिणाम रहा?
ढकी-छुपी, जानी-अनजानी पौढ़ प्रेम कहानी चर्चा में आ गई थी। जो उन्हें जानते थे आश्चर्य में थे जो नहीं जानते थे उन्हें गपशप-चर्चा करने का मौका मिल गया। ऑफिस में कुछ लोगों में प्रसारित वाकया सार्वजनिक बन गया। स्कूल के बच्चों में यह प्रीतम-मोहिनी कौन है? स्कूल में तो नहीं तो क्या सामने गवर्नमेंट ऑफिस के है? अवश्य वही के होगे?
मिसेस पंत और कालरा को पक्का यक़ीन था कि अवश्य यह काम वर्मा का होगा। वह दोनों वर्मा से मिले और पूछा उसने साफ़ मना कर दिया हालांकि उसके चेहरे से स्पष्ट लग रहा था कि वही है। वह अपने चैम्बर में चुपचाप बैठा जैसा की कुछ हुआ है ना हो, चर्चा सुनी ही ना हो? उन दोनों ने जब उसका नाम लिया तो दोनों को अपने कक्ष से निकल जाने को कहा।
वे दोनों बेहद गुस्से तनाव और प्रति हिंसा में चीफ साहब से मिले। उसकी शिकायत की और कहा यह वर्मा की लिखावट है। वह ही ईर्षा, द्वेष, दाह से मरा जा रहा है। वे भी गुस्से में थे कार्यालय की बदनामी और अगर बात ऊपर तक पहुँच गई तो उनकी कुर्सी ख़तरे में। उन्हें यक़ीन नहीं आया कि कोई इतने स्तर तक गिर सकता है। उन्होंने गार्ड से पूछा। उसने अनभिज्ञता प्रगत की। किन्तु चीफ साहब ने उसपर एक्शन लेने को कहा। तब बताया कि एकदम सुबह उसने वर्मा जी को कार्यालय के पास से दूर जाते देखा था। चीफ ने वर्मा जी बुलाया और वही लिखने को कहा। उसने मना किया। तब कुछ और लिखने को दिया। उसने आनाकानी की। किन्तु चीफ के ज़ोर देने पर लिखा। कुरेशी साहब हैरान रह जाते है। यह उसी की करतूत थी।
कालरा पुलिस में देने को कहता है। पंत चुप रहती है। चीफ मना करता है-सबकी बदनामी होगी और कार्यालय की भी और सबका स्थानांतरण भी। वह कुछ और करते है कि मामला छुप जाए और वर्मा को डांटते-फटकारते और जलील करते है। भविष्य में ऐसा करने में विभागीय कार्यवाही के अलावा पुलिस केस भी किया जायेगा। वह लतमरा-सा कुकीयता अपने कक्ष में जाके सिर छुपा कर बैठ जाता है।
कुरेशी साहब ने तीनों चपरासियों को बुलाकर आदेश दिया- अभी इसी वक़्त सारे कार्यालय परिसर से वह चिपकी पर्चियाँ हटा दी जाए. उन्होंने स्कूल प्रिन्सपल को भी अनुरोध-फोन किया कि कृपया ऐसा वह भी करवां दे ख़र्च वह वहन कर लेंगे।
मिसेस पंत कुछ हद तक संतुष्ट थीं की इस प्रकरण की आंच उनके घर तक पहुँचने के पहले ही बुझ गई. वरना मिस्टर पंत उसका जीना दूभर कर देते। परंतु प्रीतम कालरा को चैन नहीं था उसे इस प्रसंग से अपना इश्क़ धूमिल होते दिख रहा था। उस पर निरीहता हावी होने लगी थी। निरीहता झटक उसने इस तरह की आंधी दुबारा उसके प्रयास को साफ़ न कर सके, वह सक्रिय हुआ। अब दुबारा वह मिले या न मिले उसे कुछ सुख तभी मिलेगा जब वर्मा प्रताड़ित होगा, दंडित होगा। इसके लिए यह आवश्यक है कि वर्मा जी को मर्मांतक पीड़ा मिले। क्या किया जाए? उलझन में था। कई रातें जागते गुजरीं।
अचानक उसके जेहन में मिस्टर पंत उभरे। उनकी सहायता से बीच में घुस आए इस वर्मा खलनायक से छुटकारा पाया जा सकता है। वर्मा को तड़पाने के चक्कर में वह यह भूल गया कि मोहिनी किसी भी प्रसंग की सूचना घर तक पहुँचने के सख्त विरुद्ध हैं। वह उसे बहुत पहले ही आगाह कर चुकी थीं कि वर्मा बुद्धू बसंत अब भी उसके घर का विश्वसनीय बाहरी है। उसे पूरी तरह बृहिस्कृति करना घातक है। जब उसने अपने लिए ‘कुछ कहना सुनना और मिलना गुनाह है’ का नारा दिया था।
और तब प्रीतम कालरा ने सुभाष पंत से पहली बार मुलाकात की। उसने वर्मा को निराश प्रेमी के रूप चित्रित किया। प्रेम-असलफता के कारण उसने मोहिनी को प्यार दोषारोपण कांड दिया। जोकि विगत दो-तीन दिनों से चर्चित है। पंत का मन-मस्तिष्क प्रारंभ से लेकर अंत तक वर्मा जी के उसके घर ऑफिस और जीवन की देखभाल शिकायत आदि में अटक कर रह गया। उसने कार्यालय और स्कूल से उखड़ी पर्चियाँ दिखलाई. मिस्टर पंत को ताज्जुब हुआ की इतना सब कुछ होने के बाद भी मोहिनी ने उससे कुछ क्यों नहीं बताया। जबकि वे निर्दोष है।
मिस्टर पंत प्रीतम कालरा के साथ पुलिस में संयुक्त लिखित शिकायत दर्ज करा दी। थाना अध्यक्ष को आश्चर्य हुआ की इतने पढे लिखे उच्च स्तर के अधिकारी भी इस तरह की बचकानी हरकत करते है? वे पहले चीफ साहब से मिले। उनकी अनुमति ली। उन्होंने छोड़ने को कहा। विभागीय स्तर पर जांच का भरोसा दिया। तब उसने पंत और कालरा की लिखित शिकायत दिखाई. कालरा उन्हें उन जगहों पर ले गया, जहाँ अब भी कुछ पर्चियाँ चिपकी हुई थीं।
वर्मा जी गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें लॉक-अप में ठूस दिया गया। उन्हें गहरा सदमा लगा। उन्हें इस स्थिति आने की कल्पना भी नहीं की थी। वे निष्प्राण से हो गए यहाँ तक कि उन्हें अपनी पुलिस पिटाई, प्रताड़ना का भी आभास नहीं हुआ।
सदमा उनके घर में भी पहुँचा। पत्नी रितु वर्मा ने धैर्य से सब कुछ सुना, धारण किया और अपने कर्तव्य निर्धारित किया। जल्दी में उसने कार निकाली और बच्चों से इतना ही कहा, ‘अभी आती हूँ। हालांकि बच्चे समझ गये थे। विपदा में घिरे बच्चे समझदार हो जाते है।
कुछ ही मिनटों में वह पुलिस चौकी पहुँच गई. तब तक कालरा और पंत वहाँ से जा चुके थे।
उसने थाना अध्यक्ष से मुलाकात की और सम्पूर्ण प्रेमकाण्ड का कच्चा-चिट्ठा खोलकर रख दिया। जैसे कि वह सम्पूर्ण प्रकरण की चश्मदीद गवाह हो? अंत में उसने यह कहा, ‘मिस्टर वर्मा परिस्थिति के शिकार है। अगर दोषी वर्मा जी है, तो कालरा और पंत भी कम दोषी नहीं है!’ उसने दलील दी।
अध्यक्ष हकबकाकर उठ खड़ा हुआ। उसकी ज़ुबान से सिर्फ़ इतना निकला, “आप अच्छा बचाव कर लेती है। कहीं आप वकील तो नहीं ?”
“नहीं, ऐसा नहीं है!... यह हक़ीक़त बयानी है।”
“ठीक है। आप से सहमत हुआ जा सकता है। मैं इन्हें छोड़ देता हूँ किन्तु आप जमानत का इंतज़ाम कर लें। या उनसे समझौता कर ले। क्योंकि मैंने अभी प्राथिमिकी दर्ज नहीं की है। या फिर...?” उसने बहुत ही उदासीन भाव से कहा। फिर उसकी ओर से आँखें मोड़कर अपना ध्यान केस रजिस्टर समेटने पर केंद्रित किया।
“मैं अभी आती हूँ !...” जमानत या समझौता...? वह झुँझलाकर कहती है। उसे लगा कि वह कुछ छिपा रहा है।
रितु थाने से निकल कर सीधे मोहिनी के पास पहुँची। संयोग से प्रीतम कालरा भी वही मिल गया। वे तीन थे और सभी पस्त और परेशान दिखे। वे कोई बात नहीं कर रहे थे। शायद उनके बीच बातें ख़त्म हो चुकी थी। हालांकि प्रीतम अंदर से कुछ हद तक संतुष्ट था किन्तु इस बात से आशंकित ज़रूर था कि अब वे दिन लौटेंगे नहीं। मोहिनी दुखी, पस्त एवं निरीह थी। सुभाष अविश्वसनीय ढंग से घटनाओं का सिलसिलेवार विश्लेषण करने में व्यस्त था। अपनी चूक और ग़लती कहाँ है सोचने में निमग्न था।
उन्हें मिसेस वर्मा का आना पता ना चला, ना दिखा। जब वे सामने खड़ी हो गई और तेज स्वर में ‘हैलो’ कहा तो, वे सब विस्मय से भर उठे। वे यह कहने से भी चूक गए की आइए बैठिए. वह कुछ देर तक उन्हें देखती रही फिर उसने लताड़ना शुरू कर दिया। उसने अपने पति का इस तरह बचाव किया की सबके चेहरे पर मिट्टी पुत गई. उसने उन तीनों को अपराधी सिद्ध कर दिया और अपने पति को निर्दोष जो उनकी दुरभ- संधियों का शिकार। वह एक एक की परीक्षा लेती है और सिद्ध करती है कि
सुभाष पंत-तीन साल से त्रिकोणीय प्रेमप्रसंग चल रहा था और आप है कि आज से पहले कोई इल्म नहीं था?
प्रीतम कालरा-अपने बड़ी चतुराई से प्रेम प्रतिद्वंद्वी को इस खेल से बाहर कर दिया और आप साफ़ निकल गए.
मोहिनी पंत- आपने बड़ी कुशलता पूर्वक दोनों प्रेमिओ को अपना अनुयायी बनाकर अपने मन मुताबिक उपयोग किया और ख़ुद सीधी सच्ची आदर्श गृहिणी लेबल लगाकर स्वछंद विचरण करने का मार्ग प्रशस्त किया।
-और वह मेरा पति चेतन वर्मा बुद्धू, बेवकूफ मानव जो दोस्त, प्रेमी, पति सभी रूपों में असफल रहा। परिणाम स्वरूप वह अभी तक प्रताड़ित अपमानित सजा भुगत रहा है।
उसके बात कहने के दरम्यान काफ़ी टोका-टाकी उन तीनों की तरफ़ से होती रही किन्तु उसने अपनी बात पूरी ही कर ली। उन्हें यह जानकार बड़ी हैरानी हुई की वह कितना कुछ जानती है! वे प्रतिवाद करना चाहते थे किन्तु उनमें तर्क का अभाव था।
अंत में मोहिनी ने इतना ही कहा, “जब आप इतना सब जानती थी तो आपने क्यों नहीं रोका अपने पति को?”
“मुझे मोहिनी जी आप पर विश्वास था कि ये सब ऐसे ही मंडरातें रहेंगे आप अपने सही पथ से विचलित नहीं होंगी। अफ़सोस है यह भी ना हो सका।”
एक सन्नाटा-सा खिच गया था। क्योंकि सभी निःशब्द थे। उसने फिर एक नज़र उन सभी चेहरों पर डाली और इस निष्कर्ष पर पहुँची कि वे सभी इस बात से एकमत थे कि वर्मा ने पर्ची कांड करके ग़लत किया है, जिसकी सजा उसे मिली है। उनमें कोई प्रतिक्रिया वर्माजी को माफ़ कर देने की नहीं है।
और तब उसने कहा,- मैं जा रही हूँ वर्मा जी की जमानत का इंतज़ाम करने। फिर पुलिस जांच चलेगी। केस चलेगा, सब कुछ जो अभी तक ढका छुपा है बाहर आ जाएगा। बदनामी से कोई नहीं बचेगा। ध्यान रखिएगा स्त्री की बदनामी मरण योग्य होती है।
उसके कटु सत्य से सभी वाक़िफ़ थे। सभी आतंकित थे। विशेष रूप से मोहिनी और सुभाष सफेद पड़ गए और प्रीतम को नौकरी जाने का डर सताने लगा।
और तब उसने समझौते की पेशकश की। “पुलिस ने अभी तक केस प्रथिमिकी रोजनामचे में दर्ज नहीं की है। यदि समझौता दाखिल कर दिया जाता है तो सब कुछ ठीक हो जाएगा। ऐसा पुलिस अध्यक्ष ने ख़ुद बताया है। ऐसा अभी तुरंत होना चाहिए. वरना...”
वे कुछ देर तक हिचकाते रहे फिर यह सोच कर की बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी... इज़्ज़त और नौकरी भी किसी की नहीं बचेगी। वे सभी धीरे धीरे सहमत दिखे समझौते के लिए.
शीघ्र ही मिसेस वर्मा ने मोहिनी, पंत साहब, कालरा साहब और समझौते सहित पुलिस थाने में प्रवेश किया।
थाना अध्यक्ष ने विस्मय से बारी बारी से सभी को देखा पूछा और लिखित शिकायत और समझौता अपने कब्जे में लेकर वर्मा साहब को छोड़ दिया।
लौटते हुए उसने सभी बरफ की तरह ठंडे थे। उन्हें उनके घर छोड़ कर अपने चेतन को बच्चों को सौप दिया। वह देखता है कि रितु एक सुन्न सन्नाटे के आलोक में खड़ी है। सोचता है कि वह रितु के बारे में बहुत कम जानता है। उसे लगा कि रितु किसी से कम सुंदर और आकर्षक नहीं ।