एक कथा जो बार-बार बनाई जाती है / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 29 दिसम्बर 2013
एक लोकप्रिय गायक की मुलाकात एक नई गायिका से होती है और उसके गीत में वह बाधा पहुंचाता है जिसका परिणाम यह होता है कि उस युवा गायिका के अवसर समाप्त हो जाते हैं। अपने अपराध बोध से ग्रसित लोकप्रिय गायक उस अनाम लड़की की तलाश में भटकता है। कुछ समय बाद उसे एक कस्बे में वह लड़की मिलती है। वह उससे क्षमा याचना करता है और उसे उसकी प्रतिभा में यकीन करने की सलाह देता है। उसे अपने साथ बड़े स्टूडियो भी ले जाता है और अवसर दिलाता है। कुछ ही दिनों में लड़की अत्यंत लोकप्रिय हो जाती है परंतु उसका गाइड असफलता सहन नहीं कर पाता और बेतहाशा शराब पीने लगता है। वह बीमार हो जाता है परंतु शराब पीना जारी रखता है। गोयाकि एक तरह से वह स्वयं को नष्ट करने पर आमादा है। यह रहस्यमय मृत्यु आकांक्षा उसे पतन के गर्त में ले जाती है। युवा गायिका बार-बार कोशिश करती है कि वह शराब छोड़ दे। अपनी सेहत का ध्यान रखे। यहां तक कि उसकी खातिर वह अपने करियर को भी छोडऩा चाहती है। नायक महसूस करता है कि उसका नैराश्य उसकी प्रेमिका के जीवन में रोड़ा बनता जा रहा है। अत: अपनी प्रेमिका को अपने श्राप जैसे जीवन से मुक्त करने के लिए आत्महत्या कर लेता है। नायिका स्वयं को उसकी विधवा सगर्व घोषित करती है।
यह कथा अमेरिका में तीन बार 'ए स्टार इज बॉर्न' नाम से बनाई गई है और हर संस्करण में वक्त के साथ आए कुछ परिवर्तन किए गए हैं परंतु मूल ढांचा हमेशा कायम रखा गया है। यह 1937, 1954 और 1976 में बनाई गई। आखरी संस्करण में शराब के बदले नायक को ड्रग का आदी बताया गया है। पहला संस्करण विलियम वेलमैन ने बनाया था और इसमें ज्यादा गीत नहीं थे। इन तीनों कथाओं का मूल बीज जार्ज कुकोर की 1932 की फिल्म 'वाट प्राइस हॉलिवुड?' है। और मूक युग के सितारे जॉन बोवर्स की आत्महत्या 1936 का रेशा भी कथा में लिया गया है। जार्ज कुकोर ने 1956 में बने संस्करण का निर्देशन किया और इसे ही सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
भारत में भी इस कथा को कई बार बनाया गया है। राजकपूर की जोकर के अंतिम हिस्से मेें भी इसका उपयोग किया गया है जिसमें पद्मिनी को राजकपूर स्टार बनाता है और स्वयं असफल एंव तन्हा रह जाता है। अमिताभ और जया अभिनीत 'अभिमान' में भी इसका ही अंश था। इस वर्ष प्रदर्शित महेश भट्ट की 'आशिकी दो' भी 'ए स्टार इज बॉर्न' से ही प्रेरित है। 'आशिकी' में रेखांकित किया गया है कि नायक चाहता है कि उसकी खोज एवं प्रेमिका सफलता के शिखर पर बनी रहे और वह स्वयं को समाप्त करता है, इसी उद्देश्य से नायिका अपना जीवन खुलकर जिये। दरअसल रणधीर कपूर का कहना है कि आशिकी के अंतिम बीस मिनिट के कारण ही वह इतनी सफल बनी है। दरअसल में त्याग का भाव हमेशा प्रेम कथा को उदात बनाता है और त्याग प्रेम का समानार्थी भी हो जाता है।
प्राय: युवा वर्ग प्रेम में बहुत पजेशिव हो जाता है। वह नायिका को अपनी निजी जायदाद समझने लगता है। प्रेम की बुनावट ही पजेशिवनेस के धागे से की जाती है और यही प्रेम को समाप्त भी कर देता है। गोयाकि प्रेम के जन्म में ही उसकी मृत्यु का बीज पड़ा हो। यह प्राय: होता है कि आप जिसकी मदद करते हैं उस पर अपना अधिकार जमा लेते हैं। उसे अपनी जायदाद समझ लेते हैं। जो व्यक्ति मदद के सहारे सफल होता है वह ताउम्र कैसे दबा रह सकता है? क्योंकि अवसर भले किसी ने भी दिलाया हो, प्रतिभा तो उसी व्यक्ति की है। जैसे ही आप व्यक्ति को या उसके जीवन को अपनी संप?िा मान लेते हैं, सारा खेल खत्म हो जाता है। दरअसल प्रेम अपने असल अर्थ में स्वतंत्रता है। उसे गुलामी समझते ही वह नष्ट हो जाता है। सारी संस्थाएं प्रयास करती हैं कि प्रेम को रोका जाए। सारे खाप भी प्रेम के विरुद्ध केवल इसलिए हैं कि प्रेम दिलोदिमाग को रोशन करता है और स्वतंत्रता का अहसास कराता है जिससे संस्थाएं डरती हैं और प्रेम को रोकने की चेष्टा करती हैं। अंधेरों के सारे साम्राज्य प्रेम की एक किरण से भयभीत हो जाते हैं।
महेश भट्ट स्वयं इस कथा पर 'सुर' नामक फिल्म पहले बना चुके हैं और इस कथा का पहला संस्करण मात्र गीत मुक्त था। शेष सारे संस्करण संगीतमय बने हैं क्योंकि प्रेम का गहरा संबंध है संगीत से। संगम का गीत है- 'हर दिल ो प्यार करेगा गाना गायेगा, दीवाना सैकड़ों में पहचाना जायेगा'।