एक कुत्ते की जबानी मनोरंजक कथा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :06 जून 2015
वर्ष 1951 में राजकूपर और ख्वाजा अहमद अब्बास की 'आवारा' के एक दृश्य में भूखा युवा नायक सड़क के लैम्प पोस्ट के नीचे बैठा है और एक लावारिस कुत्ता उसके पास आता है। नायक कुत्ते से कहता है वह भी उसी तरह भूखा और बेरोजगार है। दोनों की हालत एक सी है परंतु मैं तुम्हें प्यार दे सकता हूं। ज्ञातव्य है कि अंग्रेजी भाषा में साधनहीन गरीब को अंडरडॉग कहते हैं। 2015 में पांच जून को रिलीज हुई जोया अख्तर की फिल्म 'दिल धड़कने दो' में पूरी कथा उनका पालतू कुत्ता कहता है और यह कहानी उन परिवारों की है, जिन्होंने अपनी दुनियादारी और तिकड़मबाजी से गुजश्ता पैंसठ वर्षों में बहुत धन कमा लिया है परंतु 1950 में जो लोग साधनहीन थे तथा समाज के अंडरडॉग थे, वे आज भी साधनहीन हैं और संभवत: चिरकालीन अंडरडॉग बने रहेंगे, क्योंकि हमारी व्यवस्था ही अन्याय व असमानता को पनपाती रही हैं। यहां केवल तिकड़मबाजी, हेराफेरी से ही विपुल धन कमाया जा सकता है परन्तु कुछ प्रतिभाशाली भी हैं जैसे इस फिल्म की नायिका प्रियंका चोपड़ा।
यह जोया अख्तर व रीमा कागती का मास्टर-स्ट्रोक है कि यह दास्तां एक कुत्ता बयान कर रहा है और मजे की बात यह है कि प्रियंका के बचपन का मित्र और प्रेमी फरहान, जो प्रियंका के पिता के मैनेजर का मेधावी पुत्र है और उसे प्रियंका के पिता अनिल कपूर ने अपने खर्च से अमेरिका पढ़ने भेजा था, क्योंकि वे अपनी पुत्री के प्रेम में बांधा पहुंचाना चाहते थे। फरहान मध्यांतर के बाद कथा में प्रवेश करता है और यह कथा वाचक कुत्ता, उसी ने प्रेयसी प्रियंका को भेंट दिया था। एक दृश्य में अमीर लोग उस पत्रकार से कहते हैं कि आप पत्रकार लोग हमेशा शोषण और हादसों का ब्योरा देते हैं, कभी कोई शुभ समाचार नहीं देते। प्रगतिशील पत्रकार कहता है कि हम ये सारा भांडाफोड़ इसीलिए बयान करते हैं कि कभी तो शुभ समाचार दे सकें। कभी तो कह सकें कि सचमुच अच्छे दिन आ गए हैं। इस पूरी फिल्म की संरचना ही कमाल की है कि एक उद्योगपति फिलहाल, जिसकी कंपनी डूबने की कगार पर है, अपने प्रेमविहीन विवाह की तीसवीं वर्षगांठ एक जहाज पर मनाता है जहां उसके समकक्ष सभी परिवार आमंत्रित हैं और इसी पंद्रह दिन की समुद्र यात्रा में सारे मुखौटे गिरने लगते हैं।
एक तरह से सारे यात्री टाइटैनिक के पात्रों की तरह है परंतु उनमें टाइटैनिक के गरीब नायक की तरह कोई यात्री नहीं है। यात्रा में सारे रिश्ते नातों की ऊपरी कलई उतर जाती है और हम लालची, कपटी लोगों को उनके असली स्वरूप में देखते हैं। सारे वैभव के आडंबर के पीछे छुपा घिनौनापन उजागर होता है। यह अंग्रेजी साहित्य के कॉमेडी ऑफ मैनर्स की तरह है, जिसमें पात्रों के रहन-सहन, व्यवहार इत्यादि के द्वारा उनके अवचेतन का ज्ञान भी हमें मिलता है। मसलन, एक बेहद अमीर आदमी को अंग्रेजी का अधिक ज्ञान नहीं है और वह हर चीज प्लुरल में बोलता है, जिसे हम धन के बाहुल्य का प्रतीक भी मान सकते हैं। दरअसल पटकथा और संवाद में भाषा का सही और किफायती इस्तेमाल पुन: रेखांकित करता है कि यह फिल्म जावेद अख्तर के पुत्र व पुत्री ने बड़े ज़हीन ढ़ंग से लिखी है।
नियित का व्यंग्य देखिए कि प्रेमविहीन विवाह की तीसवीं जयंती पर परिवार की पुत्री अपने पति से तलाक ले रही है, क्योंकि वह सफल विवाह का ढकोसला और अधिक नहीं निभा सकती। दूसरी ओर सबसे अधिक अमीर आदमी की इकलौती पुत्री अपने पिता के दुश्मन से प्यार कर बैठती है जबकि नायक जहाज पर नाचने-गाने वाली लड़की से प्यार कर बैठता है। एक बड़ी कंपनी को दीवालेपन की कगार से खींचने बेमेल विवाह द्वारा ही संभव है गोयाकि प्रेमविहीन विवाहों का अंबार लगा दो अन्यथा सारे उद्योग ठप्प पड़ जाएंगे। पूरी फिल्म में हास्य-व्यंग्य का मजेदार लहजा है। इन तमाम यात्रियों में एक अबोध बालिका सारे प्रहसन के खोखलेपन को समझ रही है अर्थात एक कुत्ता और बालिका ही सारे पाखंड की हकीकत जानते हैं। जोया अख्तर ने अंतिम हिस्से में रूमानी हृदय परिवर्तन करके कथा को सुखांत की ओर खींचा है अन्यथा यथार्थ के धनाढ्यों में तो कॉर्पोरेट वार हो जाता। सारांश यह कि गुजश्ता वक्त में केवल आदमी परिवारों के कुत्तों के अच्छें दिन आए हैं, 1951 के अंडरडॉग जहां के तहां खड़े हैं।