एक क्वीन और क्लर्क की प्रेमकथा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :31 मार्च 2017
लंदन में वर्ष 1800 के आगरा का सेट लगाया जा रहा है, क्योंकि भारत में हुड़दंगियों ने दीपा मेहता की 'वाटर' की शूटिंग नहीं होने दी थी और कुछ अन्य फिल्मों को भी इसी तरह रोक दिया गया था। शरबानी बसु की किताब में क्वीन विक्टोरिया और उनके क्लर्क अब्दुल की प्रेम-कथा का वर्णन है और लेखिका का दावा है कि उन्होंने शोध करके इस सच्ची प्रेमकथा को खोज है गोयाकि यह यथार्थ आधारित प्रेमकथा है। प्रेम तमाम बंदिशों, खाप-पंचायतों और किलाबंदी के बावजूद अभिव्यक्त होता है। चौकोर पत्थरों से बने फुटपाथ पर पत्थरों की जुड़ाई की छोटी-सी जगह में भी कोंपल उग जाती है और जीवन की आपाधापी में भागते हुए पैरों से वह कुचली भी जाती है। जितनी बार कुचली जाती है, उससे अधिक बार वह नन्ही-सी, मासूम-सी कोंपल उग ही जाती है। सख्त कानूनों के जंगल में भी प्रेम की कली खिल ही जाती है। अब गैर-संसदीय तौर-तरीकों से नया कानून भी बन गया है कि आधार कार्ड के बिना पाठशाला में प्रवेश नहीं मिलेगा और दोपहर के मुफ्त भोजन से भी बच्चा वंचित होगा। यह बेहतर होगा कि पत्नी के गर्भवती होते ही अजन्मे शिशु का आधार कार्ड बनवा लें। सही फरमाया था निदा फाज़ली ने, 'जंजीरों की लंबाई तक है सारा सैर-सपाटा, यह जीवन शोरभरा सन्नाटा।' विदेशी फिल्मकार भारत का सेट लगा रहे हैं और हम अपने देश को ही विराट फिल्म सेट की तरह बना रहे हैं। कई बार भ्रम होता है कि विश्व के सिनेमाई परदे पर भारत नामक काल्पनिक फिल्म दिखाई जा रही है और यह अत्यंत मनोरंजक भी है।
बच्चों पर बंदिशें लगाना व्यवस्था की नादानी का परिचय दे रहा है। बचपन स्वयं में एक कविता है। बचपन की पटकथा पर जीवन की फिल्म बनती है गोयाकि जीवन के आधार को ही आधार कार्ड से बांधे जाने का प्रयास किया जा रहा है। वयस्क लोग बच्चों को समझ नहीं पाते। मसलन, जब बच्चा खिलौना तोड़ता है तो माता-पिता को स्वीकार करना चाहिए कि खिलौने का दाम वसूल हो गया और उनका व्यय सार्थक हो गया, क्योंकि बच्चे को जिज्ञासा है कि यह खिलौना चलता कैसा है, कौन से चक्र व स्प्रिंग इसे संचालित करते हैं। माता-पिता चाहते हैं कि बच्चा खिलौने को सहेजकर रखे गोयाकि आप उसे संपत्ति संग्रह का पाठ पढ़ा रहे हैं। इस तरह का बच्चा जीवन में संपत्ति पर नाग बनकर बैठेगा और कभी जी खोलकर जी नहीं पाएगा। वह जीवन को सजा की तरह काटेगा, उन्मुक्त होकर जिएगा नहीं। दीपा मेहता दिल्ली में बने वायसराय भवन के गिर्द एक प्रेमकथा रचकर फिल्म बना रही है। उस भवन को अब राष्ट्रपति भवन कहते हैं। उस भवन ने कभी निर्णय लेने वाले हुक्मरान देखे हैं और अब वहां कठपुतलियां बसती हैं। भवनों का इतिहास होता है, उनका हृदय भी होता है और धड़कन का संगीत गलियारों में गूंजता है। क्लर्क की लोकप्रिय छवि एक कामचोर व्यक्ति की है, जो अपनी हथेली पर तमाकू और चूना रगड़कर खैनी बनाता है और दिनभर गुटकता रहता है। उसके निर्जीव टेबल पर फाइलों में इंसानी स्वप्न अकाल मृत्यु पाते हैं। क्लर्क के जीवन में कुंठाओं का जन्म होता है। दिनभर वह अपने अफसर से डांट खाता है और शाम को घर लौटते ही पत्नी उस पर अपने अभावों के ताने का कोड़ा बरसाती रहती है, इसलिए वह 'भांग की पकौड़ी' नामक किताब बार-बार पढ़ता है। वह रिश्वत लेने के लिए विवश कर दिया जाता है और रिश्वत की मलाई उसका अफसर खा जाता है तथा उसके हाथ बरतन के तल में जमी खुरचन ही रहती है। याद कीजिए पंकज कपूर अभिनीत सिटकॉम 'ऑफिस ऑफिस।' उसका टेलीविजन पर प्रसारण बार-बार किया जाना चाहिए। मनोज कुमार ने 'क्लर्क' नामक फिल्म बनाई थी परंतु उसमें क्लर्क की वेदना ही नहीं थी और वह फिल्म नहीं फूहड़ता थी।
क्लर्क भ्रष्ट व्यवस्था के छोटे से नट-बोल्ट हैं परंतु ये सही ढंग से फिट नहीं किए जाएं तो व्यवस्था की मशीन जाम हो जाती है। बड़े निर्णय क्लर्क के द्वारा टाइप होने पर ही कानून बनते हैं। आज कम्प्यूटर ने टाइप-राइटर की जगह ले ली। टाइप राइटर से कितनी मधुर ध्वनी का जन्म होता था और बड़े दफ्तरों में दर्जनों टाइपराइटर से एक सिम्फनी का जन्म होता था। कम्प्यूटर पर अंकन का काम बेआवाज होता है मानो वह खुदा की मार हो। मंत्री महोदय की आज्ञा कि आधार कार्ड नहीं होने पर दाखला नहीं मिलेगा और छात्र को दोपहर का सरकार द्वारा दिया जाने वाला भोजन भी नहीं मिलेगा- यह किसी क्लर्क ने अपने कम्प्यूटर पर टंकित िया होगा और उसके दिल तथा पेट में अपने शिशुओं के दर्द की लहर उठी होगी। लाखों गांवों में अनेक लोगों के पास आधार कार्ड नहीं हैं। अपने सपनों में लीन निर्मम व्यवस्था यह मानकर चल रही है कि सभी लोग शिक्षित और आधार कार्ड धारक है। कुछ योजनाएं अच्छी है परंतु राजा अपनी साधनहीन अवाम की सीमाओं से अनभिज्ञ है। रिक्क्षेवाला, घर पर काम करने वाली स्त्री कैसे कार्ड से अपना वेतन लेगी। क्या भुनाएगी, क्या खाएगी।
बहरहाल, इंग्लैंड की संसद सबसे अधिक पहले स्थापित हुई थी। उन्होंने अपनी गणतंत्र व्यवस्था के साथ ही सामंतवाद के प्रतीक राजा-रानी परम्परा को भी कायम रखा है। क्लर्क उसी व्यवस्था का हिस्सा है, जिसे अंग्रेजों ने रचा। उनके इतिहास में एक व्यक्ति ने अपनी प्रेमिका के जन्म से साधारण होने पर अपने प्रेम की खातिर राज सिंहासन का त्याग किया था। प्रेम और त्याग के कोमल रेशों से मजबूत व्यवस्था रची जाती है।