एक क्षुद्र ग्रह की यात्रा / कमलेश पाण्डेय
अपने देश के क्षेत्रफल के महाद्वीपीय विस्तारों और आबादी की सघनता पर जो लोग तब्सरा करते फिरते हैं उनके सामान्य ज्ञान में मेरी ओर से यहाँ एक विनम्र-सा योगदान प्रस्तुत है। इसी देश में कई अनजाने-अनदेखे छोटे-छोटे ग्रह-उपग्रह हैं, जो ग्रामीण भारत की असीम आकाशगंगा में जाने कहां-कहां स्थित हैं। खगोलीय भाषा में हम इन्हें भारत नामक उदीयमान सूर्य के क्षुद्र ग्रह कह सकते हैं। इनमें मानव-सभ्यता के चिन्ह तो मौजूद हैं, पर नितांत प्रागैतिहासिक स्तर के अर्थात जो विकास क्रम में क्षुद्रता की तमाम परिभाषाओं में भी क्षुद्रतम स्थिति में हैं। ये ग्रह अपने निकटतम सत्ता केंद्र किसी कस्बे या शहर के गुरुत्वाकर्षण में बंधे सदियों से अचल अवस्था में हैं।
केंद्र और क्षेत्रीय सरकारों का दावा है कि इन उपग्रह वासियों से पंचवर्षीय आधार पर संपर्क साधा जाता रहा है। ये सरकारें समय-समय पर अपने कुछ दूर-संवेदी अफ़सर और नेताओें को वहां के आंकड़े और नमूने लाने के इरादे से भेजती है। ज़ियादातर उपग्रहों में या तो सूखा पड़ा रहता है या घनघोर जलाप्लावन रहता है। ऐसी परिस्थितियों में सरकार हेलिकाप्टर यान का प्रयोग करती है, जिस पर बैठ कर बड़े-बड़े नेता-अफ़सर काफी ऊंचाई से ही हालात की गहरी जांच-पड़ताल कर लेते हैं। बाक़ी समय में सरकारें इन उपग्रह निवासियों को आश्वासन कोड में सिग्नल भेजती है, जिसका उत्तर ये लोग वोट-कोड में दे देते हैं। आज़ादी के बाद से ही यह परंपरा-सी रही है कि वहां की मानव-आबादी द्वारा चुना जाकर कोई प्राणी राजधानी में आता है और यहीं का होकर रह जाता है। यह व्यक्ति अपने उपग्रह, स्थानीय सत्ताकेंद्र और राजधानी के बीच एंटेना-सा टंगा रहता है या बेतार के तार-सा तना रहता है।
इधर कुछ ऐसा संयोग ठहरा कि हमारे एक मित्र ने ऐसे ही एक उपग्रह की यात्रा पर मुझे न्योत डाला। तभी मुझे मालूम पड़ा कि हमारी धरती और इन उपग्रहों के बीच विवाह-संबंध भी होते रहे हैं। मेरे मित्र ने मुझे एक मिश्र जी से मिलवाया, जो एक सुदूर ग्रह के निवासी थे और हमारे यहां आ बसे थे। उस ग्रह के वासियों का उनके यहां आना-जाना लगा रहता था और उन्हीं में किसी की कन्या को अपने बेटे से ब्याह लाने के लिए उन्होंने वह बारात ठानी थी, जिसमें हम भी जा रहे थे।
बहरहाल तीस-पैंतीस लोगों की बारात एक अंतरिक्ष-यान पर बैठाई गई जो एक बस की शक्ल का था। इसका शरीर जंगशुदा लोहे के रंग के किसी विकट किस्म-के लोहे से बना था, जिसे बड़े सलीके से जगह-जगह उधेड़ कर अमूर्त किस्म की आकृतियां बनाई गईं थीं। मैंने ग़ौर किया कि यात्री सर से पांव तक जिस्म ढंकने वाले अंतरिक्ष-सूट की बजाय खुला-खुला सा बनियान-कच्छा पहने थे या महज़ गमछा डाले हुए थे। यान में प्रवेश करते ही मुझे इसकी वजह समझ में आ गई कि यान भी बारातियों-सा ही खुला-खुला था- धूल-धूप और उमस की चिपचिपाहट को ठंडे स्पर्श-सी छूती हवा का निर्बाध आवागमन कराता हुआ। सीटें आरामदेह थीं, क्योंकि सीधे-सादे पटरों पर जो कुछ मढ़ा गया रहा होगा अब नहीं था और सीट-बेल्ट आदि ताम-झाम भी नहीं था. ख़ास बात ये भी थी की यान-चालक और यात्रियों के बीच कोई अवरोध नहीं था और आगे चलकर पता चला कि कोई फ़र्क भी नहीं था। बल्कि यान को जितना चालक और ईंधन ने नहीं चलाया, उससे कहीं ज़ियादा हमारे सहयात्रियों ने ही चलाया। सभी के लद जाने के बाद भी जब यान चलने को प्रस्तुत नहीं हुआ तो हमने यान-चालक पर प्रश्नवाचक मुद्रा फेंकी। जवाब में उसने आदेशात्मक-भाव लौटाया, जिसके नतीजे में हमें छोड़ यान के तीन-चौथाई यात्री नीचे उतरे और यान के पिछवाड़े जा खड़े हुए। चालक की हुंकार पर सबने सामूहिक धक्के से राकेट-शक्ति उत्पन्न की और यान एकदम चल पड़ा। कुछ देर तक मज़े में चलने के बाद यान ने वायुमंडल-क्षेत्र अर्थात् राष्ट्रीय-उच्चपथ क्रमांक-420 को पीछे छोड़, अंतरिक्ष-शून्य यानी ग्रामीण-पथ पर प्रवेश किया। यहां से विकास का गुरुत्वाकर्षण क्रमशः कम से कमतर होता गया, जिसके प्रभाव से हमारा यान बुरी तरह हिलने-डुलने लगा। फिर हमने पाया कि हम पृथ्वी जैसे ही एक और ग्रह पर पहुंच गए हैं। इस कृषि-प्रधान ग्रह पर पहले खेत नज़र आते, फिर थोड़ी हरियाली, फिर खेत। कहीं-कहीं कच्चे मकानों का झुरमुट-सा दिखाई देता था। यहां नदियां ढेर सारी थीं और बड़ी बलवती थीं, जिधर जी चाहे मुड़ गई मालूम होती थीं।
हमारा यान एक ऐसी जगह को पार करते हुए ठहर गया, जो किसी नदी, तालाब या गढै़या पर बने पुल का भग्नावशेष था। ऐसा मालूम होता था जैसे यहाँ कोई उल्कापात हुआ होगा, जिससे पुल मलबे में तब्दील हो गया था। यहाँ यान का एक पहिया धमाके से उड़ा और पहिये को थामने वाले कुछ कल-पुर्ज़े भी पहियों के बीच नहीं रहे। यान-चालक तत्परतापूर्वक मरम्मत में जुट गया, जिसमें कुछ यात्राी भी यथासंभव सहयोग करने लगे। बाकी यात्री स्थानीय खेतों-बगीचों में घुसकर इस ग्रह की पैदावार का नमूना बटोरने में जुट गए। इस अनुसंधान का लाभ तुरंत ही यूं मिला कि मौक़े पर ही एक स्थानीय ग्रहवासी अवतरित हो गया, जिसके हाथ में एक लाठी थी, और वह कतई मित्रवत नहीं लग रहा था। अनुसंधान पर निकले यात्री जान बचाकर भाग आए।
घंटे-भर की मरम्मत और सामूहिक राकेट-शक्ति के धक्के से पुनः यान चला और इस बार लंबा चला, पर कुछ धीमी रफ़्तार से। उस ग्रहवासी की ही तरह ज़मीन की सतह भी यान के लिए मित्रवत् नहीं थी। कहीं-कहीं तो चालक हम सबको नीचे उतारकर अकेला ही यान चलाना पसंद करता। ऐसे ही एक मौके पर हमने यान के मार्ग का सरसरी नज़र से निरीक्षण किया और यान-चालक की बहादुरी और कुशलता को सराहने से नहीं बच पाए। हमने पाया कि वह जिधर से यान लेकर आया था और जिधर ले जा रहा था, दोनों ही दिशाओं में सड़क का नामोनिशान तक न था। चंद्रमा या मंगल की सतह पर जिस प्रकार के गड्ढे होते हैं, वैसे ही तमाम छोटे-बड़े गड्ढों को बिछाकर यह रास्ता बनाया गया था। रास्ते पर हमने कुछ विचित्र-सी टेढ़ी-मेढ़ी चाल चलते कई स्थानीय वाहन भी देखे, जो साइकिल, ट्रैक्टर और कुछेक तो कारों की शक्ल के भी थे।
यों कुछ दूर चलने के बाद सभी यात्रियों ने महसूस किया कि यान में चलने की बजाय उसके साथ-साथ पैदल चलना ही ज़्यादा मुफ़ीद है। हम और हमारे मित्र यान-चालक के केबिन में ही बैठे रहे, क्योंकि इस ग्रह पर हवा में धूल और ज़मीन पर कीचड़ कुछ ज़्यादा ही था और हमारे पास इनसे बचने के लिए ज़रूरी, कपड़े उतारने का आत्मबल नहीं था। नतीज़तन चलते यान के सामने देखते हुए जब हमारा कलेजा नामक अंग मुंह की ओर आने लगता तो हम बायीं ओर देखने लगते। अगले ही क्षण यान बायीं ओर करवट लेने को आतुर नज़र आता और कलेजा घबरा कर बायीं कान की ओर चल पड़ता। तब हम भी घबराकर नज़र दायीं ओर करते और यान जैसे हमारी नज़रों के इशारों पर डोलता हुआ दायीं ओर किसी खड्ड में कूदने को होता। कलेजा भी पूरी तत्परता से दायें कान में घुस जाता। थोड़ी देर यान हमारे इशारे पर यों ही नाचता रहा और कलेजा अपनी जगह छोड़कर इ.एन.टी. (कान-नाक-गला) इलाक़े में घूमता रहा, और तभी सीने में वापस लौटा जब हमने आंखें बंद कर लीं और एक अनंत ब्रह्माण्डीय हिचकोले में झूलने लगे।
यान के स्थिर होने पर आंखें खुली तो देखा वह एक हरी-भरी जगह पर खड़ा है। एक हनुमान जी का मंदिर, एक बूढ़ा बरगद, हरी सतह वाला एक तालाब, कुछ खज़़ूर व आम के पेड़ और थोड़े ग्रहवासी वहां पर मौजूद थे। हमें ये देखकर खुशी हुई कि वहां पान की एक दुकान थी जिसके सामने पान-मसाला-गुटकादि के तोरण लटके हुए थे। हम यह पाकर और भी मुदित हुए कि पास के झोपड़े से ताज़ातरीन फ़िल्मी गीत चिंचियाती-सी आवाज में बज रहा था, जिसपर स्थानीय ग्रहवासी भी यान के यात्रियों के साथ गुटका चबाते हुए सर, कमर और होंठ हिलाकर संगत कर रहे थे। यहां जलपान के बाद (हमारे यान ने सिर्फ जल ग्रहण किया जबकि यात्रियों ने जल के बाद पान-तंबाकू आदि भी लिया) यान ने फिर प्रस्थान किया, बेशक उसी राकेट धक्के की मदद से।
शाम ढल रही थी। आगे ही इस ग्रह का गुरुत्वाकर्षण-केंद्र मिल गया। यह एक क़स्बेनुमा शहर था। यहाँ सड़क के बचे-खुचे निशाँ भी खत्म हो गए, हालांकि जिधर सड़क होने की आशंका थी, यानी जहाँ से होकर हमारा यान गुजर रहा था, उसके दोनों ओर क़तारों से दुकानें सजी पड़ी थीं। इस ग्रह के वासियों को कूड़ा बेहद पसंद था, क्योंकि वे इसे अपने घरों के आगे ढेर बनाकर रखे हुए थे। दुकानों पर न जाने क्या-क्या बिक रहा था। हालांकि एक दुकान पर हमने लड्डू, जलेबी और पकौड़े जैसे कुछ दीगर पदार्थ ज़रुर पहचान लिए, जो धूल और मक्खियों के कारण ज़रा साफ़ नहीं दिखाई पड़ रहे थे। यहीं इस ग्रह में बाहर की दुनिया से संपर्क जोड़े रखने का इरादा वहां खड़े कई टेलिफ़ोन बूथों पर ऊँची आवाज़ में बतियाते लोगों के ज़रिए हम पर साफ़ जाहिर हुआ। एक दुकान ऐसी भी दिखी, जिसमें ढेरों इलेक्ट्रानिक वस्तुएँ कबाड़ की भांति भरी दिखीं। यहाँ से भयंकर तेज़ आवाज़ में कुछ बज रहा था, जो अगले मोड़ पर पहुँचने के बाद समझ आया तो एक फ़िल्मी गीत ही निकला।
हमारे यान के मार्ग में आया यह मोड़ आख़िरी साबित हुआ। इस बार वह सामूहिक राकेट शक्ति से भी ना हिला, तब यान-चालक उतरकर कहीं चला गया। अंतरिक्ष-से घुप्प अँधेरे में कहीं-कहीं उल्काएँ चमक रही थीं। ग़ौर से देखा तो ये ढिबरियाँ और लालटेन थे, जो आस-पास के झोंपड़ों में तेज़ बहती बयार से लड़ते टिमटिमा रहे थे। कभी-कभी आते-जाते यानों की बत्तियों की रोशनी रास्ते पर लहरों-सी बह उठती। इस नाज़ुक मोड़ पर मिश्र जी ने हमें सूचित किया कि हमारी मंजि़ल बस छह कि.मी. रह गई है। बरातियों ने उत्साह में तनिक भी कमी न दर्शाते हुए कमर में बंधे अन्गोछों को कंधें पर डाला और पदयात्रा को प्रस्तुत हो गए। हमने भी अंततः वस्त्र त्यागे क्योंकि पता चला कि बची दूरी में एक-चौथाई नदियाँ थी और बाक़ी पोखर और गड्ढे़। हमने प्रसंग-वश पूछ लिया कि पिछले नौ घंटों में हम कितनी दूरी तय कर आए। मिश्र जी ने कुछ हिसाब-सा करते हुए बताया कि हाई-वे के पच्चीस कि.मी. को मिलाकर, जोकि हमने आधे घंटे में तय किया था, हम पूरे पचास कि.मी. की यात्रा संपन्न कर चुके हैं, और अब तो बस थोड़ा-सा रह गया है। हमारी इस यात्रा के मद्देनज़र हमारी छोटी और बड़ी दोनों सरकारें गौर करें कि इक्कीसवीं सदी के अंतरिक्ष-विजयी भारत के भविष्य में महज़ पचास कि0मी0 दूर स्थित इन क्षुद्र ग्रह-उपग्रहों का क्या महत्व है। क्या सरकार इनके साथ सार्थक संवाद स्थापित कर रही है. उन्हें बाक़ी देश से जोड़ने के लिए ठोस संपर्क-साधन निर्मित कर रही है या अभी एक और अगली सदी तक दूर-संवेदी नेता-अफसर भेजने, आश्वासन-कोड में सिग्नल भेजने और वोट-कोड में उत्तर लेते रहने का ही इरादा रखती है।