एक गरीब 'रईस' और अंधा 'काबिल' / जयप्रकाश चौकसे

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एक गरीब 'रईस' और अंधा 'काबिल'
प्रकाशन तिथि :10 दिसम्बर 2016


शाहरुख खान की फिल्म 'रईस' और राकेश रोशन की 'काबिल' एक साथ 25 जनवरी को प्रदर्शित होने जा रही है और इस भिड़ंत से दोनों के व्यवसाय में कमी होने वाली है और दोनों पक्ष एक-दूसरे से भिड़ंत टालने के लिए मुलाकातें करते रहे हैं तथा वार्ता के बीच में ही शाहरुख खान ने 'रईस' के प्रदर्शन की घोषणा कर दी। वार्ता के दरमियान की गई घोषणा से तिलमिलाए राकेश रोशन ने भी वही दिन घोषित कर दिया। फिल्म उद्योग की गरीबी का यह हाल है कि इस हानि से उसकी कमर ही टूट जाने का अंदेशा है। 130 करोड़ की आबादी वाले देश में बमुश्किल पांच करोड़ लोग ही सिनेमाघर में फिल्म देखते हैं और सैटेलाइट द्वारा टीवी पर प्रदर्शन ही अधिकतम दर्शकों तक पहुंच पाता है। मल्टीप्लेक्स में क्षमता के पैंतीस प्रतिशत ही दर्शक आ पाते हैं और नौ हजार एकल सिनेमा में भी दर्शकों का प्रतिशत लगभग इतना ही है। मल्टीप्लेक्स की आय के मुख्य स्रोत पॉपकार्न और पार्किंग है गोयाकि भारतीय मनोरंजन क्षेत्र भारत के खाने-पीने के शौक पर टिका हुआ है। 'रईस' कितना रईस और 'काबिल' की क्या काबिलियत है? रईस बहुत डरा हुआ है और काबिल भी हकला रहा है। सारा खेल केवल एक अतिरिक्त छुट्‌टी के लिए रचा गया है। स्पष्ट है कि कामकाज के दिन दर्शन नहीं आते। वर्तमान में मनोरंजन के अनेक साधन लोगों को उपलब्ध हैं।

मनोरंजन उद्योग और सामाजिक जीवन दोनों ही सप्ताहांत पर आधारित हैं। पश्चिम की तरह अब हम सोमवार से शुक्रवार तक काम करते हैं और शेष दो दिनों में मनोरंजन या सामाजिक मेलजोल करते हैं। पश्चिम में तो सोमवार को मृत्यु होने पर भी पार्थिव शरीर का सुपुर्द-ए-खाक शनिवार तक रोक लिया जाता है। आत्माएं भी इंतजार के मोड में डाल दी गई हैं। स्वर्ग में जन्म-मृत्यु का बहीखाता रखने वाले विभाग को सप्ताहांत में अधिक काम करना पड़ता है। यमराज को अच्छा-खासा ओवरटाइम मिल रहा है। धरती की ही प्रतिछाया की तरह स्वर्ग व नर्क का आकल्पन किया गया है।

सितारे का अर्थ होता है कि वह सिनेमाघर में दर्शक की भीड़ जुटा देगा अौर अब वही सितारा सप्ताहांत की बैसाखी पर चल रहा है। कितने धूमिल हो गए हैं ये सितारे! एक तरफ सितारों की चमक फीकी पड़ी है तो दूसरी तरफ उन्होंने अपना मेहनताना बढ़ा दिया है। जब शांताराम ने अपनी फिल्म 'शकुंतला' के लिए पृथ्वीराज कपूर से कम मेहनताने में काम करने को कहा और उन्होंने इनकार कर दिया तो स्वयं शांताराम ने दुष्यंत की भूमिका अभिनीत की और फिल्म सफल रही। शांताराम को इतना आत्मविश्वास था कि उन्होंने अपनी भव्य फिल्म 'नवरंग' में महीपाल को नायक की भूमिका दी। शांताराम सितारों के दम पर नहीं, स्वयं की प्रतिभा में यकीन करते थे। आज का फिल्मकार बहुत ही कमजोर और मजबूर नज़र आता है और इसी कारण मनोरंजन क्षेत्र में सूखा पड़ा है, अकाल का समय है। अगर स्कूली पाठ्यक्रम में फिल्म निर्माण विधा को शामिल किया होता तो सारे देश से प्रतिभा आकर इस उद्योग को संवारती। अभी तो यह उद्योग 'मायनॉरिटी' उद्योग बन चुका है। इस देश में तरह-तरह के मायनॉरिटी क्षेत्र उभर रहे हैं। अन्य उद्योग भी 'सब्सिडी' के लोभ में काम करते हैं और उसकी अवधि पूरी होते ही उद्योग बंद कर देते हैं। अधूरी योजनाओं की तरह आधे-अधूरे उद्योग ही सीमित समय के लिए सक्रिय रह जाते हैं।

दरअसल, देश का मिजाज कुछ हद तक 'माल-ए-मुफ्त दिल-ए-बेहरम' की तरह हो गया है। तरह-तरह के भिखमंगों की जमात का औद्योगिक स्तर पर उत्पादन किया जा रहा है। फुटपाथ पर सोने वाले लोग शीत ऋतु में किसी बीमारी का स्वांग करके अस्पताल में दाखिल हो जाते हैं। इसी तरह उद्योग धंधे भी सब्सिडी की मियाद के बाद 'बीमार उद्योग' को किसी अस्पताल में दाखिल कर देते हैं। खाकसार ने अपनी लिखी 'शायद' में ऐसा ही एक पात्र रचा था, जिसे ओम पुरी ने अभिनीत किया था।