एक गोपनीय बैठक में कागजी पहलवानों की हेकड़ी / जयप्रकाश चौकसे

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एक गोपनीय बैठक में कागजी पहलवानों की हेकड़ी
प्रकाशन तिथि :07 अप्रैल 2015


करण जौहर में बड़ी ऊर्जा है और उजागर होने की असीमित आकांक्षा भी है। वह टेलीविजन पर शो करता है, फैशन डिजाइनिंग करता है, 'बॉम्बे वेलवेट' में अभिनय कर रहा है और रोज रात उसका घर एक ओपन हाउस क्लब सा बन जाता है, जहां फिल्म जगत के प्रसिद्ध लोग खाते, पीते और गपियाते हैं। उनके सभी सितारों से घरेलू रिश्ते हैं और उनकी फिल्मों में सितारों को खूब लड़ियाया जाता है, गोयाकि उनकी हर इच्छा पूरी करने को जौहर बेकरार रहते हैं। यह मिलनसारिता और याराना उनकी व्यवसाय नीति का हिस्सा है। कुछ दिन पूर्व करण जौहर के दफ्तर में एकता कपूर, सुनील लुल्ला, अनुराग कश्यप, सिद्धार्थ राय कपूर और मुकेश भट्‌ट की एक अनौपचारिक बैठक हुई, जिसमें फिल्म प्रमोशन के दस-बारह करोड़ का व्यय, सितारों के व्यक्तिगत सेवकों का प्रतिदिन डेढ़ लाख रुपए का खर्च इत्यादि मुद्दों पर बात हुई और यह तय पाया गया कि बॉम्बे टाइम्स में प्रचार खबरों की तरह और सम्पादकीय की तरह प्रकाशित कराने के लिए प्रति फिल्म लगभग 60 लाख रुपए खर्च होते हैं। यह खर्च अब नहीं किया जाए। इस पर एकता कपूर ने कहा कि उन्होंने इस तरह कभी पैसा नहीं दिया, परन्तु उनकी फिल्मी खबरें प्रकाशित होती रही हैं। सवाल यह है कि जो एकता कपूर से अधिक फिल्में बनाते हैं, परन्तु उन्हें कभी यह रियायत नहीं मिली। ऐसे कुछ अन्य अखबार भी हैं, जिन्हें 'प्रायोजित खबरों' के लिए धन देना पड़ता है। इस तरह का कार्य राजनीति में होता है।

यह भी तय पाया गया कि सितारों के व्यक्तिगत सेवकों का खर्च स्वयं सितारे उठाएं, क्योंकि उनका मेहनताना करोड़ों है। दरअसल, आदित्य चोपड़ा ने 'दम लगा के हईशा' का कोई प्रमोशन नहीं किया और फिल्म 30 करोड़ अर्जित कर चुकी है। आदित्य चोपड़ा स्वयं कभी इस तरह की बैठक में नहीं जाते, न ही कभी साक्षात्कार देते हैं, परन्तु उनका शागिर्द करण जौहर उन्हीं की भाषा, कम से कम, उस बैठक में तो बोल रहा था। सच्चाई यह है कि बड़े सितारों की महंगी फिल्म बनाने वाले आधा दर्जन निर्माता ही प्रमोशन पर दस करोड़ लगाते हैं, ये लोग ही प्रायोजित 'एडवोटोरियल' का खर्च करते हैं। चार करोड़ में फिल्म बनाने वाले के पास इस तरह का धन नहीं है, परन्तु 'महंगे प्रमोशन' को फिल्म उद्योग का यथार्थ बनाया जाना भी षड्यंत्र ही है। समाज की तरह सिनेमा में भी सारी कुरीतियों का प्रचार व पोषण अमीर लोग ही करते हैं और उसे नियम या संस्कार का नाम देकर गरीबों पर थोप देते हैं। उदाहरण के लिए अजय बहल ने तीन करोड़ में 'बी.ए. पास' बनाई, परन्तु प्रमोशन नामक थोपी परम्परा के लिए उसे प्रमोशन पर खर्च करने वाले को अपना भागीदार बनाना पड़ा और इस तरह के सौदों में प्राय: बाद में धन लगाने वाला आय में पहला हक रखता है। अर्थात, इस निर्मम व्यवस्था में सृजक दूसरे नम्बर का भागीदार हो जाता है, गोयाकि दुकानकार का मुनाफा उत्पाद करने वाले से अधिक है, यही बाजार का 'जंगल कानून' है। दरअसल जंगल कानून में 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' होती है, परन्तु आज के बाजार में लाठी के चित्र का उपयोग करके भैंस हड़प ली जा रही है।

करण जौहर के दफ्तर में मौजूद जांबांजों को सलाम करने का मन नहीं होता, क्योंकि सितारा आधारित फिल्म रचने वाला कमजोर व समझौता करने वाला निर्माता सितारे से हाथ जोड़कर कहेगा कि महाराज मैं आपके मेहनताने में आपके सेवकों का व्यय भी जोड़ दूंगा, परन्तु आप उन्हें अपने हाथ से दें, ताकि मैं अपनी निर्माता बिरादरी में यह दिखा सकूं कि मुझमें दम है, मैं सितारे से नहीं डरता। इस तरह वह नए 'जंगल कानून' की लाठी का चित्र खरीद रहा है। वह भी एकता की तरह दावा ठोक सकता है कि वह 'एडवोटोरियल' या प्रायोजित खबर के पैसे नहीं देता। हमारे देश में लाक्षणिक इलाज की परम्परा है, हम बीमारी की जड़ पर प्रहार नहीं करते। असल मुद्दा यह है कि बतौर फिल्मकार क्या आप में दम है कि आप बिना सितारा फिल्म बनाए और प्रमोशन भी न करें, जैसे आदित्य चोपड़ा ने 'दम लगा' में किया। जब पृथ्वीराज कपूर ने अपना एक लाख मेहनताने का नियम नहीं तोड़ा, तब शांताराम ने स्वयं ही 'शकुंतला' में नायक की भूमिका की। जोकर के बाद राजकपूर ने युवा कलाकारों के साथ 'बॉबी' बनाई। इसके पहले असफल 'आह' के बाद वे बच्चों के साथ सुपरहिट alt15बूट पॉलिश' बना चुके थे। गुरुदत्त ने दिलीप उपलब्ध न होने पर स्वयं 'प्यासा' की। सच तो यह है कि आत्मविश्वास रखने वाले फिल्मकार नहीं हैं। सब बड़े निर्माता सितारों के दास हैं। बस 'बैठकों' में ही डंड पेल सकते हैं - लाठी का चित्र रखने वाले