एक घंटे में- / अज्ञेय
प्रभाकर जब अपने बड़े कोट के नीचे भरा हुआ 45 बोर का रिवाल्वर लगाकर, जेब में पड़े हुए गोलियों के बटुए को हाथ से छूकर, एक बार शीशे में अपना प्रतिबिम्ब देखकर चलने लगा, तब रजनी ने शीशे में उसके प्रतिबिम्ब की ओर उन्मुख होकर कहा, “कब लौट आओगे?”
प्रभाकर ने शीशे में पड़ते हुए रजनी के प्रतिबिम्ब की ओर दृष्टिपात करके कहा, “अभी घंटे-भर में चला आऊँगा। क्यों, भूख बहुत लगी है क्या?”
रजनी ने कहा, “नहीं, वैसे ही-” कहकर चुप हो गयी।
प्रभाकर ने धीरे से पुकारा, “रजनी!” और एक बार शीशे की ओर मुस्करा-कर खटाखट सीढ़ियों से नीचे उतर गया।
रजनी दीर्घ निःश्वास छोड़कर उठी और किवाड़ की सांकल लगाकर फिर अपने स्थान पर बैठ गयी।
उसके सामने दो पुस्तकें खुली पड़ी थीं। एक हैरल्ड लास्की की कम्युनिज़्म और दूसरी भवभूति का उत्तररामचरित। प्रभाकर के चले जाने के बाद उसने पहली पुस्तक बन्द कर दी और उत्तररामचरित के श्लोक धीरे-धीरे गुनगुनाने लगी।
किन्तु उसका मन नहीं लगा। थोड़ी ही देर में उसका ध्यान फिर उस दर्पण की ओर चला गया और वह उसमें अपना गम्भीर, कुछ करुण और कुछ चिन्तित मुख देखती हुई न जाने किस विचर में लीन हो गयी।
प्रभाकर और रजनी का विवाह हुए दो वर्ष से अधिक हो गया था। किन्तु विवाह-सुख किसे कहते हैं, यह उसे कभी नहीं ज्ञात हुआ। उसे तो अभी तक यही अनुभव होता रहा कि एक सिपाही का जीवन कितना कठोर हो सकता है।
रजनी अच्छे और धनी घर की बेटी थी, इसलिए उसकी ‘ट्रेनिंग’ भी वैसी ही थी और उसके विचार भी वैसे ही। पति के घर में आकर उसने देखा जिन सिद्धान्तों को वह अब तक अटल समझती आयी थी, उनका यहाँ ज़रा भी मान नहीं था। यहाँ राजा की शक्तिमत्ता में, सरकार की निष्पक्षता में, धन की सत्ता में, कुछ भी श्रद्धा नहीं थी यहाँ निर्धनों और अछूतों की ही पूछ होती थी, यहाँ मज़दूर और किसान ही सबसे बड़ी शक्ति गिने जाते थे। पहले तो रजनी को इससे बड़ा आघात पहुँचा। वह लड़कियों के एक कॉलेज की पढ़ी हुई थी और उसके मन में वही अहम्मन्यता का भाव था जो कि प्रायः ऐसे कॉलेजों की लड़कियों में होता है। घर की संस्कृति से यह भाव नष्ट नहीं पुष्ट ही हो गया था। यहाँ आकर जब उसने ये रंग-ढंग देखे, तब पहले तो उसके मन में साधारण विरोध-भाव उत्पन्न हुआ। किन्तु पति से तर्क करने पर जब वह बार-बार हारने लगी, तब उसका भाव एक दृढ़ विद्रोह में परिणत हो गया। वह प्रत्येक बात में पति के मत का खंडन करती और अपने मत की पुष्टि के लिए कॉलेज में पढ़ी हुई किताबों से सन्दर्भ दिखाया करती। प्रभाकर उन सब वारों को सहज ही सह लेता और हँसी-हँसी में रजनी के तर्कों का खंडन कर देता। रजनी जब अप्रतिभ होकर चुप हो जाती तब प्रभाकर उसके पास आकर धीरे से एक चपत लगाकर कहता, “रजनी, अभी तुम बहुत बदलोगी-बहुत! तुम्हारे घरवालों ने तो तुम्हारा अचार डाले रखा था-कभी बाहर की हवा भी नहीं लगने दी!” इससे रजनी का क्षोभ बहुत-कुछ मिट जाता था, किन्तु पूर्णतया नहीं। वह चुप होकर चली जाती थी।
प्रभाकर के माता-पिता मर चुके थे। वह एक छोटे-से घर में अकेला ही रहता था। वह लाहौर के एक कॉलेज में लेक्चरर था और ग्वाल-मंडी में किराए के एक छोटे-से मकान में रहता था। प्रातःकाल उठकर वह कॉलेज के लिए अपने नोट तैयार करता फिर कुछ राजनीति की पुस्तकें पढ़ता और नौ बजे कॉलेज चल देता। उसके बाद रात तक रजनी को उसके दर्शन नहीं होते। कभी-कभी लौटने पर उससे पूछती, “इतनी देर तक कहाँ रहते हो? तो वह हँसकर उत्तर देता, ‘आज विद्यार्थियों की एक सभा में लेक्चर देने चला गया, इसीलिए देर हो गयी।’ या ‘आज अमुक मिल के मजदूरों ने बुलाया था’। कभी-कभी रजनी क्षुब्ध होकर निश्चय करती थी कि आज वे आयेंगे तो उनसे बोलूँगी नहीं किन्तु जब दिन-भर का थका-मांदा प्रभाकर बगल में मोटी-मोटी किताबों का गट्ठर दबाए घर आता और सीढ़ियों के ऊपर आकर रजनी को देखते ही उसका मुखश्री खिल उठता और वह उल्लास-भरे स्वर में पुकारता, “रजनी!” तब वह किसी तरह भी नहीं रुकती थी...बल्कि प्रायश्चित्तस्वरूप दूसरे दिन सवेरे जब प्रभाकर राजनीति और अर्थनीति की किताबों लेकर पढ़ने बैठता, तब वह चुपचाप उसके पास आकर बैठ जाती, कोई किताब सामने खोलकर रख लेती और गम्भीर मुखमुद्रा बनाकर उसकी ओर देखा करती। बीच-बीच में जब वह कनखियों से पति की ओर देखती, तब प्रभाकर ठठाकर हँस पड़ता था और रजनी भी विवश होकर मुस्करा देती थी। प्रभाकर कहता, “तुम भी इन्हें पढ़ डालो, बहुत-सी नयी बातें जान जाओगी।”
रजनी कभी भूलकर भी इन किताबों में रुचि नहीं दिखाती थी। वह कहती, “उँह, इनको पढ़कर क्या होगा?” कॉलेज में थोड़ा पढ़ आयी थी, उसी से रोज आपस में लड़ाई हो जाती है!” फिर शीघ्र ही दोनों किसी निगूढ़ विषय पर बहस करने लग जाते...
किन्तु जब प्रभाकर कॉलेज चला जाता, तब रजनी उन्हीं पुस्तकों को निकालकर बड़े ध्यान से पढ़ती थी। केवल इस बात का ध्यान रखती थी कि पति के आने से पहले उसका स्वाध्याय समाप्त हो जाए।
धीरे-धीरे उसका विचार-क्षेत्र भी विस्तृत होता जा रहा था! उसे बहुत-सी बातें समझ में आने लगी थी जो कि कॉलेज में और घर में उससे छिपाकर रखी जाती थीं और जिन्हें सुनना भी वह पहले पाप समझती थी। साथ-ही-साथ उसके पुराने विश्वास भी बहुत-से मिटते जाते थे। ज्यों-ज्यों उसको अपनी पुरानी भूलों का ज्ञान होता जाता था, त्यों-त्यों उसकी अहम्मन्यता भी मिटती जाती थी। किन्तु इतने दिनों को लड़ाइयों और इतने दिनों से किये गये मान को याद करके वह अपने पति से इस बात को छिपाती थी कि उसका मन कितना परिवर्तित हो गया है।
एक दिन संध्या के समय वह अपने कोठे के घर पर बैठी नीचे की दुकानों में जलती हुई गैस-लैम्पों और उनके प्रकाश में जगमगाते हुए फलों की कतारों की ओर देख रही थी। प्रभाकर अभी तक नहीं लौटा था!
धीरे-धीरे रात हो गयी। लेकिन प्रभाकर नहीं आया। रजनी की चिन्ता बढ़ने लगी। वह एक किताब लेकर वहीं बैठ गयी और पढ़ने लगी।
लगभग ग्यारह बजे प्रभाकर ने दरवाजा खटखटाया और कोमल स्वर में पुकारा, “रजनी!”
रजनी चौंककर उठी और नीचे जाकर प्रभाकर को लिवा लायी। दोनों चुप-चाप अपने पढ़ने के कमरे में जाकर खड़े हो गये, कुछ बोले नहीं। प्रभाकर ने धीरे-धीरे कोट उतारा और कुरसी पर बैठ गया।
रजनी क्षण-भर उसकी ओर देखती रही। फिर बोली, “खाना नहीं खाओगे?”
“आज खा आया हूँ।”
“कहाँ?”
प्रभाकर बिना कुछ उत्तर दिए मुस्करा दिया। रजनी ने कहा, “अच्छा, चल कर मुँह-हाथ तो धो लो, बिलकुल गर्द से सने हो।”
प्रभाकर ने कहा, “तुम चलो, सोओ, मैं अभी आया।”
रजनी को जान पड़ा, अवश्य ही कोई असाधारण बात हुई है। स्नेह से बोली, “दिन-भर कहाँ रहे?”
प्रभाकर ने प्रश्न टालते हुए कहा, “कितना थक गया हूँ!”
रजनी ने आकर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली, “उठो, चलो, यहाँ बैठे रहने की जरूरत नहीं है।” कहकर वह धीरे-धीेरे प्रभाकर को खींचने लगी। प्रभाकर उठ खड़ा हुआ और कोट को उठाकर कन्धे पर रखने लगा।
रजनी बोली,”इसे यहीं पड़ा रहने दो न, कल सँभाल लूँगी!” कहकर उसने कोट खींच लिया।
कोट जमीन पर गिर पड़ा। किसी ठोस वस्तु के गिरने का ‘ठक्’ शब्द हुआ। रजनी ने कहा, “यह क्या है?” और प्रभाकर के रोकते-रोकते कोट की जेब में हाथ डाल दिया।
प्रभाकर कहने को हुआ, “कुछ नहीं है।” किन्तु रजनी के मुख की ओर देखकर चुप रह गया।
रजनी का मुख फीका पड़ गया था, किन्तु बड़े यत्न से उसने अपने को वश में किया और कोट उठाकर अपने कमरे की ओर चल पड़ी। प्रभाकर भी सिर झुकाकर उसके पीछे-पीछे चला।
कमरे में पहुँचकर रजनी ने कोट की जेब में से दो पिस्तौलें और कुछ गोलियाँ निकालीं और उन्हें ले जाकर अपने कपड़ों में छिपा दिया। फिर प्रभाकर के पास आकर बोली, “ये तुम क्यों लाए?”
प्रभाकर ने सहसा कोई उत्तर नहीं दिया। फिर बोला, “मैं क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित हो गया हूँ।”
रजनी क्षण-भर स्थिर दृष्टि से प्रभाकर की ओर देखकर बोली, “तुम्हें अपने अलावा और किसी का भी ध्यान है?”
प्रभाकर फिर भी चुप रहा।
रजनी ने कहा, “जाओ। इस वक्त मैं कुछ बात नहीं करना चाहती!”
प्रभाकर चला गया।
इसके बाद सप्ताह-भर रजनी पति से नहीं बोली। प्रभाकर को भी उससे बोलने का साहस नहीं हुआ। वह स्वयं खाना पकाकर खाता और कॉलेज चला जाता। बीच-बीच में वह कभी-कभी रजनी की ओर करुण और स्नेह-भरी दृष्टि से देख लेता था किन्तु बोलता कुछ नहीं था। रजनी कभी इशोर से भी उसके स्नेह का उत्तर या स्वीकृति नहीं देती थी।
आठवें दिन फिर प्रभाकर बहुत देर तक नहीं आया। लगभग बारह बजे रात को उसने आकर किवाड़ खटखटाए किन्तु रजनी को पुकारा नहीं। ऊपर आकर वह अपने कमरे में खड़ा होकर इधर-उधर से पुस्तकें, कागज, कुछ कपड़े इत्यादि समेट कर जमीन पर रखने लगा।
रजनी चुपचाप खड़ी देखती रही।
प्रभाकर जब अपना काम कर चुका, तब एक अंगड़ाई लेकर खड़ा होकर बोला, “रजनी, अब भी नहीं बोलोगी?”
उसके स्वर में न जाने क्या था, रजनी को ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह विदा माँग रहा हो। उसने कहा, “अब भी क्या?”
प्रभाकर बोला, “रजनी, मैं इतने दिन तक तुमसे कहने का साहस नहीं कर सका...”
रजनी बोली, “ऊपर चलो, वहाँ बात करेंगे!” कहकर प्रभाकर को सोने के कमरे में ले गयी और किवाड़ बन्द कर लिए।
प्रभाकर ने बिना भूमिका के कहा, “रहनी, मुझे घर छोड़कर भागना पड़ेगा... मेरे नाम वारन्ट निकल गया है...”
आज इस घटना को छः मास बीत गये। इन छः महीनों में रजनी ने कितने परितवर्तन देखे थे...
आज दिवाली थी, किन्तु रजनी के घर दीया नहीं जला था। दिन-भर उसने खाना भी नहीं खाया था। इससे पहली रात किसी ने प्रभाकर को बाज़ार में देखा था और पहचानकर पीछा किया था, इसीलिए प्रभाकर को चक्कर काटकर आना पड़ा था और आज दिन-भर वह घर से बाहर नहीं निकला था। किन्तु शाम तक भूखी रहने के बाद जब रजनी ने कहा, “कितनी फीकी दिवाली रहेगी!” तब एका-एक प्रभाकर बोला, “मैं बाहर जाता हूँ।”
“क्यों?”
“काम है।”
क्या काम है, रजनी समझ गयी। उसे खेद भी हुआ कि उसने ऐसी बात क्यों कही। वह बोली, “अब बैठे रहो, यहीं से दूसरों की दीवाली देख लेंगे। तुमने तो दूसरों को सुखी करने का व्रत लिया है न!”
प्रभाकर ने रजनी के मुख की ओर ऐसे देखा मानो कुछ पूछ रहा हो, “इसमें कुछ व्यंग्य तो नहीं है?” किन्तु रजनी के मुख पर स्नेह का भाव देखकर उसे कुछ चोट पहुँची। वह बोला, “नहीं रजनी, हमें अपनी दीवाली भी अवश्य मनानी होगी। मैं मिठाई-विठाई लिये आता हूँ, तुम बैठो।”
रजनी चुप होकर बैठ गयी। प्रभाकर रिवाल्वर इत्यादि से लैसे होकर चल दिया। रजनी अपनी पढ़ाई छोड़कर सामने पड़े हुए दर्पण में मुँह देखती हुई न जाने क्या-क्या सोचने लगी। उसे अपने विवाहित जीवन की घटनाएँ याद आने लगीं और उन घटनाओं की कटुता या प्रियता के अनुसार उसके मुख आलोक ओह छाया का एक चंचल नृत्य होने लगा। किन्तु आलोक और छाया स्थायी होती थी। बीच-बीच में वह पास टँगी हुई घड़ी की ओर देख लेती थी। आधे घंटे से अधिक हो गया। रजनी की विचार-तरंग शान्त नहीं हुई।
इसी समय घर से कुछ दूर पर धड़ाके का शब्द हुआ - “ठांय! ठांय! ठांय! फिर कुछ रुककर दो बार और - “ठांय! ठांय! रजनी चौंककर उठ खड़ी हुई। लपककर उसने सीढ़ियों का निचला किवाड़ बन्द कर लिया। इस अनैच्छिक क्रिया के बाद वह फिर अपने कमरे के मध्य में आकर खड़ी हो गयी। उसका मन अनिन्त्रित होकर दौड़ने लगा।...
यह ठांय-ठांय क्यों? कहीं वही तो नहीं हुआ जिसकी आशंका थी... अब क्या होगा? पुलिस घर पर आ जाएगी...
इसी बीच फिर चार-पाँच बार लगातार धड़ाके हुए फिर कुछ देर के बाद एक, फिर एक और... फिर शान्ति...
अगर वे बन्दी हो गये या आहत या... रजनी की कल्पना-भूमि पर पड़े हुए खून से लथपथ एक शरीर के चित्र के सामाने आकर एकाएक रुक गयी...
उसने प्रबल मानसिक यत्न से अपना मन उधर से हटा लिया और अपने कर्त्तव्य पर विचार करने लगी। अब मुझे क्या करना होगा?
रजनी को सहसा उस रात की याद आ गयी, जब उसने प्रभाकर के साथ घर छोड़ा था।
सप्ताह-भर के मौन के बाद जब एक दिन प्रभाकर ने आकर कहा, “रजनी, मुझे घर छोड़कर भागना पड़ेगा, मेरे वारंट निकल गया है।’ तब रजनी चकित होकर रह गयी थी। बहुत देर चुप रहकर बोली थी, “और मैं?”
प्रभाकर जानता था कि यह प्रश्न ज़रूर होगा, किन्तु उसके पास इसका कोई उत्तर नहीं था। वह थोड़ी देरे चुप रहकर बोला, “अभी तुम घर पर चली जाओ, फिर कुछ दिनों में मैं प्रबन्ध कर दूँगा।”
रजनी ने कहा, “एक बात कहती हूँ, ध्यान से सुनो। मुझे साथ ले चलोगे?”
अत्यन्त विस्मित होकर प्रभाकर बोला, “तुम्हें रजनी?”
“हाँ, मुझे। मैं तुम्हारी मदद नहीं करूँगी, कर भी नहीं सकती। लेकिन तुम्हारे काम में दखल भी न दूँगी। चाहे जैसे जीवन व्यतीत करना पड़े, तुम्हें उलहना नहीं दूँगी। तुम इतना भी विश्वास कर लो कि तुम्हारी जो बातें जान जाऊँगी वे किसी से कहूँगी नहीं। इसके अलावा और क्या करना होगा, बता दो। देखूँ, कर सकती हूँ कि नहीं।”
प्रभाकर गम्भीर होकर बोला, “रजनी, यह कोई साधारण निर्णय नहीं है। लेकिन अगर तुम इतना करने को तैयार हो तो मैं तुम्हारा कहना टाल नहीं सकता। सच बात कहता हूँ कि मुझे तुमसे इतनी भी आशा नहीं थी। इतना भी कुछ कम नहीं है। लेकिन तुम्हें बहुत कष्ट होगा।”
रजनी ने मानो बात अनसुनी करके कहा, “एक बात समझ लो। मैं साथ रहूँगी और गूँगी-बहरी होकर रहूँगी। इतनी बात तुम्हारे फायदे की है। लेकिन मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ, तुम्हारे आदर्शों में किसी प्रकार की सहायता नहीं करूँगी। मुझसे इस प्रकार की कोई आशा न रखो। कभी अगर तुम्हें अपने काम में मेरा मदद की आवश्कता पड़ी और मैंने इनकार कर दिया, तो यह न कहना कि मैंने धोखा दिया और निष्क्रिय पड़ी रही। यह शर्त मानते हो?”
प्रभाकर ने कुछ सोचकर कहा, “अच्छी बात है, मानता हूँ।”
“तो चलो!”
निर्णय कर चुकने के बाद रजनी ने किसी प्रकार की देरी नहीं की। एक घंटे के अन्दर-अन्दर दोनों घर छोड़कर एक विराट शून्य की ओर चल पड़े थे।...
आज ठांय-ठांय सुनकर उसे एका-एक इन बातों की याद आ गयी। उसने मन-ही-मन कहा, मैं कुछ भी करने को बाध्य नहीं हूँ। क्यों न यहीं बैठी रहूँ? मुझे क्या मतलब?”
इस निर्णय पर उसका गतिशील मन नहीं रुक सका। वह फिर सोचने लगी, ‘अगर मैं पकड़ी गयी तब क्या होगा?” उसकी कल्पना में अखबारों की खबरें नाचने लगीं - ‘अमृतसर में गोली चल गयीं’, ‘एक क्रान्तिकारी बन्दी (या हत!)’ ‘वीर या (शायद वीरगति!) क्रान्तिकारी की पत्नी घर में गिरफ्तार...’
रजनी ने धीरे से कहा, “और अभी यहाँ पर एक रिवाल्वर और कई गोलियाँ पड़ी हैं...!’
फिर वह सोचने लगी...
उसका घर एक छोटी-सी गली में था। पहली मंज़िल की सीढ़ियों के दोनों ओर दो कमरे थे और दूसरी मंज़िल पर एक। सीढ़ियों पर एक दरवाज़ा नीचे था, एक पहली मंज़िल पर और दूसरी मंज़िल की छत में लोहे के सीखचों का एक दरवाज़ा था। छत में ही एक छोटा-सा चौकोर सुराख था, जिसमें झाँकने से सीढ़ियों के दरवाज़े और सीढ़ियों से ऊपर आता हुआ कोई भी व्यक्ति दीख पड़ता था।
रजनी ये सब बातें एक ही तरंग में सोच गयी। फिर किसी अतर्क्य प्रेरणा से वह दूसरे कमरे में गयी और बक्स खोलकर टटोलने लगी। उसने रिवाल्वर निकाला और चुपचाप भर लिया। बाक़ी गोलियाँ निकालकर आँचल में डाल लीं।
निचला दरवाज़ा ही वह पहले बन्द कर आयी थी। अब उसने पहली मंज़िल पर भी साँकल चढ़ा दी और दौड़कर छत पर चली गयी। वहाँ उसने लोहे का चौखट बन्द कर दिया और सुराख के पास रिवाल्वर लेकर बैठ गयी।
फिर एका-एक उसके मुँह से निकल गया, “यह मैं क्या करने लगी हूँ?...”
एक भाव बहुत देर नहीं रहा। क्षण-भर बाद उसने रिवाल्वर की नली सुराख से निकाल दी और चौकन्नी होकर बैठ गयी।
अभी दो मिनट भी न बीते थे कि किसी ने किवाड़ खटखटाया। रजनी और सँभलकर बैठ गयीं और सुराख से नीचे देखने लगी। उसने कोई उत्तर नहीं दिया, इसी प्रतीक्षा में बैठी रही कि पुलिस वाले किवाड़ तोड़ें या और कुछ आयोजन करें।
किवाड़ बड़े ज़ोर से खटखटाये जाने लगे। रजनी ने फिर भी कोई उत्तर नहीं दिया! उसकी नसें इतनी तन गयी थीं कि शायद वह उत्तर देना चाहती तो आवाज़ भी नहीं निकलती...
एका-एक रजनी चौंकी। यह तो पुलिस वालों का स्वर नहीं था-यह तो उसका चिर-परिचित स्वर था-
‘कल्याणी, किवाड़ खोलो!’
रजनी उठकर नीचे पहुँची तो उसकी टाँगें लड़खड़ा रही थीं... पर वह नीचे चली गयी। दाहिने हाथ में थामे हुए रिवाल्वर को पीछे छिपाकर उसने किवाड़ खोला और बोली, “आ गये?”
प्रभाकर ने देखा, उसकी आवाज़ भर्रायी हुई है। उसने किवाड़ बन्द कर लिए और ऊपर आकर पूछा, “क्या है रजनी? स्वर्ण-मन्दिर में तो खूब धूम है, आतिश-बाज़ी छूट रही है। मैं तुम्हें नहीं ले जा सका, लेकिन मिठाइयाँ ले आया हूँ।”
रजनी ने विमूढ़-सी होकर प्रभाकर की ओर देखा और बोली, “आतिश-बाज़ी!” कहते-कहते उसने हाथ का रिवाल्वर भूमि पर बिछी हुई दरी पर रख दिया और स्वयं बैठ गयी।
प्रभाकर ने एका-एक उसके पास बैठकर स्नेह से पूछा, “यह क्या है, रजनी?”
रजनी ने धीरे से अपना सिर प्रभाकर के कन्धे पर टेक लिया और धीरे-धीरे रोने लगी।
प्रभाकर उसके सिर पर हाथ रखकर चुपचाप बैठा रहा।
थोड़ी देर बाद जब रजनी उठ बैठी तो प्रभाकर ने पूछा, “क्यों?”
रजनी बोली, “दीवाली मनानी है। दिये जलाऊँगी।”
प्रभाकर ने कृतज्ञतापूर्वक कोमलता से उसका हाथ दबाते हुए कहा, “और मैं भी अपनी गृह-लक्ष्मी की पूजा करूँगा।”
(दिल्ली जेल, जून 1932)