एक चुटकी संतोष/ गिरिराज शरण अग्रवाल

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पात्र-परिचय

राधारानी : सोना की माँ

सोना : 12 वर्षीया बालिका

श्रीनिवास : सोना के पिता

शालिनी, क्षिप्रा, प्रेमलता : सोना की सहेलियाँ

ओंकार : सोना का सहपाठी

पंडित जी : समझदार वृद्ध तथा प्रेमलता के पिता

दृश्य: एक

(पर्दा उठता है तो मंच पर एक 12 वर्षीय बालिका सोना, उसकी माँ राधारानी तथा पिता श्रीनिवास दिखाई देते हैं। सोना इस समय अपनी एक बड़ी-सी गुड़िया का शृंगार करने में लीन है। उसने गुड़िया को लाल रंग का जोड़ा पहनाया है। उसके माथे पर बिदी लगाई है। माँ राधारानी उसे यह सब करते हुए देख रही है।)

राधारानी : क्यों बेटी सोना, तुम अपनी गुड़िया चंपा का ब्याह क्यों नहीं कर देती हो, चंपा तो स्यानी हो गई है अब!

सोना : ब्याह करना कोई आसान थोड़े ही है मम्मी। लड़के वाले तो दहेज बहुत माँगने लगे हैं इन दिनों।

श्रीनिवास : कहीं बात चलाई थी तुमने?

सोना : क्यों नहीं पापा, कई जगह बात चलाई। पर लड़के वाले दहेज इतना माँगते हैं कि उनकी माँग पूरी नहीं की जा सकती।

राधारानी : तो चंपा को कब तक घर बिठाए रखोगी बेटी? एक-न-एक दिन तो तुम्हें इसका विवाह करना ही होगा।

सोना : मैंने प़्ाफ़ैसला कर लिया है मम्मी, जब तक कोई ऐसा लड़का नहीं मिलेगा, जो दहेज न माँगे, तब तक मैं अपनी गुड़िया का विवाह नहीं करूँगी।

श्रीनिवास : और अगर ऐसा वर तुम्हें नहीं मिला तो--?

सोना : मैं अपनी गुड़िया का विवाह नहीं करूँगी, पापा!

श्रीनिवास : यह तो कोई बात नहीं हुई बेटी। अगर दुनिया के सारे बेटी वाले यही सोच लें कि हम बिना दहेज दिए विवाह करेंगे, दहेज नहीं देंगे तो देश की सारी युवतियाँ अविवाहित रह जाएँगी।

सोना : ऐसा कैसे हो सकता है, पापा? जब सब लोग दहेज न देने का निश्चय कर लेंगे तो कोई दहेज माँगने का साहस ही कैसे करेगा?

(सोना फिर से अपनी गुड़िया के शृंगार में व्यस्त हो जाती है। तभी उसकी मम्मी उसे सम्बोधित करती हैं।)

राधारानी : सोना, तुम तो कल्पना की दुनिया की सैर कर रही हो भई। न बेटी वाले दहेज देना छोड़ेंगे, न दहेज माँगनेवाले माँग करना छोड़ेंगे। समाज ने जो डगर पकड़ ली है, वह उसी पर चलता रहेगा और तुम्हें भी चाहे-अनचाहे उसी डगर पर चलना पड़ेगा, बेटी!

सोना : नहीं मम्मी, मैं दहेज देकर अपनी गुड़िया का विवाह नहीं करूँगी। किसी भी हालत में नहीं। तय कर लिया है मैंने।

राधारानी : दहेज नहीं देगी तो उम्र-भर यों ही खेलती रहना अपनी गुड़िया से।

श्रीनिवास : उम्र-भर कहाँ खेल पाएगी राधा। दस वर्ष बाद वह दिन भी आएगा, जब इसके हाथों पर मेहँदी लगेगी, दुल्हन बनेगी यह।

सोना : मैं तब भी घर से दहेज लेकर नहीं जाऊँगी पापा?

श्रीनिवास : पर बेटी, बिना दहेज तुम्हें लेकर कौन जाएगा?

सोना : नहीं जाएगा तो मैं शादी नहीं करूँगी।

राधारानी : फिर तो तुम और तुम्हारी गुड़िया दोनों अकेले ही रह जाएँगे इस संसार में।

सोना : रह जाएँ, पर दहेज नहीं। किसी व़्ाफ़ीमत पर नहीं।

दृश्य: दो

सोना : (अपनी एक सहेली से बात करती हुई) क्यों शालिनी! तुम अपने गुड्डे का विवाह करोगी मेरी गुड़िया से? बहुत सुंदर गुड़िया है मेरी, बहुत सुघड़, सीधी, चरित्रवान।

शालिनी : वह तो मैंने देखा है उसे। पर इन बातों से क्या होता है सोना? सुंदर और सुघड़ होने से पेट नहीं भरता है, पगली। यह बता कि दान-दहेज कितना देगी तू।

सोना : (चिढ़कर) फूटी कौड़ी नहीं।

शालिनी : फूटी कौड़ी नहीं, तो अपनी गुड़िया को लेकर नाचती फिर। मेरे लिए और बहुत गुड़िया एँ हैं।

सोना : अच्छा बता तो दहेज में तू क्या-क्या लेगी?

शालिनी : स्कूटर, टी॰वी॰, फ्रिज। एक अच्छे घर की ज़रूरत का सभी सामान और नव़्ाफ़द रुपया भी।

सोना : ना बाबा ना, मेरे बस का नहीं है यह सब। तू तो अपने गुड्डे को सँगवा के रखना अपने घर में। मैं चली।

दृश्य: तीन

सोना : (एक और सहेली से बात करते हुए) क्यों क्षिप्रा? तुम अपने गुड्डे का विवाह करोगी मेरी गुड़िया से?

क्षिप्रा : हाँ-हाँ, क्यों नहीं, हम दोनों सहेलियाँ हैं। इससे अधिक ख़ुशी की बात और क्या होगी मेरे लिए?

सोना : मैं भी यही सोचती हूँ। अब तो हम केवल दोस्त हैं, ऐसा हो गया तो हम फिर रिश्तेदारी के सूत्र में बँध जाएँगे, दूध-शक्कर की तरह एक हो जाएँगे हम।

क्षिप्रा : बिल्कुल-बिल्कुल।

सोना : तो फिर बात पक्की समझूँ मैं?

क्षिप्रा : हाँ, मगर गुड्डे के पापा की कुछ माँग है।

सोना : क्या माँग है क्षिप्रा, बता।

क्षिप्रा : वह नव़्ाफ़द धन चाहते हैं, दो लाख।

सोना : (कान पकड़ते हुए) ना बाबा, ना, मेरे बस का नहीं है।

क्षिप्रा : बस का क्यों नहीं है? तेरे पापा तो ख़ूब कमाई करते हैं जम करके। थोड़ा-सा गुड़िया के विवाह पर लगा देंगे तो क्या अंतर पड़ने वाला है भला?

सोना : नहीं भई, नहीं। यह मैं नहीं करूँगी। दहेज न देने का संकल्प ले रखा है मैंने।

क्षिप्रा : बस तो हो चुका तुम्हारी गुड़िया का विवाह। घर बिठाए रखो जीवन-भर उसे।

दृश्य: चार

सोना : (अपने एक सहपाठी बालक ओंकार से बात करते हुए) क्यों ओंकार भैया! तुम्हारे गुड्डे की कहीं से बात पक्की हो गई क्या?

ओंकार : नहीं, अभी बात पक्की तो नहीं हुई। प्रस्ताव कई जगहों से आए हैं, शादी के।

सोना : फिर तुमने हाँ क्यों नहीं की किसी के लिए?

ओंकार : कर देंगे बहिन, जल्दी क्या है?

सोना : एक प्रस्ताव मेरा भी है। अपनी चंपा है ना! गुड़िया, बहुत सुंदर-सुघड़। तुम चाहो तो, बहुत ही बढ़िया जोड़ी रहेगी दोनों की।

ओंकार : वैरी गुड सोना, वैरी गुड! तुम्हारा सम्बंधी बनकर तो गर्व होगा मुझे। बोलो क्या दोगी?

सोना : क्या मतलब?

ओंकार : मतलब तो साफ़ है। मुझे क्या दोगी नहीं, वरन् क्या-क्या दोगी कहना चाहिए था।

सोना : देना-लेना कुछ नहीं है मुझे, ओंकार भैया। ख़ाली गुड़िया देनी है। पुरखों ने कहा है, जिसने बिटिया दे दी, उसने सब-कुछ दे दिया।

ओंकार : पुरखों की बात छोड़ो, सोना बहन। वे मर गए तो उनके साथ ही उनकी बात भी मर गई। अब जमाना और है। बिना लिए-दिए जीवन नहीं चलता है अब!

सोना : पर यह तो शादी नहीं, व्यापार हो गया, ओंकार भैया!

ओंकार : जो कुछ भी तुम समझो, जीवन तो व्यापार ही है।

सोना : तो दहेज के बिना बात नहीं बनेगी?

ओंकार : बनना तो दूर रहा बात बिगड़ जाएगी, सोना बहिन। अच्छा है इस क़िस्से को यहीं रहने दो।

दृश्य: पाँच

(सोना और उसके माता-पिता इकट्ठे बैठे हुए हैं।)

श्रीनिवास : क्यों सोना, तुम्हारी गुड़िया की बात पक्की हो गई है कहीं?

सोना : नहीं पापा, जिसके सामने भी शादी का प्रस्ताव रखती हूँ, वह अपनी ढेर सारी माँगें गिना देता है।

राधारानी : मैंने तो पहले ही कहा था बेटी। बिना लेन-देन किए हाथ पीले नहीं होते हैं अब गुड़िया के।

सोना : हालत बहुत ख़राब हो गई है मम्मी। बात करके अपमानित होना पड़ता है, गुड्डेवालों से।

श्रीनिवास : पैसे के अलावा किसी और चीज का मूल्य नहीं रह गया है समाज में। न सौंदर्य का, न चरित्र का।

सोना : आप ठीक कहते हैं पापा। मैंने कितनी ही जगहों पर बात चलाई। किसी ने शिक्षा, सुघड़ता, चरित्र के बारे में कोई चिता नहीं की। सबको बस धन और सामान की चिता थी। लगता है समाज में पैसा प्रधान हो गया है, पापा। बाक़ी चीजें बाद में।

राधारानी : अरी पगली और कहाँ-कहाँ भटकेगी तू? मेरी बात मान, ब्याह कर दे अपनी गुड़िया का।

श्रीनिवास : बिल्कुल! तुम्हारी मम्मी ठीक कहती हैं, बेटी। ऐसा कोई नहीं मिलेगा तुम्हें, जो ख़ाली हाथ गुड़िया का हाथ थाम ले।

सोना : तब मैं अपनी गुड़िया का विवाह ही नहीं करूँगी, पापा। यह तय समझिए।

राधारानी : फिर क्या करेगी?

सोना : पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाऊँगी उसे। राष्ट्र-सेवा, देश-सेवा के लिए तैयार करूँगी उसे। दहेज-प्रथा के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा दूँगी उसे।

श्रीनिवास : इन बातों से काम नहीं चलता है सोना, बेटियाँ तो पराया धन होती हैं। उनकी डोली तो घर से उठवानी ही पड़ती है, सबको।

सोना : बस अंत में एक जगह और प्रयास करूँगी पापा, फिर छुट्टी सदैव के लिए।

श्रीनिवास : कहाँ जाओगी अब?

सोना : पंडित रमाशंकर हैं ना, बहुत बड़े विद्वान नगर के! उनकी लड़की है प्रेमलता। उसके सामने यह प्रस्ताव और रखना है बस।

राधारानी : अरे बेटी, वहाँ भी यही जवाब मिलना है। दूध का धुला अब कोई नहीं है, इस दुनिया में। विद्वान तो और भी शैतान हो गए हैं इस जमाने में।

सोना : देखती हूँ मम्मी।

दृश्य: छह

(सोना पंडित रमाशंकर की बेटी प्रेमलता से बात कर रही है।)

सोना : प्रेमलता बहिन! मैं एक प्रस्ताव लेकर आई हूँ, तुम्हारे पास।

प्रेमलता : बोलो, बोलो, निःसंकोच!

सोना : वह मेरी गुड़िया है ना चंपा, अब उसके हाथ पीले करना चाहती हूँ मैं तुम्हारे गुड्डे के लिए प्रस्ताव लेकर आई हूँ। आशा है कि तुम मुझे निराश नहीं करोगी।

प्रेमलता : मेरे लिए इससे अधिक प्रसन्नता की बात और क्या हो सकती है! सोना, तुम्हारी चंपा मेरे घर में आएगी तो शोभा बढ़ जाएगी मेरे घर की।

सोना : तो फिर बात पक्की समझूँ मैं, कोई माँग तो नहीं है तुम्हारी?

प्रेमलता : माँग तो है बहिन!

सोना : क्या माँग है बता।

प्रेमलता : मेरे पापा ने कह रखा है बहिन कि दुनिया की सबसे व़्ाफ़ीमती चीज जो दहेज में लाकर दे, उसी से विवाह करना तुम अपने गुड्डे का।

सोना : वह चीज क्या है बहिन!

प्रेमलता : एक चुटकी संतोष?

सोना : पर यह मिलेगा कहाँ?

प्रेमलता : जहाँ भी मिले! और जब तुम्हारी गुड़िया को यह मिल जाए तो शादी पक्की समझो। वह जयमाला के साथ एक चुटकी संतोष का तिलक भी देगी दूल्हे को।

सोना : ठीक है, मैं तलाश करती हूँ इस संतोष को।

दृश्य: सात

(सोना से उसके पापा श्रीनिवास बात करते हुए)

श्रीनिवास : क्यों बेटी! गुड़िया की बात आगे बढ़ी कुछ?

सोना : हाँ पापा! पंडित रमाशंकर की बेटी प्रेमलता से बात हुई है। वह और कुछ नहीं, एक चुटकी संतोष की माँग करती है कहती थी, जयमाला के साथ एक चुटकी संतोष चाहिए तिलक के लिए। उसने कहा यह दुनिया की सबसे क़ीमती चीज है।

श्रीनिवास : तो बेटी तलाश करो इसे, जहाँ भी यह मिलती हो, जिस भाव भी यह मिलती है, हम अवश्य ख़रीद लेंगे इसे।

सोना : मैं तो पापा, प्रेमलता के घर से लौटकर पूरे बाज़ार में घूम आई। कहीं तिलक के लिए संतोष नाम की वह चीज नहीं मिली।

राधारानी : कहाँ-कहाँ गई थीं बेटी, तुम?

सोना : कहाँ नहीं गई मम्मी! सभी विवाह-सामग्री बेचनेवालों के यहाँ पूछा, पंसारी की एक-एक दुकान छान मारी। जनरल मर्चेंट नहीं छोड़ा कोई शहर का। लेकिन एक चुटकी संतोष कहीं नहीं मिला।

राधारानी : क्या कहते हैं दुकानदार, कहाँ से प्राप्त होगा?

सोना : वे कहते हैं, संतोष नाम की कोई चीज बाज़ार में नहीं मिलेगी, बेटी! तुम विद्वान पंडित रमाशंकर के पास जाओ। वही ठीक-ठीक पता बताएँगे, यह सामग्री कहाँ मिलती है।

दृश्य: आठ

सोना : (पंडित रमाशंकर जी के चरण छूते हुए) नमस्ते बाबा जी!

पंडित जी : जीती रहो बेटी! आओ।

सोना : (चरणों में बैठते हुए) बाबा जी, बहिन प्रेमलता ने दहेज में एक चुटकी संतोष माँगा था। वह तो बाज़ार में कहीं मिलता नहीं। आपको ज्ञात हो तो बताइए, कहाँ से प्राप्त होगा वह?

पंडित जी : वह, बेटी, बाज़ार में नहीं बिकता है। मैं उसके बारे में एक पर्चे पर लिखे देता हूँ। तुम इसे खोलकर पढ़ लेना।

सोना : ठीक है बाबाजी, बहुत-बहुत धन्यवाद।

(पंडित रमाशंकर पर्चे पर कुछ लिखकर सोना को देते हैं। तभी उसकी सहेली प्रेमलता भी आ जाती है। सोना एक-एक शब्द पर जोर देकर पर्चा पढ़ती है।)

सोना : (पर्चा पढ़ते हुए, हलकी आवाज में) संसार के सबसे भयंकर कीटाणु स्वाद और स्वार्थ में छिपे रहते हैं। जब यह असीमित हो जाते हैं तो जीवन, समाज, गृहस्थी, सभी कुछ ऐसे रोग से पीडि़त हो जाते हैं, जो असाध्य है। स्वस्थ जीवन के लिए और स्वाद को नियंत्रण में रखने के लिए एक चुटकी संतोष की आवश्यकता होती है। यह संतोष उन कीटाणुओं को फैलने नहीं देता। बेटी को विदा करते समय संतोष की यह पुडि़या देना और कहना कि वह इसमें से एक चुटकी अपने पति को दे, क्योंकि जहाँ संतोष होगा, वहाँ सुख होगा और सुख से बड़ा कोई दहेज नहीं है।

सोना : (जोर-जोर से तालियाँ बजाते हुए) वाह-वाह। गुत्थी सुलझ गई दहेज की। अब मेरी चंपा का विवाह होगा शान के साथ।