एक जन पक्षधर कवि का मनोलोक / पूनम चौधरी

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कविता हृदय में निहित संवेदनाओं की अभिव्यक्ति की दुर्निवार विवशता से उत्पन्न होती है। आदि कवि वाल्मीकि की यही विवशता 'रामायण' जैसे विशद महाकाव्य के रूप में निःसृत हुई। निराला की 'सरोज स्मृति' की भाव भूमि भी यही संवेदनात्मक विवशता है। जब-जब सत्ता, समाज और परिवेशीय दबाव व्यक्ति की निजता, स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति का मार्ग अवरुद्ध करते हैं तब-तब साहित्य उसके हितार्थ अपना प्रदेय सिद्ध करता है। साहित्य का भक्ति काल इन्हीं औचित्यों का प्रतिफलन है।

स्वातंत्र्योत्तर भारत अपेक्षा-उपेक्षा, आशा-निराशा, योजना-विफलता, उम्मीद और मोहभंग के बीच करोड़ों भारतीयों के संघर्ष की ज़मीन रहा। जनमानस की सामूहिक सोच को संवेदनशील रचनाकार अनुभव कर रहा था। नई कविता तक आते-आते अतिबौद्धिकता के आतंक ने हिन्दी कविता से उसकी संप्रेषणीयता छीन ली। छंद की मिठास और लयात्मकता गद्य की दुरुहता में परिवर्तित होने लगी। निराला की मुक्त छंद की अवधारणा छंदमुक्त गद्य कविता में बदल गई। आमजन की संवेदना का सूत्र जब भंजित होने लगा तो यह मोहभंग जनता और रचना दोनों में समान रूप से फलित हुआ। तब हिन्दी कविता ने विकल्प का मार्ग हिन्दी ग़ज़ल के रूप में चुना और आम पाठक और ग़ज़ल के मध्य संवाद के सूत्र खोज निकाले। जो कविता केवल आलोचकों का निकष और कवियों की अति बौद्धिकता से सम्पृक्त हो आम जनता के लिए अपठनीय हो रही थी। वह ग़ज़ल का विश्वास सूत्र पकड़कर संवाद की मुख्य धारा में शामिल हुई।

इस पूरी उथल-पुथल के सूत्रधार दुष्यंत कुमार बने या यह कहें की हिन्दी ग़ज़ल गंगा को नई कविता के स्थान पर लाने वाले भगीरथ दुष्यंत कुमार हैं।

भाषा, विचार, काव्य-संस्कार और समसामयिकता का बेजोड़ संतुलन हिन्दी ग़ज़ल को देकर दुष्यंत ने साहित्य जगत का परिदृश्य ही बदल दिया। मुक्त छंद के स्थापित कवि दुष्यंत का हिन्दी ग़ज़ल में आना समकालीन साहित्य की युगांतरकारी घटना है। इस संदर्भ में हिन्दी के महत्त्वपूर्ण आलोचक शिव शंकर मिश्र की टिप्पणी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है,

'हिंदी में एक बड़े फलक पर दुष्यंत ने पहली बार ग़ज़लों से राजनीतिक कविता का काम लिया और वह भी उस्तादों की सफ़ाई और सफलता के साथ। कहना तो यह चाहिए कि निराला और त्रिलोचन में जो किसी हद तक राजनीतिकार्थिक सत्ता की लोलुपता-निरंकुशता और शोषण प्रति वितृष्णा और विरोध बना था इन बीच के वर्षों में वह भी शांत हो गया था, दुष्यंत की ग़ज़लों में हमें वह चीज सिर्फ़ लौटकर नहीं मिलती बल्कि बिल्कुल नए सिरे और नए रूप में मिलती हैं। निराला और त्रिलोचन में जहाँ आवाज़ मार्क्सवाद के माउथपीस से आ रही थी दुष्यंत में यह आवाज़ एक नागरिक की आवाज़ है।'

हिन्दी ग़ज़ल में दुष्यंत का आगमन कई मायनों में महत्त्वपूर्ण है। हिन्दी ग़ज़ल में दुष्यंत एक युग का नाम है जहाँ से समकालीन ग़ज़ल वास्तविक दिशा व गति पाती है। दुष्यंत की कविता की एक लंबी यात्रा यानी रचनाधर्मिता, उनके कलात्मक तेवर और व्यंग्य ने इसे एक जनप्रिय विधा के रूप में चर्चित कर दिया।

हिन्दी ग़ज़ल में दुष्यंत का प्रदेय जितना महत्त्वपूर्ण है उससे अधिक महत्त्वपूर्ण उनकी वह चिताएँ हैं, वह औचित्य है जिसके लिए नई कविता का स्थापित कवि दुष्यंत कुमार कविता की बनी बनाई ज़मीन को छोड़ देता है जिस पर उसने अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण 20-25 वर्ष होम किए हैं। मुक्त छंद के स्थापित कवि का हिन्दी ग़ज़ल में आना समकालीन साहित्य की युगांतरकारी घटना है। इतने महत्त्वपूर्ण कवि ने इस विधा का चयन क्यों किया यह प्रश्न भी साहित्य में बड़े विमर्श को जन्म देता है। जैसा कि वे स्वयं कहते हैं:-

' मैंने अपनी तकलीफ को, उस शदीद तकलीफ को जिससे सीना फटने लगता है, ज़्यादा से ज़्यादा सच्चाई और समग्रता के साथ ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाने के लिए ग़ज़ल कही है।

'साये में धूप' की प्रसिद्धि यह घोषित करती है कि सामर्थ्यशाली कवि पुरानी से पुरानी विधा को अपने काव्य सामर्थ्य से नया कर, उसे अपनी रचनाओं के पुर्नपाठ के लिए तैयार कर सकता है। दुष्यंत कुमार की रचना सामर्थ्य उनके व्यक्तित्व और जीवन संघर्ष में भी समान रूप से दिखाई पड़ती है। यानी उनकी रचनात्मकता उनके जीवन संघर्ष और रचना संघर्ष दोनों ही तरफ़ नज़र आती है। इसलिए उनका मूल्यांकन करते समय उनके कृतित्व के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व का मूल्यांकन भी आवश्यक है। वह दुष्यंत का ही साहस है जो उन्हें नई कविता की ज़मीन पर हिन्दी ग़ज़ल को स्थापित करने की सामर्थ्य देता है, आपात्काल में सीधे-सीधे सत्ता से प्रश्न करने का साहस दुष्यंत कुमार जैसा दुस्साहसी ही कर सकता है:-

एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है

और शायर ये तमाशा देखकर हैरान है

अपने साहित्यिक विरोधियों की बखिया उधेड़ने तथा सदैव विसंगतियों पर प्रहार करने का साहस उनके व्यक्तित्व की खासियत है। अपने साहित्यिक भविष्य को दाँव पर लगाकर आम पाठक को उसी की भाषा में उसकी पीड़ा गुस्से और प्रतिवाद को सुनाने वाले कवि दुष्यंत कुमार ही हो सकते हैं। जन प्रतिबद्ध दृष्टि और जनता तक पहुँचने की इच्छा से प्रेरित ऐसे विचारशील प्रयोग किसी वाद के बाड़े में क़ैद भी नहीं किया जा सकते। दुष्यंत इसकी जाग्रत मिसाल हैं। उनकी रचनाओं ने जहाँ एक ओर हिन्दी पाठकों की पर्याप्त प्रशंसा व प्रेम बटोरी वहीं दूसरी ओर आलोचकों द्वारा उपेक्षा का दंश भी सहा है। उनका व्यक्तित्व और सृजनात्मक कृतित्व इतना बहुआयामी और समृद्ध है कि निस्संदेह हिन्दी ग़ज़ल की स्वर्णिम गाथा उनके संदर्भ से ही आरंभ होगी। उनके साहित्य के केंद्र में न धर्म है न राजनीति न विचारधारा। वे मनुष्यता के कवि हैं। साधारण और आम आदमी के कवि हैं। उनका रचना संसार, युगीन विचारों को युगीन संवेदना के स्तर पर उतारने की प्रामाणिक कोशिश है।

दुष्यंत की संपूर्ण निष्ठा, संकल्पबद्धता व उनकी रचनाधर्मिता का अंतर्निहित तत्व है, दुष्यंत का रचना संसार, जो एक ओर अपनी सजगता से पाठक को भावप्रवणता की स्थिति में ला खड़ा करता है तो दूसरी ओर रचना में यथार्थ को राजनीतिक व युगीन संदर्भों से जोड़कर पाठक के लिए एक नई विचार भूमि भी तैयार कर देता है। सामाजिक प्रतिबद्धता जिसकी साँसों में पलती रही, जो छद्म, पाखंड और अन्याय के विरुद्ध सतत संघर्षशील रहा, जिसने सत्ता से सीधे-सीधे सवाल करने का न केवल साहस किया; बल्कि व्यवस्था में बदलाव के लिए अपनी साँसों को होम कर दिया, ऐसा रचनाकार अपने समय की आलोचना द्वारा हाशिये पर रखने के षड्यंत्र का शिकार हो जाता है तो यह आम पाठक के रचनाकार दुष्यंत कुमार की त्रासदी नहीं बल्कि हिन्दी बुद्धिजीवियों की रुग्णता अवसरवादी तुच्छ राजनीति और वैचारिक पतन का प्रतिबिंब है।

इस वर्ष 30 दिसम्बर को दुष्यंत कुमार की मृत्यु के 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं, साथ ही 'साये में धूप' के प्रकाशन के भी 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं।

इस आधी सदी में हमने उनकी ग़ज़लों को जन-जन की साँसों में घुलते, उनके पाठकों में एक स्वप्न को फलीभूत होते देखा है। उनकी रचनाओं को फिर से पढ़ने समझने और विमर्श करने का यही सही समय है। 'साये में धूप' की सफलता ने कई मिथक तोड़े हैं। पिछले 50 वर्षों में इसके 75 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इससे हिन्दी कविता परंपरा में ग़ज़ल को पढ़ने समझने का एक रचनात्मक वातावरण तैयार हुआ है। जिन-जिन कारणों से ग़ज़ल को अदब से बाहर करने की कोशिश की गई, उन सारी बातों पर विस्तार से बातचीत की ज़रूरत है। पहली बार कोई कवि अपनी ग़ज़ल की किताब इस चिंता से ख़ुद को जोड़ते हुए लेकर आता है। दुष्यंत का ही शेर है:-


वे कह रहे हैं ग़ज़लगो नहीं रहे शायर,

मैं सुन रहा हूँ हरेक सिम्त से ग़ज़ल लोगो।

हिन्दी साहित्य और समाज में ग़ज़ल के प्रवेश स्वीकार और सरोकारों को जो अप्रत्याशित विस्तार मिला है, वह 'साये में धूप' ने ही संभव करके दिखाया है। ग़ज़ल के मिज़ाज से लेकर उसकी यात्रा को एक विशिष्ट काव्यात्मक संपूर्णता देने वाले दुष्यंत कुमार ही हैं। ज़िन्दगी की खनक से भरे मुहावरे, सहज बोलचाल की भाषा में एक अटूट अर्थ प्रवणता के साथ पाठक तक पहुँचे तो ग़ज़ल के बाहर भीतर बहुत कुछ बदल गया। दुष्यंत से ग़ज़ल का वह पाठक भी जुड़ा जो साहित्य का नियमित पाठक नहीं था, जिसके लिए ग़ज़ल की परख की दृष्टि उसकी सहजता उसका व्यंग और उसका वही मुहावरा था जो जीवन की खनक से भरा हुआ था। ज़िन्दगी के भीतर से जन्म लेती, ज़िन्दगी को अपने यक़ीन पर तौलती उसके बराबर में खड़ा करने की कोशिशें में संघर्ष करती दुष्यंत की ग़ज़लें इसी आम पाठक की पूंजी हैं।

दुष्यंत के असमय समाप्त हुई काव्य यात्रा के महत्त्वपूर्ण पड़ाव उनकी ग़ज़लें ही नहीं है अपितु ग़ज़लों से रचना की एक लंबी परंपरा है जिनका मूल्यांकन अभी शेष है। जहाँ उनकी धुआँ-धुआँ होती उस शख्सियत को साफ़ तौर पर पहचाना जा सकता है जहाँ वे घोषणा करते हैं-

आज अक्षरों के इस निविड वन में भटकती, यह लेखनी इतिहास का पद खोजती है। हिन्दी ग़ज़ल दुष्यंत कुमार की वह खोज है, जिससे उनके मन टीस, भोगा हुआ यथार्थ समाज की विसंगति से उपजा अंतर्द्वंद्व और संवेदना अभिव्यक्ति पा सके। इसी खोज ने साहित्य को दुष्यंत के रूप में एक जनता का शायर दिया जो यथार्थवादी होकर भी आस्थावान और पौरुष से परिपूर्ण है।

पिछले 45 वर्षों में 70 से अधिक संस्करण का प्रकाशित होना 'साये में धूप' की अपार लोकप्रियता का ही परिणाम है। कुल 52 ग़ज़लों में अनेक शेर ऐसे हैं जो पाठकों को मुहावरों की तरह स्मरण हैं। अनुभव की शिद्दत और अभिव्यक्ति की कसावट ग़ज़ल की अपरिहार्य शर्त है जिसे दुष्यंत कुमार सही मायने में 'साये में धूप' में सार्थक सिद्ध करते हैं।

इस संग्रह के चुनिंदा अशआर के जरिये हम उनकी रचनाधर्मिता और जीवन दृष्टि को भारतीय जीवन मूल्यों और रचनात्मक विचारशीलता के जरिए समझने का प्रयास करते हैं। सर्वप्रथम आत्मकथ्य के रूप में आई उनकी पंक्तियाँ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं-

'आज की कविता की शुष्कता और सपाटबयानी से उकताकर मैंने उर्दू के इस पुराने और आजमूदा माध्यम की शरण ली है। मैंने अपनी तकलीफ को सच्चाई और समग्रता के साथ ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाने के लिए ग़ज़ल कही है।'

'मेरे लिए मनुष्य मात्र की अवमानना सबसे अधिक कष्टप्रद है।'

दुष्यंत के ये दोनों कथन मेरी दृष्टि में इतने महत्त्वपूर्ण हैं, जो उन्हें तुलसी और कबीर की परंपरा में ला खड़ा कर देते हैं। लोकनायक तुलसी के समय के शासन की भाषा फारसी और साहित्यिक बुद्धिजीवियों की भाषा संस्कृत थी। तुलसीदास संस्कृत के प्रकांड पंडित थे फिर भी 'रामचरितमानस' की रचना के लिए उनके राम को प्रिय खिन्न (बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥) यानी दुखी लोगों की भाषा अवधी का चयन करते हैं और मानस की अपार लोकप्रियता और महाकाव्यत्व उन्हें लोकनायक बना देता है। यही काम समकालीन कविता में दुष्यंत ने हिन्दी ग़ज़ल को चुनकर किया और 'साये में धूप' की लोकप्रियता हिन्दी ग़ज़ल को समकालीन साहित्य में एक प्रामाणिक विद्या के रूप में स्थापित कर देती है।

राज सत्ता और धर्म सत्ता के भय से मुक्त होकर समाज के सत्य को वाणी देने वाले कबीर की परंपरा का भी प्रभाव दुष्यंत के व्यक्तित्व पर दिखलाई पड़ता है। कबीर का दुर्बल वंचित और विपन्न ही दुष्यंत का आम जन है जिसका शोषण न कबीर स्वीकारते हैं न ही दुष्यंत।

भारतीय भक्ति साहित्य की सांस्कृतिक विरासत के इन दोनों महानायकों कबीर और तुलसी का दुष्यंत में एक संयोजन दृष्टिगत होता है जो उनकी शायरी को कला-कर्म नहीं बल्कि सामाजिक दायित्वों को सजगता से संपादित करने की शक्ति बनाता है। दुष्यंत की यह आत्म सजगता ही उनको सहज बनाती है-

मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ

वह ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ


उनकी सामाजिक चेतना जितनी प्रखर है, आसपास की संवेदना को समझने परखने और अनुभव करने की दृष्टि भी उतनी ही पैनी है। इसलिए व्यष्टि की पीड़ा उनकी क़लम का संस्पर्श पाकर समष्टि की पीड़ा बन जाती है और ग़ज़ल के माध्यम से प्रगट होती है।

अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ

तुम्हारी कहन थी कहन कर रहा हूँ

तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला

तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ

इस मर्म स्पर्शी अभिव्यक्ति में शायर की आस्था का केंद्र मानव मात्र ही है। जिसके लिए वह हर दुख पीड़ा परेशानी आलोचना सहने को तैयार है। दुष्यंत कुमार ग़ज़ल कहते हुए हिन्दी ग़ज़ल के लिए नया सौंदर्य शास्त्र गढ़ते हैं। सामाजिक विसंगतियों लोकतांत्रिक मूल्यों के विघटन और राजनीतिक अस्थिरता पर सीधे-सीधे प्रहार करने वाले दर्जन भर स्मृतिधर्मी शेरों के साथ वे हिन्दी कविता की नई ज़मीन तैयार करते हैं:-

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो

ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं।

अब नई तहजीब के पेशे-नज़र हम

आदमी को भून कर खाने लगे हैं

यथार्थ का तीखा रूप उनकी अभिव्यक्तियों में बरकरार रहा है। न उसकी धार कुंठित हुई है न कमजोर पड़ी है। हर शेर में उनके दिल की बेचैनियों की झनझनाहट को महसूस किया जा सकता है।

सत्ता और व्यवस्था की खामियों को उजागर करने वाली अभिव्यक्ति को कितने खतरे उठाने होंगे, यह दुष्यंत का मन और सर्जन दोनों ही जानते थे।

यूँ मुझको ख़ुद पर बहुत ऐतबार है लेकिन

यह बर्फ आज के आगे पिघल ना जाए कहीं।

फिर भी वह खतरे उठाते हैं और एक समाजचेता रचनाकार का धर्म निभाते हुए अँधेरों से भागते नहीं हैं: बल्कि उन अँधेरों के विरुद्ध क्रांति की मशाल जलाते हैं:-

तेरे सीने में नहीं तो मेरे सीने में सही

हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए

दुष्यंत कुमार को सच्ची श्रद्धांजलि कविता में जीवन और छंद की वापसी करके ही दी जा सकती है। कविता को एक कृत्रिम यथार्थ से निकालकर अगर जमीनी बनाना है तो ईमानदार आलोचना इस काम में मदद कर सकती है। यह काम नई पीढ़ी को ही गहरी ईमानदारी के साथ करना है। अगर भूख के नाम पर आपके पास खाए अघाए व्रत उपवास की ही अनुभवजन्य पूँजी है तो भूख पर लिखने का नैतिक हक़ आपको नहीं बनता। दुष्यंत कुमार के पुनर्मूल्यांकन का कार्य महत्त्वपूर्ण है। शिल्प के अपर्याप्त होने के मिथक को तोड़ने से लेकर, ग़ज़ल से पूर्व की रचनाओं के मूल्यांकन भी नए सिरे से अपेक्षित हैं। उनका काव्य-संसार उनके असमय समाप्त हुई काव्य-यात्रा का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। कविता के बड़े दायित्व को समझकर उन्होंने उसे जिया। उनके जैसी ही ईमानदार कोशिश जब आलोचना कर पाएगी, तभी दुष्यंत की आदि से अनंत तक मूल्यांकन की यात्रा पूर्ण हो पाएगी।

तुम्हारे आभार की लिपि में प्रकाशित,

हर डगर के प्रश्न है मेरे लिए पठनीय

कौन-सा पथ कठिन है...?

मुझको बताओ मैं चलूँगा

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