एक जबान एक अदब का स्मृति गीत / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 11 जनवरी 2014
अभिषेक चौबे, विशाल भारद्वाज और गुलजार की 'डेढ़ इश्किया' का केंद्रीय पात्र उसकी जबान और वह अदब है जिसे गुजरे जमाना हो गया। आज हिंदुस्तान किस कदर बदल गया है कि पूरी फिल्म अंग्रेजी में सब टाइटिल की गई है। इससे ज्यादा अफसोस की बात और क्या हो सकती है कि एक हिंदुस्तानी फिल्म जो हिंदुस्तानी जबान में ही बनी है वह अंग्रेजी अनुवाद के साथ दिखाई जा रही है। गानों को भी सबटाइटिल के साथ प्रस्तुत किया गया है। क्या हम यह मान लें कि अब इस देश में हिंदी या उर्दू से ज्यादा अंग्रेजी समझी जाती है? जब एक देश अपनी भाषा खो देता है तब यह तय है कि वह अपना चरित्र पहले ही खो चुका है। एक जमाना था जब ईरान पर विदेशी कब्जा था और उन्हें अपनी जबान बोलने की आजादी नहीं थी तब उन्होंने अपने घर में ही दबे स्वर में चोरी छुपे अपनी जबान बोलकर उसे जिंदा रखा। गोवा में 400 साल पहले शिव मंदिर में मूर्ति स्थापना की पूजा के लिए बनारस से कुछ पंडित आए थे जिनमें से कुछ परिवार वहीं बस गए और पुर्तगीज कब्ज़े के समय वे ईसाई बने परंतु अपने घर में उन्होंने संस्कृत बोलना जारी रखा और इन्हीं में से एक रोडग्रिज वसंत पंडित ने गुलजार की 'माचिस' का निर्माण किया था।
नसीरुद्दीन शाह, माधुरी दीक्षित नेने, अरशद वारसी एवं हुमा कुरैशी अभिनीत यह फिल्म अत्यंत मनोरंजक है और युवा दर्शक इसके चटपटे संवाद खूब पसंद करेंगे, क्योंकि उदारवाद के बाद की अपसंस्कृति में ढले ये लोग प्रेम का केवल सेक्स वाला अर्थ ही जानते हैं और इस आशय की बात भी कुछ यूं बयां हुई है कि पेशेवर चोर परंतु जन्म जन्मांतर का आशिक मिजाज नसीर कहता है कि इश्क के सात चरण होते हैं। एक दूसरे की ओर आकर्षित होना, उन्स, इबादत, मोहब्बत तथा जुनून तो अरशद वारसी कहता है कि सेक्सी उन्स, सेक्सी मोह्ब्बत और सक्सी जुनून। फिल्म के अंतिम चरण में नसीर कहता है कि सातवां चरण या कहें इश्क की आखरी मंजिल मौत होती है। अफसोस की अरशद सेक्सी मौत नहीं बोलता जबकि एक मायने में दोनों समान हैं कि इनमें स्थान और समय का बोध समाप्त हो जाता है। जैसे प्रेमिका के पास से लौटने पर पात्र कहता है कि समझ नहीं पा रहा हूं, लेकर आया हूं, या देकर आया हूं। आजकल युवा वर्ग को इस तरह के संकेत बड़े पसंद आते हैं।
बहरहाल फिल्म के गजब ढाने वाले फ्लेशबैक में हम माधुरी और हुमा की अंतरंगता की झलक देखते हैं तथा नसीरुद्दीन शाह उन महिलाओं की आपसी मस्ती मौज देखकर अरशद से कहते हैं कि ठंड लग रही है, इनसे लिहाफ (रजाई) मांग लो। यह संकेत है समलैंगिकता पर लिखी इस्मत चुगलाई की कहानी 'लिहाफ' का जिस पर मुकदमे चले और अदालतों का फैसला आया कि यह रचना अश्लील नहीं है। इस तरह साहित्य के संदर्भ का इस्तेमाल कम फिल्मों में ही किया जाता है। अभिषेक चौबे और विशाल भारद्वाज ने कमाल की फिल्म बनाई है।
इस फिल्म में एक भ्रष्ट नेता का चरित्र भी है जो सारी उम्र नवाब का मुखौटा लगाने को इस कदर बेचैन रहता है कि उसने एक शायर को कैद रखा है जो उसको शेर लिखकर देता है ताकि महफिल में वह साबित कर सके कि वह शायर भी है। एक कमाल के दृश्य में अपने कैद किए गए शायर से पूछता है कि वह किस तरह नवाब हो सकता है तो शायर कहता है यह मामला डीएनए का है तो वह जबरन अपना डीएनए बदलने की हिकमत पूछता है। यही शायर उसकी कैद से मुक्त होकर उसे नंगा करके मारता है। सारे पात्रों के मुखौटे हैं, बेगम साहिबा कभी कोठों पर कयामत ढाती थीं। सारे पात्रों के अपने गुप्त एजेंडे हैं जैसे राजनीतिक दलों के हैं।
नसीर और माधुरी के प्रेम दृश्य कमाल के हैं जिसे आजकल परदे पर प्रस्तुत रसायन कहा जाता है। सारे कलाकारों ने कमाल अभिनय किया है। हुमा कुरैशी अत्यंत प्रतिभाशाली हैं और कुछ दृश्यों में वह विगत दशक की माधुरी की याद दिलाती है। एक तरह से यह फिल्म के गुजरे दौर का स्मृति गीत लगता है, किसी खोये हुए अदब का फातिहा अदा हो रहा है।