एक जलसाघर के दो स्वरुप / जयप्रकाश चौकसे

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एक जलसाघर के दो स्वरुप
प्रकाशन तिथि : 19 दिसम्बर 2012


भारत में सिनेमा से प्रेम से कहीं अधिक जुनून है सितारों के लिए, उनके व्यक्तिगत जीवन की बातें जानने के लिए। आश्चर्य की बात यह है कि इस जुनून को भुनाने में कोई पीछे नहीं रहता। हाल में भारत की अत्यंत लोकप्रिय एवं सार्थक पाक्षिक के एक सालाना उत्सव में माधुरी दीक्षित मंच पर विराजमान थीं और मंच संचालक उनसे 'धक-धकनुमा' सवाल कर रहे थे और यह जानना चाहते थे कि सभा में मौजूद उनके पति डॉ. नेने, जिन्होंने अपना अधिकांश जीवन अमेरिका में बिताया है, ने माधुरी की कौन-सी फिल्म देखी है। आश्चर्य तो तब हुआ, जब सभा में मौजूद जावेद अख्तर ने इस आशय की बात कही कि मनीषा कोइराला पर फिल्मांकित 'एक लड़की को देखा' जैसा नारी सौंदर्य की 21 उपमाओं वाला गीत उन्होंने माधुरी के लिए लिखा था, जबकि उन्होंने यह अपनी पत्नी शबाना आजमी के लिए लिखा था। आज सभाओं में तालियां बटोरने की ललक से घोर बुद्धिजीवी भी बच नहीं पाते।

दरअसल इसके बखान का उद्देश्य केवल यह रेखांकित करना है कि देश के सामाजिक मुद्दों पर चर्चा के मंच से इस तरह की बातें की जाती हैं। ज्ञातव्य है कि नेने-माधुरी दंपती अमेरिका छोड़कर भारत में बस गए हैं और माधुरी लोकप्रियता की फसल के बाद की फसल काट रही हैं। ज्ञातव्य है कि कपास चुन लेने के पंद्रह-बीस दिन बाद उसके डंठलों पर पुन: थोड़ी-सी कपास उग आती है, जिसे कहते हैं फसल के बाद की फसल।

अनेक लोग विदेशों में रहकर कुछ साल बाद भारत लौट आना चाहते हैं, जिसका कारण देशप्रेम नहीं है। भारत में आसानी से सेवक मिल जाते हैं और वहां कमाए एक डॉलर के बदले पचपन रुपए हाथ में आते हैं। यहां छोटी-मोटी गलती होने पर मनुष्य दंडित नहीं होता, जबकि अमेरिका की पुलिस वीआईपी नामक बीमारी से पीडि़त नहीं है। आपकी हैसियत कुछ भी हो, वहां आपको दंड भुगतना ही होता है। अप्रवासी भारतीय लोगों के मन में छुपी सामंतवादी ठसक उन्हें यहां खींच लाती है। हमारी समाज संरचना में सामंतवादी प्रवृत्तियां आज भी कुलबुलाती हैं पेट में छुपे उन अमीबा परजीवियों की तरह, जो अपनी तीव्र प्रजनन क्षमता के कारण मरकर भी नहीं मरते।

आज डॉ. नेने को आश्चर्य होता होगा कि जहां भी वे अपनी पत्नी माधुरी के साथ जाते हैं, उनके अनेक फोटो लिए जाते हैं और कुछ ही दिनों बाद उनका सड़क पर स्वच्छंद घूमना संभव नहीं रहेगा। भूतपूर्व सितारों को भी खोजकर निकाला जा रहा है। अभी मरने के बाद कब्र खोदकर मुर्दों से 'बाइट' लेने का समय आया नहीं है। ज्ञातव्य है कि चार्ली चैपलिन की कब्र से उनके अवशेष चुरा लिए गए थे। सिनेमा को प्रेम करना समझा जा सकता है, परंतु सितारों के पीछे पागलपन को समझना कठिन है। सच तो यह है कि यह जुनून बॉक्स ऑफिस पर भी पूरी तरह भुनाया नहीं जाता। सितारों की एक झलक का प्यासा हर व्यक्ति फिल्म नहीं देखता। हस्ताक्षर के संग्रह करने वाले फिल्म का आधा टिकट संग्रहित नहीं करते।

एक जमाने में इस तरह का जुनून साहित्यकारों के लिए होता था। युवा लड़कियां साहिर की किताब तकिये के नीचे रखकर सोती थीं। कवि सम्मेलन के बाद सुरीले नीरज को सितारों की तरह घेरा जाता था। गांधीजी और नेहरूजी की सभाओं में उन्हें देखने-सुनने के लिए लोग कोसों दूर से पैदल चलकर आते थे। आज नेता भीड़ जुटाने के लिए गब्बर की शैली में भाषण झाड़ते हैं।

समाज में इन बदलते हुए तेवरों के लिए कौन जिम्मेदार है? मुद्दतों पहले 'टाइम्स' ने 'दिनमान', 'धर्मयुग' इत्यादि दर्जन भर पत्रिकाएं बंद कर दीं। प्राइवेट चैनल के आने के बाद व्यापक प्रसार क्षमता के बावजूद दूरदर्शन का असर समाप्त हो गया। आकाशवाणी की जगह प्राइवेट चैनल ही सुने जाते हैं, जिनमें गीतों के साथ उद्घोषक चुहलबाजी करते हैं। एक जमाने में संपादक राहुल बारपुते नईदुनिया अखबार में फिल्म के लिए स्थान देने को तैयार नहीं थे। आज सारे अखबार रोज फिल्मी समाचार देने के साथ ही साप्ताहिक फिल्म परिशिष्ट भी प्रकाशित करते हैं।

बाजार की मांग के अनुरूप चलने की विवशता महज एक सुविधाजनक बहाना है। हमने शनै: शनै: समाज से गभीरता को खारिज कर दिया है और आज पूरा देश एक जलसाघर हो गया है। इसी नाम की सत्यजीत राय की फिल्म में एक भूतपूर्व जमींदार अपने नवधनाढ्य पड़ोसी की शान-शौकत पर भारी पडऩे के लिए अपना बचा-खुचा धन लगाकर जलसा आयोजित करता है। आज देश में दोनों किस्म के जलसाघर मौजूद हैं- नवधनाढ्य की नौटंकी और फूहड़ता के साथ ही भूतपूर्व शासकों के अहंकार का नृत्य। दरअसल असल चिंता भारत के गैरभारतीय हो जाने की है, जिसका संबंध किसी पश्चिमी सांस्कृतिक हमले से नहीं है। संस्कृतियां विलयशील होती हैं, आक्रामक नहीं।