एक जिहादी की प्रेम कहानी / रश्मि
“नहीं! मेरा बेटा आतंकवादी नहीं हो सकता। वह तो खुद ही इतना डरपोक था कि रसोई के चाकू तक को संभाल कर पकड़ता था, वह बम कैसे पकड़ सकता है! ...ज़रूर आप लोगों को कोई ग़लतफ़हमी हुई है।”
“अरी अम्मा! तेरा बेटा क्या डरेगा बम और चाकू से ...वह तो खुद ही एक मानव-बम था।”
“नहीं! नहीं! ऐसा नहीं हो सकता!”
असलम की अम्मी रोती जाती थी और पुलिस के सामने अपने बेटे की पैरवी करती जाती थी।
“ऐसा ही हुआ है अम्मा। कल तुम्हारे बेटे ने शहर में बम लगा रखे थे। शाम को ही सब एक के बाद एक फटने थे, लेकिन भला हो उस लड़की का जिसने सही वक्त पर हमें खबर कर दी और हमने सारे बम खोज-खोजकर डिफ्युज़ कर दिए।”
“मेरा असलम ...उसे मार डाला सबने ...” और वह बुढ़िया माँ अपने बेटे की तस्वीर को सीने से लगाए दहाड़ मार कर रोने लगी।
“तेरा असलम मानव-बम बनकर घूम रहा था ...खुद को ही उड़ा लिया उसने ...बाकी के चार दूसरे आतंकवादी भी मारे गए।” पुलिस इंस्पेक्टर बुढ़िया को जानकारी दे रहा था इसी बीच इन्वेस्टीगेशन कर रहे एक अधिकारी ने पीक थूकते हुए हिकारत से कहा – “अच्छा हुआ कि मर गए स्साले। कुछ तो बोझ कम हुआ धरती का।”
बुढ़िया बेटे की तस्वीर को सीने से लगाए रोए जा रही थी और पुलिस उसके घर की तलाशी ले रही थी। असलम के कमरे से उसे एक एके 47 और कुछ कोकीन मिला।
“कैसी भोली बन रही थी ...कहती थी कि मेरा असलम रसोई के चाक़ू तक से डरता था ...तो क्या इस बंदूक से तू खेलती थी।” फिर बाकी लोगों की तरफ देखकर बोला – “चलो ओए! समेटो ये सब ...ले चलो ये सब थाने। इस माई को भी ले चलो। जब तक ये केस नहीं सुलटता तब तक न जाने क्या-क्या पूछना पड़े इससे।”
असलम अपने अम्मी-अब्बू की पाँचवी और आखिरी औलाद था। वह बचपन से ही पढ़ने-लिखने और बातचीत में निहायत ज़हीन था। जो भी उससे मिलता, उसके व्यवहार पर फ़िदा हो जाता। अपने स्कूल में तो वह सभी का चहीता था। चाहे गाना हो या नाचना, ड्रामा हो या खेलकूद सभी में असलम की डिमाण्ड रहती। उसके बिना मानो हर टीम अधूरी रहती। पढ़ाई में भी उसके और सिमरन के बीच मुक़ाबला बना रहता। कक्षा में कभी असलम अव्वल आता तो कभी सिमरन। इन दोनों के रहते कोई भी पहली और दूसरी पोजीशन पर कब्ज़ा नहीं जमा पाया। स्कूल से बाहरवीं पास करने के बाद असलम ने कम्प्यूटर साइंस ले लिया। वह सॉफ्टवेयर की दुनिया में नए-नए ईजाद करना चाहता था। उसका दिमाग वाकई किसी कम्प्यूटर की तरह ही काम करता था। जल्दी ही असलम अपने कॉलेज का भी हीरो बन गया। हर कोई उससे दोस्ती करना चाहता। लड़कियाँ उसके साथ ही अपने नोट्स शेयर करतीं, बदले में वह भी उनका भरोसेमंद और मददगार था। किसी को भी, कैसी भी ज़रूरत आन पड़े, असलम हमेशा हाज़िर रहता।
वही असलम जिहादी कैसे बन गया! जो हर इंसान से प्यार करता था ...जो दोस्ती की मिसाल था ...दानव कैसे बन गया! ऐसा क्या हुआ उसकी ज़िन्दगी में कि अपनी उँगलियों के बीच कलम थामने वाला और कीबोर्ड पर उँगलियाँ नचाने वाला, सबका प्यारा, यारों का यार असलम, अपनी उन्हीं उँगलियों से एके 47 के ट्रिगर दबाने लगा!
इस केस की खासी तहकीकात हुई ...गुप्त छानबीन की गई। फिर जो बात सामने निकल के आई वो कुछ यूँ थी –
असलम जब कॉलेज में था तब उसकी दोस्ती रेहान से हुई। रेहान बुद्धिमान तो था ही साथ ही बेहद तेज़ तर्रार भी था। वह असलम की तरह बड़े दिल का नहीं था, उसके दिल में हिन्दुओं के प्रति बेइंतिहा कड़वाहट थी और असलम से दोस्ती करने का वह एक ही मकसद बताता था कि – “तू अल्लाह पाक की औलाद है ...मेरा जात-भाई है।” ...हालांकि असलम जांति-पांति और धर्म-सम्प्रदाय के ओछे आडम्बरों से दूर ही रहता था। वह अपने दोस्तों के साथ हर त्यौहार खुल कर मनाता था और सभी धर्म-जातियों का सम्मान करता था। ...लेकिन रेहान से दोस्ती करने के बाद असलम के व्यवहार में धीरे-धीरे ही सही, बदलाव आना शुरू हो गया। वह असलम जो अपनी अम्मी के लाख कहने के बावज़ूद मस्जिद न जाता था, अब हर जुम्मे के जुम्मे मस्जिद जाने लगा। धीरे-धीरे दोनों की दोस्ती ने ज़ोर पकड़ लिया। घर आना-जाना भी शुरू हुआ और तभी असलम की ज़िन्दगी में आई रेहान की चचेरी बहन सोहा। सोहा उसी शहर में एक फ्लैट किराए में लेकर रह रही थी। वह नौकरी करती थी और प्राइवेट पढ़ भी रही थी। बेहद खूबसूरत और मिलनसार। वह अक्सर रेहान के घर वालों से मिलने उसके घर आया करती थी। तभी उसकी मुलाक़ात असलम से भी हुई। धीरे-धीरे यह मुलाकत बाहर भी होने लगी ...फिर बढ़ने लगी ...और आखिर में वे दोनों एक दूसरे के सबसे करीब आ गए।
अब अक्सर रेहान, असलम और सोहा साथ-साथ घूमते। रेहान असलम और सोहा की नज़दीकियों से वाकिफ़ हो चुका था। वह उन्हें और करीब आने के मौके देने लगा। यह दोस्ती बेहद गहरी होती चली गई। असलम बदल रहा था ...उसकी एक डोर रेहान के हाथ में थी तो दूसरी सोहा के। वे जैसे चाहते उसे घुमाते। ...और वह किंकर्तव्यविमूढ़-सा वही करता जा रहा था जो वे दोनों चाह रहे थे।
“असलम! तू भी मस्जिद के पीछे वाले चबूतरे पर चला कर। वहाँ के मौलवी साहब दुनियादारी की बड़ी सलीकेदार बातें सिखाते हैं। ज़िन्दगी में यह सब जानना भी तो ज़रूरी है दोस्त!” असलम अक्सर रेहान के साथ उन चबूतरों पर जाने लगा। मौलवी साहब सबको इकठ्ठा करके हदीसें सुनाया करते ...अल्लाह की नज़र में क्या हलाल है और क्या हराम, बताया करते। यूँ भी असलम बेहद कोमल और तहज़ीबदार स्वभाव का था इसिलए उसे इन बातों में रस आने लगा। धीरे-धीरे वह वहाँ अक्सर जाने लगा। असलम नहीं समझ पा रहा था कि रेहान उसे किस राह पर ले जा रहा है। लेकिन रेहान अब तक असलम के स्वभाव को बखूबी बाँच चुका था। वह उसे धर्म के रास्ते जिहाद की ओर लिए जा रहा था क्योंकि असलम जैसे लड़के को इसी रास्ते से ले जाया जा सकता था। रेहान उसे मस्जिद के पीछे की ओर बने एक आतंकी अड्डे की ओर धकेलना चाहता था। यह अड्डा बेग का था। बेग यहाँ दो कमरों के एक पुराने से घर में रह रहा था और छुप-छुपकर अपनी गतिविधियों को अंजाम देता रहता था। रेहान उसका राइट-हैंड था।
रेहान ने असलम की मुलाक़ात अपने दोस्त बेग से करवाई। बेग ने पहली ही मुलाक़ात में अपनी मीठी-मीठी और लच्छेदार बातों से असलम को अपना बना लिया। ...फिर धीरे-धीरे नशा देकर उसके दिमाग को सुन्न करना शुरू किया। ...और आखिर में जब असलम का दिमाग और सोच सुन्न पड़ने लगे तब बेग ने अपने विचारों को उस पर रोपना शुरू किया। धीरे-धीरे वह असलम के विचारों को अपने सांचे में ढालने लगा। जब कभी बेग को अपने इस काम में रुकावट महसूस होती तो वह सोहा का सहारा लेता। सोहा बड़े प्यार से असलम का हाथ पकड़ती और कहती – “बेग भाई ठीक ही तो कह रहे हैं असलम।” ...और धीरे-धीरे आलम ये हो गया कि वह असलम जो अब तक पूरे देश के बारे में सोचता था, एक कौम तक ही सिमट कर रह गया ...वह असलम जो इंसानियत को पूजता था, जिहाद को जायज़ मानने लगा।
असलम धीरे-धीरे सबसे कट गया। अब उसका चबूतरे और मौलवी साहब से भी कम ही वास्ता रहता। वह हर वक्त बेग के पास ही पड़ा रहता। सोहा भी अक्सर उसके साथ रहती। असलम ने कॉलेज जाना तो कब का बंद कर दिया था, अब अपने घर भी कम ही जाने लगा। अक्सर रातें भी सोहा के फ्लैट में ही गुज़ारने लगा। जब अम्मी ने घर न आने की वजह पूछी तो बोला - “एक नौकरी मिली है, उसी के सिलसिले में शहर से बाहर जाना पड़ता है।”
उसे होश ही न था कि उसके दिल और दिमाग में जिहाद का बारूद भरता जा रहा है। रेहान उसे इस राह पर इस्लाम की तालीम दिलवाने नहीं लाया था बल्कि एक जिहादी बनाने के लिए लाया था, जो कि वह खुद भी था। रेहान का काम ही यही था ...वह असलम जैसे भोले-भाले लेकिन होनहार युवक-युवतियों को अपने चंगुल में फँसाता और जिहाद की राह पर ढकेल देता। वे सब के सब बेग और उनके भी ऊपर बैठे आकाओं के इशारों पर नाचते और यह सोच-सोचकर खुश होते कि जिहाद के नाम पर वे एक ऐसी ज़मीन का ईजाद कर रहे हैं जहाँ सिर्फ उन्हीं के बनाए उसूल होंगे ...तौर-तरीक़े होंगे ...और खौफ़ होगा।
बेग का दिमाग बेहद शातिर था। वह जानता था कि असलम जिस तेजी से उसकी ओर खिंचा चला आ रहा है उसी तेजी से वापस भी लौट सकता है। उसके जैसे जज़्बाती लड़के को बाँधने का एक ही जरिया था – लड़की। ...और धीरे-धीरे बेग और रेहान ने ऐसी चालें चलीं कि सोहा असलम की कमज़ोरी बन गई। अगर कभी असलम इस दुनिया से उकताकर या खौफ़ खाकर वापस लौटने की बात करता तो सोहा उसे अपने प्यार का वास्ता देती ...बाहर की दुनिया का और भी खौफनाक चेहरा दिखाती ...जुदाई का डर पैदा कर देती ...और रोक लेती। उसने असलम को अपने प्यार और नशे का गुलाम बना दिया था।
असलम के घर में उसकी अम्मी के अलावा और कोई न था। चार बहनें थीं और चारों कि चारों अपने-अपने शौहरों के पास खुश थीं। अब्बूजान कई बरस पहले ही बीमारी के चलते अल्लाह को प्यारे हो चुके थे। घर पुराना और बड़ा था। उसमें तीन किराएदार रह रहे थे। किराए की रकम से ही घर का खर्चा पूरा हो जाता था। लेकिन बेग भी असलम को रुपयों की कोई कमी न होने देता। असलम जब चाहे, जितने चाहे रूपये अपनी अम्मी को भेज सकता था। ...बस! वह खुद चाहे तो भी इस दलदल से बाहर नहीं जा सकता था। सोहा भी नौकरी और पढ़ाई तो बस दुनिया को दिखाने के लिए ही करती थी, असल में तो वह भी बेग के ही मिशन का एक अहम् हिस्सा थी। सोहा वो मीठा ज़हर थी जो धीरे-धीरे असलम की हर रग में उतर चुकी थी। अब उसके बिना असलम का एक पल जीना भी दूभर था। सोहा उसकी कमज़ोरी बन चुकी थी और यही तो बेग का मास्टर-माइंड था। वह असलम को नशे और औरत का गुलाम बना देना चाहता था। बेग जानता था कि इन दोनों का सुरूर ऐसा होता है कि आदमी जीता-जागता खिलौना बन जाता है। जब इन दोनों का सुरूर सर चढ़कर बोलता है तो आदमी कुछ भी करने को तैयार हो जाता है।
वह दिन भी आ गया जिसकी खातिर असलम को जिहाद का मोहरा बनाया गया था। नशे में धुत्त असलम बेग और रेहान के सामने खड़ा था। सोहा उसका हाथ थामें थी। जब-जब सोहा की हथेली की पकड़ ढीली पड़ती असलम उसे कसकर पकड़ लेता। सोहा उसकी तरफ देखकर मुस्कुरा देती और असलम पर फिर सुरूर चढ़ जाता। सोहा का काम बस इतना ही था कि वह असलम को नशे में डुबाए रखे ...फिर चाहे वह किसी भी तरह का नशा हो ...और सोहा असलम को अपने प्यार की और नशे की दोनों ही डोज़ बड़ी समझदारी से देती रही। इसी नशे के आलम में असलम के शरीर को मानव-बम के रूप में तैयार किया जाने लगा और उसके दिमाग में भी बदले का बारूद भरा जाने लगा। वह विरोध करते हुए भी विरोध नहीं कर पा रहा था।
“यह ठीक नहीं है। तुम लोग क्या कर रहे हो मेरे साथ! मैं अपने मासूम भाई-बहनों की जान नहीं ले सकता।” असलम गिड़गिड़ाया।
सोहा ने असलम को पुचकारते हुए कहा – “कौन से भाई-बहन असलम! तुम्हें पता तो है कि ये सब किस तरह हम पर ज़ुल्म करते हैं ...कितना भेदभाव करते हैं। अब अपनी इज्ज़त का बदला लेने का समय आ गया है असलम।”
“नहीं सोहा ये बदले की आग ठीक नहीं।”
“मेरी खातिर असलम।” सोहा ने फिर असलम की रगों में नशा उतार दिया।
असलम किंकर्तव्यविमूढ़-सा मशीन की तरह व्यवहार करने लगा। उसे हिदायत दी गई कि ये सभी बम शहर के भीड़भाड़ वाले इलाकों में ही लगाने हैं। पहला बम शहर के एक नामी स्कूल में, दूसरा बड़े बाज़ार में और तीसरा खेल के उस मैदान में जिसके एक गेट के सामने मंदिर है और दूसरे गेट के सामने गुरुद्वारा। इसके बाद क्या करना है, उसकी सूचना उसे बाद में दे दी जाएगी। सोहा हर पल उसके साथ रहेगी। असलम को सख्त हिदायत दी गई कि यदि इन सबके बीच उसे ज़रा भी खतरे का अंदेशा हो तो तुरंत खुद को उड़ा ले क्योंकि जिहाद के नाम पर कुर्बान होने वाले को अल्लाह का दर नसीब होता है।
असलम पूरे शहर की मौत बनकर चल दिया। सोहा लगातार उसका हाथ थामे साथ-साथ चल रही थी। आज काफी समय बाद वे दोनों बेग के दबड़े की सीलन से बाहर निकले थे। असलम को ऐसा लग रहा था मानो आज सालों बाद अपने उस शहर की फ़िजां को देख रहा है जिसमें बचपन और जवानी की कई यादें तैर रहीं हैं। असलम को ज़रा होश आता तो वह सोहा के साथ इस शहर से जुड़ी अपनी तमाम यादें साझा करने लगता और सोहा उसे नशे की डोज़ देकर फिर चेतनाशून्य कर देती। सोहा नहीं चाहती थी कि असलम भावनाओं में बहे और अपना मकसद भूल जाए। सोहा उसे लगातार याद दिलाती जा रही थी कि वह एक मानव-बम है और जिहाद की राह पर चल रहा है।
अपने टारगेट के अनुसार असलम शहर के नामी स्कूल के बाहर खड़ा था। स्कूल के गेट से ही उन्हें दूर-दूर तक फैला ग्राउंड दिख रहा था।
“देखो सोहा! यह वही स्कूल है जहाँ मैं पढ़ा करता था। पता है, मैं अपनी क्लास में हमेशा अव्वल आता था। यहाँ से जीतीं अनेक ट्रॉफियाँ और सर्टिफिकेट आज भी अम्मी ने संभाल के रख रखे हैं।”
“असलम! तुम अपना टारगेट भूल रहे हो।”
“नहीं सोहा! ‘मैं’ नहीं ‘हम’| ...हम अपना टारगेट भूल रहे हैं। याद करो सोहा, तुमने भी तो बचपन में कई ईनाम जीते होंगे ? क्या कभी हमारे टीचरों ने कोई भेदभाव किया था हमारे साथ ? क्या कभी कोई ईनाम, कोई मैडल हमें देने से इसलिए रोक लिया गया क्योंकि हम मुस्लिम हैं ? नहीं सोहा ...ऐसा कभी नहीं हुआ ...यह शिक्षा का मंदिर है, हम यहाँ तालीम हासिल करते हैं। मैं यहाँ पढ़ने वालों में अपना बचपन देख रहा हूँ, तुम क्यों नहीं देख पा रहीं सोहा!”
सोहा अपनी निगाहों में ख़ालीपन लिए दूर ...बहुत दूर देखे जा रही थी। वहाँ अनेक छोटे-बड़े बच्चे इधर-उधर घूम रहे थे। कुछ के हाथ में खाने के डब्बे थे ...तो कुछ झुण्ड बनाकर बैठे खा रहे थे।
“देखो सोहा! उस बच्ची को देखो ...वही जो दो चोटी किए है ...उनमें लाल फीते लगाए है। क्या वो तुम ही तो नहीं हो सोहा ? तुम भी तो अपने बचपने में ऐसी ही लगती होगी न ?”
अचानक सोहा की आँखों से आँसू बह चले। इससे पहले किसी ने भी यूँ उसका बचपन उसे नहीं दिखाया था। अब सोहा असलम का हाथ पकड़कर नहीं चल रही थी बल्कि असलम सोहा का हाथ पकड़कर खींचे लिए जा रहा था। दोनों बड़े बाज़ार के चौक पर खड़े थे।
“देखो सोहा! वो तुम्हारे अब्बू और अम्मी ...अरे! क्या खरीद रहे हैं वो दोनों! ...तुम्हारे लिए ज़री वाला दुपट्टा! ...और वो देखो सोहा! वो रही मेरी अम्मी ...वो मेरे लिए अचकन पसंद कर रही है। सोहा ध्यान से देखो इन्हें ...ये सब हमारे अपने ही हैं। ये चाहे जिस भी जात के हों, ये गैर नहीं, अपने हैं। इन्हें अपनेपन की नज़र से देखो सोहा। वो जो घूम रहा है मेरा दोस्त है ...वो जो मुझे देखकर मुस्कुरा दी है, वो मेरी आपा है। उधर देखो सोहा! वे सब लड़कियाँ जो झुण्ड में खड़े होकर गोलगप्पे खा रहीं हैं, वे सब तुम्हारी सहेलियाँ हैं ...और वो सुर्ख नीले रंग के सलवार कमीज़ में तुम ही तो हो मेरी सोहा ...हाँ! वो तुम ही तो हो ...एक पापड़ी के लिए चाट वाले से झगड़ती हुई। मेरी प्यारी-सी सोहा।
सुनो सोहा! हम अपने ही लोगों को ...और खुद अपने आपको भी अपने ही हाथों कैसे मार दें ? कैसे सोहा ? बोलो न।”
सोहा उन सबके बीच खुद को महसूस करने लगी। अब उसे भी उन सब अजनबियों में अपने नज़र आने लगे थे। वह वहीँ घुटने के बल बैठकर रोने लगी। असलम ने उसे उठाया और खेल के उस मैदान की ओर ले गया जो उनका तीसरा टारगेट था। वे दोनों उस विशाल मैदान के बीचो-बीच खड़े थे। मैदान के एक कोने में बचपन झूले झूल रहा था ...दूसरे कोने में किशोर उम्र के लड़के क्रिकेट खेल रहे थे ...कुछ बुज़ुर्ग झुण्ड बनाकर गप्पें लगा रहे थे। कोई बच्चा अपनी माँ का हाथ थामे चला जा रहा था तो कोई अपने पिता के साथ दौड़ लगा रहा था। कई प्रेमी-जोड़े दुनिया से बेखबर एक-दूजे में खोए बैठे थे। मंदिर से घंटी की आवाजें आ रहीं थीं और गुरूद्वारे से पाठ के स्वर सुनाई दे रहे थे।
“देखो सोहा! यहाँ जीवन रंगबिरंगे फूलों-सा खिल रहा है ...प्यार की खुशबू से महक रहा है। चाहे मंदिर की घंटियाँ हों या गुरूद्वारे के पाठ या फिर मस्जिद में होने वाली अज़ान ही क्यों न हो, ये सब आवाजें हमारी ज़िन्दगी का हिस्सा हैं। पार्क में आए इन सभी लोगों को इन मिली-जुली आवाजों से कोई तकलीफ नहीं होती फिर हमें ही इनकी हँसती-खिलखिलाती खुशियों को देखकर घुटन क्यों होती है ? ...ये गुनगुनाना चाहते हैं, सारे त्यौहार साथ मिलकर मनाना चाहते हैं लेकिन हम लोग इनके जीवन बारूदों से तबाह कर देते हैं।”
सोहा सुबक-सुबककर रो दी। असलम अपनी ही रौ में बोले जा रहा था ...और सोहा लगातार रोए जा रही थी।
“सोहा! हमें इन लोगों की ज़रूरत है ...इन्हें हमारी कोई ज़रूरत नहीं है। हमने जिहाद के नाम पर इनकी और अपनी दोनों की ही ज़िंदगियाँ तबाह कर रखीं हैं। हम अपने अंधेपन में भटके हुए हैं। जिहाद के नाम पर अपनों का ही खून बहा रहे हैं ...अपनों के बगैर हम कौन-सी दुनिया बसा लेगें ? खौफ़ फैलाकर कौन-सी हुकूमत खड़ी कर लेंगे ? जरा सोचो सोहा! नफ़रत वालों की कौम कैसी होगी ? मैं इन सबसे प्यार करता हूँ ...ये सब मेरे अपने हैं। मेरा हाथ थाम लो सोहा ...चलो हम यहाँ से दूर चलें। इन्हें भी जीने दें और हम भी एक हो जाएँ हमेशा-हमेशा के लिए। चलो सोहा, हमें अब और नहीं जीनी ये नफरत भरी ज़िन्दगी ...हम मोहब्बत के लिए बने हैं, नफरत के लिए नहीं।”
“तुम सही कह रहे हो असलम! लेकिन क्या तुम भूल गए हो कि इस वक्त तुम किस रूप में हो ? असलम तुम इस वक्त मौत के रूप में हो ...अपने साथ-साथ हज़ारों लोगों को मौत के घाट उतार सकते हो। अब हम दोनों बेग के हाथ के खिलौने हैं असलम। ...और उसके इशारे पर शहर में बम भी लगा चुके हैं ...अब तो बस धमाके करने बाकी हैं। हम जैसों की चाभी बेग जैसे लोगों के हाथ में होती है असलम। हमारा अपना कोई वजूद नहीं होता।” सोहा असलम की दोनों बाजुएँ ज़ोर से भींचकर रो रही थी।
असलम ने सोहा के गालों को सहलाते हुए कहा - “नहीं सोहा ...मैं कुछ नहीं जानता ...मैं किसी बेग को नहीं जानता ...मैं तो बस तुम्हें जानता हूँ। अपने दोस्तों को और अपने शहर के लोगों को जानता हूँ। सोहा! मैं तुम सबसे बहुत प्यार करता हूँ। मैं अपने देश से बहुत प्यार करता हूँ। मैं अपनों के लिए कुछ भी कर सकता हूँ।”
“...तो फिर चलो असलम! हम भी मोहब्बत की दुनिया में चलें। लेकिन उससे पहले एक आखिरी बार ...एक ज़रुरी काम खत्म कर लें, तब शायद अल्लाह हमारे गुनाह माफ़ कर दे।”
“कहाँ ?”
“चलो तो।”
सोहा ने अपने मोबाईल से सौ नम्बर पर एक फ़ोन किया और तुरंत असलम का हाथ पकड़कर बेग के अड्डे की तरफ चल दी। बेग रेहान के साथ बैठा टी.वी. देख रहा था। वे दोनों बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे दहशत भरी उस ब्रेकिंग न्यूज़ का जो उन्होंने खुद बनाई थी ...पूरे शहर के लिए। उन्हें एक के बाद एक धमाकों की खबर का इंतज़ार था ...लेकिन तभी सोहा असलम को लेकर वहाँ पहुँच गई। बेग और रेहान उन दोनों को वहाँ देखकर हैरान रह गए। इससे पहले बेग कुछ पूछने के लिए मुँह खोलता, तेज़ धमाका हुआ ...और ...परखच्चे उड़ गए ...एक-एक चीज़ के।
शायद पहली दफ़ा कोई मानव-बम सही जगह आकर फटा था।