एक जीनियस फ़िल्मकार बनने की कथा — मृणाल सेन / विनोद दास

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आकाश में एक विचित्र वस्तु उड़ रही है.घर के आंगन में खेलता एक बच्चा उसे उत्सुक निगाहों से देख रहा है. खुले साफ़ नीले आकाश में ऐसा अनोखा पक्षी उसने पहले नहीं देखा था जिसके चांदी जैसे दो डैने हों और वह एक खास तरह की गड़गड़ाहट भरी आवाज़ भी निकाल रहा हो। बच्चा कुछ समझ नहीं पा रहा था। वह घर के भीतर जाकर उसे अपने भाई -बहनों को दिखाने के लिए उन्हें बुला लाया। वे भी भौचक थे। 1920 में हवाई जहाज़ अविभाजित बंगाल के शान्त छोटे कस्बे में एक बड़ी खोज थी। इस घटना को वह बच्चा कभी नहीं भूल पाया।

इस बच्चे को आप जानते हैं ? यह बच्चा कहीं न कहीं हमारे भीतर है.बस हम उसे भूल जाते हैं. जिनमें बच्चे सरीखी उत्सुकता बड़े होने पर भी बनी रहती है, कहते हैं कि वही आगे चलकर कलाकार बनता है.

एक किशोर पढ़ने के लिए कलकत्ता आज जिसे कोलकाता कहा जाता है,जाने के पहले अपनी माँ से पूछता है

“माँ ! तुम मुझमें जीनियस का कोई लक्षण देखती हो?”

माँ अकबकाकर अपने बेटे के इस सवाल पर उसे विस्मय से देखती हैं और चुप रहती हैं.पास में खड़े पिता अपने बेटे की बात सुन लेते हैं। झुककर घोड़ा बन जाते हैं जो पिता-बेटे का बचपन से प्रिय खेल रहा है.फिर बेटे से अपनी पीठ पर बैठने के लिए कहते हैं. बेटा अपने पिता को कलकत्ता जाने के लिए प्रभावित करने की दृष्टि से अपने दोस्त से सुना बर्ट्रेंड रसेल का जुमला उछालता है

“दस साल की उम्र तक सभी जीनियस होते हैं न “

कहना न होगा कि यही किशोर आगे चलकर मृणाल सेन जीनियस फिल्मकार बनता है।

कैसे बना यह ? आप जानना चाहते हैं तो सुनिये :

पद्मा नदी के किनारे बसा अविभाजित भारत का एक छोटा कस्बा फरीदपुर। हिन्दू -मुस्लिम की मिली-जुली आबादी। शहरी और ग्रामीण की घुली मिली संस्कृति। पद्मा नदी के दूसरे छोर पर ढाका।

यह ढाका अब इन दिनों बांग्लादेश में।

फरीदपुर से ढाका जाने में तब पूरा एक दिन लगता था.यह एक दिलचस्प लेकिन थकाऊ सफ़र था.पहले फरीदपुर से फेरी पकड़ने के लिए लोपाकहोला जेट्टी घोड़ागाड़ी से जाना पड़ता था.फेरी पर बैठने के बाद सुदूर शुतुरमुर्ग की तरह एक जहाज़ दिखता था.जहाज से सफ़र करने के बाद ट्रेन पकड़कर शाम तक लोग ढाका पहुंचते थे.

इसी फ़रीदपुर में एक देशप्रेमी वकील दिनेश सेन के घर में 14 मई 1923 को एक शिशु की किलकारी से घर गूँजता है। कोमल शिशु का नाम रखा जाता है मृणाल यानि कमल वृंत ।

किसी बच्चे का विकास किस तरह होगा,यह कहना मुश्किल है लेकिन किसी बच्चे का विकास किस हवा-पानी में हुआ है,यह जानना हमेशा रोचक और होता है।

मृणाल के पिता सिर्फ़ रुपये कमाने वाले वकील नहीं थे। वह देश की आज़ादी के लिए लड़नेवाले व्यक्तियों के मुकदमे भी लड़ते थें। आजादी के लिए लड़नेवाले अनेक लोगों को ब्रिटिश शासकों के जुल्मों और फाँसी के फँदों से बचाया था। बार काउन्सल के अग्रणी नेता थे। महात्मा गाँधी 1930 में जब गोलमेज़ सम्मेलन के बाद लंदन से लौटे थे,तो मृणाल के पिता दिनेश सेन ने बार काउन्सल की तरफ़ से वकीलों को कचहरी के बहिष्कार का आह्वान किया था। इसका खामियाज़ा उन्हें भुगतना पड़ा। फ़रीदपुर के मजिस्ट्रेट ने दिनेश सेन को सज़ा के तौर पर छह महीने के लिए वकालत करने के लिए पाबंदी लगा दी।

मृणाल की माँ सरजूबाला भी प्रगतिशील और राष्ट्रप्रेमी थीं। वह जन सभाओं में हिस्सा लेती थीं और जनगीत गाती थीं। विपिन चंद्र पॉल जब फ़रीदपुर आये थे तो उन्होंने उस सभा में रवीन्द्र नाथ ठाकुर का एक गीत गया था।

मृणाल एक प्रसंग कभी नहीं भूलते। उनके यहाँ आजादी के लिए लड़नेवाले मतवाले अक्सर रात के झुटपुटे में आते थे और फुसफुसाकर बातें करते थे।फिर चले जाते थे। लेकिन एक दिन पुलिस की एक टुकड़ी उनके घर तलाशी के लिए आई। मृणाल को लग गया था कि जिस चीज़ को पुलिस तलाश रही है,उन कागजात को उनकी माँ अपने ब्लाउज में छिपाकर टॉयलेट में चली गयी हैं। लेकिन जब तक पुलिस घर से चली नहीं गयी,बालक मृणाल का दिल धड़कता रहा कि कहीं उसकी माँ को पुलिस पकड़ न ले ,फिर क्या होगा। उसके बाद मृणाल ने सोचा कि दुनिया दो हिस्सों में है.एक वह है जो पीछा करती है और दूसरी जिसका पीछा किया जाता है.जिसका पीछा किया जाता है,वह क्रांतिकारी हैं.

मृणाल सेन की एक दौर की फिल्मों को गुरिल्ला सिनेमा कहा जाता था.इसके बीज उनके घर के परिवेश से मिले थे,जहाँ आये दिन ऐसा कुछ न कुछ गुरिल्ला सरीखा होता रहता था.

फ़रीदपुर के निकट रथतला में वर्ष में एक बार रथयात्रा निकलती थी.बालक मृणाल इस मेले में जाने का इंतज़ार करते रहते थे।अक्सर रथ यात्रा के दौरान बारिश होती थी। माँ मृणाल की सेहत को लेकर चिंतित होती थी.सात दिनों के बाद उल्टी रथ यात्रा में जाने के लिए जब बालक मृणाल ज़िद करते तो माँ विनोद में उनसे कहती कि मृणाल ! उल्टी रथयात्रा में तुम्हारा सिर उल्टा हो जायेगा और तुम घर का रास्ता भूल जाओगे.

मृणाल के घर के पास एक पेड़ था. एक बार वह पेड़ पर चढ़कर खेल रहे थे कि अचानक भूकंप आया। वह पेड़ से आम की तरह बद्द से गिर पड़े.भूकंप आने पर चेतावनी देने के लिए लोग घर से बाहर आकर शंख बजाने लगे थे.भूकंप तीव्र था.फरीदपुर में ज़्यादा नुकसान नहीं हुआ था.बिहार में बड़ी तबाही हुई.फरीदपुर के नागरिकों ने घर-घर जाकर रूपये,कपड़ा,अनाज़ जमा किया.रामकृष्ण मिशन के जरिये बिहार को सहायता भेजी गयी.

उन दिनों रामकृष्ण मिशन में बालक मृणाल प्रार्थना करने जाते थे.वर्ष में एकाध बार मिशन के भवन के बरामदे में बैठकर खिचड़ी प्रसाद भरपेट खाते थे.मृणाल सेन बताते हैं कि रामकृष्ण मिशन गुप्त रूप से स्वतंत्रता सेनानियों की मदद करता था.

मृणाल के पिता दिनेशचन्द्र सेन वैसे राष्ट्रवादी और ईमानदार थे लेकिन पूर्वी बंगाल में हिन्दू-मुस्लिम की मिली-जुली आबादी होने के कारण कुछ इलाकों में जब साम्प्रदायिक तनाव होता,तब इन मौकों पर उनके पिता जी में हिन्दू उग्रता की लहर देखकर मृणाल बड़ा अटपटा महसूस करते थे.उनके पिता अपने घर की टेरेस पर ईंट पत्थर इकट्ठा कर लेते थे ताकि आपातस्थिति में इनका उपयोग किया जा सके.यहाँ तक कि उनके पिता मृणाल के भाई के दोस्त “साधु” को बुरा-भला कहते जब वह अपने समुदाय का पक्ष लेता था।यह “साधु” बाद में जसिमुद्दीन कवि के रूप में लोकप्रिय हुआ।

मृणाल सेन ने अपने बचपन में पहली फिल्म “देवदास” देखी। यह मूक फिल्मों का दौर था। तंबुओं में सिनेमा घूम -घूम कर दिखाया जाता था। मृणाल देवदास फिल्म को देखकर विस्मित थे कि किस तरह चित्र बिंबों के माध्यम से कहानी कही जाती थी। जब परदे पर किसी चरित्र की केवल टाँगें दिखायी दीं तो उसके दोस्त ने कहा कि परदा छोटा है,इसलिए पूरी टाँगे दिखायी नहीं दे रही हैं। क्लोज़अप के कारण ऐसा दिखाया जा रहा है,यह ज्ञान तब मृणाल को नहीं था.इसी फिल्म में जब देवदास और पार्वती एक दूसरे का हाथ पकड़कर दौड़ते है और सहसा बारिश होने लगी तब मृणाल ने नोट किया कि टीन की छत पर पड़ती बारिश की बूँदें इन दौड़ते हुए युगल के पदचापों से पूरी तरह मिल रही हैं.मृणाल को साउंड ट्रैक की पहली सीख यहीं से मिली.

बचपन में मृणाल की सोच और दृष्टि का निर्माण किस तरह से हुआ ,इसका सहज अनुमान हम इस घटना से लगा सकते हैं.एक बार भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य श्यामा प्रसाद मुख़र्जी एक जनसभा को संबोधित करने फरीदपुर आये.उन्होंने अपने अभिभाषण में कहा कि कलकत्ता नगरपालिका के चुनाव में सुभाष चन्द्र बोस मुस्लिम लीग के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे है.उनके इस वक्तव्य पर सभा का एक समूह ”शर्मनाक शर्मनाक “ के नारे लगाने लगा.नारे लगानेवालों में सबसे अग्रणी उनके इतिहास के अध्यापक थे जो उन्हें कक्षा में इतिहास हिंदूवादी नज़रिए से पढ़ाते थे.मृणाल की माँ ने उन्हें बारिश से बचने के लिए एक छाता दिया था जिसकी मूठ सख्त लकड़ी की थी। अपने इतिहास अध्यापक का उछल-उछल कर इस तरह नारा लगाना न जाने क्यों मृणाल को अच्छा नहीं लगा.उन्होंने अपनी छतरी की मूठ अपने अध्यापक की खोपड़ी पर मार दी। फिर अपने दोस्त की सलाह पर वहाँ से भाग निकले.इस घटना से पता चलता है कि मृणाल विभाजनकारी संस्कृति के पक्षधर नहीं थे चाहे वह उनके गुरु ही क्यों न हों.मृणाल सेन का कहना था कि आज़ादी के दौर में उस सभा से हिन्दू-मुस्लिम एकता को जो चोट पहुंचाई जा रही थी,उसकी तुलना में मास्टर जी की चोट बहुत हल्की थी.

साझा संस्कृति के बीज मृणाल की आबोहवा में थे.मृणाल सेन के पिता के एक वकील दोस्त थे -इस्माइल.उनकी रिहाइश मृणाल के पड़ोस में थी.दोनों परिवार में आना-जाना था.ईद-दीवाली साथ मनाई जाती थी.इस्माइल की एक छोटी सुंदर लड़की थी.नाम था लिली.लिली मृणाल की छोटी बहन के साथ पढ़ती थी.मृणाल ने जब कलकत्ता-बम्बई,बनारस ,अहमदाबाद में हिन्दू-मुस्लिम के बीच टकराहटों और दंगों की खबर सुनते तो उनके मन में ख्याल आता कि अगर इन दोनों समूहों के बीच शादी सहजता से होने लगे तो इनके बीच दूरी कम हो सकती है.दंगे कम हो सकते हैं.इस ख्याल से पन्द्रह साल के मृणाल तेरह साल की रूपवती लिली की तरफ आकर्षित हो गये थे। यहीं नहीं, मन ही मन उससे शादी करने का सपना देखने लगे थे.हालांकि उन्होंने अपनी प्रेम भावना उससे कभी व्यक्त नहीं की.

सन 1940 में इन्टरमीडिएट की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करने के बाद मृणाल के माँ-पिता ने उच्च शिक्षा के लिए उन्हें कलकता भेजा। इसके पहले भी वह दो बार कलकत्ता आ चुके थे।

कलकत्ता विश्वविद्यालय से जुड़े स्कॉटिश चर्च कॉलेज में फिजिक्स पढ़ने के साथ मृणाल इप्टा के मंचित नाटक,नृत्य नाटिकाएं देखते और उनकी कोरियोग्राफी से चकित हो जाते। 1941 में कॉलेज में अचानक पता चला कि गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर नहीं रहे। उस दिन कलकत्ते के नीमतला शमशान घाट में किसी और की अंतेष्टि पर रोक लगी थी। भीड़ में एक टीले पर खड़े मृणाल सेन ने देखा कि एक आदमी अपने बच्चे का शव एक तौलिए में लपेटे हुए अंतेष्टि के लिए इंतजार कर रहा है.अचानक भीड़ का एक रेला आया और उस आदमी के हाथ से अपने बच्चे का शव छूट गया और आदमियों के कदमों के नीचे घिसटता हुआ पता नहीं कहाँ चला गया। मृणाल सेन को इस घटना को देखकर गहरा धक्का लगा।

एक अच्छा फिल्मकार अक्सर वही बनता है जो जीवन और पुस्तकों को खूब ध्यान से पढ़ता है. मृणाल सेन को इसका चस्का लग गया था.

कलकता के धर्मतल्ला पर “कमलालया” किताबों की दुकान उन दिनों वहाँ के पढ़ने-लिखने वालों का मिलने जुलने का एक अड्डा था. किताब की दुकान का शटर बंद होने के बाद इनकी बैठक जमती थी.यहाँ पर आने वाले लोगों को मुफ़्त में किताब पढ़ने को मिल जाती थी.मृणाल सेन भी इसका लाभ लेते थे.इप्टा के दिनों में ऋत्विक घटक,सलिल चौधरी,हृषीकेश मुखर्जी से मित्रता हुई । निकटता बढी.हालांकि मृणाल सेन कभी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं बने.

मृणाल के भीतर भी एक पटकथा लिखने की ललक जगी.उन्होंने एक पटकथा लिखी लेकिन उस नाटक की पटकथा में क्लोजशॉट और लॉन्ग शॉट जैसी सिनेमा की शब्दावली शामिल कर दिया .दरअसल उन दिनों वह सिनेमा पर लिखी किताबें पढ़ रहे थे.इस नाटक को इप्टा के बजाय और किसी नाट्य समूह ने मंचित किया.इप्टा में प्रकाश निर्देशक तापस सेन भी साथ थे.

एक बार बीर भूमि जिले के रामपुर हाट स्थित एक नाट्य उत्सव में वह तापस सेन के साथ भाग लेने गये.इस उत्सव में अपने नाट्य दल के साथ मृणाल के भावी पत्नी गीता भी आयी थीं.वहाँ बिजली नहीं आ रही थी.सवाल उठा कि नाटक में प्रकाश व्यवस्था का इंतज़ाम कैसे किया जाय.तापस सेन का सुझाव था कि साइकिल में आगे लगी लाइट से से काम चलाया जाय.मृणाल ने इस सुझाव में जोड़ा कि साइकिल की रोशनी को उसके चलाने की गति से निर्धारित किया जा सकता है.फिर तापस सेन ने दो साइकिलें लीं.एक साइकिल से धीमा प्रकाश और दूसरी साइकिल से तेज प्रकाश दिया गया.ऐसे रचनात्मक और व्यावहारिक अनुभवों से मृणाल सेन सिनेमा के गुर सीख रहे थे.

मृणाल का एक पक्का अड्डा बन गया था-इम्पीरियल लाइब्रेरी । इसे आजकल नेशनल लाइब्रेरी कहते हैं.पढ़ने का चस्का उन्हें यहीं लगा था.मृणाल खूब पढ़ते थे.फिरदौस का शाहनामा और रोमा रोलां की रामकृष्ण परमहंस पर किताब उन्हें पसन्द आयी.उन्हें लाइब्रेरी में एक पुस्तक फिल्म पर पढ़ने को मिली.किताब का शीर्षक था - फ़िल्म.यह किताब अब “आर्ट ऑफ़ फिल्म” नाम से उपलब्ध है.वह किताब उन दिनों उन्हें कुछ ख़ास समझ में नहीं आयी.उन्होंने नीत्शे का जरथ्रुष्ट पढ़ा,बाद में उन्हें पता चला कि वह फ़ासीवाद के समर्थक थे.ब्रिटिश कम्युनिस्ट कवि की मशहूर कृति “इल्यूजन एंड रियलिटी” रॉल्फ फॉक्स की किताब “नॉवेल एंड पीपल” से अधिक प्रभावित रहे.फॉक्स का असर इतना अधिक था कि मृणाल ने इंडो सोवियत जर्नल में एक लेख “सिनेमा एंड द पीपल” लिखकर भेज दिया जो पूरी तरह से रॉलफ फॉक्स की किताब नॉवेल एंड पीपल से प्रेरित था.रूसी सिनेमोटोग्राफर वाल्दिमीर निल्सन की किताब “सिनेमा ऐज़ ग्राफ़िक आर्ट” में पुश्किन की कहानी द ब्रोंज हॉर्समैन पर आधारित पटकथा पर बनी आइजन्सटइन के एक सीक्वेंस से मृणाल मुग्ध हो गये थे.सीक्वेंस में बादल के पीछे चाँद छिप-खुल रहा है.जितनी बार बादल से चाँद निकलता है,चाँद की छवि नायक के आँखों में चमकती है.पागलपन का दौरा पड़ने पर जब नायक चीखता है तो चौक पर लगी मूर्ति के चेहरे पर चाँदनी पड़ने से नायक को लगता है जैसे मूर्ति जीवित व्यक्ति है और उस पर हमला करनेवाली है.नायक भागता है.लेकिन वह रातभर तारों के बाड़ के बीच दौड़ता रहा.इस दृश्य को फिल्माने में कैमरे को उल्टी दिशा में चलाया गया था जिससे दर्शक को लगता है कि मूर्ति नायक की पीछा कर रही है.मृणाल सेन को चेतन आनंद की फिल्म ऊँचा नगर इस फिल्म से प्रभावित लगी.यह बात मृणाल सेन ने चेतन आनन्द से मिलने पर कही भी थी ।

अभिनेत्री गीता शोम से मृणाल सेन प्रेम करने लगे थे. गीता सेन उत्तरपाड़ा में रहती थीं जिनसे मिलने वह बिना टिकट रेल से जाया करते थे.एक बार जब उनसे मिलने जा रहे थे तो ट्रेन में विलीयम गल्लाचेर की किताब “अ केस फॉर कम्युनिज्म” पढ़ने में ऐसे डूब गये कि उनका गंतव्य स्टेशन छूट गया. फिर वह लौटे.उस दिन वह गीता के साथ कलकता आ गए.बाली ब्रिज(आज विवेकानंद सेतू) पर जब उनके साथ चहलकदमी कर रहे थे कि अचानक प्रेम के आवेग में उन्होंने गीता का हाथ पकड़ लिया। लेकिन इस प्रयास में उनके हाथ से वह किताब फिसलकर नदी में गिर गयी। अब” अ केस फॉर कम्युनिज्म “ पानी में थी और वे दोनों हतप्रभ उसे देख रहे थे।

मृणाल सेन जीवनयापन के लिए कभी ट्यूशन पढ़ाते तो कभी प्रूफ़रीडिंग का काम करते। लेकिन कालीघाट ट्राम डिपो के पास उनका नया अड्डा “पैराडाइस कैफ़े” बन गया था। यहाँ तापस सेन ,काली बनर्जी, सलिल चौधरी, हृषीकेश मुखर्जी से मिलना जुलना होता था। हृषीकेश मुखर्जी को न्यू थियटर में साठ रुपये मासिक पर सम्पादक की नौकरी मिल गई थी। हृषीकेश मुखर्जी कैफ़े का बिल भरना अपना नैतिक दायित्व समझते थे। ऋत्विक घटक पर तो पानवाले की दुकान पर बीड़ी का ही बकाया उन दिनों अस्सी रुपये हो गया था। जेब में चाय के पैसे न होने के बावजूद ये नवयुवक फिल्म बनाने की योजनाएँ बनाते और टालीगंज फिल्म स्टूडियो के चक्कर लगाते। गीता शोम फ़िल्म अभिनेत्री थी । उनके सम्पर्क से कई निर्माताओं से मृणाल सेन की बात चली, लेकिन फिल्म बनाने का कोई प्रस्ताव नहीं मिला ।

कुछ समय बाद पैराडाइस कैफ़े अड्डे के साथी भी छिटक गए थे। बिमल राय ने हृषीकेश मुखर्जी को मुम्बई बुला लिया था। संगीतकार सलिल चौधरी को भी हृषीकेश मुखर्जी ने बुला लिया। मृणाल सेन को सबसे बड़ा झटका तब लगा, जब ऋत्विक घटक भी फ़िल्मिस्तान स्टूडियो के कहानी विभाग में नौकरी के लिए मुम्बई चले गए । तापस सेन ग्रुप-थियटर में व्यस्त हो गए । अकेले और बेरोज़गार हो गए मृणाल सेन इस दौर में मेडिकल रेप्रिजेनटेटीव की नौकरी के लिए कानपुर चले गए। वहाँ छह माह रहे। मन नहीं लगा। फिर कलकत्ता लौट आए। 1953 में उन्होंने गीता शोम से विवाह किया। आख़िरकार 1954 में अभिनेत्री सुनन्दा बनर्जी ने उनके सामने एक फ़िल्म बनाने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने “रातभोरे” फ़िल्म बनाई लेकिन यह फ़िल्म तकनीकी रूप से ही नहीं, बॉक्स ऑफ़िस पर भी बुरी तरह असफल रही। अब इस फ़िल्म का कोई प्रिन्ट नहीं मिलता। मृणाल सेन कभी इस फ़िल्म का जल्दी जिक्र भी नहीं करते थे।

लेकिन मृणाल सेन को जल्दी ही दूसरी फ़िल्म बनाने का अवसर मिला। दरअसल संगीतकार गायक हेमन्त कुमार मुखर्जी ने हिन्दी कवयित्री महादेवी वर्मा की किताब ’स्मृति की रेखाएँ’ में संकलित एक कथा पर आधारित पटकथा लिखने के लिए मृणाल सेन को मुम्बई बुलाया। मृणाल सेन ने अच्छी पटकथा लिखी हेमन्त मुखर्जी ने उनके काम से ख़ुश होकर पहली बार मृणाल सेन को हवाई जहाज़ से कलकत्ता वापस भेजा। संयोग से बाद में निर्माता और फिल्म के निर्देशक के बीच अनबन हो गई। अन्ततः इस फ़िल्म को निर्देशन की ज़िम्मेदारी मृणाल सेन को मिल गई। मृणाल सेन प्रख्यात अभिनेता उत्तम कुमार और अभिनेत्री अरुंधती देवी को अपनी इस फ़िल्म में लेना चाहते थे लेकिन इन दोनों कलाकारों ने असफल फ़िल्म “रात भोर” के निर्देशक के साथ काम करने से मना कर दिया। काली बनर्जी और मंजू दे को लेकर मृणाल सेन ने फ़िल्म बनाई। इस फ़िल्म के निर्देशन में मृणाल सेन ने कुछ युक्तियों को अपनाकर फ़िल्म की टोन को हल्का रखा। भावुकता से बचने के लिए संवादों को छोटा रखा। कई दृश्यों में जानबूझकर साउण्ड ट्रैक बन्द कर दिया ताकि मौन के असर को प्रभावी रूप से दिखाया जा सके। कथा समय के वातावरण को निर्मित करने के लिए बहुत ध्यान से काम किया।

फरवरी 1959 में उनकी यह फ़िल्म “नील आकाशेर नीचे” प्रदर्शित हुई। फिल्म सफल रही। सबसे बड़ी बात यह हुई कि निर्माता हेमन्त मुखर्जी ने इसके एक विशेष प्रदर्शन की व्यवस्था 6 जनवरी 1959 को राष्ट्रपति भवन में की। इसी दिन भारत के प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने सहायक ओ० पी० मथाई को वित्तीय घपले के कारण बर्खास्त कर दिया था। नेहरू जी के वहाँ आने की सम्भावना कम थी। लेकिन वे आए। राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद, उपराष्ट्रपति डॉक्टर राधाकृष्णन और इन्दिरा गांधी को बांग्ला आती थी और नेहरू जी को फ़िल्म की बांग्ला भाषा समझाने के लिए सुचेता कृपलानी दुभाषिए की भूमिका निभा रही थीं। फ़िल्म देखने के बाद नेहरू जी ने मृणाल सेन को बधाई दी और कहा कि “आपने राष्ट्र की बड़ी सेवा की है।” एक सप्ताह बाद नेहरू जी ने काँग्रेस की कार्यसमिति में इस फिल्म की प्रशंसा की और सभी से देखने का आग्रह किया।

बॉक्स ऑफ़िस पर इसे सफलता मिली।

चीन और भारत की सीमाओं पर तनाव बढ़ रहा था। 1962 के चीन से भारत के युद्ध के बाद कुछ दिनों के लिए इस फ़िल्म पर प्रतिबंध लगा रहा। लेकिन हिन्दी की महान कवि महादेवी की रचना पर आधारित फ़िल्म “नील आकाशेर नीचे” से बांग्ला के एक जीनियस फ़िल्मकार का जन्म हुआ, जिसके बारे में कलकत्ता आने के पहले अपनी माँ से उन्होंने कुछ परिहास में बात पूछी थी।