एक जुलूस के साथ साथ / नीला प्रसाद
होटल के डाइनिंग हॉल में दो कोनों पर खड़े हमदोनों की नजरें अनायास मिल गईं। फिर उन नजरों के मिलन से बने पुल पर तेजी से बहती- तैरती, पिघली हुई यादें आने- जाने लगीं। वे बहुत तकलीफदेह यादें थीं- व्यवस्थित, चमकदार, चिकने जीवन की परतों में छेद कर उन्हें अव्यवस्थित ,बदरंग, खुरदुरा, बदशक्ल बना देने वाली यादें... यादें, जिन्हें अतीत के गैरफैशनेबल कपड़ों की तरह हमने वर्तमान के फैशनेबल कपड़ों की तमाम तहों के नीचे दबा दिया था, अब असुविधा उत्पन्न करती हुई , जादू से सब उलट- पलट कर, सतह पर आ मुझे शर्मिंदा कर रही थीं। वे यादें मुझे ग्लानि में डुबो दें, उससे पहले ही उनसे भाग निकलना जरूरी था। मैंने कोशिश करके नजरें घुमा लीं और क्षण भर को वह पुल टूट गया, पर अपने अपराधों, अपनी ग्लानि से कब तक नजरें चुरा पाती ! नजरें फिर मिलीं और अबकी मिली रह गईं। शायद उसने भी मुझे पहचान लिया था इसीलिए अनायास हमारे कदम एक-दूसरे की ओर बढ़ने लगे। वह अपेक्षाकृत स्थूलकाय हो आई थी और उसके बालों में सफेदी झलकने लगी थी। मैं खुश हुई कि मैंने खुद को संभाले रखा है और मेरी काया या मेरे बाल मेरी उम्र की चुगली नहीं करते! मैं धीरे- धीरे कदम बढ़ा रही थी, पर मेरे अंदर ताजी- ताजी युवा हुई एक लड़की जैसे दौड़ लगा रही थी। मैंने उस लड़की को भागते हुए पकड़ लिया।
तब हम इंटरमीडिएट में पढ़ते थे - रूममेट थे। पहली बार घर छोड़ा था और घर की याद में, माँ की चाह और यादों से त्रस्त, साथ - साथ रोते थे। वह हॉस्टल हम जैसी लड़कियों से ही भरा पड़ा था जो मूलतः उन कस्बों से उठकर कॉलेज की पढ़ाई के लिए आई थीं, जिन कस्बों में कोई वीमेंस कॉलेज नहीं था। इस कॉलेज और इसके हॉस्टलों के अनुशासन की इतनी धाक थी कि आसपास के कस्बों के अभिभावक निश्चिंत होकर अपनी बेटी यहां छोड़ सकते थे - खासकर हॉस्टल नं एक में, जहां जी. वत्सला वार्डन और इंचार्ज थी। मैं पहले दिन उनके सामने पेश हुई तो उन्होंने हंसकर कहा- यह तो ठेठ पढ़ाकू है। इसे तीन नं में भेज देती हूं और सुजाता को यहां रख लेती हूं। मैं सुजाता को छोड़ना नहीं चाहती थी। दो घंटे के परिचय में ही वह मुझे खासी अच्छी लगने लगी थी। फैशनेबल कपड़ों में वह कितनी मॉर्डर्न दिख रही थी! अंग्रेजी बोल रही थी, फिर भी गंवार से दिखने वाले कपड़ों में चोटी बनाए, शुद्ध हिंदी भर बोल पा रही मुझ से उसने अच्छी तरह बात की थी। मैट्रिक की परीक्षा में मुझे मिले ऊँचे प्रतिशत से प्रभावित दीख रही थी। अब पढ़ाई तो मैं संभाल लेती पर मुझे एक ऐसी सहेली चाहिए थी जो मुझे कपड़ों, फैशन और बालों के लेटेस्ट कट की जानकारी देती रहे- बाजार साथ ले जाकर परफ्यूम से लेकर बढ़िया ब्रा, पैंटी तक खरीदवाती रहे। उतने पैसों का जुगाड़ कैसे होगा - यह सोचना मुझे उसे क्षण उतना महत्वपूर्ण नहीं लग रहा था जितना किसी तरह सुजाता का साथ पा जाना... बल्कि मेरा दिल धड़क रहा था कि कहीं सुजाता ने भी मैम की हां- में- हां मिला दी तो जाने किस रुममेट से मेरा पाला पड़े जो मुझसे जाने कैसा व्यवहार करे! कहीं मेरे पिछड़ेपन का हर वक्त मजाक न बनाती रहे!! वैसे तो सुबह घर से निकलते वक्त मैंने अपना सबसे अच्छा सूट पहना था पर कॉलेज में घुसते ही मुझे अपने पिछड़ेपन का अहसास हो गया था। सुजाता के कपड़े देखकर मैं बार- बार बक्स में रखे अपने दूसरे कपड़े याद कर- करके, हीन भावना से ग्रस्त हो रही थी.. ‘मुझे इसी के साथ रहने दीजिए न’... सूखे गले से, मैं जी. वी मैम से उस दिन बस इतना ही कह पाई थी। सुजाता के पिता, जो पास ही खड़े थे, मैम से हंसकर बोले - अब यदि इस सीधी- सादी लड़की को मेरी बिटिया इतनी ही पसंद आ गई है तो रहने दीजिए दोनों को साथ- साथ! कोई प्रॉब्लम हुई तो बाद में हटा दीजिएगा। मैम मान गईं पर मुझे समझाती हुई बोलीं – ‘तुम साइंस ले रही हो तो तुम्हें ज्यादा पढ़ाई करनी पड़ेगी। सुजाता आर्ट्स में है तो इसकी पढ़ाई जल्दी खत्म हो जाएगी। तुम्हें दिक्कत हो सकती है, यह समझ लो! जब तुम पढ़ना चाहोगी, तब यह तुम्हें बागीचे में घूमने चलने को कहेगी...” सब हंसने लगे- मैम, मैं, सुजाता़.... हम दोनों के पिता!...हमें कमरे में छोड़कर जाने के पहले उनदोनों ने आपस में परिचय किया। वे हमारे घर का फोन नंबर मांग रहे थे, पर मेरे घर फोन था ही कहां! हम दोनों का घर शहर से मात्र चार घंटे की दूरी पर था, पर धुर विपरीत दिशाओं में!
जी.वी. मैम- उन्हें हॉस्टल में सब मजाक में जीमैम कहते थे- एकबार फिर से हमारे कमरे में एक सीनियर को लेकर आईं, जिसने हमें हॉस्टल के कायदे- कानून समझाए। अगले दिन से पढ़ाई शुरू हो गई।
‘हमारे पास धन और यश नहीं है। इन्हें हासिल करने की कूवत भी नहीं है । पर सपने हैं कि तुम अच्छी शिक्षा हासिल कर कहीं पहुंच जाओ।..अपना सारा ध्यान पढ़ाई पर रखना और जीवन में अनुशासन बनाए रखना’-- हॉस्टल जाना तय हो जाने पर माँ, पिताजी, दादी, बड़े भइया- सबकी बातों का सार यही था। मैं पढ़ने में अच्छी थी तो पिताजी मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थे। मैं नाक- नक्श से उतनी अच्छी नहीं थी तो माँ मुझे जल्द ब्याह देना चाहती थीं। दादी ने बीच का रास्ता सुझाया था- डॉक्टरी की पढ़ाई में नाम लिखा ले, फिर जल्दी-से-जल्दी ब्याह दो। सोलह से बाईस की उम्रर की हर लड़की - अगर वह बीमार नहीं हो- अच्छी ही लगती है। यह उम्रर निकलनी नहीं चाहिए। पढ़ाई में औसत बड़े भइया को शहर से ग्रैजुएट होते ही, बिजली के सामानों की दुकान खुलवा दी गई थी। पढ़ाई में कमजोर छोटे भइया को खेती का काम संभालने गांव भेजने की तैयारी थी, तो वे मुंह फुलाए घूम रहे थे और मुझे बाहर भेज कर पढ़ाया जाय, इसका घोर विरोध कर रहे थे।
सुजाता भी मेरी तरह अकेली बेटी थी पर उसका छोटा भाई यह सुनकर इतराया हुआ था कि दीदी पढ़ने को हॉस्टल भेजी जा रही है। वह साधनसंपन्न घर में काफी इंतजार के बाद पैदा हुई सुंदर, सलोनी, लाडली बेटी थी।
हॉस्टल आने के एक-डेढ़ महीने बाद की बात होगी। तब तक हमारे मन में कस्बे और शहर के चकाचौंध भरे जीवन का अंतर काफी कुछ स्पष्ट हो चुका था। मैं दो बार बाजार हो आई थी- भले ही मैंने अपने लिए क्लिप, पेन, पेपर के सिवा और कुछ खरीदा नहीं था! रविवार की एक अलसाई दोपहरी को जी.वी हमारे कमरे में चली आईं। तब वहां टी.वी. का पदार्पण नहीं हुआ था। ‘तुम दोनों को लेने लोकल गार्जियन नहीं आते?’ उन्होंने चलते ढंग से पूछा। हम दोनों ने ‘ना’ में सिर हिला दिया। ‘अच्छा, तो क्या तुमदोनों शाम को भी यूं ही हॉस्टल में पड़ी रहोगी? चलो, मैं तुम्हें घुमा लाती हूं। सड़क के उस पार ही एक बढ़िया- सा होटल है। मेरे साथ कुछ और लड़कियां भी चल रही हैं। सब को कोल्ड ड्रिंक पिला लाती हूं।’ हम खुशी- खुशी तैयार हो गए। लगभग एक दर्जन लड़कियां मैम के साथ चलीं। उन में से कुछ ने उस दिन पहली बार लिपस्टिक लगाई थी तो किसी ने पहली बार पैरेलल पहना था। किसी के लिए हाई हील में चलने का नया-नया अनुभव था तो मुझे कटे बालों में बाहर निकलने का! वह साधारण- सा होटल, शहर में नई आई मुझ जैसी लड़कियों को बहुत सुंदर लगा। हल्की धीमी रोशनी में, छोटी-छोटी गोल मेजों और कई झाड़फानूसों से सजा होटल, बहुत रहस्यमय सा लग रहा था - जैसे किसी फिल्म का हिस्सा हो। हर मेज के साथ चार कुर्सियां लगी थीं, पर जी.वी. हमें दो-दो कर, वहां बिठाती गई। बेयरे जैसे उन्हें पहचानते थे- झुककर अदब से पेश आ रहे थे। मुझे अफसोस हुआ कि मुझे सुजाता का साथ नहीं मिला। भले ही मेरे साथ कविता बैठी थी, मैं लगातार सुजाता पर नजरें टिकाए थी। बेयरे ने हमसे पूछ-पूछ कर हमारे पसंद की कोल्ड ड्रिंक हमें दी। कांच का वह लंबा- सा गिलास मुझे शानदार लगा था।
हमने चुस्कियां लेनी शुरु ही की थीं कि जी.वी. उठीं और टहलती हुई दरवाजे से बाहर चली गईं। मुझे उनके जाते ही अकेला और डरा-डरा सा लगने लगा। तभी जाने कहां से एकसाथ कई पुरुष हॉल में घुस आए और दो तो ऐन हमारे सामने आकर बैठ गए। ‘हम सब वीमेंस कालेज की हैं’, मैंने घबराहट में कहा। ‘हां बेटे, मालूम है। आप सब जी.वी. के साथ हैं। घबराइए मत। मैं इंश्योरेंस कंपनी का मैनेजर हूं और ये स्टील इंडस्ट्री से हैं। हम यहां टूर पर आए हैं। आपका शहर बहुत सुंदर है। आपको दिखाने के लिए हमारे पास कुछ है। चलिए हमारे साथ हमारे कमरे में।’ उस व्यक्ति ने भारी - भरकम आवाज में कहा और उठ खड़ा हुआ। ‘हमें वापस हॉस्टल जाना है। मैम खोज रही होंगी।’ मैंने घबराहट में पसीना -पसीना होते हुए हकलाहट के साथ कहा। वे हंसने लगे। ‘आपकी मैम ऊपर ही तो हैं।उन्हें मालूम है कि आप हमारे साथ आ रही हैं। चलकर पूछ लीजिए।’ ‘पर हमें तो कुछ नहीं देखना।’ मेरे साथ बैठी कविता बोली। ‘ठीक है। ऊपर चलकर अपनी मैम से बोल दीजिए और उनके साथ चली जाइए। आप सब बोर हो रही थीं इसीलिए आपकी मैम ने हमें आपके पास भेजा है।’ हम उनके पीछे- पीछे सीढ़ियां चढ़ गए और उनके इशारों पर कतार से बने कमरों में से एक में मैं, और एक में कविता, दाखिल हो गए।
जब हम रोते हुए बदहवास से बाहर निकले तो हम, हम नहीं रहे थे।
वापसी में जी.वी. हमारे साथ थीं,पर सारी-की-सारी लड़कियां, उनसे और एक-दूसरे से नजरें चुराती हुई चल रही थीं। सबके चेहरे उतरे हुए थे। आंखों में आंसू भरे मैं और सुजाता, अपने- अपने बिस्तर पर बैठ गए। खाना हमने नहीं खाया। बाकी लड़कियों को, जो अपने-अपने लोकल गार्जियन के घर होकर आई थीं, हम अपना चेहरा कैसे दिखाते!! लाइट ऑफ करने का समय एक बड़ी राहत लेकर आया।
... नींद नहीं आ रही थी। न मुझे, न उसे। हतप्रभ, सुन्न, सर के चक्रवात से छुटकारा, न उसे था, न मुझे।.. बात करने की शुरुआत करने की हिम्मत न उसे हो रही थी, न मुझे। पर घर और मां से दूर, बस आंसुओं के साथ रात गुजारने का खयाल, शायद न उसे भा रहा था, न मुझे।.... वह कुछ सोच रही थी, मैं भी। वह अब भी लगातार रो रही थी, मैं रोकर चुप हो गई थी। वह बिस्तर पर जड़ पड़ी थी... मैं बिस्तर पर बैठी थी। मेरे पांव कांप रहे थे, हाथ बेजान थे।‘ मैं तुम्हारे पास आ जाऊँ?’, मैंने कमजोर आवाज में लगभग फुसफुसाकर पूछा। उसने बिना कुछ कहे मेरे लिए जगह बना दी। दो तन्वंगी लड़कियां सिंगल बेड में आराम से समा गईं।.. खामोशी का दौर खत्म हुआ। ‘तुम्हारे साथ कुछ हो गया है क्या?’ सुजाता ने जैसे मेरे कानों में कहा। ‘नहीं। पर वह जबर्दस्ती मेरा कुरता उतार, मेरी छातियों से खेलता रहा। मैंने उसके कहने पर भी पैरेलल नहीं उतारा। मैं सिकुड़ती गई तो वह गुस्साकर बोला- तुम तो लकड़ी की बनी लगती हो। जाओ, भागो यहां से। तुम्हारी मैम से मैं निबट लूंगा।’ बाहर आकर सीढ़ियों के पास खड़ी थी तो जी.वी. मुस्कुराती हुई आईं और बोली, ‘अरे! रो क्यों रही हो? वह तुम्हें बहुत आगे ले जायेगा। हो सकता है शादी भी कर ले। वह थोड़ा उम्रदराज है, पर शादीशुदा थोड़े है! धनी है वह- तुम्हारी किस्मत पलट जायेगी,.. तुम्हारे साथ क्या हुआ?’
मन के दरवाजे खुलने लगे। सुजाता टुकड़ों -टुकड़ों में बताने लगी, जिससे यह समझ में आया कि धमकाने की खातिर उसने झूठ कह दिया था कि उसके पिता और भावी पति, दोनों पुलिस अफसर हैं और उसे छुआ भी गया तो... पर वह व्यक्ति बोला कि उसे जी.वी सब बता चुकी है कि वह कौन है। वैसे भी वह विजिलेंस विभाग का है और इस नाते पुलिस का बाप है। वह नहीं मानी और दोनों एक -दूसरे को धमकाते रहे। वह बड़ी मुश्किल से कमरे से निकल पाई। अब कल कौन- सा क्लास बंक करके कैंपस से बाहर घर फोन करने को निकलें , यह तय नहीं कर पा रही। ... मेन गेट का गार्ड हॉस्टल की सभी लड़कियों को पहचानता था और बाहर निकलते समय प्रिंसिपल मैम को बता देने की धमकी देता था।... मैं आसमान से गिरी। ‘तुम घर पर सब बताओगी? वे तुम्हारा भरोसा करेंगे??’ ‘क्यों नहीं, मां से बात करूंगी। मेरा मन तभी शांत होगा।’ वह गर्व से बोली। ‘मेरे घर तो भनक लगते ही पढ़ाई छुड़वाकर वापस ले जायेंगे। वहां बदनामी फैलेगी, सो अलग। घर पर सब आपस में ही लड़ने लगेंगे और एक दूसरे को दोष देंगे... मैं पढ़ाई जारी रखना चाहती हूं, इसीलिए घर पर बताने की सोच भी नहीं सकती!’ मैंने साफ बता दिया। सुजाता चुप रही। हमने अपनी ऊंगलियां आपस में फंसा लीं और सोने की कोशिश करने लगे।
सुजाता ने मां को तुरंत बुला भेजा। पर जाने क्या बात थी कि मां तुरंत नहीं आ पाईं और उसके पहले ही दूसरा रविवार आ पहुंचा। शाम होते ही झाड़ू लगाने वाली कमली कह गई ‘उन्होंने तैयार हो जाने को कहा है।’ हमारे पसीने छूट गए। सर में चक्कर आने लगा। सुजाता पेट दर्द का बहाना बनाकर बिस्तर से जा लगी। ‘तुम ज्यादा स्मार्ट तो नहीं बन रही?’, जी.वी कमरे में आकर बोलीं। ‘दर्द है। मधुमिता को मेरे साथ रहने दीजिए, प्लीज।’ सुजाता ने ठंढे स्वर में दुहरा दिया। वे गईं और उलटे पांवों दर्द की गोली के साथ लौट आईं। ‘लो, मेरे सामने निगलो।’ वे दवा खिलाकर ही निकलीं। उनके जाते ही सुजाता उठ बैठी और जीभ के अंदर दबाई गोली थूक दी। ‘यह नींद की गोली है मधु, मैं पहचानती हूं।’ वह घबराहट के मारे रोने लगी। मैं भी। उसके अगले रविवार मेरी तबियत सचमुच बिगड़ गई। दस्त और उलटियां होने लगीं। डाक्टर से मुझे दिखलवाकर, सुजाता और लतादी को मेरे पास बिठाकर, जी.वी चली गई। ऐन नींद की देहरी पर पहुंचकर मैंने जाना कि सुजाता की मां आई हैं। मैं चाहकर भी जागी न रह पाई।
लतादी कॉलेज के अंतिम साल में थीं। इंगलिश आनर्स कर रही थीं- अंग्रेजी में कविताएं भी लिखती थीं। मितभाषी थीं, फिर भी कालेज की सारी लड़कियां जाने क्यों उन्हें घेरे रहती थीं। एकदिन जब क्लास खत्म होने के बाद हम कमरे में बैठे थे, तो उन्होंने हम दोनों को बुला भेजा। वे हमसे मुस्कुराकर मिलीं। ‘तो तुमदोनों भी जी.वी की शिकार हो गई?’, उन्होंने हमसे पूछा तो मारे शर्म और अपराध बोध के हम कुछ बोल नहीं पाए। ‘अगली बार तुम्हें होटल चलने को कहे या रात को अपने कमरे में बुलाए तो मुझे इशारा कर देना। मेरा कमरा जी.वी के कमरे के दो पहले है।’ ‘हमदोनों किसी तरह बच निकले। हमें कुछ नहीं हुआ’, मुझे यह बताना बहुत जरूरी लगा। ‘ग्रेट। पर सारी लड़कियां बच नहीं पाईं।’ वे बस इतना ही बोलीं।
लतादी कौन हैं?उनके पास इतनी ताकत कैसे है?? अगर वे जी.वी के विरोध में हैं तो फिर इस हॉस्टल से निकाल क्यों नहीं दी जातीं?, इन सारे सवालों के जवाब हमें हफ्ते भर के अंदर ही अंजलीदी की मार्फत मिल गए। ‘लतादी बर्निंग फायर आफ वीमेंस कालेज हैं ।’ उन्होंने हमें गर्व से बताया।‘वे एक बड़े पुलिस अधिकारी की बेटी हैं। उन्हें इस हॉस्टल से हटाया गया तो वे जी.वी के किस्से अखबारों में छपवा देंगी, क्योंकि उनके चाचा जर्नलिस्ट हैं। जी.वी उन्हें मजबूरी में इस हॉस्टल में रखे हुए हैं और दिन गिन रही हैं कि कब उनके क्लासेस खत्म हों और वे परीक्षा की तैयारी के लिए घर जायें! जी.वी दक्षिण भारतीय हैं, कुंवारी हैं और कच्ची- ताजी युवतियां प्रौढ़ों के पास पहुंचा, तगड़ा कमीशन कमाती हैं। वे इन पैसों का क्या करती हैं, यह किसी को नहीं मालूम!’
मैं तो लतादी की फैन हो गई। कितनी ताकतवर हैं वे कि जी.वी तक उनसे घबराती हैं! पुलिस अधिकारी और जर्नलिस्टों के परिवार से हैं- तभी! कभी हॉस्टल के लॉन में उन्हें टहल-टहलकर किताबें पढ़ते देखती तो मन होता दौड़कर उनके पास चली जाऊँ, पर हिम्मत नहीं पड़ती थी। एक बार जब आधी रात तक सोने की तमाम नाकाम कोशिशों के बाद, मैं और सुजाता कॉरीडोर में टहलने निकले, तो उन्होंने हमें पकड़ लिया। ‘क्या जी.वी ने कमरे में बुलाया था?’ ‘नहीं तो!’, हम चौंके। ‘सावधान रहना।’ वे पेन पकड़े-पकड़े वापस अपने कमरे में चली गईं।
हॉस्टल में अंदर-अंदर कुछ पक रहा था जैसे। धुंआ नहीं था पर कहीं कुछ जल रहा था जैसे। किसी शाम जैसे ही जी.वी किसी दूसरे हॉस्टल की वार्डन के पास चाय या गपशप के लिए चली जातीं, सारी लड़कियां लतादी के कमरे में इकट्ठा हो जातीं। धीमे स्वरों में की जा रही बातचीत में भी उत्तेजना झलकती। आधे- एक घंटे में जैसे ही वे वापस मैदान के छोर पर प्रकट होतीं, लड़कियां वापस अपने-अपने कमरों में! पर चुपके-चुपके एक-दूसरे के कमरे में चिटें पहुंचती रहतीं। हमें इन सब में शामिल नहीं किया जा रहा था इसीलिए हमारी उत्सुकता चरम पर पहुंचती जा रही थी।
हमारी टर्मिनल परीक्षाएं पास आ गईं। मैं पढ़ने में व्यस्त हो गई। हादसा जो गुजर गया था, मन को झकझोरता तो रहता था पर आगे डाक्टर बनने का लक्ष्य हासिल करना था, तो पीछे का बहुत कुछ भुला देना, छोड़ देना जरूरी था। सुजाता कोर्स बुक बहुत कम या नहीं पढ़ती। उपन्यासों की दुनिया में उसे ज्यादा मन लगता! शायद वर्तमान के हादसों को भुला देने में काल्पनिक दुनिया की सदस्यता ज्यादा मददगार होती हो! ‘मैंने मां को इशारों में सब बता दिया है। वे पापा से बात करके हॉस्टल बदलवा देंगी।’, एक दिन उपन्यासों की दुनिया से थोड़ी देर को बाहर आकर जैसे ही उसने यह बताया, मेरे होश उड़ गए। मेरे मनाने का उस पर कोई असर नहीं दीखा। ‘आखिर कब तक जी.वी से डरती हुई जिऊँगी?तू भी अपने पापा से कहकर किसी दूसरे हॉस्टल चली जा।’, उसने सलाह दी।... पर मैं और पापा से कहती! जो बातें मां से नहीं कह पाई, वह सब पापा से कहना अकल्पनीय था। हमारे घर में अपनी समस्याओं पर खुलकर बात करने का रिवाज ही नहीं था- न मां, न पापा से! मेरी तो रातों की नींद ही हराम हो गई। सुजाता चली जायेगी, लतादी भी चली जायेंगी- उसके बाद? उसके बाद मेरा क्या होगा... अब सोचती हूं कि मां-पापा से उस बात को छुपाकर भी हॉस्टल बदलवाने की बात की जा सकती थी, पर तब न उतनी अक्ल थी, न हिम्मत! मुझे बस एक ही तरफ ध्यान रखने का मंत्र दिया गया था- पढ़ाई। बाकी मामलों में मैं एकदम शून्य थी- अव्यावहारिक, डरपोक, दब्बू और आत्मविश्वासहीन! पर मुझे अच्छा लग रहा था कि जिंदगी में लतादी तो थीं- मुझसे बड़ी और जानकार। उन्हें पता होना चाहिए था कि मैं घरवालों को अपनी समस्या क्यों नहीं बता सकती! हमारे जैसे परिवार जो समाज के सामने झुके- झुके जीते थे और लड़कियों को नजरें झुकाए सड़क पर चलने का सुझाव देते थे, तब के समाज का सच थे। भनक लगते ही पिता कालेज छुड़वा देते और कस्बे में अटकलों का बाजार गर्म हो जाता।
..तो एक दिन हिम्मत करके मैं लतादी के पास जा पहुंची और उन्हें सब बता दिया- घर- परिवार से बात छुपाने की मजबूरी, मेरा अकेलापन, मेरी आशंकाएं, मेरे सपने .... और सुजाता के साथ की जरूरत! वे बिना कुछ बोले सुनती रहीं। नाटे कद की, सांवली, हल्की मोटी, साधारण नाक- नक्श की लतादी ने - जो मेरी भगवान बन सकती थीं या नहीं, पर उस वक्त जो भगवान ही थीं मेरी- मुझे अपने से सटा लिया और बोलीं ‘मैं तुम्हारी परिस्थिति समझ सकती हूं। जब तुम्हारा कौमार्य भंग नहीं हुआ तो तुम इस घटना को छुपा भी जा सकती हो- पर बताने की हिम्मत पैदा करो। माता-पिता को समझाओ कि वे तुम्हें मोरली सपोर्ट करें, कालेज से नाम नहीं कटाएं। यहीं इसी हॉस्टल में रहो और हमारी लड़ाई का हिस्सा बनो। अगले महीनों में इस हॉस्टल में बहुत कुछ होने वाला है। हम जी.वी के विरुद्ध सबूत इकट्ठा कर रहे हैं। फिर प्रिंसिपल मैम के पास मामला जायेगा- बात नहीं बनी तो धरना, स्ट्राइक.. यहां से जी.वी की विदाई अपनी आंखों नहीं देखना चाहोगी?’, वे हंसने लगीं। ‘तुम दोनों यही रहो और जी.वी के विरुद्ध हमारी गवाह बनो।’, मैंने मरे मन से हामी भर दी। यह तो मैं और भी फंसती जा रही थी। अब तो सारा कालेज, सारी टीचर्स जान जायेंगी कि मैं होटल भेजी गई। वहां मेरे साथ क्या हुआ, क्या नहीं, यह कोई थोड़े सोचेगा! उनके लिए तो मैं बस वो गंदी हो चुकी लड़की बन जाऊँगी जिसका रेप हुआ है। अब मैं तो बिल्कुल बेचैन हो गई। पर भगवान से कब तक छुपता? लतादी ने पकड़ लिया एक दिन। ‘तुम इन दिनों इतनी घबराई-सी क्यों रहती हो? कहीं चिंता तो नहीं कर रही कि गवाही दोगी तो बदनामी होगी वगैरह..’ ‘हां लतादी, मैं बहुत गरीब परिवार से हूं। बदनामी का मतलब है जिंदगी भर कुंवारी बैठे रहना।’ ‘इसका गरीबी से ज्यादा लेना-देना नहीं है। दूसरी लड़कियों की भी यही समस्या है.... पर तुम्हारे साथ कोई जबर्दस्ती थोड़े है। मत बनो गवाह। प्रिंसिपल मैम के पास जाने में देर इसीलिए तो हो रही है कि गवाह बनने को लड़कियां सामने नहीं आ रहीं। अब बिना विटनेस मैं बात कैसे आगे बढ़ाऊँ? सौ से ज्यादा विक्टिम इसी हॉस्टल में मौजूद हैं, विटनेस बनने को बीस भी तैयार नहीं। पर इस तरह मामला छोड़ देने से तो आगे भी चलता रहेगा यही सब- नहीं?’, मैंने हामी भर दी। ‘तुम इस बारे में सोचना।’ कहकर वे वापस टहल-टहलकर पढ़ने लगीं। मैं कमरे में चली आई। पीछे से जी.वी की आवाज आई, ‘लता रात हो गई है। कमरे में जाकर पढ़ो।’ ‘ओ.के, मैम।’ लतादी मुलायमियत से बोलीं और तुरंत मुड़ गईं।
कुछ सोच नहीं पा रही थी। फिर भी सुजाता के माता-पिता को प्रिंसिपल मैम के कमरे की ओर जाते देखा तो लतादी को ढूँढने भागी। प्रिंसिपन मैम कमरे में नहीं थीं। लतादी ने उनसे आराम से बातें कीं। दसेक मिनट की बातचीत के बाद मैंने उन्हें कहते सुना, ‘आगे का जिम्मा मैं लेती हूं अंकल!’ सुजाता वहीं रहने को मान गई थी। मै सोचने लगी कि कुछेक महीनों के बाद ये चली जायेंगी तब क्या होगा, क्या हम फिर से असुरक्षित नहीं हो जायेंगे! शायद मैंने बेकार ही... पर सुजाता के हामी भर देने से तत्काल की समस्या हल हो गई थी। मैंने अपने अंदर किसी पुलक का अनुभव किया। सुजाता के पिताजी कह रहे थे ‘यू आर अ ब्रेव गर्ल लता! आई विल फील प्राउड इफ यू एंड सुजाता आर एबल टू फाइट दिस केस टुगेदर। बट टेक केयर- यू बोथ आर स्टिल वेरी यंग! डोंट मिस योर फ्यूचर एंड करियर।’ वे जाने लगे और सुजाता के साथ-साथ लतादी को भी उनके पांव छूते देखा तो मैं भी लपकी। ‘मधुमिता तुम भी शामिल हो जाओ इस लड़ाई में!’ उन्होंने आशिर्वाद देते हुए कहा तो मैं असमंजस में पड़ गई। मैं विटनेस बनूंगी.. खुलकर साथ दूंगी लतादी का। ‘तू रिप्रेंटेशन में साइन तो कर दे। भले हमारे साथ प्रिंसिपल मैम के यहां मत चलना।’ सुजाता कमरे में आकर बोली। मैं मान गई तो वह लपककर लतादी के पास से कागज ले आई। मैंने उनचासवें नंबर पर अपने हस्ताक्षर कर दिए। सुजाता कागज वापस देने गई, तो मेरे लिए बरफी का एक टुकड़ा लेती आई।
महीना गुजर गया। टर्मिनल्स खत्म हो गए। कहीं कुछ होता दीखता तो था नहीं। मैंने सोचा शायद सबकुछ ठंढा पड़ गया। हस्ताक्षर कर देने के द्वंद्व से मुक्ति मिली। पर मैं गलत थी। वह दिन आखिर आ ही गया, जब इतिहास लिखा जाना था। एक दोपहर पंद्रह-बीस लड़कियों के साथ हमारी नायिका प्रिंसिपल मैम के कमरे के बाहर खड़ी पाई गई। मैम बिजी थीं- ये सब इंतजार करती रहीं। मैम शायद थकी थीं तो अचानक से कमरे से निकलीं और चपरासी कमरे में ताला लगाता पाया गया। अब लतादी अब क्या करेंगी? मैं सोच ही रही थी कि देखा कि लतादी आगे बढ़ीं और मैम से खड़े-खड़े दो मिनट बात करके, पांच पृष्ठों का रिप्रेजेन्टेशन उन्हें थमा दिया। मैम ने उन पर एक सरसरी निगाह डाली और गुस्से से भर, सारे कागज हवा में लहरा दिए। लड़कियां खड़ी रहीं। मैम के मुड़ते ही चपरासी दौड़-दौड़कर, हवा में इधर-उधर उड़ गए कागजों को मैदान से चुनने लगा। लड़ाई का बिगुल बज चुका था। रात को जी.वी के हॉस्टल में, उन्हीं के विरुद्ध, रणनीति तय की गई। अगले दिन सुबह नौ बजे प्रिंसिपल मैम जैसे ही कमरे में बैठीं, लड़कियों का झुंड कमरे के बाहर धरना देकर बैठ गया। 1978 की जनवरी या फरवरी में अठारह लड़कियों को लेकर शुरु किया गया वह धरना, लड़कियों में इतना जोश भर देगा कि स्ट्राइक-जुलूस की शक्ल लेता हुआ, जी.वी की विदाई का कारण बन कर ही रहेगा- यह उस ठिठुरती सुबह मैं नहीं सोच पाई थी। इकतीस साल पहले जब उस शहर में न ही फोटो कॉपियर कॉमन थे, न ही इलेक्ट्रॉनिक टाइपराइटर, तब- हाथ से लिखे उस रिप्रेजेन्टेशन को टाइप करने में प्रिंसिपल मैम के उस सेक्रेटरी ने गुपचुप भूमिका निभाई थी, जो खास जी.वी के शहर से ताल्लुक रखता था। लतादी महीनों पहले से चुपके-चुपके कई स्तरों पर समर्थन जुटाती फिर रही थीं और इसीलिए उस दिन धरने पर बैठी लड़कियों को अनुशासनहीनता के आरोप में सस्पेंड करने के लेटर का डिक्टेशन लेकर भी उनका सेक्रेटरी उसे टाइप करने से मुकर गया। गुस्से से बौराई मैम ने हाथ से अपने सेक्रेटरी का सस्पेंशन लेटर बना कर ,उसकी कॉपी कालेज डीन को दे आने को चपरासी दौड़ा दिया। चपरासी डीन के आफिस दे आने से पहले, वह चिट्ठी लतादी को पढ़ा आया।
धरने पर बैठी सभी लड़कियां महीने भर के लिए सस्पेंड हो गईं। मैम को पता भी नहीं चला होगा कि ऐसा करके उन्होंने उन सभी के साथ कितना बड़ा फेवर किया था। सुजाता मुझे हर गतिविधि की जानकारी देती रहती। क्लास रूम में घुसना मना हो जाने से वे सब आराम से हॉस्टल में बैठकर आगे की रणनीति तय करती रहतीं। फंड इकट्ठा किए जाते। बाहर जाकर जरूरी कागजात टाइप करवाये जाते, बूथ से फोन किए जाते। दस दिनों के अंदर डीन और वी.सी के नाम अपील पर कई सौ लड़कियां साइन कर चुकी थीं। लतादी ऑनर्स के फाइनल एक्जाम ड्राप कर, हॉस्टल में और एक साल रहने का मन बना चुकी थीं। छह लड़कियों को धरने पर बैठने के लिए घर से फटकार मिल चुकी थी। तीन का सस्पेंशन उनके पेरेंट्स से बातचीत के बाद वापस कर लिया गया था। सुजाता भी लतादी की तरह ही सस्पेंड थी पर उसे कोई परवाह है, ऐसा कभी लगता नहीं था। वह खुशी- खुशी अपने सस्पेंड हो जाने का ऐलान इस तरह करती थी मानो सस्पेंड होकर उसने कोई किला फतह कर लिया हो। कॉलेज ग्राउंड में हर रोज खुलेआम मीटिंग की जा रही थी। लतादी ने प्रिंसिपल मैम से डीन के पास जाने से पहले नियमानुसार अनुमति मांगी। उन्होंने गुस्से में पेपर वेट दीवार पर दे मारा। उस आवाज से बाहर खड़ी लड़कियों को ऐसा लगा कि लतादी पर हाथ उठाया गया है और सारी -की-सारी लड़कियां उनके कमरे में घुस गईं। किसी ने कुर्सियां पटकीं, किसी ने कागज फाड़े तो किसी ने प्रिंसिपल मैम को ही धक्का दे दिया। वह एक बेकाबू भीड़ थी। मॉब- जिसकी साइकॉलजी सुनने की नहीं, तुरत-फुरत कुछ कर गुजरने की होती है, कैसे नियंत्रण में आती! लतादी और प्रभा मैम, दोनों हक्के-बक्के रह गए। भीड़ में चेहरे कौन पहचानता है! लतादी को लड़कियों को उकसाने और प्रिंसिपल मैम से हाथापाई करवाने का आरोपी पाया गया।
पूरे कालेज में बात फैल गई कि लतादी को कॉलेज से निकाला जा रहा है।
उसी शाम कालेज ग्राउंड में एक खास मीटिंग हुई। उतने विशाल ग्राउंड में तिल रखने की जगह नहीं थी। लगता था जैसे पूरा कालेज वहीं जमा हो गया है। लतादी का स्वागत किसी नायिका की तरह हुआ... और उस शाम की नायिका वे थीं भी! उनके भाषण को सबने ध्यान से सुना, जिसका सार था कि हिंसा करने और उत्तेजित होने से लड़ाई का मूल मुद्दा पीछे छूट जायेगा। जोरदार करतल ध्वनि के बीच अगले दिन से शांतिपूर्ण धरने का आयोजन करने का फैसला हुआ- कोई अभद्रता, कोई हिंसा, कोई नारेबाजी नहीं! मुद्दे दो रहेंगे- सबों का सस्पेंशन वापस लो और जी.वी को कालेज से हटाओ। ठीक है? उन्होंने पूछा। ‘ठीक है।’ सामूहिक स्वर लहराया और हजारों हाथ समर्थन तथा उत्तेजना में उठ गए। उत्तेजना की वह थरथराती लहर मैंने भी अपने अंदर फैली महसूस की। सुजाता धरने पर बैठने के उत्साह और खुशी के मारे रात-भर जागती रही, मैं अनिर्णय के तनाव के मारे।
अगली सुबह किसी उत्सव की सुबह थी। कैंटीन जाकर नाश्ता करने की किसे सुध थी! बस नहाओ और लतादी के कमरे के बाहर पहुंचो। बाहर इसीलिए कि अंदर पांव रखने की जगह थी ही नहीं। जी.वी के कमरे के बाहर रखा फोन लगातार बज रहा था और वे किसी को बात करने से रोक नहीं पा रहीं थीं। उनका चेहरा उतरा हुआ था और आंखों के सामने अपने विरुद्ध बनाये जा रहे पोस्टर शायद उन्हें अपने कफन की तरह लग रहे थे।
दस बजते ही लड़कियां धरने पर बैठ गई। जाड़े की उस ठिठुरती सुबह हाथों में तख्तियां लिए, रंग बिरंगे स्वेटरों से सजी, हरे-भरे ग्राउंड का बड़ा हिस्सा घेरती उन लड़कियों का वह झुंड, आज भी मेरी आंखों के सामने है। दाहिने हाथ से केमिस्ट्री की कापी अपनी छाती से सटाए, ऊँचे पेड़ से सटी खड़ी मैं, अंदर-अंदर बहुत अफसोस से भरी हुई थी कि मैं उस दृश्य का हिस्सा बनने की हिम्मत नहीं जुटा सकी थी... ‘जी.वी को सस्पेंड करो’, ‘पी. प्रभा होश में आओ’, ‘लड़कियों के भविष्य से खिलवाड़ बंद करो’, ‘छात्राओं का सस्पेंशन वापस लो’, ‘कालेज प्रशासन मुर्दाबाद’, ‘पी. प्रभा हाय-हाय’, ‘जी.वी वेश्या है’, ‘देह व्यापार की आयोजक को संरक्षण देना बंद करो’ ...जाने कितने पोस्टर और उन्हें पकड़े हुए जाने कितनी नाजुक कलाइयां..... उन दिलों में उठते जाने कितने अरमान और भय... अंदर लरजती जाने कितनी भावनाएं और उत्सुकताएं... मैं केमिस्ट्री की क्लास अटेंड करने चली गई। मां की अच्छी बेटी कहीं धरने- वरने में शामिल होती है! डॉक्टर बनना था- अर्जुन की आंख बस अपने लक्ष्य पर! रास्ते के फूल, पत्थर, झरने, घटनाएं-दुर्घटनाएं अगर दीखने, विचलित करने लगें, तब तो बन चुकी डॉक्टर!! पर क्लास में लड़कियां बहुत कम थीं और मैम का मन भी पढ़ाने में लग नहीं रहा था, तो क्लास नियत समय से पहले ही छोड़ दी गई। मैं वापस ग्राउंड में आकर खड़ी हो गई। चारों ओर पोशाकों के बिखरे पड़े रंग घास की हरियाली के बैकग्राउंड में सुखद नजारा पेश कर रहे थे, पर सबों के मन में जोश का लाल रंग भरा था और भरी हुई थी आक्रोश और दुःख की कालिमा!
मैं अगली क्लास में नहीं गई। पेड़ के तने से सटी खड़ी कुछ सोचने की कोशिश करती रही पर दिमाग शून्य था। सुजाता मुझे देख मुस्कुराई। ‘तुम उन लोगों में हो जो जिंदगी भर पानी के किनारे खड़े तैरने का आनंद लेने का दावा करते रहते हैं। जिंदगी में कभी तो समूह के लिए खतरा उठाना सीख! जिंदगी भर डर-डर कर, सामने दीख रही समस्याओं से मुंह छुपाती जियोगी क्या!’ कल रात सुजाता ने व्यंग्य में कहा था। विनीता ने सीधे निमंत्रण दे डाला- ‘तुम भी तो विक्टिम हो, आ जाओ हमारे साथ।’ मैं मुस्कुराकर टहलती हुई आगे निकल गई। दो घंटे बाद, तीन लड़कियों को बातचीत का बुलावा आया। रिप्रेजेन्टेशन ले लिए गए तथा धरना खत्म करने को कहा गया ताकि आगे की कार्रवाई हो सके, पर किसी ठोस एश्योरेंस के अभाव में लड़कियां धरने पर बैठी रहीं। चार घंटे बाद पुलिस और अखबारवाले लगभग साथ-साथ पधारे। धरने पर बैठी सभी लड़कियां अरेस्ट करके थाने ले जाई गईं, पर बाद में छोड़ दी गईं। सुजाता विस्तार से बताती रही कि थाने में उन्हें कितना सम्मान मिला तथा कोई अभद्रता नहीं की गई। अगले दिन के सभी स्थानीय अखबारों में खबर आ गई।
लड़कियां कुछ कर गुजरने को अधीर हो रही थीं।
‘जुलूस बनाकर डीन और वी.सी से मिलने जायेंगे।’ लतादी ने फैसला सुनाया।
मैंने जोश के ज्वार को अपने सामने बनते, उठते और सबों को छा लेते देखा। मैं भी अनजाने इस ज्वार की चपेट में आ गई।
जुलूसवाले दिन सुबह जी.वी. का कमरा खाली पाया गया। लड़कियों के चेहरे पर मुस्कुराहट खिल गई।
‘यहां सुमिता मैम आयेंगी’, चपरासी ने बताया। आयेंगी क्या, आ गईं। बिना इंतजार कराए सुमिता मैम सामान उठाए एकदम से आ पहुंचीं। वे कुछ माह पहले ही कालेज में लेक्चरार नियुक्त हुई थीं। एकदम ताजी-ताजी, युवा, हंसमुख- स्टुडेंटनुमा दीखती थीं। उन्होंने आते ही लतादी को कमरे में बुलवाया और दसेक मिनट बाद लतादी हंसती हुई कमरे से बाहर आ गईं। ‘ये अपने साथ हैं’, लतादी के इशारे हम समझ गए।
साढ़े ग्यारह बजे जुलूस डीन के आफिस की ओर चला। तीन किलोमीटर की पैदल यात्रा थी। मेरा मन बेकाबू था। चारों तरफ इतना उत्साह, चहल-पहल, जोश.....खुद को अछूती रख पाना असंभव था। लड़कियां दो-दो, चार-चार की टुकड़ियां बनाकर चल रही थीं। उस झुंड का हिस्सा बनते ही मेरा मन शांत हो गया। ‘मुझे बहुत पहले शामिल हो जाना चाहिए था। इतना भी क्या डरना’, मैंने खुद से कहा और मुस्कुराकर चारों ओर नजरें दौड़ाईं। किसी की आंखों में मेरे पिछले व्यवहार को लेकर कोई उलाहना नहीं दीखा- सबने मुस्कुराकर अपने समूह में मेरा स्वागत किया जैसे! दसेक मिनट गर्व से उनके साथ चलने के बाद मैं अचानक चौंक गई। दो-चार प्रेस फटोग्राफर भाग-भागकर, अलग-अलग एंगलों से धड़ाधड़ हमारी तस्वीरें उतार रहे थे। अरे! अगर मेरे चेहरे वाली तस्वीर ही कल अखबारों में छप गई तो? यही अखबार तो मेरे कस्बे में भी जाता है! तब क्या कहेंगे लोग! क्या जवाब दूंगी फिर घरवालों को ?यही सब करने कालेज गई थी- यही है मन लगाकर पढ़ाई? जाड़े की उस सुबह, मोटे स्वेटर से लदी मैं, अचानक पसीना-पसीना हो गई।..हम बाजार के बीच से गुजर रहे थे। सड़क के दोनों ओर कतार से बनी दुकानें दीख रही थीं और लगभग सारे दुकानदार अपनी-अपनी दुकान के बाहर खड़े, गुजरते जुलूस का नजारा देख रहे थे। बस कुछ सेकंड की दुविधा..... और मैंने खुद को चुपके से एक दुकान में घुसते पाया।
वह क्षण और आज का सुजाता से नजरें मिलने का यह क्षण - मैं जैसे उसी जुलूस से भागी हुई मनःस्थिति में जी रही थी। जुलूस गुजर रहा था और मैं चुपके से उसका हिस्सा बनने से खुद को रोक रही थी। जुलूस बढ़ रहा था और मैं जानबूझकर पीछे छूट रही थी। मुझे मालूम था कि जुलूस सफल होगा और मैं जश्न का हिस्सा बनने से चूक जाऊँगी। बाद में सब अपनी भागीदारी के किस्से अगली पीढ़ी को सुनायेंगे और मैं पछताऊंगी.... भविष्य मुझसे हिसाब मांगेगा और मैं अतीत से नजरें चुराती रह जाऊँगी।
पर जो रिक्शे पर बैठकर हॉस्टल लौटा और आनन-फानन सुजाता के बिस्तर पर माफी की स्लिप छोड़, सुमिता मैम से कहकर दूसरे हॉस्टल शिफ्ट हो गया, वो मैं थी। जो जिंदगी भर सुजाता और लतादी को नायिकाओं की तरह सराहता रहा पर उनसे मिलने के नाम से कतराता रहा, वो भी मैं ही थी।
डीन ने जुलूस की नायिकाओं से मिलने के बाद इंक्वायरी कमिटी बना दी। पर प्राइमा फेसी दोषी पाये जाने पर भी जी.वी को सस्पेंड नहीं किया गया, इसीलिए लतादी कुछेक लड़कियों को लेकर आमरण अनशन पर बैठ गईं। नहीं, देर नहीं लगी थी। अठारह घंटे भी नहीं बीते थे कि सस्पेंशन लेटर आ गया था। लतादी ने जूस पीकर अनशन तोड़ दिया था। दो हफ्ते के अंदर- अंदर तो इंक्वायरी कंप्लीट भी हो गई थी। कालेज की वर्तमान ही नहीं पूर्व छात्राओं ने भी गवाही दी थी। मैं चकित रह गई। इतना आक्रोश मन मे लिए जी रही थीं कि खबर मिलते ही दूसरे शहरों से बयान दर्ज करवाने आ गईं। उनमें से तीन को पति से अलग होना पड़ा था, दो पति की ही पहल पर आई थीं और बाकी मन में पल रहे आक्रोश को गलाने की खातिर... मैं खुद से शर्मिंदा थी।
जी.वी डिसमिस हो गई। कालेज में जश्न पूरे आयोजन से मना। थोड़ी नारेबाजी, थोड़ा हुड़दंग, उल्लास के चीखते स्वर!..होली आने में देर थी पर अबीर के उड़ते रंगों ने पूरे कालेज को छा लिया। उत्सव के रंगों का मन पर असर मिठाइयों के अनवरत दौर से जाहिर था। मैं उदास थी। मैं भी उत्सव के इन रंगों में डूब सकती थी अगर मैंने कायरता से लड़ना सीख लिया होता! मैं भी आइने में खुद से नजरें मिला सकती थी अगर मैंने जुलूस से किनारा न किया होता... मैं भी मानवता के बदनुमा दाग, जी.वी पर, एक पत्थर उछाल सकती थी अगर...अगर..अगर..अगर....पर ये अगर अंतहीन थी।
अपने अंदर की, दौड़ लगाकर सुजाता से गले मिल जाने को आतुर उस युवा लड़की को, मैंने रोक लिया। अड़तालीस की उमर में सत्रह की चंचलता शोभा नहीं देती। लपकते कदमों की रफ्तार सायास धीमी करके, मैंने ग्रेस क्रियेट करने की कोशिश की। पर धड़कते दिल का क्या करती? इतने सालों तक,जाने कितनी - कितनी बार, मैं इस प्रसंग को याद करके खुद से शर्मिंदा पर उस आंदोलन की नायिकाओं की प्रशंसा में नतमस्तक होती रही। जब-जब कहीं भी महिलाओं के सेक्सुअल हैरेसमेंट का मामला सामने आया, सारा अतीत मेरे सामने घूम गया और मुझसे अपने किए का जवाब मांगने लगा। मैं हर बार सोचती और खुद का विश्लेषण करती रही। हर बार सोचती रही कि जब युवावस्था की शुरुआत में ही इतनी हिम्मती थीं लतादी, तो जाने बाद में उन्होंने समाज के लिए क्या कुछ नहीं किया होगा! कितनी बड़ी समाज - सेविका होंगी वे! हां, उनका नाम अखबारों में नहीं आता तो शायद वे किसी छोटे शहर को अपना कार्यक्षेत्र बनाए होंगी। और सुजाता़! वह भी तो लतादी की बराबरी की सहभागी और उन जैसी ही हेड स्ट्रांग थी। हो सकता है उसने लतादी से भी कहीं अच्छा काम किया हो! जब भी समाज सेविकाओं का जिक्र आता मैं ये दो नाम जरूर तलाशती, भले ही हर बार निराशा हाथ लगती। पर अब तो वह ऐन सामने थी। उसे जरूर लतादी के बारे में भी पता होगा। दोनों की कितनी अच्छी पटने लगी थी तो संपर्क नहीं बनाए रखने का कोई कारण ही नहीं!
...ऐन सामने आकर हमारे चेहरों पर मुस्कान फ्रीज हो गई। ‘कैसी हो मधुमिता!’ उसने पूछा। ‘अच्छी हूँ।’ ‘और तुम!?’ ‘मजे में’.. उसकी मुस्कान इतनी चौड़ी हो गई कि दंत - पंक्तियां झलकने लगीं। ... पर मैं सड़क किनारे खड़ी थी और जुलूस मेरे स्थिर पांवों को पीछे छोड़कर आगे निकला जा रहा था...सुजाता उस जुलूस में थी। वह सफल होने वालों में थी..और मैं उनमें, जो सच का साथ देते घबरा गए थे..जिंदगी में सच से आंखें मिलाने वालों की कतार से पीछे छूट गए थे।... सच है कि मैं अबतक उस जुलूस से भाग निकलने के गिल्ट से बाहर नहीं निकल पाई थी। मैं अभी भी उसी गिल्ट की ठंढी शिला पर खड़ी थी और पांव सर्द हो रहे थे।.. ‘क्या तुमने हॉस्टल के कमरे में तुम्हारे बिस्तर पर छोड़ा मेरा पुरजा पढ़ा था?’ मैंने शिला को तोड़ने की कोशिश की।’ ‘अं! कैसा पुरजा?’, वह चौंककर हंसी। नहीं, अतीत उसके दिल पर रखा कोई बोझ नहीं था। न ही कोई शिला उसके पांवों को गला रही थी या आग की लपटें सर को भस्म किए जा रही थीं। ‘..कमरा छोड़ते समय तुम्हारे बिस्तर पर रख दिया था। उसके बाद कभी मिल नहीं पाए तो आज तुम्हें देखते ही याद आया कि पूछ लूं!’ ‘ओह! तब हमें पुरजे देखने- पढ़ने की फुर्सत थी! जिस आग से घिरे जीते थे हम, उसमें कितने पुरजे जल गए होंगे!’ वह फिर हंसी - उन्मुक्त। ‘और रिश्ते?.. क्या रिश्ते भी? क्या तुमने मुझे कभी याद नहीं किया, एक पल को भी कभी , किसी भी सिलसिले में?’ मैं भावुक होने लगी। ‘हं,हं, किया ही होगा शायद। ... पर जी.वी कि सिलसिले में- कब्भी नहीं। क्यों करती याद, तुम्हीं बताओ! तुमसे नाराज होने, तुम्हें गालियां देने या तुम्हें सुधारने को! तुम अपनी परिस्थितियों द्वारा इस कदर जकड़ ली गई थी कि स्वतंत्र रूप से कुछ भी कर या सोच नहीं सकती थी। सच है कि मेरी कोई रुचि नहीं बची थी तुममें। ... पर अभी नजरें मिलते ही लगा कि जानना चाहती हूं कि तुम कहां हो, कैसी हो’....‘लतादी के बाद तुम सब ही हिरोइन्स थीं उस आंदोलन की।’ ..‘अरे नहीं यार! और अब पुराने जमाने की हिरोइन्स को वैसे भी पूछता ही कौन है- चलो छोड़ो। अब वह सब क्यों याद करें- एक फेज़ था जिंदगी का, गुजर गया। हम सब जिंदगी में आगे बढ़ गए।’ उसने ठहाका लगाते हुए कहा। ‘हां, अच्छा हुआ कि तुम्हारे मन से सब बीत गया, तुम आगे बढ़ गई। मैं तो अबतक नहीं उबर पाई। कोई गिल्ट अबतक मुझे जकड़े हुए है जैसे!’, मैंने कहा। ‘तुम जरूरत से ज्यादा भावुक हो रही हो। और वैसे भी वे सब बातें अब इर्रेलेवेंट हो गई हैं। आज के जमाने में उन कारणों के लिए आंदोलन करने की न नौबत आएगी, न उस तरह का सेंटिमेंट है शरीर की पवित्रता को लेकर! अब तो बच्चों को बस कहानी की तरह सुनाने की घटना रह गई है वह, जिस पर बच्चे हंसेंगे। ‘हंसेंगे क्यों?’ ‘लो, करलो इनसे बात! आज किस वार्डन की हिम्मत है कि धोखे से लड़कियों को ग्राहकों से मिला दे... सब सजग और बोल्ड हो गई हैं। किसी हॉस्टल वार्डन के ऐसे किसी इंटेशन की हवा भर लगते ही मीडिया ले उडे़गा ..’, वह ठहाके मारकर हंसने लगी। ‘ और आजकल की लड़कियां- उफ्! कइयों के लिए तो बायफ्रेंड और सेक्स, जेबखर्च और गिफ्ट कमाने का जरिया भर है। इन्हें मना करो तो ‘ये मेरी लाइफ है’, वाली स्टाइल के जुमले मुंह पर मारकर चलती बनेंगी। ‘अरे, ऐसा मत कहो।’ मुझ दो युवा लड़कियों की मां को बुरा लगना स्वाभाविक था। ‘कैसे नहीं कहूं? मैं खुद इतने प्रेस्टिजियस कॉलेज में गर्ल्र्स हॉस्टल की वार्डन हूं। मुझे नहीं मालूम इनके किस्से!’ हमारे जमाने की लड़कियां संकोची और असहाय हुआ करती थीं। नहीं तो दो -दो थप्पड़ मार कर हवा नहीं निकाल देतीं सबकी! और जी.वी! अब सोचती हूं कि उसे तो कितनी आसानी से हमसब मिलकर पीट सकते थे- नहीं? पर हमसब डरपोक थे और अपने शरीर को कोई पवित्र सी चीज़ समझते हुए जाने किन-किन मोरलिटी से घिरे जीते थे। वह हंसी।‘ तो तुम समझाती तो जरूर होगी लड़कियों को कि आज भी उस तरह की भले ही नहीं पर नैतिकता की जरूरत बाकी है, क्योंकि सेक्स को जेबखर्च और गिफ्ट कमाने का जरिया समझने पर भी, शादी के बाजार में लड़कियां आज भी उसी वीक ग्राउंड पर हैं, जिन पर हम खड़े थे ..‘आजकल की लड़कियों ने सब त्याग दिया है - पुरानी नैतिकता, पुराने वस्त्र, पुराने तौर-तरीके’..... वह लापरवाही से हंसी। शायद जुलूस में शामिल सब आगे बढ़ते, बड़े होते, अनुभवी और परिपक्व होते गए थे। मैं एक जगह खड़ी, अब तक उसी मानसिकता में जी रही थी.... ‘पर पुरुष तो मानसिकता में जस- के- तस हैं। लड़कियों को लेकर घूमते हैं, साथ सोते हैं, मस्ती करते हैं पर शादी की बात उठते ही खट् से परंपरावादी बनकर दहेज और अक्षत कौमार्य की बात करने लगते हैं।’ क्षण भर की असुरक्षा के बाद मैं दृढ़ता से अपने विचारों पर डट गई। मैं अपनी बेटी ब्याहने को थी और मुझे बाजार अच्छी तरह पता था। वह चुप लगा गई। ‘तुम किस अस्पताल में डॉक्टर हो?’, उसने बात बदलते हुए पूछा। ‘नहीं, डॉक्टर नहीं, इकॉनॉमिस्ट हूं।’ ‘ओह, अच्छा! मैंने तो बीच सेशन में ही कॉलेज छोड़ दिया था इसीलिए तुम्हारी कोई खबर मालूम नहीं।’ ‘मैं कई महिला संस्थाओं से भी जुड़ी हूं। एक बार एक कॉज को बीच में ही छोड़ दिया था। शायद उसी गिल्ट के मारे अब जिस भी केस को हाथ में लेती हूं, अंत तक पहुंचाकर ही मानती हूं।’ ‘ग्रेट यार!’, वह बिना इंटरेस्ट के बोली। ‘जी.वी वाले मामले में अचानक पीछे हट जाने के लिए मैंने खुद को कभी माफ नहीं किया, इसीलिए... अब पीछे नहीं हटती, डटी रहती हूं। ‘ओह, इंटरेस्टिंग।मुझे तो इन बातों में अब कोई रुचि नहीं रही। समाज अपनी गति से चल रहा है , मैं अपनी। जो होता है होता रहे.. मुद्दों को लेकर जिन्हें लड़ना- मरना हो, मरते रहें- मेरी बला से। मेरे पास न वक्त है, न इतना तनाव झेल पाने की हिम्मत!’ वह ऊबे भाव से बोली। मैं चौंकी। ‘ तो अब तुम पानी के किनारे खड़े होकर तैरने का आनंद लेने वालों में शामिल हो गई हो क्या!’, मैंने उसका व्यंग्य लौटाना चाहा जो सालों- साल मुझे छेदता रहा था।... पर नहीं। मैं अशोभन क्यों बोलूं? मैंने सोचा था कि पुराने जमाने की वह हिरोइन आज भी कुछ ऐसा जरूर कर रही होगी कि याद रहे कि वह अपने जमाने में क्या कुछ कर गुजरी है। वह तो समूह के लिए खतरा उठाने की हिम्मत रखने वालों में थी तो निःसंदेह आज महिला मामलों में कोई हस्ती होगी। जाने क्या- क्या सोचा था मैंने उसके बारे में पर... पर वह बदल गई थी। ‘और लतादी कैसी हैं? कहां हैं?’ मैं उत्सुकता रोक नहीं पाई। उसकी आंखें आश्चर्य से विस्फारित हो गईं। ‘अब यह सब मुझे कैसे मालूम होगा, बताओ!.. और क्यों मालूम रखना चाहिए मुझे?’ ‘क्यों कि तुम दोनों ने मिलकर एक जोत जलाई थी अन्याय के विरुद्ध.. तुम दोनों समान विचारों और कर्मों वाले थे, तुम आंदोलन में लतादी का दाहिना हाथ मानी जाने लगी थी, तो स्वाभाविक रूप में तुम दोनों समानधर्मा हो गए, इसीलिए’...‘लतादी के पति विदेश में रहते हैं ,तो स्वाभाविक रूप से वे भी वहीं होंगी। वे क्या करती हैं, क्यों करती हैं या कुछ करतीं क्यों नहीं, इससे मुझे कोई मतलब नहीं। साफ है कि इस देश में महिला मामलों में उनकी कोई हिस्सेदारी नहीं। वे अलग तरह का जीवन जी रही होंगी और उन्हें, मेरी तुम्हारी याद भी नहीं होगी। पर तुम हमदोनों के पीछे क्यों पड़ी हो? हम अब आवाज बुलंद नहीं करते, नहीं लगाते नारे-वारे.... तो तुम्हें क्या? तुम तब भी इरीटेटिंग थी, अब भी हो! शिट्’ .. वह मुड़ी और मेरी ओर पीठ किए खड़ी हो गई।
सुजाता वही थी, पर वह, वही सुजाता नहीं थी।... या सुजाता तो वही थी पर उसके प्रभामंडल से सहमी मैं, कॉलेज में उसे पहचान नहीं पाई थी।
हम दोनों वापस मुड़े। एक दूसरे से ठीक विपरीत दिशाओं में। अब हम दोनों गुजरते जुलूस के आर पार, दो अलग किनारों पर खड़े थे। अबकी जुलूस में शामिल होने की बारी मेरी थी और वह चुपके से निकल भागी थी। नहीं, वापस लौटते समय मेरे मन में ग्लानि पैदा करती अतीत की कोई गांठ नहीं थी।