एक ठग का पर्दाफ़ाश / फ़्रांज काफ़्का / अनिल जनविजय

Gadya Kosh से
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आख़िरकार रात दस बजे मैं उस ख़ूबसूरत घर के दरवाज़े पर पहुँच ही गई, जहाँ मेरे साथ-साथ एक ऐसे आदमी को भी बुलाया गया था, जिसे मैं थोड़ा-बहुत ही जानती थी। इस बार कुछ संयोग ऐसा हुआ कि हम साथ-साथ ही उस इलाके में पहुँचे और वो मुझे क़रीब दो घण्टे तक उस मौहल्ले की गलियों में इधर-उधर घसीटता रहा।

" तो ठीक है फिर ! " मैंने यह कहकर उसे यह जतलाने की कोशिश की कि मैं सचमुच, उससे विदा लेना चाहती हूँ। इससे पहले भी मैं इसी तरह से कुछ ढीले-ढाले तरीके से उससे छुटकारा पाने की कोशिश कर चुकी थी। आख़ुर उसके साथ घूमतए-घूमते मैं बहुत थक चुकी थी।

'क्या तुम अभी ऊपर जा रही हो?" उसने मुझसे पूछा। उसके मुँह से जैसे दाँत किटकिटाने की आवाज़ निकल रही थी।

“हाँ ! ’

जब मैं उससे मिली थी, तभी मैंने उसे यह बात बताई थी कि मुझे भी वहाँ जाना है और मुझे भी वहाँ बुलाया गया है। मेरी वहाँ जाने की बड़ी इच्छा है। मैं यहाँ इसलिए नहीं आई हूँ कि इस गेट के सामने खड़े रहकर मैं उसका मुँह ताकती रहूँ। मुझे लगने लगा था कि जैसे अब मैं उस जगह पर उसके साथ खड़े होकर लम्बा समय गुज़ारने और आसपास फैली ख़ामोशी को झेलने के लिए बाध्य हो गई हूँ।

हम लोग वहाँ ख़ामोश खड़े थे । हमारे आसपास के मकान और हमारे चारों ओर फैला अन्धेरा, जो ऊपर चमक रहे तारों तक फैला हुआ था, हमारी इस ख़ामोशी में शामिल हो गए थे। हालाँकि वहाँ से गुज़रने वाले अगोचर राहगीरों के क़दमों की बहुत धीमी-धीमी आहटें सुनाई दे रही थीं और ऐसा लग रहा था कि वहाँ एक ऐसी ख़ामोशी फैली हुई है, जिसे समझना मुश्किल है । गली के दूसरे छोर पर लगातार बहती हवा, किसी बन्द कमरे की खिड़की के पीछे से आ रही ग्रामोफ़ोन की धीमी आवाज़ — ये सब इस दुर्बोध सन्नाटे का दरवाज़ा ऐसे खटखटा रहे थे, मानो इस ख़ामोशी पर उनका ही अधिकार रहा है, और वह उनकी सम्पत्ति हो।

मेरे साथी ने पहले अपनी तरफ़ से — और फिर मुसकुराकर जैसे मेरी सहमति से भी — अपना दाहिना हाथ दीवार से सटाकर ऊपर की तरफ़ फैलाया और फिर आँखें बंद करके अपना चेहरा दीवार से टिका दिया।

लेकिन मैं उसकी मुसकान आख़िर तक नहीं देख पाई थी क्योंकि अचानक मुझे शर्म का एहसास होने लगा था और मैंने अपना चेहरा पीछे की तरफ़ मोड़ लिया था। बस, इसी मुस्कान से मुझे यह एहसास हुआ कि यह आदमी एक मक्क़ार ठग और फ़रेबी है और इसके अलावा वह कुछ नहीं है। तब मैंने यह फ़ैसला किया कि मैं उसकी मुसकुराहट ख़त्म होने का इन्तज़ार नहीं करूँगा। यह आदमी अपने आत्मविश्वास को बनाए रखने के लिए मुसकुरा रहा है और इसकी यह मुसकुराहट नक़ली है।

मैंने सोचा कि मैं तो महीनों से इस शहर में हूँ और इस जैसे फ़रेबियों के बारे में  मुझे सब कुछ मालूम है कि वे लोग किस तरह से रात में निधड़क होकर सराय के रखवालों का रूप धरकर हमसे मिलने आते हैं और किस तरह से वे उस विज्ञापनपट्ट का चक्कर लगाते हैं, जिसके क़रीब ही हम खड़े थे । इस तरह वे हमारे साथ मानो लुकाछुपी का खेल खेलते हैं। उनकी एक आँख हमेशा हमारे ऊपर रहती है और इस तरह से वे हमारी जासूसी करते हैं। वे अचानक ही हमारी गली में घूमते-फिरते दिखाई देने लगते हैं, फिर वे हमारे घर की सीढ़ियों की रेलिंग पर पहुँच जाते हैं और हम उनके क़रीब जाएं या न जाएँ, यह सोचते हुए हिचकिचाते ही रह जाते हैं। 

मैं उन्हें अच्छी तरह जानता था । इस शहर की सराय में सबसे पहले मेरा परिचय उनसे ही हुआ था। जब मैंने उन्हें देखा था तो शुरू में उन्होंने मेरे प्रति बड़ा कठोर रवैया अपनाया। उनके चेहरे पर झलकने वाली सख़्ती का भाव देखकर मैं उनसे दूर-दूर रहने लगा। हालाँकि अब मैं अब उन्हें ख़ूब अच्छी तरह जानता हूँ। चाहे वे इस दुनिया में कहीं भी हों, मैं उन्हें तुरन्त पहचान जाऊँगा। अब मैं उनसे प्रभावित नहीं होता। वैसे भी इन लोगों से कुछ भी उम्मीद करना बेकार है। जब मैं उन्हें अच्छी तरह से समझने लगा, तब भी उन्होंने अपना काम छोड़ने और अपनी हार मानने से इनकार कर दिया। वे वैसे ही अपने काम में लगे रहे। उनके तौर-तरीके वैसे ही रहे। उनके किस प्रकार उन्होंने इस आदत को छोड़ने, अपनी हार मानने से मना कर दिया, बल्कि बहुत दूर से भी हमारे ऊपर नजर लगाए हुए थे और उनके साधन वही थे । वे हमारे सामने ही सारी योजनाएँ बनाते, जहाँ तक नजर जाती देखने, जहाँ हमारा लक्ष्य होता वहाँ हमें जाने से रोकते हैं, बल्कि अपने निकट ही हमारे ठहरने की व्यवस्था करते हैं और अंततः जब हम उनके व्यवहार का विरोध करते हैं तो वे सहज ही उसे स्वीकार करते हैं।

इस व्यक्ति की संगति में मुझे उस पुराने खेल को समझने में इतना लंबा समय लगा। इस अपमान से उबरने के लिए मैंने अपनी उँगलियों के सिरों को रगड़ा ।

मेरा साथी अभी भी वहाँ वैसे ही झुका हुआ था और स्वयं को एक सफल धोखेबाज समझ रहा था तथा यह आत्म संतुष्टि उसके गालों पर स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी ।

कंधे से पकड़ते हुए मैंने कहा, " पकड़ा गया !" तब मैं दौड़ता हुआ सीढ़ियों पर गया तथा नौकर के चेहरे पर अरुचिपूर्ण भक्ति देखकर मैं खुश हो गया। मैंने एक के बाद एक सब पर नजर डाली, जबकि उन्होंने मेरा कोट उतारा और मेरे जूते साफ किए । राहत की गहरी साँस लेते हुए तथा अपने आपको पूरी तरह खींचते हुए मैंने ड्रांइग रूम में प्रवेश किया।

मूल जर्मन से अनुवाद: अनिल जनविजय अब लीजिए, यही कहानी मूल जर्मन भाषा में पढ़िए

                                      Franz Kafka
                     Entlarvung eines Bauernfängers

Endlich gegen zehn Uhr abends kam ich mit einem mir von früher nur flüchtig bekannten Mann, der sich mir diesmal unversehens wieder angeschlossen und mich zwei Stunden lang in den Gassen herumgezogen hatte, vor dem herrschaftlichen Hause an, in das ich zu einer Gesellschaft geladen war.

„So!“ sagte ich und klatschte in die Hände zum Zeichen der unbedingten Notwendigkeit des Abschieds. Weniger bestimmte Versuche hatte ich schon einige gemacht. Ich war schon ganz müde. „Gehn Sie gleich hinauf?“ fragte er. In seinem Munde hörte ich ein Geräusch wie vom Aneinanderschlagen der Zähne.

„Ja.“

Ich war doch eingeladen, ich hatte es ihm gleich gesagt. Aber ich war eingeladen, hinaufzukommen, wo ich schon so gerne gewesen wäre, und nicht hier unten vor dem Tor zu stehn und an den Ohren meines Gegenübers vorüberzuschauen. Und jetzt noch mit ihm stumm zu werden, als seien wir zu einem langen Aufenthalt auf diesem Fleck entschlossen. Dabei nahmen an diesem Schweigen gleich die Häuser ringsherum ihren Anteil, und das Dunkel über ihnen bis zu den Sternen. Und die Schritte unsichtbarer Spaziergänger, deren Wege zu erraten man nicht Lust hatte, der Wind, der immer wieder an die gegenüberliegende Straßenseite sich drückte, ein Grammophon, das gegen die geschlossenen Fenster irgendeines Zimmers sang, — sie ließen aus diesem Schweigen sich hören, als sei es ihr Eigentum seit jeher und für immer.

Und mein Begleiter fügte sich in seinem und — nach einem Lächeln — auch in meinem Namen, streckte die Mauer entlang den rechten Arm aufwärts und lehnte sein Gesicht, die Augen schließend, an ihn.

Doch dieses Lächeln sah ich nicht mehr ganz zu Ende, denn Scham drehte mich plötzlich herum. Erst an diesem Lächeln also hatte ich erkannt, daß das ein Bauernfänger war, nichts weiter. Und ich war doch schon monatelang in dieser Stadt, hatte geglaubt, diese Bauernfänger durch und durch zu kennen, wie sie bei Nacht aus Seitenstraßen, die Hände vorgestreckt, wie Gastwirte uns entgegentreten, wie sie sich um die Anschlagsäule, bei der wir stehen, herumdrücken, wie zum Versteckenspielen und hinter der Säulenrundung hervor zumindest mit einem Auge spionieren, wie sie in Straßenkreuzungen, wenn wir ängstlich werden, auf einmal vor uns schweben auf der Kante unseres Trottoirs! Ich verstand sie doch so gut, sie waren ja meine ersten städtischen Bekannten in den kleinen Wirtshäusern gewesen, und ich verdankte ihnen den ersten Anblick einer Unnachgiebigkeit, die ich mir jetzt so wenig von der Erde wegdenken konnte, daß ich sie schon in mir zu fühlen begann. Wie standen sie einem noch gegenüber, selbst wenn man ihnen schon längst entlaufen war, wenn es also längst nichts mehr zu fangen gab! Wie setzten sie sich nicht, wie fielen sie nicht hin, sondern sahen einen mit Blicken an, die noch immer, wenn auch nur aus der Ferne, überzeugten! Und ihre Mittel waren stets die gleichen: Sie stellten sich vor uns hin, so breit sie konnten; suchten uns abzuhalten von dort, wohin wir strebten; bereiteten uns zum Ersatz eine Wohnung in ihrer eigenen Brust, und bäumte sich endlich das gesammelte Gefühl in uns auf, nahmen sie es als Umarmung, in die sie sich warfen, das Gesicht voran.

Und diese alten Späße hatte ich diesmal erst nach so langem Beisammensein erkannt. Ich zerrieb mir die Fingerspitzen aneinander, um die Schande ungeschehen zu machen.

Mein Mann aber lehnte hier noch wie früher, hielt sich noch immer für einen Bauernfänger, und die Zufriedenheit mit seinem Schicksal rötete ihm die freie Wange.

„Erkannt!“ sagte ich und klopfte ihm noch leicht auf die Schulter. Dann eilte ich die Treppe hinauf, und die so grundlos treuen Gesichter der Dienerschaft oben im Vorzimmer freuten mich wie eine schöne Überraschung. Ich sah sie alle der Reihe nach an, während man mir den Mantel abnahm und die Stiefel abstaubte. Aufatmend und langgestreckt betrat ich dann den Saal.