एक था रामू / अशोक सेकसरिया

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दिल्‍ली में संसद सदस्‍यों के बड़े बँगलों के पीछे छोटी-छोटी गलियाँ हैं। इनमें छोटी-छोटी झुग्गियों में धोबी, घरेलू नौकर, शाक-सब्‍जी बेचने वाले, कबाड़ी और तरह-तरह के छोटे-मोटे काम करने वाले लोग रहते हैं। लोग हुए तो पता नहीं कुत्‍ते कहाँ से आकर बस जाते हैं। सो, इन गलियों में भी कुत्‍ते काफी थे। मैं जिस गली में रहता था उसमें भी पाँच-छह कुत्‍ते थे। वे सारे दिन गली में रहते लेकिन रात आठ-नौ बजे के बाद बँगलों वाली सड़क पर चले आते। कभी-कभी तो कई गलियों के कुत्‍ते एक ही सड़क पर जमा हो जाते। तब ऐसा लगता कि उनकी कोई बड़ी मीटिंग होने वाली है। रात को कुत्‍तों के कारण सड़क पर चलने में डर लगता था कि कहीं कोई काट बैठा तो भारी मोटी सुई लगवाने के लिए डॉक्‍टर के पास जाना पड़ जाएगा। मैं कुत्‍तों से बहुत डरता हूँ, सो रात में पास में हरदम छोटा-मोटा डण्‍डा या छड़ी रखता था। भूल जाने पर किसी पेड़ की डाल तोड़ लेता और उसे घुमाते-घुमाते कुत्‍तों से बचता हुआ तेजी-से सड़क से गुजर जाता।

यह सब रामू की कहानी लिखते हुए एकदम याद आ गया सो लिख दिया। रामू हमारी गली का एक कुत्‍ता था। बहुत दिनों तक तो मैं उसे पहचानता भी नहीं था। जब उससे पहचान और फिर दोस्‍ती हुई तो उसे रामू कह कर बुलाने लगा। उससे जिस दिन पहचान हुई उस दिन बहुत कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा था। जितने भी कपड़े मेरे पास थे मैंने सब पहन लिए थे। एक पायजामे के ऊपर दूसरा पायजामा उस पर तीसरा पायजामा। फिर भी ठण्‍ड से टाँगें काँप रही थीं। बहुत हिम्‍मत कर रजाई से बाहर निकला था। मुँह से लगातार भाप निकल रही थी। गली से सटा हुआ ही मेरा दफ्तर था। एक बँगले के पिछवाड़े में। दफ्तर क्‍या था, एक छोटा-सा कमरा था और उसके बलग में दो छोटी-सी कोठरियाँ थीं। सुबह नौ बजे से दोपहर एक बजे तक मुझे काम करना पड़ता था। उस दिन नौ बजे जब मैं दफ्तर पहुँचा तो देखता हूँ कि बगल की कोठरी में एक कुत्‍ता दुबका पड़ा है। उसके पेट पर चार-पाँच इंच गहरा जख्‍म है जिसमें से कुछ लाल-लाल-सा दिखाई पड़ रहा है - शायद अँतड़ियाँ हों। देखकर लगा कि कुत्‍ता थोड़ी देर में मर जाएगा। दुबले-पतले, मरियल बादामी रंग के इस कुत्‍ते को देखकर आँखें फेर लेने की इच्‍छा हुई। दफ्तर से एकदम भाग जाने का मन हुआ। क्‍या किया जाए? मारकर भगाने जैसी बेरहमी की बात मन में आई। पर फिर लगा यह तो बहुत ज्‍यादती होगी। राक्षसों जैसी निर्दयता हो जाएगी। मैंने जाकर दफ्तर के मैनेजर को बताया तो वह बोला, पड़े रहने दो, मर जाएगा तब देखा जाएगा। उस दिन दफ्तर में काम ज्‍यादा नहीं था ओर मुझे छूट थी कि अगर पास में काम न हो तो पहले भी जा सकता हूँ। शायद बगल की कोठरी में मरते हुए कुत्‍ते से भागने के ख्‍याल से ही मैं दस बजे ही दफ्तर से निकल गया।

दूसरे दिन सुबह नौ बजे जब दफ्तर पहुँचा तो मैंने सोच रखा था कि कुत्‍ता मर गया होगा और मैनेजर ने कमेटी वालों को फोन कर उसे हटवा दिया होगा। लेकिन कुत्‍ता उसी कोठरी में था और जाड़े में दुबका पड़ा धीरे-धीरे साँस ले रहा था। मैंने उसे एक बार देखा, क्‍या बला आ गई!" दफ्तर के कमरे में आकर टाइपराइटर पर पड़ी धूल को झाड़ा। उँगलियों को बार-बार रगड़कर और मरोड़कर टाइपराइटर खटखटाने लायक गरम किया और एम.पी. साहब की चिट्ठियाँ टाइप करने लगा।

कुत्‍ता लेकिन मरा नहीं। किसी ने उसका इलाज नहीं किया और न ही शायद खाना दिया। शायद इसलिए लिखा कि गली का कोई बच्‍चा उसे कुछ खिला गया हो तो पता नहीं। बस अब सुबह दफ्तर पहुँचने पर मैं कुत्‍ते को एक बार देख लेता था कि वह जिन्‍दा है या मरा। धीरे-धीरे उसका जख्‍म ठीक होने लगा। कमजोरी के मारे वह चल-फिर तक नहीं सकता था। उसे ठीक होते पहली बार मेरे मन में उसके लिए दया उपजी। मैंने गली की दुकान से एक पाव-रोटी और चार बिस्‍कुट लाकर उसके सामने रख दिए और दफ्तर में काम करने लगा। एक बजे दफ्तर से निकलते समय देखा कि कुत्‍ते ने चारों बिस्‍कुट खा लिए हैं और पाव-रोटी आधी कुतरी हुई पड़ी है। इसके बाद से मैं रोज उसको बिस्‍कुट और पाव-रोटी खिलाने लगा। वह थोड़ा चलने-फिरने भी लगा। दो-तीन दिन बाद से वह मेरे दफ्तर के कमरे के सामने आकर बैठने लगा। मैं उठता तो मेरे साथ लग लेता। धीरे-धीरे एम.पी. साहब को और उनके स्‍टाफ को वह खटकने लगा, यह क्‍या पाल लिया है!" मैनेजर ने एक दिन कहा कि अब इसने यहाँ कदम रखा तो इसकी खैर नहीं। लेकिन मैंने सब लोगों को किसी तरह राजी कर लिया कि जब तक मैं दफ्तर में रहूँगा तक तक वह मेरे साथ रह सकता है।

एक दफा रात का शो देखकर मैं अपनी कोठरी में लौटा। अभी बत्ती जलाकर खाट पर बैठा ही था कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आई। मैंने कोठरी खोली तो देखा कि वह कुत्‍ता दरवाजे पर खड़ा था। मेरा मन एकदम-से-भर आया। अनजाने शहर में और फिर दिल्‍ली जैसी आदमी के आदमी को काट खाने वाली जगह में कोई रात एक बजे मेरे पास आया हो तो उसको दुत्‍कारा नहीं जा सकता - दुलारा ही जा सकता है। मैंने उसे थपथपाते हुए कहा कि तू मेरा सच्‍चा दोस्‍त और हमदर्द है। दोस्‍त का नाम होना चाहिए सो मैंने उसे रामू कहना शुरू कर दिया। रात जैसे ही मेरी कोठरी की बती जलती एकाध मिनट में रामू हाजिर हो जाता। मैं दरवाजा खुला रखने लगा। पहले दिन जब उसने दरवाजे पर अपने पंजों से वार किया था तो मुझे लगा था कि सचमुच ही कोई आदमी दरवाजा खटखटा रहा है। पंजों की आवाज खटखटाने की आवाज से जरूर अलग होती होगी पर मुझे दरवाजे पर रामू का पंजा मारना हमेशा आदमी के खटखटाने जैसा ही लगता था। रात को रामू आता तो उसकी खातिर करने के लिए मैं कोठरी में बिस्‍कुट और पाव-रोटी रखने लगा। कभी-कभी मैं भी उसके साथ तीन-चार बिस्‍कुट खा लेता।

रामू की दोस्‍ती से एक मुसीबत पैदा हो गई। दोपहर एक बजे जब मैं दफ्तर से निकलकर होटल में खाना खाने जाता तो रामू मेरा साथ नहीं छोड़ता। उससे छुटकारा पाना बहुत मुश्किल हो गया था। रोज मुझे कोई न कोई तरकीब ढूँढ़नी पड़ती थी कि दफ्तर से निकलते समय वह सामने न रहे। इस तरह दिन बीत रहे थे। दोपहर एक बजे से रात दस बजे तक मैं बाहर ही रहता था।

हमारी गली में शाक-सब्‍जी बेचने वाले रतनलाल का 15-16 साल का बेटा भारत भूषण बस स्टैण्ड पर मूँगफली बेचा करता था। एक दिन जल्‍दी घर लौटा तो देखा कि रामू भारत भूषण के खोमचे के पास बैठा है। भारत भूषण ने बताया कि मेरे चले जाने के बाद टाइगर उसके पास आ जाता था। भारत भूषण ने रामू को टाइगर नाम दिया था।

तो रामू सुबह एक बजे तक मेरे पास और फिर आठ बजे तक भारत भूषण के पास रहता था। उसकी जिन्दगी ठीक ही चल रही मालूम होती थी। रविवार को मुझे दफ्तर नहीं जाना होता था सो रामू मेरी कोठरी में चला आता। हम साथ-साथ बस स्टैण्ड जाते जहाँ वह भारत भूषण के पास रह जाता और मैं बस पकड़कर बाहर चला जाता। एक-दो बार उसने मेरे साथ बस पकड़ने की कोशिश की तो मैंने और भारत भूषण ने उसे बहुत डॉटा, थोड़ा मारा भी। तो उसने कोशिश बन्‍द कर दी।

बस पकड़ने के पहले मैं और भारत भूषण हर रविवार को एक खेल खेलते थे। एक छोर पर मैं खड़ा हो जाता और दूसरे पर भारत भूषण। मैं रामू कहकर पुकारता तो वह मेरी तरफ दौड़ा आता लेकिन बीच ही में भारत भूषण टाइगर कहकर बुलाता तो पलटकर उसकी तरफ दौड़ने लगता। हम उसे किसी के भी पास पहुँचने नहीं देते। बारी-बारी से रामू और टाइगर की पुकार के कारण बेचारा तय नहीं कर पाता कि किसके पास जाए। खेल पन्‍द्रह-बीस मिनट चलता होगा। इसमें रामू न जाने कितने फेरे लगाता होगा। जब हमें लगता कि वह बहुत थक गया होगा या हम ही थक गए हैं तब खेल बन्‍द कर देते।

रामू को इस तरह परेशान करते वक्‍त मुझे अचानक उस बदमाश लड़के का ख्‍याल आया जिसे मैंने एक-डेढ़ महीने टशूशन पढ़ाया था। वह लड़का दस-बारह बरस का होगा। उसके घर में उसी की उमर का एक नौकर था। बदमाश लड़का नौकर को कहता, पानी लाओ। जैसे ही वह पानी लेने जाता, कहता, बस्‍ता ले आओ। बेचारा लड़का यहाँ से वहाँ दौड़ता परेशान होता रहता। मैंने उस बदमाश लड़के को कई बार डाँटा पर वह अपनी इस आदत से बाज नहीं आया। एक दिन मुझे इतना गुस्‍सा आया कि मैंने उसे तड़ातड़ दो चाँटे रसीद किए और कहा कि उसे आगे से नहीं पढ़ाऊँगा। लेकिन रामू को कभी ख्‍याल भी नहीं आया होगा कि वह मुझे या भारत भूषण को इस तरह परेशान करने के बदले में मारे या काट खाए। उस बदमाश लड़के का ख्‍याल आने पर मुझे लगा कि मैं भी कोई कम बदमाश नहीं। लेकिन रामू को परेशान करने से फिर भी बाज नहीं आया। शायद मैं सोच रहा था कि किसी दिन रामू खुद-ब-खुद खेल में शामिल होना बन्‍द कर देगा। जब मैं बस पर चढ़ता तो सोचता था कि अगली बार यह खेल नहीं खेलूँगा, पर मैं जो सोचता हूँ उसे सौ में निन्‍यानवे बार नहीं कर पाता।

रामू से दोस्‍ती हुए एक-डेढ़ साल हो गए थे। समय बीत रहा था। एक दिन घर से तार आया कि पिताजी बीमार हैं मैं तुरन्‍त घर चला आऊँ। मैंने दफ्तर से छुट्टी ली, सामान बाँधा और स्‍कूटर कर स्‍टेशन रवाना हुआ। रामू ने मुझे देख लिया था। उसने काफी दूर तक स्‍कूटर का पीछा भी किया। मैंने उसे थपथपाया और कहा कि मैं जल्‍द ही लौटूँगा। ट्रेन में बैठने के बाद ख्‍याल आया कि गली के दुकानदार को मुझे दस-पन्‍द्रह रूपए दे देने चाहिए थे ताकि वह रामू को मेरे न लौटने तक रोज बिस्‍कुट खिला देता। लेकिन अब वापस तो लौटा नहीं जा सकता था!

पिताजी की बीमारी ठीक नहीं हुई। मुझे लगातार छुट्टी बढ़ानी पड़ी। तीन महीने बाद उनकी मृत्‍यु हो गई। कुछ दिनों बाद एम.पी. साहब ने मुझे खबर कर दी कि वे दफ्तर बन्‍द कर रहे हैं सो मेरा आना जरूरी नहीं है। मैं तीन बरस बाद दिल्‍ली लौटा। इन तीन बरसों में कभी दिल्‍ली के किसी अखबार में पढ़ा था कि नई दिल्‍ली में लावारिस कुत्‍तों को कमेटी वाले पकड़-पकड़कर अपनी गाड़ियों में ले आते हैं और उन्‍हें मार डालते हैं। खबर पढ़कर रामू का बहुत ख्‍याल आया और मन ही मन मैंने प्रार्थना की कि रामू कमेटी वालों की पकड़ में नहीं आए। यह भी सोचा कि भारत भूषण तो है ही वह रामू को ऐसे ही मर जाने नहीं देगा। अब दिल्‍ली लौटने पर एम.पी. लोगों के बँगलों से बहुत दूर किराए पर एक कमरा मिला। जिस नए दफ्तर में मेरी नौकरी लगी वह और भी दूर था। सुबह से शाम तक काम करते-करते मैं थक जाता था। रविवार के दिन सप्‍ताह भर के अपने कपड़े धोता और घर के छिटपुट काम करता। कहीं बाहर जाने पर पैसे खर्च होंगे, सोचकर शाम को घर में ही रह जाता। एक रविवार मैंने बाहर निकलना तय किया। घूमते-घूमते एम.पी. लोगों के बँगलों के पास पहुँच गया। बस स्टैण्ड पर भारत भूषण के बारे में पूछा तो कोई भी कुछ नहीं बता सका।

अपनी पुरानी गली में गया। भारत भूषण के पिता रतनलाल से मिला। रतनलाल ने बताया कि भारत भूषण चण्‍डीगढ़ में एक कैन्‍टीन में दो बरस से नौकरी कर रहा है। रामू के बारे में पूछा तो रतनलाल को उसका कुछ भी पता नहीं था। सात-आठ साल का एक लड़का हमारी बातचीत सुन रहा था। उसने बताया कि भारत भूषण के कुत्‍ते टाइगर को कमेटी वाले ले गए थे। कब ले गए थे यह मैंने नहीं पूछा। लड़का जो बताता उससे बहुत पता नहीं लगता।

मैं चुपचाप घर लौट आया। उस रात मुझे चार-पाँच बार लगा कि कोई मेरा दरवाजा खटखटा रहा है। एक बार उठा तो कोई नहीं था। फिर उठा नहीं और जाने कब सो गया।