एक था शहर लखनऊ / कुमार रवीन्द्र
लखनऊ मेरा शहर है - जन्मजात और संस्कारगत। हाँ, मैं वहीं जन्मा, वहीं पला-बढ़ा, हालाँकि मैं ज़वानी के बाद वहाँ रहने से वंचित हो गया। धुर ज़वानी में मैं उसे छोड़कर सुदूर पंजाब-हरियाणा की भूमियों का प्रवासी हो गया। अपनी एक ज़िद की वज़ह से कि मुझे प्राध्यापक ही बनना है। वह ज़िद भी लखनऊ ने ही दी थी मुझे। पढ़ाई के दौरान ही मेरे मन में डिग्री कक्षाओं को पढ़ाने की धुन समा गयी थी और वह इच्छा पूरी करने हेतु मुझे अंततः अपनी जन्मभूमि और संस्कारधानी लखनऊ को त्यागना पड़ा। कुछ मेरी सीमाएँ, कुछ वक्त की मज़बूरियाँ। आज आधी सदी से भी ज़्यादा वक्त गुज़र चुका है उस बात को। लखनऊ के लिए मैं अब बाहरी व्यक्ति यानी परदेसी हो चुका हूँ। मेरे लिए भी आज का लखनऊ अज़नबी हो चुका है। आज का लखनऊ वह नहीं है, जिसे मैं जानता-पहचानता था, अपना मानता था। वह लखनऊ था युगों पुरानी स्मृतियों का यानी भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण द्वारा स्थापित और बसाई हुई त्रेतायुग की लक्ष्मणपुरी नगरी अथवा आज के समय के नज़दीक का यानी पिछली पीढ़ी तक क़ायम नवाबी तहज़ीब का, खरामा-खरामा चलती जीवन शैली का, नफ़ीस बोली-बानी का, फुर्सत से सोचने-समझने का, पतंगबाज़ी-कबूतरबाजी जैसे शौकों का या फिर उस जीवन शैली के प्रतीक दुलकी चाल से सड़कों की दूरी को नापते घोड़ों का, आराम से चलते इक्के-ताँगों का। हाँ, अपने बचपन से लेकर ज़वानी की उठान तक के समय में मैंने उसी लखनऊ को जिया था। उस लखनऊ को मैं अपनी बाइसिकिल से नाप सकता था, हालाँकि उस समय तक भी कई नए इलाकों की बसाहट होने लगी थी, शहर का फैलाव कानपुर रोड की ओर होने लगा था और ज़िंदगी की भागदौड़ के दबाव महसूस होने लगे थे। वह लखनऊ न तो गोमती-पार था और न ही सीतापुर रोड, बाराबंकी रोड या रायबरेली रोड की ओर अपने पाँव पसार पाया था। यानी कि लखनऊ लखनऊ था न कि आज के किसी भी अन्य बड़े शहर जैसा।
लखनऊ राजधानी शहर तो था, पर उसका राजधानी होना तब राज्यपाल निवास, मुख्यमंत्री निवास और सचिवालय तक ही सीमित था और उनके आसपास से गुज़रने की, उनमें आने-जाने की कोई विशेष रोक-टोक भी नहीं थी। मेरे लखनऊ छोड़ने तक यानी ईस्वी सन १९६१ तक स्वतंत्रता के बाद के नई-नई आज़ादी के एक मीठे एहसास से हम सभी भरे हुए थे । उसी की महक थी तब लखनऊ में। हाँ, एक नए राष्ट्र के जन्म का, एक नए सूरज के उगने का एहसास था उस वक्त की आबोहवा में। हम युवा लोग अपनी साँसों में, अपनी रग-रग में उस रोमांस को महसूस करते थे पूरी शिद्द्त से, पूरे उत्साह से। पूरा भारत तब हमारा था, हम सब का था। लखनवी होने पर हमको गर्व था, क्योंकि तब लखनऊ. को अंग्रेजों के यूनाइटेड प्रोविन्सेज़ से नए भारत के एक प्रमुख प्रान्त उत्तरप्रदेश की राजधानी बने बहुत समय नहीं बीता था। इसी के साथ एक और विशेष उत्तरदायित्त्व का एहसास भी हमारे मन में था। देश के प्रधानमंत्री भी तो उत्तरप्रदेश के ही थे और आज़ादी की लड़ाई में हमारे प्रदेश का बहुत ही अहम स्थान रहा था। लखनऊ के अमीनाबाद का अमीरुद्दौला पार्क और कई अन्य स्थान उस स्वतंत्रता संग्राम के गवाह थे। हाँ, भारत के नए इतिहास का लखनऊ भी एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा था। नेहरू जी यानी हमारे प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू को अपनी जन्म एवं कर्मभूमि इलाहाबाद के अलावा लखनऊ से भी विशेष लगाव था और वे उस वक्त की हमारी युवा पीढ़ी के डार्लिंग नेता थे। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, जवाहरलाल नेहरू और जयप्रकाश जी की संयुक्त छवियाँ तब हमारे घरों में टँगे कैलेंडरों की विशेषता हुआ करती थी और हम सब उनके जैसे बनने की कल्पना से अनुप्राणित होते थे। मैंने जिस लखनऊ को छोड़ा था, वह आज़ादी की लड़ाई के समय के आदर्शों से प्रेरित और अनुप्राणित था। स्वाधीनता का नया सूरज अभी उठान पर था और उसकी ऊष्मा से हम सब भरे हुए थे। नेहरू जी की एक अंतर्राष्ट्रीय छवि बन चुकी थी और गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के एक प्रमुख कर्णधार और एक युवा राष्ट्र के नियन्ता के रूप में वे पूरे विश्व में सम्मानित थे। यह नहीं कि सब कुछ ठीक था, किन्तु अभी मोहभंग का कालखण्ड शुरू नहीं हुआ था। वैसे हमसे पहले की पीढ़ी नेहरू की नीतियों से संतुष्ट नहीं थी और देश की समस्याओं से अधिक अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति उनकी विशेष रुझान से आशंकित भी, किन्तु हम युवा अभी भी नई आशा और अपेक्षाओं को सँजोये हुए थे। नेहरू भी तब तक समर्थ और सक्षम दिखते थे। अभी हिंदी-चीनी भाई भाई का माहौल था और १९६२ के हिन्द-चीन युद्ध की कोई आशंका दूर-दूर तक क्षितिज पर नहीं लगती थी। यह नहीं कि व्यक्तिगत समस्याएँ और संघर्ष नहीं थे, किन्तु हमारी समग्र मानसिकता तब तक गांधीवादी आदर्शों से विचलित नहीं हुई थी। हमारे स्थानीय नेता भी उन सादगी और स्वानुशासन के आदर्शों को अपने व्यक्तिगत जीवन में बनाये रखने को सचेष्ट दिखते थे। अभी आमजन से उनका जुड़ाव पूरी तरह छिन्न-भिन्न नहीं हुआ था। उसी से हम युवा लोगों की भी मानसिकता आदर्शोन्मुख बनी हुई थी। उस वक्त के मुख्य मंत्री श्री सम्पूर्णानन्द, प्रदेश के वित्त मंत्री श्री चन्द्रभानु गुप्त आदि से लखनऊ विश्वविद्यालय के शोध छात्र के रूप में मिलने का मुझे इत्तिफ़ाक़ हुआ और मैंने उन्हें किसी भी आज के नेता के जैसे आडंबर से मुक्त पाया।
हाँ, लखनऊ तब गली-मोहल्लों का शहर था और उसी में रची-बसी थी लखनऊ की ख़ासियत को दरशाती उसकी विशेष तहज़ीब यानी सहज आपसदारी और मिलनसारी। उस तहज़ीब का ही हिस्सा थे शीरीं ज़बान यानी एक विशिष्ट मिठासभरा बातचीत और बोली-बानी का लहज़ा तथा तकल्लुफ़ी अंदाज़, फुर्सत से जीने, रहने-सहने का तरीका। उस तहज़ीब में शामिल होकर अज़नबी भी अपने हो जाते थे। मुझे याद है ईस्वी सन १९५२ में जब हाथरस से पाँच साल के अंतराल पर माँ के साथ हम बच्चे लखनऊ वापस लौटे और पुराने लखनऊ के ऐसे ही एक मोहल्ले यहियागंज के कूचा कायस्थान में बंद गली के अंतिम सिरे पर बने एक पुराने बोसीदा मकान में किराये के लिए रहने आये, तो बाबूजी के उत्तरप्रदेश के बिहार सीमा पर स्थित सुदूर देवरिया जिले के बरहज बाज़ार ट्रांसफर होकर जाने के बावजूद हमें कोई असुविधा नहीं हुई। विधवा मकान मालकिन के अलावा पास-पड़ोस के सभी पुराने पुश्तैनी बाशिंदों ने भी हमें बिलकुल घर के लोगों की तरह अपना लिया। वहाँ क़रीब पंद्रह साल रहने के बाद जब बाबू जी ने रकाबगंज कुण्डरी के पास की कॉलोनी शास्त्रीनगर में अपना घर बनाया और हम उसमें जाने लगे तो हमें यों लगा कि जैसे हम एक-बार फिर परदेसी हो रहे हैं। बिलकुल घरेलू संबंध हो चुके थे वहाँ रहने वाले सभी लोगों से। वे लोग तब तक हमारे सगे चाचा-चाची, भाई-भाभी आदि बन चुके थे। यह आपसदारी पिछली पीढ़ी की शायद ख़ासियत थी, जिसे आज की कॉलोनियों में हम कहीं नहीं पाते हैं।
गली-गली दूर-दूर के फासले भी बड़ी सहजता से तय हो जाते हैं। बचपन में हम राजाबाजार के जिस इलाके में रहते थे, उसके साथ ही लगा हुआ था मुस्लिम-बहुल पाटानाला का मोहल्ला, जिसके बीच से गली-गली गुज़रकर चौक तक का रास्ता बड़ी आसानी से तय हो जाता था। गर्मियों में विशेष रूप से ऐसा करना अधिक सुविधाजनक होता था, क्योंकि सूर्यदेव का ताप उन सँकरी गलियों को अक्सर भेद नहीं पाता था और दोनों ओर शाना-ब-शाना खड़े मकानों की आड़ में चलने से उससे बचाव भी बना रहता था। एक और बात सड़क-सड़क जो लम्बी दूरियाँ होती थीं, वे भी गली-गली के 'शार्टकट' से नज़दीक हो जाती थीं। वैसे उस ज़माने में यातायात के साधन भी सीमित थे और लोगों की पैदल चलने की आदत भी थी। मैंने अपने लड़कपन की उम्र में गर्मियों की भरी दोपहरी में राजाबाजार से चौक में स्थित मेडिकल कॉलेज या विक्टोरिया पार्क की दूरियाँ कई बार इन्हीं गलियों के सहारे नापी थीं। बाद में गवर्नमेंट जुबिली कॉलेज में पढ़त के दिनों में भी कॉलेज से गली-गली ही कायस्थों वाली गली में स्थित अपने उन दिनों के आवास तक आने-जाने में हमें कोई असुविधा नहीं होती थी। दोस्तों के साथ बतियाते कब रास्ता पार हो जाता था पता ही नहीं चलता था।
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लखनऊ के नवाब ईरान से आये शिया मुसलमान थे और उनके तीखे नाक-नक्श, दूध में सिंदूर की हल्की मिलावट से उपजी आभा देता उनका गोरा रंग, उनकी नफासत और नज़ाकत, उनकी शाइस्तगी और सधी हुई साफ़-सुथरी और शालीन तक़ल्लुफ़ी बोली-बानी उन्हें लखनऊ की आम पब्लिक से तो अलगाती थी, पर उसका असर कहीं गहरे लखनऊ की आबोहवा में घुल गया था और उसकी बानगी आम इक्के-ताँगे वालों तक की बतियाहट में मिलती थी। गवर्नमेंट जुबिली कॉलेज में हमारे अर्थशास्त्र के अध्यापक थे इज़लाल अहमद खान साहब, जो शिया मुसलमान थे और अपने विषय के उस्ताद होने के साथ अपनी ईरानी रंगत और खूबसूरती एवं अपनी बोली-बानी की मिठास की वज़ह से हम सब के चहेते थे। लखनऊ के शिया मुसलमान वहाँ के सुन्नी मुसलमानों के मुकाबले में ऊंचे तबके के, अधिक पढ़े-लिखे, सुसभ्य एवं सुसंस्कृत थे। नवाबी वक्त के तीनों इमामबाड़े यानी बड़ा इमामबाड़ा, छोटा इमामबाड़ा और शाहनज़फ का इमामबाड़ा उस युग की दास्ताँ कहते थे, जब यह कहावत बनी और मशहूर हुई थी कि 'जिसको न दे मौला उसको दे आसफ़ुद्दौला'। किंवदंती है कि अवध के दूसरे नवाब आसफ़ुद्दौला ने लखनऊ में क़हत यानी अकाल के ज़माने में बड़े इमामबाड़े को बनवाया, जिससे कि ग़रीब-गुरबा की रोज़ी-रोटी का इंतिज़ाम हो सके और यह भी कहा जाता है कि उसने मज़दूरों की दो टीमें बनाईं - एक दिन की और एक रात की। दिन वाली टीम इमारत को उठाती थी और रात की टीम मशालों की रौशनी में उन्हें गिराने का काम करती थी। आज इस बात पर यक़ीन करना मुश्किल है। कहने को आज के नेता उस शाह को मूर्ख कह सकते हैं और अपने को उससे अधिक अक़्लमंद मानते हुए कह सकते हैं कि इससे अच्छा था कि वह उन्हें मुफ्त में अनाज क्यों नहीं दे देता था, जैसा कि आज यदि ऐसी परिस्थिति आये तो हम करेंगे। वे भूल जाते हैं कि उस शाह की असली मंशा क्या थी। वह जानता-समझता था कि मुफ्त में अनाज बाँटने से आम लोगों में एक तो मुफ्तखोरी आ जाएगी और दूसरे वे आलसी हो जायेंगे और अपनी मेहनत में जो यक़ीन आदमी को आदमी बनाता है, उससे वे हमेशा-हमेशा के लिए गुरेज़ करने लगेंगे। आम आदमी में स्वाभिमान और आत्म-विश्वास बना रहे, इसलिए उसने यह नायाब तरीका अपनाया था अपनी रियाया की मदद का। काश, आज के हमारे नेता इससे कुछ सीख ले पाते। बड़े इमामबाड़े की भूलभुलैया और उसका किसी लोहे के गर्डर आदि के बगैर के गुंबद के तले का मुख्य हाल उस ज़माने के स्थापत्य-कौशल का गवाह है। लखनऊ शहर के प्रमुख आकर्षणों में इस नवाबी ज़माने की इमारत का आज भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी के पास स्थित रूमी दरवाज़ा भी अपने प्राचीन रोम के स्थापत्य के नमूने के रूप में पर्यटकों का ध्यान खींचता है। छोटा इमामबाड़ा अपने खूबसूरत झाड़-फानूसों की वज़ह से मशहूर है। शाहनज़फ का इमामबाड़ा अपने सुंदर बागीचे और मोहर्रम में अपनी सजावट के लिए माना जाता है। रिवर बैंक रोड पर स्थित छतरमंजिल, और उसके पीछे लाल बारादरी तथा केसरबाग के इलाके की सफेद बारादरी, भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय, मामा-भांजे के मक़बरे आदि नवाबी ज़माने की ही दास्ताँ कहते हैं।
अंग्रेजों के ज़माने की भी कई इमारतें ग़ुलामी के उन वक्तों की कहानी कहती हैं – आज उनमें से कई इमारतें मसलन चारबाग रेलवे स्टेशन, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ मेडिकल कॉलेज आदि अपने इंडो-योरोपियन स्थापत्य की वज़ह से लखनऊ शहर की विशेष सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा बन चुकी हैं। वे इमारतें अंग्रेजों के द्वारा नवाबी इमारती परम्परा को क़ायम रखने की कोशिश की गवाही देती हैं। विशुद्ध ब्रिटिश स्थापत्य की गवाही देते हैं बेली गारद और हज़रतगंज मार्केट और उसके आसपास के ऑफिस एवं रिहायशी इलाके, जिनमें विधानभवन और सचिवालय और गवर्नमेंट हाउस यानी राजभवन की इमारतें प्रमुख हैं। उनमें सबसे अधिक ऐतिहासिक महत्त्व की जगह है खंडहर हालत में मौजूद बेली गारद यानी ब्रिटिश रेजिडेंसी की इमारत, जो १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की याद दिलाती है।
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मैं लखनऊ के उस पौराणिक-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से अपने को घनिष्ठ रूप से जुड़ा महसूस करता हूँ, जिसमें यह नगर लक्ष्मणपुर अथवा लक्ष्मणावती से लखनपुर या लखनौती की संज्ञाएँ पार कर लखनऊ में तब्दील हुआ। मुहम्मद बिन तुग़लक़ के शासन के समय में आये अरब यात्री इब्नबतूता ने इसे 'अलखनऊ' कहा है। अकबर के समय से पूर्व तक इसका वर्तमान नाम चलन में नहीं था, ऐसा इतिहासकारों का मत है। एक मत के अनुसार इसका नाम देवी लक्ष्मी के नाम पर रखा गया, क्योंकि यह एक समृद्ध नगर था। आदिगंगा गोमती नदी से सिंचित अवध का यह क्षेत्र निश्चित ही पुराकाल में अत्यंत सम्पन्न रहा होगा। मैंने गोमती नदी को नगर के विस्तार के साथ सिकुड़ते-सिमटते देखा है। बचपन में कतकी यानी कार्तिक पूर्णिमा के गंगा-स्नान के अवसर पर मैंने गोमती की पावनता और उससे लखनऊ और उसके आसपास के इलाकों के आमजनों के आध्यात्मिक जुड़ाव को साकार देखा है। बाद में किशोर से युवा होती उम्र में मैंने गोमती में तैरना सीखते हुए उसके जल के आत्मीय परस को अपनी रग-रग में महसूसा है। गोमती किनारे की शहर की सड़क पर पक्के पुल से लेकर छतरमंजिल तक जो तटबंध आज उसे निकट के मोहल्लों से अलगाता है, वह तब नहीं था और गोमती को १९६० की बरसात के बाद अपने पूरे जोम में उमड़ते मैंने देखा है। तब नदी का जल फैलकर इस पार मेडिकल कॉलेज रोड -रिवर बैंक कॉलोनी-सिटी स्टेशन-छतरमंजिल-हज़रतगंज-नरही एवं शाहनजफ रोड पर मोतीमहल-स्टेट बैंक ऑफ इंडिया नेशनल बोटैनिकल गार्डन तक और उस पार मनकामेश्वर मंदिर से लेकर आर्ट्स कॉलेज वाली सड़क को घेरता हुआ लखनऊ विश्वविद्यालय के अंदर तक प्रवेश कर गया था। अच्छे मौसम में गोमती में नौका-संतरण का उन दिनों आनंद ही कुछ और हुआ करता था। बाद में भी गर्मियों की छुट्टियों में हम जब लखनऊ आते थे तो सपरिवार नौका-विहार का आनंद लेना नहीं भूलते थे, हालाँकि तब तक तटबंध बन चुके थे और गोमती का वह रूप नहीं रह गया था। तटबंधों का सुंदरीकरण हो जाने पर पुराने घाट आदि उपेक्षित हो गए और नगर के जनसंख्या विस्तार के साथ नदी में जल भी धीरे-धीरे कम से कमतर होता चला गया। जिस मंकी ब्रिज से होकर मैं सैकड़ों बार गुज़रा था, वह टूट चुका है। कुछ दिनों तक उसके खंडित खंभे बने रहे थे, जो कटे कंधों वाले किसी महाबली की तरह मुझे लगते थे । अब तो वे भी नहीं रहे। अब तो नदी पार जाने के लिए नए बने हनुमान सेतु के ऊपर से गुज़रते ट्रैफिक की धमक से सहमी सिकुड़ी-सिमटी लाचार नदी बड़ी निरीह लगती है।
उम्र के पचास से ऊपर के वर्ष लखनऊ से बाहर बिताने के बाद अब मुझे कई बार एक गहरे अभाव का एहसास होता है। मेरी अस्मिता जालंधर और हिसार के अज़नबी माहौल में भी लखनवी बनी रही, इसके लिए मैं किसे दोष दूँ - स्वयं को या उन इलाकों की विशेष आबोहवा को। मैं यदि उन क्षेत्रों में बाहरी ही बना रहा तो कुछ कमी मुझमें भी अवश्य ही रही होगी। किन्तु शायद यह लखनऊ की मानसिकता थी, जिसने मुझे उन इलाकों में उनकी विशिष्ट संस्कृति से तादात्म्य नहीं करने दिया। लखनवी अंदाज़ तो शायद अब लखनऊ में भी ढूँढें तो नहीं मिलेगा, पर मेरे भीतर बसे लखनऊ में तो वह अब भी मौजूद है। हाँ,यह सच है कि मेरा लखनऊ आज का नहीं है। वह तो तंग गली-कूचों, नवाबी ज़माने की इमामबाड़ा आदि इमारतों, चौक-नक्खास-अमीनाबाद के गुंजान बाज़ारों, उसके बाशिंदों की बोली-बानी, उसे दुलराती गोमती नदी और उसके किनारे बने पक्का घाट, कुडिया घाट, रस्तोगी घाट, उस पर अंग्रेजों के ज़माने के बने पुराने पुल, जिन पर गुज़रते हुए आज भी पिछली सदी के साठ के दशक की क्लासिकी अंदाज़ की फिल्म 'चौदहवीं का चाँद' का मुखड़ा गाना -ये लखनऊ की सरज़मीं' बेसाख्ता होठों पर आ जाता है, उसके आज़ादी की लड़ाई की यादों को ताज़ा करते अमीरुद्दौला पार्क और गंगाप्रसाद मेमोरियल हाल, उसके पच्चीस के लगभग सिनेमा हॉल में ही कहीं बसी हुई है। मेरा लखनऊ दशहरी आम, सफेदा खरबूजा और 'लैला की उँगलियाँ मजनूँ की पसलियाँ' को शर्मिन्दा करती नाजुक,रसीली ककड़ियों का है, चौक के रामआसरे की मलाई गिलौरी और टीकाराम के नमकीन तथा अमीनाबाद के चौधरी चाट हाउस की चाट, दयाल की कुल्फी और बताशे वालीं गली के बताशों का, गणेशगंज के तिवारी के बड़ों का है। वह असगर अली मोहम्मद अली के इत्र से सुवासित है, बेग़म अख्तर और तलत महमूद की आवाज़ों से पुरनूर है। लखनऊ की खास चिकन कशीदाकारी आज भी अपने परस से मेरे तन-बदन को दुलराती है। और हाँ, ये सब मिलकर मेरी पहचान बनाते हैं। आज भी हर साल लखनऊ आने पर मैं उस लखनऊ को महसूसने के लिए तरसता हूँ। पता नहीं कब और कहाँ बिला गया वह मेरी पहचान का और मुझे एक अनूठी पहचान देता मेरे बचपन और ज़वानी का शहर लखनऊ। काश, वह मुझे किसी पुराने गली-कूचे, किसी पुराने बोशीदा हो रहे गली के आखिरी सिरे के मकान में मिल जाये! या शायद वहाँ भी नहीं। हाँ, वह लखनऊ मेरे भीतर अब भी है और वही उसकी पहचान है। बड़े इमामबाड़े वाली बावड़ी की गहराइयों की भाँति जीना-दर-जीना वह मुझे उतरने-चढ़ने को टेरता रहता है। उसकी भूलभुलैया की भाँति मुझे भटकाता रहता है अपने परिवेश में। भावजगत की उस चढ़ा-उतरी,उस भटकन से ही तो मुझे सर्जना की ऊर्जा मिलती है। हाँ, वह लखनऊ मेरे संस्कारों को गुपचुप पालता-पोसता रहा, मुझे बराबर संस्कारित करता रहा। मुझे लखनऊ से जो कुछ मिला था, उसका प्रतिदान मैं अवश्य नहीं कर पाया हूँ। यह अपराध बोध मुझे कई बार त्रस्त करता है। किन्तु मैंने उसे अपने मन से कभी भी ओझल नहीं होने दिया और उसी की घनी छाँव में मैंने अपनी कविताई को नए आयाम देने की चेष्टा की। काश, मैं अन्य दृष्टियों से भी लखनऊ से प्राप्त दाय से जुड़ पाता। हाँ, हर वर्ष लखनऊ जाने का कोई-न-कोई बहाना मुझे मिल जाता है और तब मैं लखनऊ को अपने अंदर समो लेता हूँ - वैसे आज के लखनऊ को मैं नहीं समझ पाता और कई बार ढूँढने लगता हूँ अपने पूर्व-परिचित नफीस और तहज़ीबयाफ्ता लखनऊ को।