एक थी तरु / भाग 10 / प्रतिभा सक्सेना
गौतम दादा नौकरी करने बाहर चले गये। रह गये तरु और संजू। संजू घर में रहता ही कितना है -स्कूल, खेल और अपनी पढ़ाई। घर में क्या होता है उसे पूरा पता ही नहीं रहता। अभी उमर भी क्या है उसकी। पन्द्रह साल में समझ भी पूरी कहाँ आ पाती है! तरु थोड़ी ही बड़ी होकर बहुत समझदार हो गई है। वह अधिकतर चुप ही रहती है। कहे भी किससे! संजू से कहने से फ़ायदा ही क्या! जब वही कुछ नहीं कर सकती, तो छोटा होकर संजू क्या कर लेगा!
अम्माँ का झुकाव तो शुरू से अपने मायके की तरफ़ बहुत रहा है। शुरू से ही उन लोगों के सामने वे पिता की आलोचना करती रहीं। वे लोग भी उनका मन हटाते रहे और पिता से असंतुष्ट रहे -शिकायतबाज़ी भी चलती रही। उनके मायके में कोई काम-काज होने पर स्थिति और दारुण हो जाती है। अम्माँ अपने भाई बहनों के सामने किसी प्रकार की कमी बर्दाश्त नहीं कर सकतीं। वे सबसे बढ़-चढ़ कर रहना चाहती हैं। नहीं तो उन्हें लगता है उनकी हेठी हो रही है। उन्हें बहुत दे कर वे उनसे सम्मान -स्नेह पाना चाहती हैं। कभी-कभी गुस्से के मारे वहाँ के कामों मे जाती ही नहीं, और महीनों अपनी कुण्ठा पिता पर निकालती रहती हैं।
बात बहुत बढने पर गोविन्द बाबू चिल्ला पड़ते,”पैसा, पैसा कहाँ से लाऊँ पैसा? चोरी करूँ, डाका डालूँ? सब लाकर हाथ पर रख देता हूँ, बाहर एक कप चाय तक नहीं पीता।”
उनकी शिकायतें जारी रहती हैं तो वे बिगड़ते हैं, ’। और चाहिये तुम्हें तो मुझे मार डालो, मेरा खून पी लो हड्डियाँ बेच आओ।”
अम्माँ बोलने में बहुत कटु हैं, उन्हें अपनी जीभ पर नियन्त्रण नहीं रहता। जाने कब की पुरानी बातें लाकर अन्हें अपमानित करने लगती हैं। पिता सुनते रहते हैं। क्रोध को भीतर -ही-भीतर निगलते रहते हैं। जब बर्दाश्त से बाहर हो जाता तो हाथ से उनके बाल पकड़ कर झकझोर देते हैं। वे भी झपटती हैं दोनों चिल्लाते हैं। तरु बीच में घुस कर बचाना चाहती है।
माँ चिल्लाती हैं,”अच्छा बाप-बेटी दोनों मिलकर मुझे मार डालो।”
"अरे फाड़ डाली”--।”पिता का आर्त स्वर कानों में जाता है,”यही तो एक ढंग की कमीज़ थी। अब क्या पहन कर बाहर जाऊँगा?”
"तो काहे रे लिये जुटे थे मुझसे, शरम नहीं आती है।”
"मेरे खून की प्यासी हो तुम। कभी चैन से रहने नहीं दोगी।”
तरु इस सबकी साक्षी नहीं बनना चाहती।
पिता का आर्त स्वर मन को बुरी तरह मथे डाल रहा है। ओफ़ कैसे जानवरों की तरह। ओह, मुझे क्या हो गया है। ? स्वयं को धिक्कारने लगती है।
विचारों पर काबू नहीं रहता। आवाजें फिर उसके कानों में आने लगी हैं।
"अब पता लगा तुम्हें, दूसरों के सामने नीचा देखना क्या होता है! मुझे तो जिन्दगी भर नीचा दिखाया तुम लोगों ने --तुम स्वार्थी हत्यारे!”
"हत्यारा मैं नहीं तुम हो। मुझे खा कर चैन लोगी। सबको खा लोगी फिर भी सन्तोष नहीं होगा तुम्हें।”
"अपनी इच्छा पूरी करने के लिये मेरे बेटे को मार डाला --"वे फिर झपटी हैं कमीज फट रही है --चर्ररर-चर्ररर्।
रुका नहीं जाता। तरु दौडती है,”अम्माँ, मत फाड़ो कमीज़।”
"तू चुप रह। बड़ी खैरख्वाह बनी है बाप की। मेरे लिये भी कभी लगता है?। सब उन्हीं को पूछते हैं। नई कमीज नहीं बनवा सकते अपनी कमाई से। ?”
वे नहीं बनवायेंगे तरु जानती है। वे खाना नहीं खायेंगे तरु जानती है। और वे किसी से कुछ नहीं कहेंगे -यह भी तरु जानती है।
और अम्माँ? उन्हे शिकायत है कोई उनका ध्यान नहीं रखता!
पर जो खुद सबसे पहले अपने लिये ही सोचता रहे उसका ध्यान कोई कैसे रख सकता है?
तरु की समझ में नहीं आता क्या करे!
पिता आज फिर बिना खाये चले गये। क्या होता जा रहा है अम्माँ को?
उनके खाना खाने बैठते ही कुछ ऐसा होता है कि, वे थाली छोड़़कर उठ जाते हैं। कितने कमज़ोर हो गये हैं --सारे दिन काम और किसी वक्त खाना चैन से नहीं। जाना भी कितनी दूर पडता है पैदल जाते हैं। कभी सवारी नहीं लेते।
दफ़्तर की फाइलें पहले घर ले आते थे। अब नहीं लाते वहीं देर तक रुके रहते हैं। लौट कर आते हैं किसी से कुछ कहते-सुनते नहीं खाना मिला और कहा-सुनी नहीं हुई तो खा लिया लहीं तो बिना कुछ खाये चादर से मुँह ढाँक कर लेट जाते हैं।
जब वे थके हुये लौटते हैं तो वह थका-उतरा चेहरा और उनकी वे निगाहें सहन नहीं होतीं। आते ही पहले चोर निगाहों से चारों ओर देखते हैं, अम्माँ नहीं होतीं तो तरु से पूछ लेते हैं,”कुछ है खाने के लिये?”
तरु तैयार रहती है इस समय के लिये। झटपट उठ कर थाली परस लाती है वे जल्दी -जल्दी खाने लगते हैं। बड़े-बड़े कौर तेजी से चबा कर गले से नीचे उतारते हैं। वह मनाती रहती है, पेट भर खाना खाने तक अम्माँ न आयें। पर कभी-कभी अध-खाई थाली वैसी ही पड़ी रह जाती है। अम्माँ की ज़ुबान रुकती नहीं वे थाली छोड़़ कर उठ जाते हैं और मुँह ढाँक कर लेट जाते हैं।
लड़ाई पहले भी होती थी पर इतनी नहीं कि कोई भूखा रहे और दूसरा अपनी झक पूरता रहे। जब से अम्माँ बीमारी से उठी हैं और मायके होकर आई हैं उनकी सारी स्वाभाविकता समाप्त हो गई है।
पहले पिता भी नाराज होते थे, बच्चों को डाँटते थे। अम्माँ पर झल्लाते थे, कभी कुछ खाने की फर्माइश भी करते थे। पर अब घर, घर नहीं लगता। जाने क्या होता जा रहा है। अब वे कुछ नहीं कहते। अम्माँ जो चाहें कहती रहें, बोलेंगे नहीं, चुपचाप पड़े खाली-खाली आँखों देखते रहेंगे। तरु को जाने कैसा लगने लगता है।
कंघे से बाल झाड़ती तरु पूरी खिड़की खोल कर खड़ी हो गई। अभी विपिन स्कूल जाने के लिये सड़क पर निकलेगा। तरु की निगाहें सड़क पर लगी हैं।
"विपिन, एइ विपिन!”
कैसी धुन में चला जा रहा है सुनता ही नहीं।
फिर वह खिड़की से सिर निकाल कर ज़ोर से चिल्लाई,”अरे, ओ विपिन 1"
उसने सिर उठाकर देखा,”मुझे बुला रही हो?”
तरु ने सिर हिलाया वह आकर खिड़की के नीचे खड़ा हो गया।
"विपिन, मेरा एक काम कर देगा?”
"क्या?"
"पिताजी को खाना पहुँचा देगा?”
"आज फिर ऐसे ही चले गये?”
"उन्हें नौ बजे जाना था, मैंने सोचा तेरे हाथ भेज दूँगी।” कह कर उसे शक हुआ, विपिन ने झूठ पकड़ तो नहीं लिया। वह अपनी ही धुन में था।
"लाओ जल्दी।”
तरु के पीछे-पीछे वह अन्दर आ गया। तरु ने पराँठे-सब्जी पत्ते में लपेट कर लिफ़ाफ़े में डालते हुये कहा,”देख यहाँ किसी को पता न लगे। लेकिन कैसे ले जायेगा?”
"ये बैग है न मेरा। कपड़े में लपेट दो। इसी में रख लूँगा। हाँ, ऐसे।”
"वहाँ वो कुछ पूछते तो नहीं न?"
"ना, मैं तो जाता हूँ उनकी मेज पर रखता हूँ और निकल आता हूँ। स्कूल को जल्दी रहती है न।”
"भाभी जी, हमारी बीमारी के दौरान आपने खूब सम्हाला। बराबर टिफ़िन भर-भर कर खाना भेजती रहीं। इत्ता तो अपनी सगी जिठानी भी नहीं करती।”
"अरे बहू, मुसीबत में ही तो एक दूसरे का साथ दिया जाता है। कहो, अब तो ठीक हो न?”
"हमारे ये तो आपके गुन गाते नहीं अघाते। कहते हैं भाभी जी जैसी लच्छिमी तो आज तक नहीं देखी। हम भी ठीक होकर सब से पहले यहाँ आये हैं।”
अम्माँ झट से प्लेट भर गाजर का हलुआ निकाल लाईं उनके सामने रख दिया,”बैठो बहू, बडी कमज़ोरी आ गई है। लो, यह खा लो। सुबह ही तरु ने बनाया है।”
"अरे वाह, गाजर का हलुआ! अबकी तो हम एक बार भी बना नहीं पाये। बच्चे कहते ही रह गये।”
"अरे, तो यहाँ से ले जाओ। बच्चों का मन क्यों रह जाये। यहाँ तो बना ही है।”
"हमारे शर्मा जी तो कहते हैं -गौतम के पिता हमारे बड़े भाई की जगह हैं। ऑफिस में सालों एक ही कमरे में बैठते थे। आज कल कुछ तबीयत ढीली चल रही दीखे भाई साहब की? हमारे ये तो उनके बारे में हमेसा बात करते रहवें हैं। आजकल उन पे भारी काम आगया है। बीमार आदमी मेहनत भी नहीं कर पावें।”
अम्माँ ने शंका भरी दृष्टि से उनकी तरफ देखा,”अच्छा!”
"किसी अच्छे डॉक्टर का इलाज कराओ, भाभी जी। ये पेट का मरज पुराना हो के बडा दुखी करे है।”
"तो उनकी वकालत करने आई हो। तुम्हें कैसे मालुम?”
बात शर्माइन के पल्ले नहीं पड़ी, लेकिन अम्माँ के कहने का ढंग उन्हें बडा अजीब लगा।
"लो, एक दफ़्तर में, मालूम भी न होवे? एक बार तो चक्कर खा के गिरते-गिरते बचे। हमारे इन ने सम्हाल लिया।”
"हाँ, उन्हें मित्रों की क्या कमी?”
"क्यों न हो, इत्ते सीधे आदमी हैं। भाई साहब को तो कभी ऊँचा बोल भी बोलते न सुना। अब उनके खाने का बहुत ध्यान रखो, भाभी जी। पराँठे बिल्कुल बन्द कर दो। टेम-बेटैम खाने से भी बदन को थोड़े ही ना लगे।”
आवाज़ धीमी कर के वे बताने लगीं -बड़े साहब ने तो यहाँ तक कह दिया कि काम नहीं कर पाते तो छुट्टी ले लो। ठीक हो जाना तब काम पे आना। अब भाभीजी तुम्हीं उनका ध्यान करो?”
अम्माँ के चेहरे के भाव बदलने लगे थे, वे ताव में आ गईं,”ओफ़्फ़ोह, पराये आदमी से बड़ी हमदर्दी है। बड़ी सगी बनती हो उनकी। अरे, हमें सब मालूम है, तुम्हीं लोगों ने सगापन दिखा-दिखा कर उनका मन हमसे फेर दिया है।”
"बस करो, गौतम की अम्माँ, बहुत कह लिया। हमें क्या करना। आप जानो वो जाने। बरसों से साथ रहे हैं, पुराना मेल-जोल है। बीमार सुना सो कह दिया। नहीं तो हमें क्या मतलब!”
"हाँ, हाँ, क्यों नहीं? बरसों पुरानी मोहब्बत है, निभानी ही चाहिये।”
शर्माइन ताव में आकर खडी हो गईं,”अब तो पाँव नहीं धरेंगे इस घर में। होम करते हाथ जलते हैं। ऐसी औरतों से भगवान बचाये।”
वे एकदम बाहर निकल गईं।