एक थी तरु / भाग 17 / प्रतिभा सक्सेना
शन्नो मायके आई हुई हैं। एक गौतम से ही वे अपने मन की बात कह सकती हैं, सो मन का आक्रोश व्यक्त करती रहती हैं -
"उससे मुझे कोई आसरा नहीं। क्या अब, क्या तब। कभी कुछ किया है उसने मेरे लिये? वो तो मैं ही हूँ जो वहाँ बैठ कर यहाँ की चिन्ता करती रहती हूँ। माँ-बाप के बिना कैसे रहती होगी। मुझे तो अब भी यहाँ की याद कर रोना आ जाता है। एक वह है किसी की परवाह नहीं। किसी तरह उसकी शादी हो जाय तो हम लोग निश्चिन्त हों।”
शन्नो को एक ही धुन है -तरु की शादी। चिट्ठियों में भी आधे से ज्यादा यही सब भरा होता है। गौतम और शन्नो के इस पत्र-व्यवहार में वह कोई भाग नहीं लेती। बड़ा आश्चर्य होता है उसे। शन्नो जिज्जी कैसी हो गईं। वे देश-भक्ति की, त्याग -बलिदान की आदर्शों से भरी बातें कहाँ हवा हो गईं? अब किसी न किसी तरह उसे ब्याह देना ही उनका कर्तव्य रह गया है।’किसी तरह अपने घर जाय वे कहती हैं।’
"अपना घर?” -कैसा होता है अपना घर! जैसा यह घर था जहाँ वह पली, जैसा वह घर जहाँ असित बड़ा हुआ? या वैसा घर जैसा शन्नो बना रही हैं? जहाँ पति -पत्नी और उनके बच्चों के अलावा और कोई दो दिन भी सहजता से खप नहीं पाता!
तरु की घर की कल्पना कुछ और है। उसने असित से एक बार कहा था,”ऐसा घर जहाँ कोई असंतुष्ट न रहे। बाहर जायें तो बार-बार जिसकी याद आये और लौट आने को मन करे, एक दूसरे के लिये मन में स्नेह हो, विश्वास हो। मुक्त मन से जहाँ अपनी बात कही जा सके -एक पारदर्शी खुलापन, जहाँ निश्चिन्त होकर निर्द्वंद्व भाव से रहा जा सके। बाहर के लोग भी जहाँ अजनबी न रहें अपनत्व पा सकें।”
शन्नो के बच्चे छोटे हैं तरु के ऊपर उन्हें गुस्सा आता है तो खूब ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाती हैं, बच्चों को पीटने लगती हैं। तरु एकाध दिन की छुट्टी में आती है तो घर की सफ़ाई कपड़े धोना, प्रेस -कलफ, बहन के बच्चों के लिये कुछ, खाना बनाना -नाश्ते-पानी में सारा समय निकल जाता है।
शन्नो को इससे सन्तोष नहीं होता, कहती है,”और लड़कियों को देखो, मायके आती हैं तो निश्चिन्त होकर खाती हैं, डट कर आराम करती हैं। बच्चों तक की फिकर नहीं। छोटी बहनें सब सम्हाल लेती हैं --पर यहाँ तो मामला ही उलटा। उसे कभी लगता नहीं कि कुछ दिन छुट्टी लेकर मेरे साथ रहे।
तरु को लगता है वह कभी आये ही नहीं --खास तौर से जब जिज्जी यहाँ हों। पर नहीं कैसे आये? एक इतवार और आस-पास कोई और छुट्टी पड़ गई तो केजुअल लीव से जोड़ कर रिज़र्वेशन करा लेती है। सोचती है गौतम दादा अकेले हैं और शन्नो जिज्जी आई हुई हैं, वहाँ जाकर उनका साथ देना चाहिये।
शुक्रवार को तरु आई थी। शन्नो ने उसी दिन कह दिया”सोमवार को छुट्टी लेकर यहीं रहना। कुछ मेहमान आने वाले हैं।”। फिर उसे सुना कर जोड़ दिया,”लड़का ठीक है। रंग साँवला है तो खुद भी कौन गोरी है। नौकरी भी ठीक है फिर अभी तो शुरुआत ही है। ऊपर उठने के लिये ज़िन्दगी पड़ी है ----उन्हें इसके नौकरी करने में भी कोई एतराज नहीं। फिर माँग भी कुछ नहीं। नौकरी करती है इसीलिये तो तैयार भी हो गये, नहीं रूप-रंग, या लेन-देन की बात पहले उठती।”
तरु का मन खिन्न हो उठा। भूमिका से ही अनुमान हो रहा है स्थिति क्या होगी।
"मुझे तो जाना है। जरूरी काम है। शुक्रवार की छुट्टी ले ली है, शनिवार इतवार बीच में है, सोमवार की कैसे ले सकती हूं?”
"ये तो कोई बात नहीं हुई। बड़ी मुश्किल से बातें तय हुईं तो तुम्हारे नखरे! और कौन होगा जो ---।”
बीच मे ही तुर्शी भरा तरु का स्वर उठा,”न तैयार हों तो न करें, मुझे करनी भी नहीं है।”
"फिर हमेशा नौकरी करती रहेगी?”
"नौकरी तो वैसे भी करनी होगी। जब वे लोग चाहते हैं।”
काफ़ी कहा-सुनी हुई। , शन्नो पैर पटकती चली गईं। फिर जीजा ने सूत्र अपने हाथों में लिया।”देखो तरु, लड़का ठीक है। तुम दोनों की तनख्वाह मिलकर मौज से गृहस्थी चलेगी।”
"मतलब मैं नौकरी न करूँ तो महाशय गृहस्थी नहीं चला सकते? फिर शादी का शौक क्यों, मेरी समझ में नहीं आता।”
"फिर क्या चाहती हो तुम? फ़र्स्ट डिज़र्व देन डिज़ायर।”
"मुझे कुछ नहीं चाहिये फिर इन बेकार की बातों से फ़ायदा?”
"तो फिर अपने आप करनी है?”
"अपने आप ही कर लूँगी तो कौन गज़ब हो जायेगा?”
जीजा ने बात को मज़ाक की ओर मोड़ा,”कहीं कोई भा गया हो तो हमें बता दो। हम करवा दें। बताओ कौन है हमारा प्रतिद्वंद्वी?”
"अच्छी बात है, बता दूँगी।”
घर का वातावरण एकदम क्षुब्ध हो गया। बडी तेज़ी से बातें हुईं। सबके मुँह फूले हैं। गौतम भैया उससे बोलते नहीं। जहाँ वह होती है वहा से फ़ौरन चले जाते हैं। जीजा ने मध्यस्थता की, इधर के संदेश उधर पहुँचाये।
असित को बुलाने के लिये कहा गया। तरु ने तार दे दिया। वह आया।
बात-चीत हुई। खाना पीना हुआ। वह लौट गया चलते -चलते कह गया,”आशा तो है मान लेंगे नहीं तो अपना निश्चय रखना। अब वहाँ अगले सोमवार को पहुँचूँगा तब आगे की सोचेंगे। अभी घर में सिर्फ़ रश्मि को मालूम है। वही सब सम्भालेगी। विरोध कोई नहीं कर पाएगा, निश्चिन्त रहना, तरु।’
गौतम भैया ने कहा,” और तो ठीक है पर अपनी जात का नहीं।”
"वह मानेगी नहीं। कहीं भाग-भूग गई तो और नाक कटेगी। उससे अच्छा है सीधी-सादी शादी करके छुट्टी करो। ---वह तो मैं ही थी जो बलि का बकरा बना दी गयी, सबकी सुनती थी न --।”
और महीने भर के अन्दर तरु असित से ब्याह दी गई।