एक थी तरु / भाग 25 / प्रतिभा सक्सेना

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क्या-क्या देखा है इसका पूरा ब्योरा तो शायद कभी न दे सके, पर विवाह के नाम से घर छोड़़ कर भागता लेता था असित।

मन में ग्लानि उत्पन्न होती है। जैसे हमलोग पले-बढ़े ऐसे ही कुछ और लोग पलें, सिर झुका कर मुँह छिपा कर। वैसा ही एक घर और बसे उसे गवारा नहीं। इससे तो अच्छा है घर ही न बने। एक मैं ही बिन-ब्याहा रह गया तो क्या बिगड़ जायेगा किसी का! उसे लगता है जिन्दगी का यह अध्याय बंद रहे तो ही अच्छा। जो पृष्ठ पलटे जा चुके हैं वे आगे कभी न खुलें वही ठीक है।

उसे उन दिनों की याद आती है जब उन लोगों से संबंध रखना लोगों को अपनी हेठी लगता था, एक वह भी समय था जब उसे अपना कहते हुए लोग कतराते थे। , दूर-दूर रखने की कोशिश करते थे और हमें ज़रा भी महत्व देने में जिनकी शान घटती थी, आज वही लोग आस-पास घूम रहे हैं, हमसें जुड़ कर बड़ा संतोष मिल रहा हो जैसे उन्हें!

बड़ा अजीब लगता है असित को। एक दिन वे भी थे और एक ये भी हैं।

परायेपन का पाठ उन लोगों ने पढ़ाया था जिनके अपनेपन के प्रति मन में कभी संदेह नहीं जागा था, और जिन्हें पराया समझा था उनसे इतना कुछ मिलेगा, कभी सोचा भी न था। कभी-कभी ऐसी अजीब मनस्थिति हो जाती है कि वह स्वयं नहीं समझ पाता कि काहे से खुश होगा, काहे से खिन्न।

बचपन से बहुत रिज़र्व रहने की आदत रही है। अपने सुख-दुख कहता भी तो किससे? माँ सौतेली, जिसे आज तक अपना नहीं समझ पाया, और पिता इतनी दूर पड़ गए थे कि उनसे मन का कोई लगाव शेष नहीं रहा। श्रद्धा-सम्मान कुछ नहीं हैं मन में उनके लिये। बस देह का संबंध है वह निभाये जा रा हूँ। जब से होश सम्हाला यही देखा है। कई बार रिश्तेदारियों मे जा-जा कर दिन काटने पड़े। वे अनुभव भी निराले थे। उस छोटी-सी उम्र में कैसी-कैसी स्थितियाँ झेल गया। उसके बाद विमाता ने बुलवा लिया, रिश्तेदार पीठ-पीठे बहुत कुछ कहते थे उसका असर पड़ा होगा।

इस घर में आकर छोटे-छोटे बाई-बहिनों की सम्हाल, हर समय कहीं न कहीं की दौड़ और झिड़कियाँ। पिता के सामने जाते हुए भी डर लगता था, पता नहीं इन माँ ने क्या लगाया हो औ वे बिगड़ने लगें मारा-पी़टी करने लगें, मुँह छिपाये-छिपाये फिरता था असित।

सुधा जिज्जी के मरने के बाद बड़ा डर लगता था। बड़े भयानक दिन थे -रातों में चीख़-चीख़ कर जाग जाता था। फिर कुछ दिनों को उसे बुआ के घर छोड़़ दिया गया। तब पिता किसी अस्पताल में कंपाउंडर थे।

एक बार बड़ा हल्ला मचा था -पिता पर अस्पताल की दवायें बेचने का आरोप था और बहुत सी शिकायतें। फिर उनके तबादले के आर्डर्स आ गए थे।

एक दिन मुँह लटकाये घर में आय़े और माँ की भारी-भारी पायलें ले कर बाज़ार चले गये

असित से बड़ी श्यामा ने धीरे से उसके कान में कहा था, ’देखो, ये पायलें अपनी अम्माँ की हैं।’

'अपनी अम्माँ’उसके कानों से टकराया

उसे उनकी बिलकुल याद नहीं।

पुराने संदूक में एक फ़ोटो है -फ़्रेम में लगी हुई। पिता, पिता नहीं लगते, एक चढती उम्र का युवक है जिसके चेहरे में पिता का चेहरा झलक मारता है। , एक झेंपी-झेंपी-सी युवती उनके साथ खड़ी है। रद्दी के सामान में डाली हुई फ़ोटो श्यामा ने निकाल ली थी।

वह कभी-कभी किसी साड़ी या जेवर को देख कर कहती थी, ’ये अपनी अम्माँ का है।’

लेकिन असित को ये चीज़ें भी पराई लगती हैं

हाँ, माँ के फ़ोटो को वह बड़े ध्यान से देखता है -यही हैं मेरी माँ!

माँ के चेहरे की कोई हल्की-सी झलक उसे तरल के चेहरे में मिली, लेकिन यह बात बहुत बाद में उसके दिमाग़ में आई थी।

फिर सामान बाँध कर सब लोग नई जगह चल दिये थे -खानाबदोषों की तरह। सबसे छोटा राजुल अभी पैदा नहीं हुआ था।

ज़रूरी सामान साथ ले लिया गया, बाकी पलँग, मेजें, कलसे, परातें आदि एक कोठरी में बंद कर ताला लगा दिया गया। सारी अपनी अम्माँ की जोड़ी गृहस्थी -श्यामा कहती थी।

बाद में ठीक से इंतज़ाम कर लेने पर पिता ले जायेंगे, अभी से ले जा कर लादे-लादे घूमने से क्या फ़ायदा!

छूटे हुये सामान में असित की एक पीतल की जालीदार संदूकची भी रह गई, जिसमें उसकी कुछ अमानतें सँजोई हुई थीं -बंदनवार की निकली हुई नलियाँ, उसका भाग्यशाली सिक्का, जिसे जेब में रख कर उसे खेल में जीतने का विश्वास रहता था, फानूस से निकला एक कटावदार शीशा, जिससे सारी दुनिया सतरंगी दिखाई देती थी, जिसे वह किसी को नहीं दिखाता था। घर में और स्कूल में भी उसे जेब में छिपा कर रखता था और मौका पाते ही एक आँख बंद कर, खुली आँखके आगे शीशा घुमाता उन इन्द्र -धनुषी दृष्यों के आनन्द में लीन हो जाता था। उस समय न विमाता की दुत्कार, न पिता की मार न छोटे भाई-बहनों के कारण मिला दुर्व्यवहार, कुछ भी उस तक नहीं पहुँच पाता। कई बार उसी के पीछे साथियों से मारा-पीटी भी हुई थी।

उसने कुछ नहीं कहा था अपनी उस छूटी हुई संदूकची के लिये लेकिन उसने सालों प्रतीक्षा की थी कि कब छूटा हुआ सामान आये, और उसे उसका खजाना मिले। लेकिन वह सब उसे फिर कभी नहीं मिला।

महरी ने रश्मि को संवाद दिया, 'इधर लौंडियन की सुनवाई हुइ रही है। चतरू की हुलहिन के लौंडिया भई।’

'लगता है भगवान के यहाँ से अलग-अलग खेप छोड़़े़ जाते है -एक बार लड़कियों का अगली बार लड़कों का। फिलहाल लड़कियों का चल रहा है।’

'कुभाखा न बोलो बिटिया। ओहिके दुइ बिटियाँ पहिलेई से हैं अबकी बेर लरिका हुइ जाए देव।’

'हमारे कहने से क्या हो जायगा। हो सकता है तब तक भगवान लड़कोंवाली खेप छोड़़ दें।’

अपनी नन्हीं नातिन को टाँगों पर औंधाये महरी तेल-मालिश कर रही है। सामने का आँचल उतार कर एक तरफ़ डाल रखा है।

इतने में मकान-मालकिन सुकुलाइन आती दिखाई दीं। शुक्ला जी बाहर रहते हैं

दो-एक साल में ये भी रिटायर होकर यहीं आ जायेंगे। दो लड़के ब्याह गए हैं छोटा दन्नू यहीं रह रहा है। पढ़ने में मन नहीं लगता आवारागर्दी करता है। उससे छोटी लड़की हाईस्कूल में पढ़ती है।

'माँजी, ओ, माँजी'। रश्मि ने आवाज़ लगाई -श्यामा और असित से सुन-सुन कर वह भी माँजी कहने लगी है।

भीतर से कोई जवाब नहीं आया।

धूप में चारपाई पर बैठी रश्मि थोड़ा खिसकते हुए बोली, ’आइये चाची, ज़रा धूप में बैठ लीजिये।’

साड़ी के घूम हाथ में समेटे वे उचक कर बैठ गईँ। , 'अरे बिटिया, कहाँ टैम बइठन के लै। नेक अपनी अम्माँ को टेर लेओ।’

रश्मि चल्लाई, ’अरे माँजी कहाँ हो? शुक्लाइन चाची बुला रही हैं।’

'अरे तो बैठाल लेओ, आ तो रही हैं।’

आते ही शुक्लाइल बोलीं, ’किराओ दियो का?’

'किराओ तो दन्नू लै गए हते।’

शुक्लाइन का मुँह खुला का खुला रह गया।

, 'दन्नू लै गए हते? उन्हें काहे दै दौ?’

'काहे? बे माँगन आए। हमने कही महतारी ने मँगाओ हुइये, दै दौ। रसमी देखो जाय के। दूध धरो है अँगीठी पे, उफन न जाय।”।’

'परसों ते घर से गायब हैं दन्नू। हमें का पता का बात है। सोच लौ गौ हुइये कहूँ, सुसरो। अब जानी, हियाँ से किराया लै गए अउर सकल नाईं दिखाई। तुम दन्नू को न दौ करो।’

रश्मि की माँ भरी बैठी थीं -न कभी पुताई कराएँ, न मरम्मत। बाप ने मकान बनवा के खड़ा कर दिया, बेटे निश्चिंत बैठे खा रहे हैं ये भी नहीं कि साल में दो-एक महीने का किराया ही मकान में लगा दें ऊपर से हमेशा किराया बढ़ाने को तैयार।

तभी तो औलाद एक से एक निकल रही है। कोई चुपचाप सनीमा देखेगा। कोई होटल में खाये उड़ायेगा। और ये दन्नू तो हमेशा पिटते रहते हैं पर फिर जैसे के तैसे।

'हम का जाने, तुम जानो बे जाने, उनने रसीद दई हमने दै दौ!’

'रसीद तो उनके बाप आउत हैं तो बनाय के रख जात हैंगे। इन नालायकन का कोऊ आसरा नाहीं। खून पियन के लै हैंगे।’

दन्नू की हमेशा कोई न कोई करतूत सुनने में आ जाती है। , बाप आते हैं उनसे शिकायतें होती हैं, वे मारते-मारते खूनाखून कर देते हैं। माँ रोती-धोती हैं, कभी दन्नू घर से भाग जाते हैं। जब लगता है मामला शान्त हो गया होगा लौट आते हैं, और कुछ दिनों में फिर वही हाल।

शुक्लाइन चाची उठने को हुईं, रश्मि की माँ ने रोक कर बैठा लिया। रश्मि की शादी की बातें होने लगीं।