एक थी तरु / भाग 28 / प्रतिभा सक्सेना
मकान मालिक शुक्ला जी के घर से ज़ोर-ज़ोर से आवाजें आ रही हैं।
'आज तो हड्डियाँ तोड़ के रहूँगा। ले हरामी।’
'हाय, हाय रे अब नहीं करेंगे। बाबूजी। अब कभी नहीं।’
'नहीं समझेगा कभी तू। आज तुझे ठिकाने लगा कर रहूँगा।’और मार-पीट के साथ-साथ हाय-हाय की आवाजें।
'हाय अम्माँ, हाय बाबू, हाय हाय रे मर गया।’
तरु और रश्मि बरामदे में निकल आई हैं।
'कैसी बुरी तरह मार रहे हैं!’
'वह है ही चार-सौ-बीस। भाभी, यही है इनका तीसरे नंबर का लडका दन्नू! जब आते हैं दो-चार बार भूत उतार जाते हैं। पर वह भी एक ही बेशरम है। उधर वो गये इधर ये फिर चालू।
चीख़-पुकार और मारने की आवाज़ें बराबर आ रही हैं।
'ऐसे मारने से तो बच्चे और बिगड़ जाते हैं।’
'बच्चा? बच्चा नहीं, अठारह -उन्नीस साल का साँड है। उसकी शुरू से यही आदतें है।’
रश्मि उसके किस्से सुनाने लगी -
छोटी बहिन गर्ल-गाइड्स में थी, उसकी यूनिफार्म का नेवी-ब्लू दुपट्टा आया। शाम को उसने तह लगा कर हैंगर पर टाँग दिया। सुबह पी। टी के लिया जल्दी पहुँचना था। वह तैयार होकर दुपट्टा उठाने आई तो देखा दुपट्टा हई नहीं।
'काहे अम्माँ, तुमने धर दौ का? हियाँ अरगनी पे टाँगो हतो’
'हम काहे धरिहैं? हुअँनई परौ हुइयै।’
इधर उधर चारों तरफ ढूँढा। दुपट्टा कहीं नहीं।
अरगनी की लहदी टटोली, गन्दे कपडों की गठरी, सन्दूक, छान मारा, गुसलखाने में भी नहीं। दुपट्टा कहीं हो तो मिले!
'हमेसा देर हुइ जात हैगी। आज टाइम से तैयार हुइ गईं तो दुपट्टा सुसरो गायब।’
वह हल्ला मचा रही थी।
अम्माँ भी ढूँढने में जुट गईं।
दन्नू से बड़े मन्नू ताव खाते हुये बिस्तर से उठे, ’सम्हाल के धरो नाहीं जात है किसऊ से। जइये कहाँ? हियनई हुइयै।’
उनने बिस्तरों को भी उलट-पलट डाला।
दन्नू पड़े सोते रहे। किसी ने जगाया भी नहीं।
बहिन ने रोना शुरू कर दिया
'नेक सो दुपट्टा है। कहूँ दबिगौ हुइयै’, मन्नू ने सांत्वना दी।
गठरी फिर उल्टी गई, अरगनी की लहदी बिखेरी गई, बाहरवाला सन्दूक खखोला गया। दुपट्टा नहीं मिला।
हार कर मन्नू नया लेने चले।
मोहल्ले की दुकान पर नेवी-ब्लू दुपट्टा माँगते ही दुकानदार ने झट एक तह लगाया हुआ प्रेस किया दुपट्टा पकड़ा दिया, ’ जहै तो लियो बाबूजी, कल दन्नू बेच गये हते।’
कह कर दुकानदार ने खीसें निपोर दीं।
आश्चर्य से मुँह खुला रह गया मन्नू का, ’दन्नू बेच गये हते!’
'हाँ! आय के कहन लगे-नओ दुपट्टा है, एकौ बार ओढ़ो नाहीं गौ। अब जा कलर की जरूरत नाहीं है।’
'साला चोट्टा, औने-पौने दामन पे बेच गओ बहिनी को दुपट्टा।’ दुकानदार से कुछ कहने से क्या फ़ायदा, लाकर पटक दिया बहन के सामने।
'हियाँ कहाँ मिलिहै दुपट्टा? सामई को दन्नू बेच आये हते।’
' दन्नू बेच आये हते!’माँ ने कपाल पीट लिया। फिर सोच कर बोलीं, ’पर बे तो साम ई से घर नाहीं हते। रात दस बजे आये और खाय के सोय गये।’
दुपट्टा बेच के सनीमा देखन गओ हुइयै, सुसरा। चोर कहूँ को, नालायक। है कहाँ? दन्नू, अबे दन्नू।’
दन्नू की ढूँढ पडी अभी-अभी तो सो रहे थे। जैसे ही सुना भाई दुपट्टा खरीदने जा रहे हैं चुपके से सरक लिये।
'आउन देओ सुसरे को। जइयै कहाँ।’गुस्से में मन्नू चिल्ला रहे थे।
'बहिनी को दुपट्टा भी नाहीं छोड़़ो। कैसो हरामी पैदा भओ है। खून पियन के लै जनमो है राक्सस।’ माँ बड़बड़ाती रहीं।
रश्मि और तरु बातें करती चबूतरे पर निकल आई हैं।
किताबें लादे पड़ोस की उमा ने आकर अपना दरवाजा भड़भड़ाया -उमा का घर आगे सामने की तरफ़ है। दरवाज़ा खुलते ही उमा उत्तेजित-सी अपनी माँ से कह उठी।’अम्माँ, वह जो गुण्डा बस में लड़कियों को परेशान करता था, जिसे पुलिस पकड़ ले गई थी।’
रश्मि और तरु चबूतरे के उस ओर के कोने पर पहुँच गईं।
'उमा, किसे पकड़ ले गई पुलिस?'
'एक गुण्डा था, खूब छेड़ा करता था बस में लडकियों को, गंदी-गंदी बातें बकता था, एक दिन एक लड़की की चुन्नी खींच ली। अगले दिन वह अपने भाई को बुला लाई, तो गुण्डे ने उसके छुरा भोंक दिया। तब पुलिस पकड़ ले गई थी।’
'अच्छा!’
'आज फिर वह बस स्टैंड पर खड़ा था। सबको धमका रहा था कि एक-एक को देख लेगा।’
उमा के पिता बाहर निकल आये थे।
'छोड़़ दिया होगा कुछ ले लिवा कर। या किसी नेता का पालतू रहा होगा उसी ने छुड़वा लिया होगा। उमा, तुम किसी के बीच में मत पड़ना। अब तुम रिक्शे में जाया करो।’
'पर बाऊजी, वो लोग जो बस से जाती हैं वे कहती हैं-हम रोज रोज तीन रुपये रिक्शे के लिये कहाँ से देंगे?”
'उँह, तुम्हें उनसे क्या करना? तुम अपनी देखो।’
उमा चेहरा तमतमा रहा था।
"कैसा अभागा शहर है। कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब कोई हत्या, अपहरण, बलात्कार या दुर्घटना न होती हो! लोगों की इतनी हिम्मत कैसे पड़ती है?”
तरु ने अखबार पढ़ कर मेज़ पर रख दिया।
"पैसा, पद, प्रभाव, तीनों की मिली भगत है,” विपिन बताने लगा,”ये ठेकेदार, एम। एल। ए। और थानेदार तीनों मिले हुये हैं, बुआ जी।
डे़ढ़-ढाई लाख का ऐशगाह बनवाया है उसने। उसकी निगाह गाँव से आई एक मज़दूरनी पर थी। पहले लालच देता रहा, जब नहीं मानी तो राम सरूप ने अपने गुण्डों से उड़वा लिया। उसका आदमी रिपोर्ट लिखाने गया तो थानेदार ने लिखी नहीं, उसे धमका कर भगा दिया। उल्टे औरत पर तोहमत लगा दी -किसी से फँसी होगी, भाग गई हम क्या करें?’
"हमारे ही गाँव की बात हमसे छिपेगी भला! उसका आदमी रोता हुआ गाँव गया। वहाँ के पुराने जमीदार बड़े सज्जन आदमी हैं। उनकी बिटिया यहीं ब्याही है, कभी आपसे मिलायेंगे, बुआ जी। अब तो पूरा गाँव इनके खिलाफ़ है़। और हमारे पास तो पक्के सबूत हैं, एक नहीं तीनों के खिलाफ़।”
विपिन की बात तरु बड़ी रुचि से सुन रही है।
"थानेदार तो खुद साला चोर है। उसके एरिया में चोरी-रहजनी होती है, उसका हिस्सा उसके घर पहुँच जाता है। गुण्डों को राजनीति में संरक्षण मिला है। कोई किस्सा उभरता भी है तो ऊपर का ऊपर दबा दिया जाता है। ग़रीब आदमी बिचारा साधनहीन! उसे डरा-धमका कर चुप कर देते हैं ये लोग। ज्यादा गड़बड़ की तो मार दिया जान से। बस इनका रास्ता साफ़। अबकी तो हमने सोच लिया है अपने गाँव की मदद करनी है।”
"तुम अकेले क्या-क्या कर लोगे विपिन?”
"अकेले कहाँ? बुआजी। पूरा गाँव साथ है। सब गवाही देंगे। ऐसे तो जब वो लोग हल्ला मचाते हैं, ये भ्रष्ट लोग झूठी वारदातों मे उसे फँसा देते हैं। बिचारे की जिन्दगी चौपट कर देते हैं। तबाही मचा रक्खी है। चुनिया की बात को अब दबाया नहीं जा सकता। चुनिया नाम है उसी औरत का। पता नहीं जिन्दा है या मार डाला इन राक्षसों ने।”
"तो इतने दिन तुम यही सब करते रहे। वही मैं कहूँ कि विपिन आजकल है कहाँ! लवलीन से पूछा उसे भी पूरी बात नहीं मालूम।”
"पूरी बात कैसे बतायें उसे? वह डरती है। कहती है तुम्हें कुछ हो गया तो मैं क्या करूँगी? मायकेवाले तो वैसे ही खफ़ा हैं। पर हम डर कर कैसे बैठ जायें?”
"तुम उसे हमारे यहाँ भेज दिया करो। अकेली परेशान होती होगी।”
"बुआ जी कोई एक दिन थोड़े ही है, यहाँ तो ज़िन्दगी ऐसे ही बीतनी है। वैसे सब बता भी दें पर आजकल उसकी तबीयत ऐसी ही चल रही है। उससे कह दूँगा आपके पास चली जाया करे।”
अख़बारों में चुनिया अपहरण काण्ड ज़ोरों पर है।
कितने बड़े-बड़े लोग इन्वाल्व्ड हैं। निशान्त की बिक्री बढ़ गई है।
हर जगह वही चर्चायें। विपिन का नाम बार-बार सामने आता है। उसके पास टेप मौजूद है।
इधऱ चुनिया की लाश मिल गई है। एम। एल। ए। ठेकेदार और थानेदार बुरी तरह फँस गये हैं।
तरु को आज कल बिल्कुल चैन नहीं पड़ता। लवलीन को दिन चढ़े हैं। ऊपर से आये दिन विपिन को मिलने वाली धमकियों से वह उद्विग्न रहती है। विपिन किसी की नहीं सुनता। वह तुल गया है।
तरु समझाती है तो कहता है ,”बुआ जी, आप ही तो बताती थीं कि पत्रकार का कर्तव्य क्या है। अब पीछे हटने को मत कहिये।’
हफ़्ते भर बाद फिर आया विपिन।
"देखा बुआ जी, ये चिट्ठी आई है। कैसे धमकाते हैं। लिखते हैं हमारे बीच में मत पड़ो वरना अंजाम बहुत बुरा होगा।”
ले कर पढ़ा तरु ने। और भी बहुत कुछ लिखा है चिट्ठी में।
"ये तो लिख कर भेजा है। कहलवा भी चुके हैं कई बार। पूछते हैं कितना पैसा चाहते हो? खरीदना चाहते हैं हमें, पढ़ा? बुआ जी, हम पर पीत-पत्रकारिता का आरोप लगा रहे हैं, और साले खुद क्या हैं? वो हमारी बहन के नौकर की लड़की है। हम नहीं छोड़़ेंगे। हम कई बार उससे पहले भी मिल चुके हैं। हमसे भइया जी, भइया जी कहती थी। बड़ी नेक लड़की थी। अभी उमर भी अठारह -उन्नीस की ही थी।”
असित कहते हैं, ’विपिन को समझाओ। यह सब ठीक नहीं वह अकेला पूरी व्यवस्था से कैसे जूझेगा? हर कदम पर उसकी जान को ख़तरा है’।
पर विपिन नहीं मानता। अख़बार में फिर उन तीनों के कच्चे-चिट्ठे खोले गये। मशहूर गुण्डों-बदमाशों के नाम और उनकी करतूतें प्रकाशित की गईं।
विपिन को जो पत्र लिखे गये थे वे भी छपाकर सार्वजनिक किये गये, उनकी दी गई धमकियों से अवगत कराया गया।
सब का श्रेय विपिन को!
लवलीन रोई-धोई, तरु फिर विपिन के घर पहुँची, होनेवाले बच्चे की दुहाई दी। असित ने लाख समझाया। विपिन पर कोई असर नहीं पड़ता। वह थानेदार को भी नहीं बख्शता। तीनों की करतूतें सामने आ रही हैं। चारों ओर थुड़ी-थुड़ी हो रही है।
सम्पादक ने कई बार इशारा किया -यह क्या कर रहे हो? इन लोगों से भिड़ने से पहले अच्छी तरह सोच लो। हर तरह का ख़तरा हो सकता है।
पर विपिन पर एक नशा-सा चढ़ा है, जैसे जुनून सवार हो गया है उसे।
बस एक ही बात दोहराता है,”अब पाँव पीछे नहीं देना है। सारी दुनिया जान ले विपिन बिकनेवाला नहीं। अब पीछे लौटना नहीं है, सोचना नहीं है। अब बस करना है, कर डालना है।”
ठेकेदार थानेदार एम। एल। ए। तीनों अपने-अपने ढंग से उसे साधने की कोशिश कर रहे हैं।
विपिन किसी तरह काबू में नहीं आ रहा।
वह हँसता है,”ये लोग कहाँ किसी से दबते हैं। अपने खिलाफ़ तथ्य सिद्ध होने पर कहीं के नहीं रहेंगे इसलिये दबते हैं। अब तक लालच दे रहे थे, खुशामद कर रहे थे अब धमकी पर उतर आये हैं। पर हमने जो काम हाथ लिया है उसे अधूरा नहीं छोड़़ना है। आप डरिये मत बुआ जी, लिली को भी समझा दीजिये। हम सब से निपट लेंगे। तब आप कहेंगी -ऐसे होते हैं पत्रकार!”
तरु को लग रहा है उसकी फेंकी चिन्गारी सुलग उठी है, अब अंगारों को धूल डाल कर बुझाने की लाख कोशिश करे, कुछ नहीं होने वाला।