एक थी तरु / भाग 30 / प्रतिभा सक्सेना

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'बुआजी आज का पेपर पढा?”

अभी कहाँ पढ़ पाया विपिन। कोई खास बात?”

विपिन के पाँव जमीन पर नहीं पड रहे हैं।

"अब सब सालों की समझ मे आ जायेगा कि हराम के पैसों से खरीद लें, ऐसा सस्ता नहीं है विपिन!”

"वो जो ठेकेदार था न, जिसने ढाई साल में अपना महल खडा कर लिया और पुल में ऐसा मेटीरिल लगाया कि पन्द्रह लोगों की बलि लेकर छः महीनों में बैठ गया, उसकी पोल खोली है हमने। उसकी राम स्वरूप से मिली-भगत है, वही एम, एल। ए। , , उसने फिर से एक ठेका दिला दिया। पर अब हम प़ड गये हैं पीछे। हमें भी दाना डालने की कोशिश की थी पर हम नहीं आये उसके फन्दे में।”

तरु की आँखें चमक उठीं,”अरे सच! इतना बडा कदम उठा लिया तुमने विपिन! कहाँ है अखवार देना ज़रा।”

पढ़-प़ढ कर तरु की बाँछें खिली जा रही हैं, विपिन की छाती फूल उठी।

पर तरु विचार मग्न हो गई।

"विपिन, बडा ख़तरा मोल ले लिया तुमने। अब हर समय तुम्हें सावधान रहना पड़ेगा। मुझे तो बडी चिन्ता हो रही है।”

"आप क्यों डरती हैं? खुश होइये। हम सच बात सामने ला रहे हैं। फिर झिझक काहे की? इन्हे तो यों चुटकी में उड़ा देंगे।”उसने चुटकी बजाई,”जन-मत खिलाफ़ हो जाये तो ये साले कहीं के नहीं रहेंगे। और यहाँ क्या धरा है हमारे पास? रोज कमाना, रोज खाना, कोई लेगा तो क्या लेगा?”

तरु को चुप देख वह फिर बोलने लगा,”सम्पादक सुसरे की पहले तो हिम्मत नहीं पड़ रही थी छापने की। हमने सीना तान कर कहा-बेशक हमारा नाम दे दो। जब प्रमाण मौजूद हैं तो पीछे हटने से क्या मतलब?”

वो बोला -जुम्मेदारी तुम्हारी है, विपिन बाबू। हमने कहा -लाओ हम अपने हाथ से लिख दें अपना नाम। --यह तो पहला कदम है, बुआ जी। अभी आगे-आगे देखिये। अभी एम। एल ए। के यहाँ से बुलावा आयेगा। हम भी कम नहीं हैं। सब टेप कर लेंगे। हाथ में सुबूत होगा फिर दबना किससे?”

"आज यहीं खाना खाकर जाना विपिन, अपने फूफा की भी सलाह ले लो।”

"अरे, आप नाहक घबरा रही हैं। पीछे हटने के लिये कदम नहीं बढाता, अपने विपिन को इतना कच्चा मत समझिये। आप तो बस आशीर्वाद दीजिये कि सत्य पर डटा रह सकूँ।”

विपिन ने झुक कर उसके पाँव छू लिये, उसके सिर पर हाथ रखते तरु का मन जाने क्यों कच्चा हो आया, अन्दर कुछ वेग से उमडा और गले में आ कर अटक गया।

उसे चलने को तैयार देख तरु ने कहा”अभी बैठो विपिन।” कुछ और कहना चाहती थी पर क्या कहे कुछ निश्चय नहीं कर पाई।

"नहीं, बुआ जी। लिली अकेली होगी आजकल उसे जाने क्या हो गया है। मुझे देर हो जाती है तो घबराने लगती है। और हम ठहरे पत्रकार, देर-सवेर तो होता ही रहता है। --अच्छा, अब चलने दीजिये।

विपिन जा रहा है। पीछे-पीछे निकल आई है वह। दरवाजे पर खड़ी विपिन को निहार रही है।

इसी विपिन ने एक बार कहा था,”एक बार उछाल दो किसी को, फिर देखो हमेशा को दबा रहेगा। हमेशा डरेगा कि कोई ऐसी-वैसी बात साथ न जुड़ जाय। इन लोगों की पोल तो हमें मालूम है। जब चाहें एक खबर छाप दें और इनका डब्बा गोल।”

"वे भी तो अपना स्पष्टीकरण देते होंगे?”

'छपने ही कौन देता है उनका? और उस पेपर में तो छप नहीं सकता।”

"और जनता?”

"जनता की खूब कही आपने! अरे, जनता क्या समझे। उसने तो जो पढ़ लिया सो ठीक। किसी के बुरे प्वाइन्ट्स लोगों के गले जल्दी उतरते हैं, बुआ जी। और आस-पास के दो-चार लोगों ने असलियत जान भी ली तो उससे फ़रक नहीं पड़ता। कभी तो लोग कहने लगते हैं-बडा साफ़-सुथरा बनता था अब खुली असलियत! बुराई पर विश्वास जल्दी जमता है लोगों का। स्पष्टीकरण दिया भी जाये तो वह लीपा-पोती समझा जाता है।”

हाथ हिलाता घूम कर चल पड़ा वह।

जनतंत्र का सच्चा चित्र खींच देता है विपिन!

पीछे-पीछे दरवाज़े तक आई हुई तरल, सोच में डूबी उसे जाते देखती खड़ी रह गई।

अन्दर घुसते ही तरु को महक लगी जैसे कुछ जल रहा हो। कुछ देर में महक और तेज़ हो गई।

"चंचल, कुछ जल रहा है क्या?"

"नहीं तो मम्मी।”

"बड़ी महक आ रही है।”

"हाँ, हमें भी लग रही है। इनके घर से आ रही होगी।” चंचल ने पड़ोस के घर की ओर इशारा करते हुए कहा।

"अरे, ये धुआँ भी आने लगा। ये तो अपने घर के अन्दर से आ रहा है।”।

"उन्हीं के यहाँ से धुआँ भी आ रहा होगा। मम्मी। अपने यहाँ घुस आया होगा।”

आजकल श्यामा का बेटा सौरभ आया हुआ है। चंचल से खूब पटरी बैठती है उसकी।

चंचल फिर भाग गई सौरभ से गप्पें लगाने।

महक और धुआँ बढता जा रहा है।

तरु से रहा नहीं गया। उठकर भीतर गई। देखा टोस्टर में से आग की लपटें उठ रही थीं। उसने़ फ़ौरन स्विच आ़फ़ किया।

ज़ोर से आवाज लगाई,”चंचल। ऐ चंचल।”

मम्मी बार-बार आवाज़ दे देती हैं। खेल मे डिस्टर्ब होता है। दो-तीन आवाजें अनसुनी कर चंचल वहीं से चीखी,”क्या है मम्मी?”

"क्या है की बच्ची, यहाँ आकर देख।” उसने माँ को जले हुये टोस्ट निकालते देखा तो घबरा कर बोली,”अरे, हम लगा के भूल गये!”

"हमेशा यही करती है। टोस्ट लगा देती है और जाकर ही-ही करने लगती है। यहाँ टोस्ट जल कर कोयला हो गये लपटें उठ रही हैं और वह कहे जा रही थी पड़ोस से महक आ रही है। पड़ोस से धुआँ आ रहा है।”

चंचल क्या बोले? मम्मी ने कहा था विपिन दादा के लिये टोस्ट भून लो उसने लगा दिये। विपिन दादा चले गये तो वह टोस्ट लगा कर भूल गई।

तरु कहे जा रही है,”। उस दिन भी फुँक गये थे। मैं न देखूँ तो ये लड़की जाने क्या दुर्घटना कर डाले। ---ये ऊपर ही अरगनी पर कपड़े टँगे हैं जिनमें टेरेलीन की साडियाँ और फ्राकें भी हैं --एक बार आग पकड़ लें तो बुझाना मुश्किल।

। कल भी यही हुआ दूध उबल-उबल कर गिरता रहा। जल कर भगोना कोयला हो गया, और वह बाहर खड़ी ही-ही-करती रही।”

चंचल विवश सुन रही है।

बिचारी क्या करे। दूध चढ़ा कर सोचती है अभी तो उबलने में बहुत देर है, ज़रा सा चक्कर बाहर का मार ले और बाहर जाकर बिल्कुल ध्यान से उतर जाता है। जब मम्मी चिल्लाती हैं तब होश आता है।

तरु को बड़ा गुस्सा चढ़ा है,

"इतना कहती हूँ पर इस पर कोई असर नहीं। कहा था विपिन के लिये टोस्ट भून ले, सौरभ के लिये भी। और भूख खुद को भी लगी होगी पर ही-ही, खी-खी में उसे खाने का होश कहाँ।

इतनी बार प्यार से समझाया। डाँटा, हर तरह से कहा कि दूध चढ़ा कर और टोस्ट लगा कर वहीं खड़ी रहो। पर वह हमेशा चल देती है। और सौरभ कहाँ है?”

"बाहर, बैडमिन्टन खेलने।”

टोस्ट कितने भून लिये? किसी ने खाये कि नहीं?”

"अभी कहाँ? पहले ही तो लगाये थे।”

तरु और बिगड़ी।

चंचल खिसक ली। सामने खड़ी रहेगी तो मम्मी बराबर डाँटती रहेंगी।

चुप होकर तरु ने इन्जार किया। न सौरभ आया न चंचल। अब ये भी नहीं कि दोनों जने कुछ खा लें!

वह उठी दूध में कार्नफ्लेक्स डाले।

बाहर से बोलने की आवाजें आ रही हैं

उसने आवाज़ लगाई,”चंचल।”

कोई जवाब नहीं। चंचल ने सोचा मम्मी फिर डाँटने को बुला रही हैं। चुप लगा गई।

"चुड़ैल, वहां जा कर बैठ गई। बहरी कहीं की।”

चुड़ैल आ कर मुँह फुलाये खड़ी हो गई।

गुस्सा आता है तो आता ही चला जाता है।

"अब क्या कर रहीं थीं?”

भइया ने बुलाया था। खेल रहे थे।”

"भइया कहे कुएँ में गिर पडो, तो गिर पड़ना जा के।”

बिचारी चंचल, क्या बोले!

दो कटोरियों में कार्नफ्लेक्स उसने चंचल को पकड़ा दिये।

वह लेकर झट से चल दी।

भीतर दोनों भाई -बहिन खा रहे हैं। हँसने-बोलने की आवाज़ें बाहर तक आ रही हैं।

उसने फिर आवाज नहीं लगाई, दो गिलास पानी अन्दर पहुँचा दिया।

दोनों के ही-ही, खी-खी की आवाजें बाहर तक आती रहीं।