एक थी ताई कलावती / गिरिराजशरण अग्रवाल
हमारे मोहल्ले की ताई कलावती, महिला क्या थी, अपने आपमें सचमुच का एक चलता-फिरता अख़बार थी। आतंकवाद के इस दौर में जैसे कई आत्मघाती दस्ते मानव-बम का प्रयोग करके दहशत फैलाते रहते हैं, हमारी यह ताई कलावती मानव-पत्र, यानी समाचार-पत्र बनकर घर-घर घूमकर लोगों का मनोरंजन करने में व्यस्त रहती है, दिन-भर। सच पूछिए तो ताई हमारे शहर के स्थानीय समाचार-पत्रें से भी दो हाथ आगे है, क्योंकि लोकल अख़बारों में जो ख़बरें नहीं छपती हैं, वे अपनी प्यारी ताई कलावती घर-घर पहुँचाती हैं। किस घर में क्या टंटा हुआ? किसकी छोकरी किसके साथ भागी या भागने वाली है? कौन अपनी आँखें कहाँ लड़ा रहा है? किस भाई ने अपने सगे-भाई का माल हड़प कर लिया? किस बेटे ने बाप की ठुकाई की? किस जेठानी ने देवरानी को मारा? किन बच्चों के झगड़े में बड़े कूद पड़े और मारपीट में कौन-कौन घायल हुआ। ऐसे समस्त घरेलू समाचार, जो लोकल अख़बारों के पन्नों तक नहीं पहुँच पाते, ताई कलावती नमक-मिर्च लगाकर मोहल्ले की सारे दिन ठाली बैठकर गप्प हाँकने वाली गृहणियों तक पहुँचाती है और बदले में हलवा-पूरी खाती है, घी-खिचड़ी खाती है, नाश्ता-पानी करती है और मूँछ न होते हुए भी अपनी ख़याली मूँछों को ताव देती हुई शाम को घर लौट आती है।
भोर होते ही ताई नहा-धोकर साड़ी का पल्लू सिर पर रखेगी और एक-एक घर का आँगन झाँकना आरंभ कर देगी। कहीं चाय-पकौड़ी का जुगाड़ करेगी, कहीं दोपहर के भोजन का, कहीं तीसरे पहर के भोजन का, कहीं शाम की चाय का और कई बार रात के खाने का भी। ताई चूँकि मूर्ख नहीं है, काफ़ी काइयाँ वि़्ाफ़स्म की महिला है, इसलिए एकदम भाँप लेती है कि किसको कैसी सामग्री चाहिए! सुननेवाले की रुचि देखकर वह श्रोता के सामने ठीक ऐसे समाचार परोसेगी, जिन्हें सुनने का वह इच्छुक होगा। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि श्रोता का रुख़ भाँपने में ग़लती भी लग जाती है ताई कलावती को। तब उसे काफ़ी मशक्कत करनी पड़ती है और समय भी काफ़ी जाया करना पड़ जाता है। यह तो हम नहीं कह सकते कि समाचारों को बेचकर घी-चुपड़ी खाने की यह कलात्मक प्रथा कब अस्तित्व में आई थी, कितु हमारे एक शोधकर्ता मित्र खोजबीन के उपरांत इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि समाचारों की बिक्री करनेवाला दुनिया का सबसे पहला आदमी, दुनिया का सबसे बड़ा 'चुगलीख़ोर' रहा है। जो चुगली नहीं कर सकता, इधर-उधर की नहीं हाँक सकता, बिना पर की चिड़िया नहीं उड़ा सकता, तिल का ताड़ नहीं बना सकता और बिना पंख का कौआ नहीं बना सकता, वह कुछ भी हो सकता है, पत्रकार नहीं हो सकता। समाचार गढ़ना और उन्हें घर-घर तक पहुँचाना और बदले में ठाठ के साथ मस्ती मारना सचमुच ही एक कला है और कला भी ऐसी-वैसी नहीं, बड़ी ही अद्भुत कला! हमारा विचार है कि चुगलीख़ोरी का विकसित रूप ही पत्रकारिता कहलाता है और यह अपनी ताई कलावती जो हैं ना, यह उसका प्राचीनतम अवशेष हैं।
हाँ तो ताई कलावती ने आज सुबह-सुबह जैसे ही हमारे घर में प्रवेश किया, घर के काम-धंधे में भूतनी बनी हमारी धर्मपत्नी ने ताई को हाथोंहाथ लिया। आदर-सम्मान से उसे झिलंगा हो गई खाट पर बैठाया, कुशल-क्षेम पूछा। ताई इधर-उधर की बात में व्यस्त हो गईं। नाक उँगली पर धरकर हमारी घरवाली से बोली-'कुछ सुना है बहन जी तुमने, माखनलाल की चिड़िया उड़ गई, किसी चिड़ीमार के साथ।'
'यह समाचार तो बासी हो गया ताई.' हमारी प्यारी घरवाली विषय को बदलने का प्रयास करते हुए बोली। ताई को समझते देर नहीं लगी कि उसके तीर का निशाना चूक गया है। तुरंत ताई ने कमान पर दूसरा तीर चढ़ाया। नाक पर उँगली जमाई, निशाना दागा-'तुम्हें कुछ पता है साधना बहन! मुरलीधर के छोकरे ने ख़र्चापानी न मिलने पर बाप की ठुकाई कर दी।'
'जमाना ही ऐसा आ गया है, ताई. कलयुग है, कलयुग। इसमें जो भी अनहोनी हो जाए थोड़ी है।' हमारी चतुर घरवाली ने इस समाचार में भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. ताई का यह तीर भी व्यर्थ गया। हमें लगा जैसे हम प्रतिदिन आने वाले अख़बार के पन्ने पलट-पलटकर अपनी पसंद की ख़बरें खोजा करते हैं, ठीक वैसे ही हमारी प्रिय पत्नी भी ताई के पन्ने पलट-पलटकर अपनी रुचि का समाचार कुरेदने का प्रयास कर रही है। कुछ क्षण दोनों महिलाओं में इस प्रकार की चुप बनी रही, जैसे चुनाव से पूर्व प्रचार-अभियान पर विराम लग जाता है और सारे लाउडस्पीकर मौन हो जाते हैं, लेकिन अभी कुछ ज़्यादा देर नहीं गुजरी थी कि ताई कलावती ने अपनी कमान से एक तीर और छोड़ा। अपना पोपला मुँह हमारी श्रीमती जी के कानों में ठूँसती हुई बोली-'अरी बहन! ग़जब हो गया रात तो! पेशकार गंगाधर का छोकरा पड़ोस के घर में चोरी करते पकड़ा गया।'
हमने देखा, ताई का यह तीर भी बेकार चला गया है। क्योंकि हमारी प्रिय पत्नी उत्तर में ताई से कह रही थी, 'शरीफ़ घरों के बच्चे, यह नहीं करेंगे तो और क्या करेंगे ताई! काम नहीं, रोजगार नहीं, फिर हजार-पाँच सौ की चोरी करने वाला तो रख दिया जाता है तलवार की धार पर, कितु करोड़ों चट कर जाने वालों का कभी कुछ नहीं बिगड़ता। दो-चार दिन चर्चा होती है और ख़त्म हो जाता है वि़्ाफ़स्सा।'
'तुम ठीक कहती हो बहन।' ताई ने मुरझाए हुए लहजे में उत्तर दिया तो हम समझ गए, ताई बेचारी अपना शिकार फाँसने में सफल नहीं हो पा रही है। एक निराशा-सी छाने लगी है उस पर। तभी गीले ईंधन में दियासलाई लगाते-लगाते थक गई ताई ने हमारी प्रिया पत्नी को अतिथियों के आदर-सत्कार की परंपरा का एहसास दिलाते हुए कहा-'बहन, एक गिलास ठंडा पानी तो मँगवाओ. तुम्हारी देवरानी सुजाता के घर से आ रही हूँ। घर दूर है, गर्मी में आते-आते थक गई, प्यास लग रही है बड़े जोर की।'
लेकिन हमने देखा कि हमारी प्रिय पत्नी इस पर भी टस से मस न हुई. बोली, 'ठंडा पानी तो है नहीं ताई. रात से बिजली बंद थी। फ्रिज में जो पानी रखा था, वह ठंडा कैसे होता! गर्म पानी पिओगी तो प्यास और भड़केगी।'
'घड़े का भी चल जाएगा बहन।' प्यासी ताई ने अपनी प्यास का प्रदर्शन करते हुए कहा।
'देख ले ताई, घड़ा तो ख़ाली पड़ा है, कब का।' हमारी धर्मपत्नी उसी उबाऊपन से बोली। घर में काम-धंधा फैला हो, सफ़ाई करनी हो, झाड़ू-बुहारू का काम पड़ा रह गया हो, बर्तन साफ़ करने के लिए पड़े हों तो ऐसे में जाहिर है गृहणियाँ फ़ालतू बातों और फ़ालतू औरतों को टालने और अपना पीछा छुड़ाने का प्रयास तो करती ही हैं। अपना कोई उद्देश्य न हो तो बड़े-से-बड़ा नेता भी मतदाताओं से बात करना पसंद नहीं करता है, भाई. यह तो बेचारी धर्मपत्नी है। अगर ताई को सूखा टाल रही है तो इसमें अचंभा ही क्या है? हम अभी दोनों महिलाओं की स्थिति का विश्लेषण कर यह सोच ही रहे थे कि हमारी श्रीमती जी ने थोड़े व्यंग्य-भरे लहजे में ताई से पूछा-'क्यों ताई! क्या आज पानी-पत्ते की सुध नहीं ली, सुजाता ने?'
'लेती क्यों नहीं, देखते ही गरम-गरम चाय लाई.' ताई कलावती ने प्रशंसा-भरे स्वर में उत्तर दिया।
हमें लगा, ताई एक बार फिर ठोकर खा गई है, शायद। उसे ध्यान नहीं रहा कि पिछले दिनों सुजाता से हमारी धर्मपत्नी श्रीमती राधारानी की जो परंपरागत तू-तू, मैं-मैं हुई थी, तबसे यह महारानी उसके कीड़े खोजने और उन कीड़ों को देखकर अपनी-अपनी बगलें बजाने में आनंद लेने लगी है।
'सुजाता के यहाँ चाय पी आई हो तो हमारे यहाँ का पानी तुम्हें कहाँ अच्छा लगेगा? कडुआ ही लगेगा ना।' हमारी परमप्रिय पत्नी ने ताई पर कटाक्ष किया।
'नहीं—नहीं ऐसी बात नहीं है, राधा बहन!' ताई थोड़ा सटपटाकर बोली। हम आश्चर्य से दोनों का वार्तालाप सुन रहे थे और इस बात को सोचकर बुरी तरह चकित थे कि घाट-घाट का पानी पीने वाली घाघ ताई सीधी-साधी गृहणी को अड्डे नहीं लगा पा रही है।
हमने देखा कि हमारी चतुर घरवाली ताई से पीछा छुड़ाकर जैसे ही उठने वाली थी, वैसे ही ताई ने कंधे पर हाथ रखकर उसे रोका। बोली-'तुम्हें पता है राधा बहन! तुम्हारी देवरानी की छोटी बहन सुषमादेवी ने लव मैरिज कर ली। न बाजा बजा, न डोली उठी, न बारात आई, न लोग-बाग इकट्ठे हुए. चट मँगनी, पट ब्याह। हाथ पीले हो गए.'
हमने देखा, खाट से उठते-उठते फिर बैठ गई हैं श्रीमती जी. बोलीं, 'लव मैरिज वाली बात का तो पता लग गया था हम लोगों को ताई, पर यह पता नहीं लगा कि सुजाता पर इस घटना से क्या बीती?'
'बीतनी ही क्या थी राधा बहन।' ताई ने सहजभाव में उत्तर दिया, 'मैं तो अभी वहीं से आ रही हूँ, बेचारी ने एक शब्द नहीं कहा। साँप तो निकल ही गया है बहन, अब लकीर पीटने से होता भी क्या है?'
'हाँ, लेकिन ताई यह तो बताओ, सुजाता ने खाली चाय की प्याली ही हाथ में पकड़ा दी या कुछ और?'
'सूजी का हलवा भी खिलाया राधा बहन!' ताई ने उत्तर दिया तो फिर हमें एक धक्का-सा लगा। सोचा, शायद अब बिलकुल ही सठिया गई है ताई कलावती। समझ ही नहीं रही है समय की माँग और मुर्गे की बाँग को।
'तो बात यह है ताई.' हमारी प्रिय पत्नी थोड़ा ऊबकर बोली, 'वह जो किसी ने कहा है न, मुँह खाए आँख लजाए, वह कोई ग़लत थोड़ा कहा है। माल-पानी उड़ाकर आ रही हो सुजाता के घर से, कोई काम की बात थोड़ा बताओगी उसके घर की।'
अब क्या था, ताई कलावती को मिल गया एक काम का सूत्र। अपनी चिरपरिचित आदत के तहत उँगली नाक पर रखकर बोली, 'वह दिन लद गए राधा बहन, जब मुँह खाता था और आँख लजाती थी। लाज तो कभी की ब्याज सहित चुका दी है, लोगों ने। देखती नहीं हो, कितने बड़े-बड़े सदाचारी, दुराचारी, सबके सब खा रहे हैं, लजा कोई नहीं रहा है। जिसने की शरम, उसके फूटे करम।'
'बात तो तुम ठीक कह रही हो ताई पर—।' घरवाली आगे कुछ कहना चाहती थी कितु ताई कलावती बीच ही में हस्तक्षेप कर बैठी। अपना मुँह हमारी प्रिय धर्मपत्नी के कान के पास ले जाते हुए बोली-'मैं तो असली बात तुम्हें बता नहीं रही थी, राधा बहन। देख नहीं रही हो, भैया जी बराबर में बैठे हैं, आख़िर कुछ भी हो, हैं तो भाई ही। एक माँ के पेट से पैदा हुए हैं, सुनेंगे तो मन-ही-मन में दुखी होंगे।'
'अब कोई भाई दुखी नहीं होता है भाई के लिए.' राधा ने दो टूक उत्तर दिया।
ताई बोली, 'लव मैरिज की घटना को लेकर तो वह भारी महायुद्ध छिड़ रहा सुजाता और तुम्हारे देवर जी के बीच—।'
'कैसा महायुद्ध? ज़रा बताओ तो सही ताई.' राधा ने ताई कलावती की बात में गहरी दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी। ताई ने बात आगे बढ़ाई-'देवर जी ने सुजाता पर आरोप लगाया कि उसी ने दोनों के बीच दलाली का काम किया।'
हमने यह बात सुनी तो अपने-आपको रोक नहीं सके. बोले, 'सुजाता ने दलाली की भी तो कौनसे अचंभे का काम किया! बड़े-बड़े धुरंधर दलाली कर रहे हैं अब तो।'
पर दोनों महिलाओं में से किसी ने भी हमारी बात पर ध्यान नहीं दिया। ताई पहले की तरह फिर फुसफुसाई, 'दलाली की बात पर सुजाता ने आफ़त खड़ी कर दी।'
हमसे फिर अपने आपको न रोका गया। बोले, 'आफ़त खड़ी करनेवाले आफ़त खड़ी करते रहते हैं और दलाली करने वाले—।'
अबके फिर हमारी बात सुनी-अनसुनी कर दी। सिर जोड़े बैठी इन महिलाओं ने। ताई तीसरी बार बुदबुदाई-'फिर जो मारपीट हुई है बहन दोनों पति-पत्नियों में तो बस पूछो मत। सुजाता घायल हो गई बुरी तरह।'
अभी बात पूरी कह भी नहीं पाई थी ताई कलावती कि हमारी परमप्रिय धर्मपत्नी ने ऊँचे स्वर में बेटी को हाँक लगाई, 'पिकी बेटी, ज़रा ताई के लिए फ्रिज से ठंडा पानी तो निकाल ला और देख ज़रा पराठा और थोड़ा-सा हलवा भी।'
हमने देखा, संतोष से ताई की बाँछें फैल गई हैं और वह घी-चुपड़ी पर अपने हाथ साफ़ करने के लिए किचन की ओर चाव से निहार रही है।