एक थी बार्गेनर / पल्लवी त्रिवेदी

Gadya Kosh से
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वो एक महान औरत थी... बल्कि अपनी सदी की महानतम औरत थी। बारगेन करने में जो सिद्धि उसने हासिल कर ली थी , मैं नहीं समझती पांच सात जनम से कम की कड़ी तपस्या में बात बनी होगी। उसके मारे शहर भर के दुकानदार भय से कांपते थे मगर व्यापार की तहजीब का लिहाज करते हुए भारी ह्रदय से पथराई आँखों से मुस्कुरा कर स्वागत करते थे।वो इन दुष्ट और मंहगा सामान बेचने वाले , टैक्स बचाने वाले दुकानदारों को सबक सिखाने के लिए प्रथ्वी लोक पर भेजी गयी थी। किसी दुकान में घुसने के पहले उसके चेहरे पर वो कुटिल मुस्कान आती थी कि मन्थरा भी देख ले तो शरमा कर किसी कोने कुचियारे में जाकर मुंह छुपा ले या कहीं कोई चुल्लू भर पानी में डूब मर रहा हो तो उसी चुल्लू के पानी को वो भी शेयर कर ले।


वो अन्य आम महिलाओं की तरह नहीं थी जो काहिलों के समान अपनी दोपहरियाँ दूसरों की बहुओं और सासों की बुराई करते हुए या किटी पार्टी में हाउज़ी खेलते हुए या रात का दिखा दिखाया सीरियल फिर से देखते हुए या खर्राटे मारकर सोते हुए या अपनी खिड़की की दरारों से बगल वालों की बबली पर निगाह रखते हुए बिताती थीं।


वो एक बलवती और वेगवती महिला थी। मई जून की लपलपाती गर्मी हो या मूसलाधार बारिश की अँधेरी शाम , उसे हाटों , मेलों , बाज़ारों और मॉलों की दुकानों पर खचर खचर करते देखा जा सकता था। एक आम महिला जहां एक हज़ार की साड़ी को सात सौ में लगवाकर प्रसन्नता के मारे उड़ी उड़ी फिरती थी , वो हिकारत भरी एक दृष्टि उन बेवकूफ महिलाओं पर डालती थी और उसी साड़ी को तीन सौ में लेकर अपने घर का रास्ता नापती थी।


दुकानदार उसे देख थर्राते थे।वो दुकानदारों का नाइटमेयर थी। उससे बोहनी कराने को दुकानदार अशुभ मानते थे।दीवाली और धनतेरस के दिन दुकानदार माँ लक्ष्मी की प्रार्थना कर घर से निकलते थे कि " हे माता ,बस इतना देखना कि आज इस मनहूस औरत के कदम दुकान पे न पड़ने पायें। " यदि कोई नया दुकानदार उसकी सिद्धि से अपरिचित होता था और "एक दाम" का बोर्ड उसके आगे रख देता था तब भी उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती थी। वह बड़े प्रेम से उस दुकान की सारी साड़ियाँ निकलवाती और दुकान के उस हैंडसम नौजवान को साड़ियाँ पहनकर दिखाने के लिए कहती थी , जब वह इक्कीस बरस का युवक मन मारकर साड़ी अपने इर्द गिर्द लपेट लेता था तब वह उसे पल्लू लहराकर दिखाने के लिए कहती थी। उस युवक को कम से कम पचास साड़ियों का पल्लू लहराना पड़ता और दुकान में कैटवाक करनी पड़ती। उस भरे बाज़ार में उस युवक की आँखें लगातार बाहर की ओर लगी रहतीं कि कहीं गर्लफ्रेंड की किसी सहेली ने देख लिया तो इज्जत का इंतकाल हो जाना है। इतने पर भी दुकानदार की अक्कल के द्वार नहीं खुलते और बारगेन न करने पर अड़ा रहता तब वह उसी प्रेम भाव से अगले तीन घंटे में निचली ऊपरी सारी मंजिलों से सूती से लेकर सिल्क तक की सारी साड़ियों को फ्लोर की धूल चटाती,यहाँ तक कि मैनेकिन को भी नग्नावस्था में पहुंचाकर ही उसे संतोष मिलता था।उन साड़ियों के बवंडर के बीच दुकानदार असहाय , हैरान परेशान सा फंसा उलझा बैठा दिखाई देता। दुकान की सारी साड़ियाँ नीचे पटकवा और खुलवाकर अपनी वही प्रसिद्ध कुटिल मुस्कान दुकानदार पर फेंककर वह चलती बनती। उसके जाने के पश्चात उस " बहूरानी साड़ी सेंटर " में उपस्थित दृश्य की तुलना द्रोपदी के चीरहरण एपिसोड के बाद के दृश्य से की जा सकती है । वो दुकानदार की बेजा हठ का मज़ा उसकी ऊर्जा,समय और ग्राहकी खोटी करके चखाती थी। वो एक इच्छाधारी अलनीनो थी , जो दुकान पर तबाही मचाकर निकल जाती थी। वो चीखता साठा थी , गरजता चालीसा थी।


दुकानदार और उसका सारा स्टाफ मिलकर चार घंटे में वो साड़ियाँ यथा स्थान रख पाता। इस बीच दुकान की ये दुर्दशा देख और शोकेस खाली देख कई ग्राहक बाहर से ही लौट जाते। जब दुकानदार अन्य ग्राहकों के लौटने से होने वाले नुक्सान और समय के अपव्यय का हिसाब लगाता तब उसे एहसास होता कि यदि वो उस साड़ी को उस महान महिला को फ्री में भी दे देता तो ज्यादा फायदे में रहता। अगली बार से " नो बारगेन या एक दाम " जैसे बोर्ड के स्थान पर " ग्राहक हमारा देवता " जैसे बोर्ड उस महिला के सामने रख दिया करता।


सिर्फ वस्त्र ही नहीं बल्कि चम्मच , कप प्लेट , चादर , झाड़ू आदि आदि घरेलू वस्तुओं पर भी वह अपनी सिद्धि आजमाती थी। वो इस हद तक दृढ निश्चयी थी कि एक बार पचास पैसे की एक संतरे की गोली को भी एक रुपये की पांच के हिसाब से ले आई थी। दुकानदार खुद के ऊपर हतप्रभ था कि वह ऐसा कैसे कर सका।जहाँ किसी अन्य महिला की आखिरी लिमिट ख़त्म होती थी वहाँ से वह सौदेबाजी शुरू करती थी। आज तक उसने मिर्ची ,धनिया और लहसुन पैसे देकर नहीं खरीदे थे।


ईश्वर उसे अपनी बेहतरीन कृतियों में से एक मानता और उसकी दुकान दुकान परिक्रमा को अपने मनोरंजन का सर्वश्रेष्ठ साधन समझता था।


वह दुकानदारों के साथ किच किच को घर की वित्त व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण अंग मानती थी। मोहल्ले की कई महिलायें उसके प्रशिक्षु बन गयीं थीं। जब उसके साथ ये प्रशिक्षु दल चलता तो बाज़ार की शामत आ जाती थी। कई दुकानदार उलटी दस्त का बहाना कर शटर गिरा कर घर चल देते थे। कई खाए पियों को चक्कर आ जाते , कई सेहतमंद गश खाकर गिर पड़ते। वो आज तक कभी ठगी नहीं गयी थी। पैंतीस रूपये का रूमाल वह दस रूपये में लगवाकर लाती थी और दो धुलाई बाद यदि रूमाल का कलर फीका पड़ जाता था तो वो दुकानदार के टेंटुए में ऊँगली डालकर अपने दस रूपये निकलवा लाती थी। दुकानदार के सारे "बट,परन्तु,किन्तु,लेकिन" उसके आगे बेअसर थे।ज़रुरत पड़ने पर वह एक खतरनाक लड़ाका योद्धा बनकर उभरती। आँख दिखाने से लेकर हाथ नचाने तक और अति ज़रुरत के समय मुख से बेहद सस्ती गालियाँ निकालने तक वो सारे अस्त्रों का इस्तेमाल बेहद किफायत और चतुराई से करती थी।आड़े वक्त के लिए उसने अपने गाँव की अनुभवी डोकरियों से सीखी ऐसी ऐसी गालियों का स्टॉक एकत्र कर लिया था कि उसे सुनते ही दुकानदार की ऊपर बैठी सात पुश्तों तक के कानों में घनघोर हाहाकार मच जाता।

उपभोक्ता फोरम वाले अपने उत्सवों में उसे मुख्य अतिथि बनाकर आमंत्रित करते थे। वे फोरम के चक्कर काटते धोखा खाए ग्राहकों को उसकी केस स्टडी पढ़ाकर उसका उदाहरण देते थे। उसे उपभोक्ता कानूनों का कतई ज्ञान नहीं था। वह एम.आर.पी. की फुल फॉर्म नहीं जानती थी । उस नहीं पता था कि सरकार ने किसी सामान का कितनी अधिकतम मूल्य तय कर रखा है, वो सिर्फ ये जानती थी कि उसने स्वयं ने उस सामान का कितना अधिकतम मूल्य तय किया है।

जब कभी कोई उससे पूछता " आपको नहीं लगता कि आपकी वजह से दुकानदार घाटे में जा रहा है ?"तो वह एक अत्यंत मनोहारी मुस्कान बिखेरती फिर अगले ही क्षण बुद्ध की तरह गंभीर होकर सुकरात की तरह दार्शनिक होकर कहती " आपको और कुछ मालूम हो या न हो पर ये पता होना ही चाहिए कि एक दुकानदार जो कितनी भी कम कीमत पर सामान बेचने के लिए तैयार हो गया है वह कभी भी घाटे में हो ही नहीं सकता। बल्कि वह " नो लॉस नो प्रौफिट " में भी नहीं है। वो यकीनन लाभ में ही है। बस फर्क इतना है कि वो बाकियों को ठग रहा है और मुझे ठग नहीं पाया है। मुझे बिलकुल नहीं पता कि किसी भी वस्तु को बनाने की लागत कितनी आती है ? मुझे क्या पता स्टेनलेस स्टील का कुकर कितने पैसों में बनकर तैयार हुआ है और एक प्लास्टिक की बाल्टी कितने में बनी है ? मगर मुझे ये पता है कि जितने में भी वो वस्तु बनी है ये दुष्ट दुकानदार उसके सीधे सीधे चार गुना दाम बढ़ाकर बता रहा है। मैं तो बस उसके बढे हुए दामों के गुब्बारे की हवा निकालती हूँ । ये बात और है कि उन गुब्बारों में चुभने वाली सुइयां हर किसी के पास नहीं पायी जातीं ।वो सिर्फ मेरे पास हैं " उसका दर्शन मामूली दर्शन नहीं था। उसका दर्शन बड़े सधे हुए और सटीक तर्कों पर आधारित था। उसने अपने अनुभव से ऐसा कौशल विकसित करने में महारथ हासिल कर ली थी जो कि एक पढ़ा लिखा कंज्यूमर सौ किताबों पर सर पटक पटक कर भी विकसित नहीं कर पाया था। बारगेन कला में सिद्धि हासिल करने के लिए वो तीन चीज़ों को अत्यंत आवश्यक बतलाती थी । 1-भरपूर समय 2- धैर्य और क्रोध का संतुलित प्रयोग 3- गले की मांस पेशियों की अथक ताकत। साथ ही नियमित रियाज़ की आवश्यकता पर भी वो ख़ासा जोर डालती थी।

ताज़ा सूचना यह प्राप्त हुई है कि उपभोक्ता फोरम ने उसे अपना पूर्णकालिक सलाहकार नियुक्त कर लिया है एवं उसके मार्गदर्शन में हर मोहल्ले में एक समिति बनायी जा रही है जो उससे एक माह का प्रशिक्षण लेने के उपरान्त बाज़ार में उतारी जायेगी। इस सूचना के बाद से ही व्यापारियों में शोक की लहर दौड़ गयी है व वे इस निर्णय के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाने की तैयारी कर रहे हैं।