एक थी सीता / टॉमस मान

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टॉमस मान 1875 में जर्मनी में पैदा हुए और 1955 में स्विट्जरलैण्ड में उनकी मृत्यु हो गयी। उनके साहित्य पर 1929 का नोबेल पुरस्कार दिया गया। उन्होंने उपन्यास, कहानियाँ और निबन्ध लिखे हैं, यहाँ उनकी एक भारतीय दन्तकथा का संक्षिप्त रूपान्तर दिया जा रहा है।

कर्म से ग्वाले, क्षत्रिय कुल के सुमन्त्र की सुगठांगी सुन्दरी सीता और उसके दोनों पतियों (अगर पति कहना ही अपरिहार्य हो तो) की कहानी ऐसी है कि श्रोता से श्रेष्ठ मानसिक बल व माया के विविध रूपों की प्रतिक्रिया में अविचलित रहने की माँग करती है।

स्मृति के अन्तर्गत आनेवाले एक काल में जगद्धात्री के वक्ष पर अन्तरंग मैत्री के कोमल बन्धनों में दो नवयुवक रहा करते थे। भवभूति का बेटा श्रीदामा कुल से ब्राह्मण, कर्म से वणिक और आयु में अपने सखा गर्ग के बेटे नन्द से तीन वर्ष बड़ा था। यादववंशी, अठारह वर्षीय नन्द कुलीन नहीं था, किन्तु व्यवसाय ही करता था। श्रीदामा के लिए ब्राह्मणमार्गी संस्कारों को तजना कर्म बदलने के बावजूद कठिन था, अतः वह अध्ययन, गाम्भीर्य, सुसंस्कृत भाष्य से अलंकृत था, जबकि नन्द को, शूद्र न होते हुए भी इन वस्तुओं से कुछ ज्यादा लगाव नहीं था। दोनों के शरीर भी इसी भाँति विभिन्न थे। नन्द श्यामकाय महाबली था, श्रीदामा ओज मण्डित मुखश्री व चन्द्रवर्ण से विभूषित था, किन्तु कृशकाय था। कोशल भूमि के गोपुरम् ग्राम में दोनों रहते थे और दोनों की आमूल विभिन्नता ही अभिन्न मित्रता का मूल थी-ऐतद् वैतद् के सिद्धान्तानुसार सहचारिता एकानुभूति को जन्म देती है, एकानुभूति अन्तर की ओर ध्यान आकर्षित करती है, अन्तर से तुलना उद्भूत होती है, तुलना असहजतापूर्ण विचार उपजाती है, असहजता अचरज की ओर ले जाती है, अचरज शंसा का मार्ग प्रशस्त करता है और शंसा से अन्ततः हम परस्पर विनिमय के उद्योग द्वारा संयुक्त हो जाते हैं। दोनों मित्रों में दारुण भिन्नता के कारण वैसी नोक-झोंक होती रहती थी जो ऐसी मैत्री का भावमय अलंकार होती है।

नन्द को व्यावसायिक दृष्टि से एक योजना बतानी पड़ी, जिसमें उसने अपने परम बन्धु श्रीदामा को भी संग ले लिया, कि यात्रा आनन्दमयी रहे। तदनुसार दोनों मित्र यमुना के तट पर बसे इन्द्रप्रस्थ के उत्तर की ओर कुरुक्षेत्र के निकट पहुँचे। गन्तव्य से कुछ इधर ही माँ काली के एक निवास स्थान के निकट, दोनों मित्रों ने विश्राम-हेतु पड़ाव डाला। स्नान व भोजन से निवृत्त होकर एक मीठी-सी, विद्या-सम्बन्धी झड़प की और वृक्षों के झुरमुट में, अपराह्न वेला में आकाश का सौन्दर्य निहारते लेट गये। नन्द के बदन से उठती सरसों के तेल की महक से मच्छर इत्यादि भुनभुनाने लगे तो दोनों मन्द-मन्द मुसकराते उठकर बैठ गये। तत्काल झुरमुट के पार नन्द की दृष्टि गयी। और सीता के अवतरण का कारण जुटा... जो उस समय स्नान स्थली के तीर पर खड़ी जल को शीश नवाये धारा में उतरने को थी। अर्धवसना युवती की सर्वांगश्रेष्ठ, सुकुमार सुन्दरता के आलोक से चौंधियाकर दोनों विस्मित रह गये। निश्चल व निर्वाक् रहकर उस प्राणमयी रूपयष्टि का प्रभाव-पान करने लगे। दोनों के लिए इस अवलोकन-क्रिया से मुक्त होना तब तक असम्भव रहा जब तक सुन्दरी सीता नहाकर, बदन पोंछकर, अपनी चोली व साड़ी पहनकर चली नहीं गयी, तब तक दोनों ने उसकी स्नान-लीनता में व्याघात पड़ने की शंका से पत्ता तक नहीं खड़कने दिया। यहाँ तक कि उस बीच किसी नभचर, किसी वायु का कलरव तक नहीं सुना! ...नन्द ने यह उद्घाटित किया कि वह उस अनिन्द्य रूपांगना को जानता था। भीष्म ग्राम के सुमन्त्र की बेटी थी वह और उसने उसे अपनी बाँहों पर उठाकर सूर्यस्पर्शी भी कराया था - पिछले वसन्त में, जब एक उत्सव में वह यहाँ आया था। सीता के प्रभाव में रमी-रमी चर्चाएँ करते नन्द और श्रीदामा पूर्व-योजनानुसार, तीन दिन बाद मिलने का स्थान व समय निश्चित करके अलग-अलग हो गये। विलगने से पूर्व श्रीदामा ने प्रवाहित होकर कहा-सौन्दर्य का अपनी छवि के प्रति कर्तव्य भी होता है। इस कर्तव्य को पूरा करके वह एक ऐसी ईहा जगाता है जो उसकी आत्मा तक पहुँचने का मार्ग दर्शाती है ...मैं भी, बन्धु, उस रूप को देखकर तुम्हारी ही तरह प्रभावित हूँ। यह उन्मादावस्था इस दर्शन का कार्य है...

तीन दिन बाद निश्चित स्थान व समय पर जब श्रीदामा नहीं पहुँचा तो नन्द विकल हो उठा। अन्त में जब वह आया तो नन्द यह देखकर बिंध गया कि उसके मित्र के मुखमण्डल पर विषाद और निराशा के घटाटोप बादल हैं। उसने भोजन के लिए क्षमा चाही और बताया कि वह अस्वस्थ रहा है। नन्द ने उसकी बाँह पकड़ी व अकुलाकर पूछा - मेरे भाई, तुम्हारी यह हालत कैसे हुई?

श्रीदामा ने आत्मस्वीकार किया और कहा कि वह सुन्दरी सीता की अदमनीय कामना से जूझ रहा है और संसार में कहीं कुछ भी रुचिकर नहीं दीख रहा। अतः उसका रोग मृत्युपर्यन्त है। नन्द, मेरे लिए चिता तैयार कर दो! तिल-तिल जलकर मरने से अच्छा होगा कि मैं अपने प्राणों की आहुति दे दूँ।

नन्द ने आँखों में आँसू भरकर कहा, तो मैं भी चिता में तुम्हारे साथ ही पड़ जाऊँगा। क्योंकि तुम्हारे बिना मेरा जीवन अपूर्ण है। देखते हो मेरी यह बलिष्ठ देह केवल आहार के बल पर नहीं पनपी। तुम्हारे ओजस्वी मानस की गरिमा भी उसके अन्तःसंचार का आधार है।

श्रीदामा ने कहा कि क्योंकि नन्द ने भी उसके साथ ही इस रूपसुधा के पान का श्रेय बाँटा था। अतः वह जैसा चाहे कर सकता है। चाहे तो दोनों के लिए चिता तैयार कर सकता है।

सुनकर नन्द ने कहा - मित्र, मैं समझ गया, तुम तीव्र संवेदनशील व कुशाग्र मस्तिष्क के हो। अतः तुम प्रेम का शिकार होकर रह गये। आज्ञा दो तो मैं मृत्यु की बजाय तुम्हारी प्रेम की इच्छा पूरी करने के लिए उद्योग करूँ। सीता सुन्दरी से तुम्हारे विवाह के लिए बात चलाऊँ। मुझे विश्वास है कि वह तुम जैसे विद्वान व कुलीन युवक को पाकर धन्य होगी।

कर सकोगे ऐसा नन्द प्रिय? श्रीदामा ने क्षीण आभा व सन्देह से पूछा।

क्यों नहीं दाऊ जी?

और नन्द ने कर दिखाया।

सीता से न केवल श्रीदामा का तुरन्त विधिवत् विवाह हो गया, अपितु वह ऐसे पति को पाकर मुग्ध भी रह गयी जिसका सर्वांग विद्वत्ता के ओज से प्रद्युमित था। पति-पत्नी के दिन-रात आलोक, नाद और विस्मृति के पुष्पों से सजे-ढँके रहने लगे। घोर ग्रीष्म के बाद वर्षा आयी। और वह भी जाने को हुई, जब श्रीदामा की माता ने सीता को एक बार पीहर हो आने की आज्ञा दी, वह छह मास गुजरते-न-गुजरते, अब अपने गर्भ में श्रीदामा के विवाह का फल धारण कर चुकी थी।

2

अभिन्न नन्द गाड़ी हाँक रहा था। पीछे दम्पती मौन व मग्न थे। नन्द धुन में था। वह ऊँचे स्वर में एक गीत अलापता, बीच में गुनगुनाहट पर उतर आता और अन्त में उसकी बुदबुदाहट भर सुनाई देती। तब वह पीछे घूमकर देखता, दोनों को अपनी ओर देखता पाता। यह क्रम मौन मात्र में परिवर्तित हो गया और तीनों की साँसें भर सुनाई देती रहीं। कई बार तीनों ने एक-दूसरे-तीसरे को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दृष्टि से देखा, तब जाकर उन्हें चेत हुआ कि वे रास्ता भटक गये हैं और वाहन एक विरल स्थल पर बन्द मार्ग के सामने खड़ा है। नन्द ने साहस जुटाकर राह बदली। देर हो चुकी थी, फिर भी रास्ता उसने ढूँढ़ निकाला। मार्ग पर जब माँ दुर्गा का मन्दिर पड़ा तो श्रीदामा ने कहा - नन्द, जरा रोकना! मैं देवी के दर्शन करके तुरन्त आता हूँ।

अन्धकार में, जिसमें तीनों में से कोई भी एक-दूसरे की स्तब्धमति को देख नहीं पा रहा था, श्रीदामा उतरा और मन्दिर के अन्दर चला गया। मन्दिर में, देवी के सान्निध्य में आते ही उसे चहुँओर जीवित वासनाओं के नाना बिम्ब-प्रतिबिम्ब दिखे! संसार उसे तृष्णा, ऐष्णा और काम व लोभ और अविश्वास आदि का आगार प्रतीत होने लगा...

बड़ी देर तक जब श्रीदामा नहीं आये तो सीता ने नन्द से कहा, नन्द प्रिय, जाओ और ध्यान में भूले अपने कोमल सखा को अपनी बलिष्ठ भुजाओं से चेताओ कि विलम्ब हो रहा है, अन्धकार सता रहा है।

नन्द ‘शिरोधार्य’ कहकर वाहन से उतरा और मन्दिर में चला गया, किन्तु वह भी न लौटा।

विचलित होकर स्वयं सीता जब मन्दिर में गयी तो देवी की मूर्ति के सामने का दृश्य देखकर चीत्कार कर उठी...धरती पर पति श्रीदामा और नन्द के शीश कन्धों से अलग पड़े थे, सर्वत्र रक्त फैला था और उस ओर पड़ी एक तलवार चमक रही थी।

हे देवी, तूने मुझे लुट जाने दिया! दिग्गज मस्तिष्क वाले मेरे आदरणीय पति का, जो रातों में मेरा आलिंगन करते थे, जिन्होंने मुझमें काम ज्वार जगाया था और जिन्हें मैंने कौमार्य भेंट किया था, तूने अपनी देख-रेख में प्राणान्त हो जाने दिया और नन्द, जिसने उनके लिए मुझे माँगा था... उसकी बलिष्ठ बाँहें और छाती पर गुदे वो चिह्न, जिन्हें मैं अब छू नहीं सकती। किन्तु देवी, मैं मुक्त हुई, रक्त और मृत्यु ने मित्रता व मर्यादा के वे बन्धन तो हटा लिये जो मेरे और उसके बीच नित भड़कती व बढ़ती हुई इच्छा के आड़े आते थे... मैं यह भेद नहीं छिपा सकती अब कि नन्द ने ईर्ष्यावश मेरे पति का सर उड़ा दिया होगा और फिर पश्चात्ताप में अपना भी अन्त कर लिया होगा। पर यहाँ तलवार एक है और वह नन्द के हाथ में है... कैसे सम्भव हुआ होगा... मैं अभागी बची रह गयी!

नाना विलाप करती सीता बाहर दौड़ गयी और एक वृक्ष के साथ फन्दा बनाकर अपना गला उसमें डालने जा रही थी, कि तत्काल आकाशवाणी हुई और माँ ने उसे आज्ञा दी-ठहर! मूर्खे, मुझसे कह। मुझे सुन!

सीता ने माँ दुर्गा के सामने क्षमा-याचनापूर्वक स्वीकार किया कि उसने नन्द की इच्छा की थी, किन्तु स्पर्श नहीं। और उसकी यह इच्छा पति पर एक रात अर्धचेतावस्था में उसने उद्घाटित कर दी थी। उसी दिन से उसके पति का हृदय बिंध गया था। सर्वनाश की जड़ में यह गुत्थी थी।

माँ ने उसकी भर्त्सना की और वचन माँगा कि अगर वह भविष्य में कभी भी वैवाहिक पावनता को लांछित नहीं होने देगी तो वह उन दोनों निर्दोष पुरुषों को जीवनदान देकर उसका जीवन सुखमय बना सकती है। सीता ने वचन दिया। माँ ने कहा - जा, दोनों के कन्धों पर यथास्थान उनके सिर रख दे उन्हें पूर्ववत् जीवन मिल जाएगा। किन्तु वचन भंग न हो।

माँ की आज्ञा शिरोधार्य कर सीता मन्दिर में लौटी और यथाविधि दोनों कन्धों पर सिर रखकर अपने संसार के लौटने की प्रतीक्षा करने लगी। जब दोनों में प्राण संचार हुए तो वह अपनी भूल पर स्तब्ध रह गयी। उसने श्रीदामा की कृश देह पर नन्द का और नन्द की महाबली देह पर श्रीदामा का सिर रख दिया था। यह क्या हो गया? अब वह पति माने तो किसे? श्रीदामा मस्तिष्क धारी नन्द की देह के आलिंगन में उसे समाना था, या श्रीदामा की देह वाले नन्द के सिर का वरण करना था? विवाद - इतना बढ़ा, भ्रम इतना उपजा कि फैसला करने के लिए एक पंच की आवश्यकता पड़ गयी। क्षमा करो! वह रोती हुई चीखी - देवी, यह मुझसे क्या हो गया?

नन्द की देह पर प्राणित श्रीदामा के मस्तिष्क-सम्पन्न मुख से सुझाव आया कि धनुष्कोटि के ऋषि कामदमन के पास चला जाए! जैसा वह कहें, मान्य होना चाहिए। शेष दोनों सहमत हो गये।

वाहन तक आए तो समस्या उठी कौन हाँकेगा? धनुष्कोटि की राह और ऋषि कामदमन का पता तो श्रीदामा के मस्तिष्क को ही मालूम था। अतः नन्द के सरवाली श्रीदामा की देह के साथ सीता अन्दर बैठ गयी और नन्द की देह के साथ श्रीदामा कोचवान बने।

पूरी बात सुनकर ऋषि कामदमन ने कहा - देह गौण है, आत्मा का विचार व अस्तित्व मस्तिष्क में होता है और मस्तिष्क की प्रक्रिया व यन्त्र सिर में होते हैं। इस प्रकार नन्द की देह पर मण्डित श्रीदामा ही सीता के पति होने चाहिए।

निर्णय होते ही सीता उमगकर श्रीदामा की उस देह में अवगुण्ठित हो गयी। जिसकी बाँहों की इच्छा ने उसके हृदय में, अतीत में, अदम्य लालसाओं का संचार किया था। वह परम प्रसन्न थी, और परम-प्रसन्न था श्रीदामा भी, जिसने नन्द के प्रति कृतज्ञता अभिव्यक्त की - तुम्हारी देह पाकर मैं तुम्हारा आभार अनुभव करता हूँ। मेरे पास अब मानसिक व दैहिक, दोनों ही तरह की शक्तियाँ हैं। मित्र, न्याय तुम्हारे पक्ष में नहीं रहा। मुझे खेद है... अपनी मित्रता वापस न माँगना।

नन्द खिन्न तो था, किन्तु मस्तिष्क से चूँकि गहरा नहीं था, अतः न्याय को उसने सहज रूप में ही लिया। एकान्त में कहीं जाकर उसने संन्यास धारण कर लिया।

पति-पत्नी जब अपने सामान्य जीवन में लौटे तो सीता की खुशी का पारावार न था। उसके गर्भ में ‘नन्द’ का बीज पनप रहा था। यथासमय उसने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया, जिसका नाम उसके ससुर व सास ने समाधि रखा।

समाधि का जन्म हालाँकि बहुरंगी उत्सवों के अभिनन्दन के साथ हुआ था, फिर भी कुछ काल पश्चात उसकी दृष्टि के विकार का तथ्य सामने आया। उसे दूर की वस्तुएँ साफ नहीं दिखाई देती थीं और यह दोष तीव्रता से विकसित होता गया।

दिन बीतते रहे। श्रीदामा का मस्तिष्क भी सक्रिय रहा। उसकी विद्वत्ता अपनी जगह रही। परिणाम यह हुआ कि देह से अधिक उद्यम न करने के कारण वह क्रमशः दुबला होने लगा।

समाधि जब चार वर्ष का हुआ तो उसकी दृष्टि पिता की देह की भाँति ही उतनी क्षीण हो गयी कि लोग उसे ‘अन्धक’ कहने लगे।

सीता का ज्वार अब, शुरू-शुरू के दिनों की भाँति ही, नन्द-देह-सम्पन्न पति श्रीदामा के सहवास से निरन्तर अतृप्त रहने लगा। एक ओर यह ग्लानि, दूसरी ओर पुत्र की विकलांगता सीता सुन्दरी के दिन अब घोर दुख में बीतने लगे।

एक दिन श्रीदामा ने पाया कि उसकी पत्नी व पुत्र अन्तर्धान हो गये हैं।

लम्बी यात्रा, विविध रास्तों व ढेरों अनुभवों के बाद सीता जब गोमती नदी के तट पर बसे उस आश्रम में पहुँची जहाँ नन्द साधु-जीवन व्यतीत कर रहा था तो उसे यह देखकर अगाध हर्ष हुआ कि नन्द की श्रीदामा-देह रूपान्तरित होकर अत्यन्त बलिष्ठ व नितान्त नन्दमयी हो उठी है।

‘नन्द, मेरे प्रिय!’ उसने हर्ष-चीत्कार किया और उसकी ओर लपकी।

मेरी प्रतीक्षिता, मेरी प्रिये! नन्द ने उसे बाँहों में लेते हुए कहा - मैं जानता था तुम मेरे बिना न रह सकोगी, तुम्हारे गर्भ में मेरा बीज था। कैसी है मेरी सन्तान?

सीता ने अन्धक की ओर संकेत किया और उसके पहलू की गन्ध में डूबी-डूबी उसे नन्हे जीव की व्यथा-कथा बताने लगी।

जो भी है, जैसा भी है, मेरा रक्त-मांस है मुझे स्वीकार है, अन्धक को दुलार करते हुए नन्द बोला।

अन्धक को एक तो कम दिखता था, दूसरे उसे खेलने को खिलौने दे दिये गये। वह उधर पड़ा रहा, जबकि सीता अपने प्रिय की शैया में पड़ी सुख की अनुभूति में सीत्कार छोड़ती रही।

कहानी के अनुसार यही कहना है कि प्रेमी युगल का यह सुख-सम्मिलन एक दिन और एक रात ही और चल सका! पौ फटने से पहले ही श्रीदामा का आगमन हुआ। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसकी ईर्ष्या व विकृति सामान्य स्तर की नहीं थी!

सीता ने साभिवादन झुककर कहा - श्रीदामा, मेरे आदणीय पति, तुम्हारा स्वागत करना चाहिए था, पर विश्वास जानो, तुम्हारा यहाँ आना स्वागतयोग्य व वांछित नहीं है। क्योंकि हममें से दो जहाँ भी रहेंगे, तीसरे का अभाव सताता ही रहेगा।

मैं तुम दोनों को क्षमा करता हूँ! श्रीदामा बोला - नन्द, कोई भी प्राणी ऐसा न्याय होने पर यही करता जैसा तुमने किया है... मैं सब तजकर एक ओर हो भी सकता हूँ, पर तुम्हीं कहो, हममें से कौन, कब तक, कितना सुखी अनुभव कर सकेगा?

काश, ऐसा होता! सीता ने कहा!

तुमने उचित ही कहा है, भ्राता! नन्द ने कहा - हम दोनों ही इसके बिना अपूर्ण रहे। हम दोनों ने ही इसका सम्भोग किया, पर मैंने तुम्हारी और तुमने मेरी चेतना में। और यह भी हम दोनों में से किसी चेतना का अभाव सह नहीं सकेगी। सम्भवतः मैंने जो विधि-भंग किया है, उसका भी दोष प्रकारान्तर से हम दोनों को लगेगा, क्योंकि हम दोनों मिलकर ही पूर्ण बनते हैं। यह रहीं तुम्हारी वे बाँहें, जिन्हें मैंने खूब बलिष्ठ कर लिया है, और यह रहा वह ‘मैं’ जिसे तुमने कभी अपने लिए चिता बनाने का आदेश दिया था... माँ के चरणों में मैंने भी तब अपना बलिदान अर्पित कर दिया था जब तुमने किया था। मैंने विश्वासघात तुम्हारी उसी देह के माध्यम से किया है, जिसका पुत्र समाधि है और जिसका पिता मैं अनिवार्यतः हूँ। मानसिक रूप से मैं सदैव यह अधिकार तुम्हारा समझूँगा।

अन्धक है कहाँ?

ठीक समय पर ही हमने उसका जिक्र किया। सीता ने कहा - प्रश्न यह है कि उसके लिए रहे कौन? क्या मैं उसके लिए रहूँ? क्या उसे अनाथ जीवन जीने दूँ? सतियों के दृष्टान्त का अनुगमन करूँ? मेरे बिना उसका जीवन सम्भवतः सम्मानित रह सकेगा। पुरुषों की सद्भावनाएँ उस पर बरसेंगी। अतः मैं, सीता, सुमन्त्र की पुत्री, माँग करती हूँ कि चिता मेरे लिए भी तैयार की जाए।

कदापि नहीं! श्रीदामा ने कहा - मैं तुम्हारे अभिमान और उच्च विचारों की अभ्यर्थना करता हूँ देवि, किन्तु तुम विधवा नहीं हो सकतीं। मुझमें व नन्द में से एक भी जीवित रहेगा तो तुम्हें वैधव्य नहीं लगेगा। इसके लिए नन्द को भी प्राण होम करने होंगे। हम दोनों को एक-दूसरे को मारना होगा। वे दो तलवारें हैं...

लाओ, मैं तैयार हूँ... नन्द बोला।

सिर्फ तलवारें ‘दूसरी’ हैं, हम दोनों एक हैं। हम दोनों स्वयं को मारेंगे। हमें सीता को नहीं पाना। हमें ऐहिक वार करने और सहने का दोहरा कर्तव्य निभाना है।

मुझे प्रसन्नता होगी। पर तुम्हें अपने वार से मेरा हृदय बेधना होगा, देह नहीं! अन्यथा सीता प्रेम के अभाव में रह जाएगी।

सीता इस व्यवस्था से सन्तुष्ट हुई। विधिपूर्ण हुई। दोनों जीवों की चिता पर जो समाधि बनी, उसमें सीता ने अपना स्थान पाया। इस समाधि का नाम भक्तों ने ‘अन्धक’ रखा।

सीता की सन्तान इसी धरती पर पली व बढ़ी। वह अन्धक ही कहलायी। उसे महासती की सन्तान कहलाने का सौभाग्य भी मिला, लोगों ने इसी कारण उसके व्यक्तित्व को निर्दोष व सौन्दर्यमय माना। रूप व शक्ति में वह गन्धर्व समझा गया।

दृष्टि की कमजोरी की वजह से वह बहुत दूर तक नहीं देख पाता था। निकट देखता व आत्मकेन्द्रित रहता। इससे उसका अपने मानस से सीधा व पर्याप्त सम्बन्ध रहा। उसने, इन्हीं गुणों के कारण गहन विद्यार्जन किया। बीस वर्ष की आयु में जब वह महाराजा बनारस का गुरु नियुक्त हुआ तो लोग उसे बारजे पर बैठा देखते : दिव्य मुद्रा व आकर्षक सादी भूषा से मण्डित पुस्तक को करीब से देखता हुआ।