एक दागदार 'वाइट हाउस' की दास्तां / जयप्रकाश चौकसे

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एक दागदार 'वाइट हाउस' की दास्तां
प्रकाशन तिथि : 22 अगस्त 2014


सेंसर के शिखर अधिकारी पर रिश्वत के आरोप लगने में आश्चर्य की क्या बात है? जब देश के अनेक क्षेत्रों में रिश्वतखोरी जारी है तब क्या किसी ने यह सोचा था कि सेंसर किसी तन्हा द्वीप पर स्थित है जहां भ्रष्टाचार की लहरें नहीं पहुंचेंगी। ज्ञातव्य है कि मुंबई के श्रेष्ठि वर्ग के क्षेत्र वाल्केश्वर रोड पर सेंसर का दफ्तर एक सफेद इमारत में स्थित है आैर उसे 'वाइट हाउस' ही कहा जाता है। क्या इस उजागर दाग के बाद भी वैसा ही कहा जाएगा। खबर है कि जांच अधिकारी विगत नौ माह में प्रदर्शित सारी भव्य फिल्मों के निर्माताओं से पूछताछ करेंगे। सेंसर आवेदन पत्र के साथ फिल्म की पटकथा भी प्रस्तुत की जाती है आैर यह पटकथा वह नहीं है जिस पर फिल्म बनी है क्योंकि फिल्म बनते समय परिवर्तन होते हैं, संपादन की मेज पर कांट-छांट होती है। यह सेंसर के लिए लिखी पटकथा पर बनी फिल्म का संपूर्ण ब्योरा है जिसमें हर दृश्य की अवधि भी दर्ज होती है। अत: निर्माण संस्था का प्रोडक्शन विभाग विशेषज्ञ की सेवाएं लेता है जो संपादन कक्ष में हर दृश्य को अनेक बार देखकर सेंसर पटकथा लिखता है तथा आवेदन के सारे दफ्तरी काम करता है। वह अपने मेहनताने में से क्या रिश्वत देता है, यह प्रोडक्शन विभाग को नहीं पता होता।

सेंसर के लिए नियुक्त किए गए सदस्यों में सिनेमा विद्या का कोई जानकार नहीं हाेता, यहां तक कि शिखर अधिकारी साधारण सा तथ्य भी नहीं जानता कि एक सेकंड में 24 फ्रेम होते हैं। माध्यम की जानकारी के अभाव में दृश्य या फिल्म के समग्र प्रभाव से अनभिज्ञ लोग किसी हिस्से को काटने की सिफारिश करते हैं। 'ऑलिवर ट्विस्ट' से प्रेरित 'कन्हैया' में अमजद खान जरायम पेशा अपराधी हैं आैर वे अपनी पड़ोसन को यह समझाने जाते हैं कि उनसे प्रेम करने का कोई अर्थ नहीं है, उनके किसी भी रिश्ते का कोई भविष्य नहीं। इस वार्तालाप के समय लड़की अपने शरीर पर लगा कीचड़ धो रही है। लड़की जाते हुए अमजद से कहती है कि परदे के परे तौलिया फेंकता हुआ जाए। सेंसर ने अपने बदन से कीचड़ धोती लड़की का अंश काट दिया तो अब प्रभाव यह बना मानो अमजद खान प्रेम करके बाहर जा रहे हैं आैर लड़की पर तौलिया फेंक रहे हैं जबकि संपूर्ण दृश्य में महत्वपूर्ण बात हुई है जिसे हटा दिया जा रहा है। इस तरह के अनगिनत उदाहरण हैं सेंसर के माध्यम से अनजान होने के कारण अनर्थ करने के।

पाठकों को जानकर आश्चर्य होगा कि सेंसर अपने द्वारा काटे अंश को मूल निगेटिव समेत अपने दफ्तर में रखता है आैर महीनों बाद पूना फिल्म संस्थान सुरक्षित रखने के लिए भेजता है। कुछ समय पूर्व मैंने पूना संस्थान में कटे अंश देखकर सेंसर पर किताब लिखने का इरादा किया परंतु गोडाउन में कचरे की तरह सारे अंश बिखरे थे आैर कुछ भी खोजना संभव नहीं था। कई फिल्मकार सेंसर दफ्तर में रिश्वत देकर काटे अंश के निगेटिव का ड्यूप बनवा लेते हैं आैर छोटे शहरों में फिल्म में जोड़ देते हैं जिसे इंटरपोलेशन ऑफ प्रिंट्स कहते हैं आैर विदेशी फिल्मों के काटे हुए उत्तेजक दृश्य फिल्म में जुड़ जाते हैं। अमेरिकी वाइट हाउस में इतने भयावह फैसले नहीं हुए होंगे जितने वाल्केश्वर स्थित वाइट हाउस में होते रहे हैं।

फिल्मकार जानते हैं कि यह सेंसर सिर्फ सरकारी ही नहीं है। अनेक शहरों में स्वयंभू सत्ता किसी भी प्रमाणित फिल्म का प्रदर्शन रोक देती है। आशुतोष गाेवारीकर की 'जोधा अकबर' आज तक राजस्थान में प्रदर्शित नहीं हुई। आमिर अभिनीत 'फना' गुजरात में नहीं दिखाई जा सकी। कहीं भी कोई भी भावना को ठेस पहुंचाने के नाम पर सेंसर प्रमाणित फिल्म का प्रदर्शन रोक देता है। सच तो यह है कि फिल्मकार ही क्या अनेक लोग संविधान में दर्ज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग ही नहीं कर पाते। अदृश्य पाबंदियां कहां तक कैसे फैली हैं- ये तो हुक्मरान ही जानें। आपातकाल का विरोध जम कर हुआ आैर कुछ अखबारों ने मुखपृष्ठ को कोरा छोड़कर विरोध जताया परंतु अघोषित आपातकाल प्राय: सक्रिय रहता है आैर निर्विरोध बना रहता है।

हमारे फिल्मकारों ने तो हुकूमते बरतानिया के सख्त सेंसर के बावजूद राष्ट्रप्रेम के भाव जगाने वाली फिल्में बनाई पर स्वतंत्र देश में अलग पाबंदियां रहीं। हमारी महान उदात्त संस्कृति की संकुचित परिभाषा नहीं की जानी चाहिए। कमजोरियों को संस्कृति का नाम देकर अदृश्य पाबंदियां नहीं रचनी चाहिए। टेक्नोलॉजी ने विदेशों के सेंसर मुक्त अनेक कार्यक्रम इंटरनेट पर उपलब्ध करा दिए है अरथात सेंसर से गुजरे मनोरंजन को बिना सेंसर हुए माल से प्रतिस्पर्धा करनी है। टेक्नोलॉजी संस्कृति की नई परिभाषा के संकेत भी दे रही है।