एक दिन… / सुषमा गुप्ता

Gadya Kosh से
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दस दिन हो गए उसको समंदर किनारे रोज़ आकर बैठते।

एक लहर आती, एक लहर जाती। कभी-कभी वह उनको गिनने बैठ जाता, कितनी लहरें आईं और कितनी लहरें गईं।

उसने लहर के साथ-साथ चलते गीली मिट्टी पर पैरों के निशान भी छोड़े और फिर पलटकर देखा कि कितनी देर निशान रहे और कब लहर ने मिटा दिए। वह रेत पर सीधा चलता रहता कि वह लंबा रास्ता आबादी तक भी जाता था पर दिक्कत यह थी कि उस रास्ते के आखिर में उसका घर नहीं था।

उसके फोन में सिग्नल था और इंटरनेट भी। वह दुनिया में है, यह उसे फोन याद दिलाता रहता, हालाँकि उसकी दुनिया में अब कोई नहीं है।

जाने क्या सोचकर उसने बरसों बाद मैसेज भेजा-"तुम्हारे देश में लोग मर रहे हैं।"

मुझे कुछ समय लगा यह समझने में कि मैसेज किसका है, फिर याद आया कि मैंने उसको स्विट्ज़रलैंड की ट्रेन में देखा था आखिरी बार।

मैंने रिप्लाई किया-"तुम्हारे देश के भी।"

अबकी बार उसका कोई जवाब नहीं आया। मैंने पलटकर पूछा-"क्या करते हो आजकल?"

तो उसने लहरों के साथ बीत रही अपनी ज़िंदगी का फलसफा लिख भेजा और नीचे लिखा-" क्वॉरेंटाइन कुछ नहीं होता, जैसे प्यार, साथ, इंतज़ार और खार जैसा भी कुछ नहीं होता। जो कुछ है, हमारे भीतर है। सहूलियतों को ज़िंदगी का नाम ना देना। ज़िंदगी भीतर होती है या नहीं होती है। बाहरी वातावरण उदासी और खुशी की एक्सटेंशन हो सकता है, उसकी वजह नहीं।

मैंने लिखा-"हाँ।"

उसने फिर मैसेज भेजा-"इंटरलेकन के स्टेशन पर कभी आओ तो कॉल करना। एक कॉफी साथ पिएंगे।"

मैंने लिखा "हाँ।"

और इस बार उसमें एक शब्द और लिखा-"ज़रूर।"

क्योंकि मैं जानती हूँ पहले से ही ...

ज़िंदगी सहूलियतों के सहारे नहीं कटती। ज़िंदगी उम्मीद से कटती है। एक ऐसी उम्मीद, एक ऐसी जिजीविषा जो शरीर में जिंदगी भरती हो।

हालात बुरे होंगे, बहुत बुरे होंगे; पर याद रखना, तुम्हारे अंदर की उम्मीद बची रहे सदा।

कि एक दिन मन का भी आएगा।

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