एक दिन का मेहमान / निर्मल वर्मा
उसने अपना सूटकेस दरवाज़े के आगे रख दिया। घंटी का बटन दबाया और प्रतीक्षा करने लगा। मकान चुप था। कोई हलचल नहीं - एक क्षण के लिये भ्रम हुआ कि घर में कोई नहीं है और वह खाली मकान के आगे खडा है। उसने रुमाल निकाल कर पसीना पोंछा, अपना एयर बैग सूटकेस पर रख दिया। दोबारा बटन दबाया और दरवाज़े से कान सटा कर सुनने लगा, बरामदे के पीछे कोई खुली खिडक़ी हवा में हिचकोले खा रही थी।
वह पीछे हटकर ऊपर देखने लगा। वह दुमंज़िला मकान था, लेन के अन्य मकानों की तरह ही काली छत, अंग्रेजी 'वी' की शक्ल में दोनों तरफ से ढलुआँ और बीच में सफ़ेद पत्थर की दीवार, जिसके माथे पर मकान का नम्बर एक काली बिन्दी सा टिमक रहा था। ऊपर की खिड़कियां बन्द थीं और पर्दे गिरे थे। कहाँ जा सकते हैं इस वक़्त?
वह मकान के पिछवाड़े गया - वही लॉन, फेन्स और झाड़ियाँ थीं जो उसने दो साल पहले देखी थीं। बीच में विलो अपनी टहनियाँ झुकाए एक काले बूढ़े रीछ की तरह ऊंघ रहा था। लेकिन गैराज खुला और खाली पड़ा था । वे कहीं कार लेकर गये थे। संभव है, उन्होंने सारी सुबह उसकी प्रतीक्षा की हो और अब किसी काम से बाहर चले गये हों। लेकिन दरवाज़े पर उसके लिये एक चिट तो छोड़ ही सकते थे!
वह दोबारा सामने के दरवाज़े पर लौट आया। अगस्त की चुनचुनाती धूप उसकी आँखों पर पड़ रही थी। सारा शरीर चू रहा था। वह बरामदे में ही अपने सूटकेस पर बैठ गया। अचानक उसे लगा, सड़क के पार मकानों की खिड़कियों से कुछ चेहरे बाहर झाँक रहे हैं, उसे देख रहे हैं। उसने सुना था, अंग्रेज़ लोग दूसरों की निजी चिन्ताओं में दख़ल नहीं देते, लेकिन वह मकान के बाहर बरामदे में बैठा था, जहाँ प्राइवेसी का कोई मतलब नहीं था; इसलिये वे नि:संकोच, नंगी उन्मुक्तता से उसे घूर रहे थे। लेकिन शायद उसके कौतूहल का एक दूसरा कारण था; उस छोटे, अंग्रेज़ी कस्बाती शहर में लगभग सब एक- दूसरे को पहचानते थे और वह न केवल अपनी शक्ल-सूरत में बल्कि झूलते-झालते हिन्दुस्तानी सूट में काफी अद्भुत प्राणी दिखाई दे रहा होगा। उसकी तुड़ी-मुड़ी वेशभूषा और गर्द और पसीने में लथपथ चेहरे से कोई यह अनुमान भी नहीं लगा सकता कि अभी तीन दिन पहले फ्रेंकफर्ट की कांफ़्रेन्स में उसने पेपर पढ़ा था। मैं एक लुटा-पिटा एशियन इमीग्रेन्ट दिखाई दे रहा होऊंगा।' उसने सोचा और अचानक खड़ा हो गया मानो खड़ा होकर प्रतीक्षा करना ज्यादा आसान हो। इस बार बिना सोचे समझे उसने दरवाज़ा॔ ज़ोर से खटखटाया और तत्काल हकबका कर पीछे हट गया । हाथ लगते ही दरवाज़ा खट से खुल गया। जीने पर पैरों की आवाज़ सुनाई दी और दूसरे क्षण वह चौखट पर उसके सामने खडी थी।
वह भागते हुए सीढ़ियां नीचे उतर कर आई थी, और उससे चिपट गई थी। इससे पहले वह पूछता, क्या तुम भीतर थीं? उसने अपने धूल भरे लस्तम-पस्तम हाथों से उसके दुबले कन्धों को पकड लिया और लड़की का सिर नीचे झुक आया और उसने अपना मुँह उसके बालों पर रख दिया।
पड़ोसियों ने एक-एक करके अपनी खिड़कियाँ बन्द कर दीं।
लड़की ने धीरे-से उसे अपने से अलग कर दिया-- बाहर कब से खड़े थे?
पिछले दो साल से।
वाह! --लडक़ी हँसने लगी। उसे अपने बाप की ऐसी ही बातें बौड़म जान पडती थीं।
मैं ने दो बार घंटी बजाई। तुम लोग कहाँ थे?
घंटी ख़राब है, इसलिये मैं ने दरवाज़ा खुला छोड़ दिया था।
तुम्हें मुझे फ़ोन पर बताना चाहिये था । मैं पिछले एक घंटे से आगे पीछे दौड़ रहा था।
मैं तुम्हें बताने वाली थी, लेकिन बीच में लाइन कट गई। तुमने और पैसे क्यों नहीं डाले?
मेरे पास सिर्फ़ दस पैसे थे। वह औरत काफी चुड़ैल थी!
कौन औरत? लड़की ने उसका बैग उठाया।
वही जिसने हमें बीच में काट दिया।
आदमी अपना सूटकेस बीच ड्राइंगरूम में घसीट लाया। लड़की उत्सुकता से बैग के भीतर झाँक रही थी। सिगरेट के पैकेट, स्कॉच की लम्बी बोतल, चॉकलेट के बण्डल --वे सारी चीज़ें जो उसने इतनी हड़बड़ी में फ्रेंकफर्ट के एयरपोर्ट पर डयूटी-फ़्री शॉप से ख़रीदी थीं, अब बैग से ऊपर झाँक रही थीं।
तुमने अपने बाल कटवा लिये? --आदमी ने पहली बार चैन से लड़की का चेहरा देखा।
हाँ, सिर्फ़ छुट्टियों के लिये। कैसे लगते हैं?
अगर तुम मेरी बेटी नहीं होतीं, तो मैं समझता कोई लफ़ंगा घर में घुस आया है।
ओह पापा! लड़की ने हँसते हुए बैग से चॉकलेट निकाली, रैपर खोला, फिर उसके आगे बढ़ा दी।
स्विस चॉकलेट, उसने उसे हवा में डुलाते हुए कहा।
मेरे लिये एक गिलास पानी ला सकती हो?
ठहरो, मैं चाय बनाती हूँ।
चाय बाद में --वह अपने कोट की अन्दरूनी जेब में कुछ टटोलने लगा-- नोटबुक, वॉलेट, पासपोर्ट-- सब चीज़ें बाहर निकल आईं। अंत में उसे टेबलेट्स की डिब्बी मिली, जिसे वह ढूंढ रहा था।
लड़की पानी का गिलास लेकर आई तो उससे पूछा-- कैसी दवाई है?।
जर्मन, --उसने कहा-- बहुत असर करती है।
उसने टेबलेट पानी के साथ निगल ली, फिर सोफे पर बैठ गया। सब-कुछ वैसा ही था, जैसा उसने सोचा था। वही कमरा, शीशे का दरवाज़ा, खुले हुए परदों के बीच वही चौकोर हरे रुमाल जैसा लॉन, टी.वी. के स्क्रीन पर उड़ती पक्षियों की छाया, जो बाहर उड़ते थे और भीतर होने का भ्रम देते थे।
वह किचन की देहरी पर आया। गैस के चूल्हों के पीछे लड़की की पीठ दिखाई दे रही थी। कॉर्डराय की काली जीन्स और सफ़ेद कमीज़, जिसकी मुड़ी स्लीव्स बाँहों की कुहनियों पर झूल रही थीं। वह बहुत हल्की छुई-मुई-सी दिखाई दे रही थी।
मामा कहाँ है? उसने पूछा। शायद उसकी आवाज़ इतनी धीमी थी कि लड़की ने उसे नहीं सुना । किन्तु उसे लगा, जैसे लड़की की गर्दन कुछ ऊपर उठी थी।
मामा क्या ऊपर हैं? --उसने दोबारा कहा और लडक़ी वैसे ही निश्चल खड़ी रही और तब उसे लगा, उसने पहली बार भी प्रश्न को सुन लिया था।
क्या बाहर गई हैं? --उसने पूछा। लडक़ी ने बहुत धीरे, धुंधले ढंग से सिर हिलाया, जिसका मतलब कुछ भी हो सकता था।
तुम पापा, कुछ मेरी मदद करोगे?
वह लपक कर किचन में चला गया-- बताओ, क्या काम है?
तुम चाय की केतली लेकर भीतर जाओ, मैं अभी आती हूँ।
बस! --उसने निराश स्वर में कहा।
अच्छा, प्याले और प्लेटें भी लेते जाओ।
वह सब चीज़ें लेकर भीतर कमरे में चला आया। वह दोबारा किचन में जाना चाहता था, लेकिन लड़की के डर से वह वहीं सोफ़े पर बैठा रहा। किचन से कुछ तलने की ख़ुश्बू आ रही थी। लडक़ी उसके लिये कुछ बना रही थी और वह उसकी कोई भी मदद नहीं कर पा रहा था। एक बार इच्छा हुई, किचन में जाकर मना कर आये कि वह कुछ नहीं खायेगा। किन्तु दूसरे क्षण भूख ने उसे पकड़ लिया। सुबह से उसने कुछ नहीं खाया था। यूस्टन स्टेशन के कैफ़ेटेरिया में इतनी लम्बी क्यू लगी थी कि वह टिकट लेकर सीधा ट्रेन में घुस गया था। सोचा था वह डायनिंग कार में कुछ पेट में डाल लेगा, किन्तु वह दुपहर से पहले नहीं खुलती थी। सच पूछा जाय तो उसने अंतिम खाना कल शाम फ्रेंकफर्ट के एयरपोर्ट में खाया था और जब रात को लन्दन पहुँचा था तो, अपने होटल के बार में पीता रहा था। तीसरे गिलास के बाद उसने जेब से नोटबुक निकाली, नम्बर देखा और बार के टेलीफ़ोन-बूथ में जाकर फ़ोन मिलाया था। पहली बार में पता नहीं चला, उसकी पत्नी की आवाज़ है या बच्ची की। उसकी पत्नी ने फ़ोन उठाया होगा क्योंकि कुछ देर तक फ़ोन का सन्नाटा उसके कान में झनझनाता रहा, और वह फ़ोन नीचे रखना चाहता था। किन्तु उसी समय उसे बच्ची का स्वर सुनाई दिया; वह आधी नींद में थी। उसे कुछ देर तक पता ही नहीं चला कि वह इंडिया से बोल रहा है या फ्रेंकफर्ट से या लन्दन से। वह उसे अपनी स्थिति समझा ही रहा था कि तीन मिनट खत्म हो गये और उसके पास इतनी चेंज भी नहीं थी कि वह लाइन को कटने से बचा सके। तसल्ली सिर्फ़ इतनी थी कि वह नींद, घबराहट और नशे के बीच यह बताने में सफ़ल हो गया कि वह कल उनके शहर पहुँच रहा है कल यानि आज।
वे अच्छे क्षण थे। बाहर इंग्लैंड की पीली और मुलायम धूप फैली थी। वह घर के भीतर था। उसके भीतर गरमाई की लहरें उठने लगी थीं। हवाई अड्डों की भाग-दौड़, होटलों की हील-हुज्जत, ट्रेन-टैक्सियों की हडबडाहट-- वह सबसे परे हो गया था। वह घर के भीतर था; उसका अपना घर न सही, फिर भी एक घर-- कुर्सियाँ, परदे, सोफा टी.वी.। वह अरसे से इन चीज़ों के बीच रहा था और हर चीज़ के इतिहास को जानता था। हर दो-तीन साल बाद जब वह आता था, तो सोचता था-- बच्ची कितनी बड़ी हो गयी होगी और पत्नी? वह कितनी बदल गई होगी! लेकिन ये चीज़ें उस दिन से एक जगह ठहरीं थीं, जिस दिन उसने घर छोड़ा था। वे उसके साथ चली जाती थीं और उसके साथ ही लौट आती थीं।
पापा तुमने चाय नहीं डाली? --वह किचन से दो प्लेटें लेकर आई, एक में टोस्ट और मक्खन थे, दूसरे में तले हुए सॉसेज।
मैं तुम्हारा इंतज़ार कर रहा था।
चाय डालो, नहीं तो बिलकुल ठंडी हो जायेगी।
वह उसके साथ सोफ़े पर बैठ गई-- टी.वी. खोल दूं? देखोगे?
अभी नहीं। सुनो, तुम्हें मेरे स्टैम्प्स मिल गये थे?
हाँ पापा, थैंक्स! वह टोस्ट्स पर मक्खन लगा रही थी।
लेकिन तुमने चिट्ठी एक भी नहीं लिखी!
मैं ने एक लिखी थी, लेकिन जब तुम्हारा टेलीग्राम आया, तो मैं ने सोचा, अब तुम आ रहे हो तो चिट्ठी भेजने की क्या ज़रूरत?
तुम सचमुच गागा हो।
लडक़ी ने उसकी तरफ़ देखा और हंसने लगी। यह उसका चिढ़ाऊ नाम था, जो बाप ने बरसों पहले उसे दिया था, जब वह उसके साथ घर में रहता था। तब वह बहुत छोटी थी और उसने हिन्दुस्तान का नाम भी नहीं सुना था।
बच्ची की हंसी का फ़ायदा उठाते हुए वह उसके पास झुक आया। जैसे वह कोई चंचल चिडिया हो, जिसे केवल सुरक्षा के भ्रामक क्षण में ही पकडा जा सकता है-- ममी कब लौटेंगी?
प्रश्न इतना अचानक था कि लडक़ी झूठ नहीं बोल सकी-- वह ऊपर कमरे में हैं।
ऊपर? लेकिन तुमने तो कहा था।
किरच...किरच...किरच वह चाकू से जले हुए टोस्ट को कुरेद रही थी मगर उसके साथ साथ वह उसके प्रश्न को भी काट डालना चाहती हो। हँसी अब भी थी, लेकिन अब वह बर्फ़ में जमे कीडे की तरह उसके होंठों पर चिपकी थी।
क्या उन्हें मालूम है कि मैं यहाँ हूँ? --लडक़ी ने टोस्ट पर मक्खन लगाया, फिर जैम, फिर उसके आगे प्लेट रख दी।
हाँ मालूम है। --उसने कहा।
क्या वह नीचे आकर हमारे साथ चाय नहीं पिएगी?
लड़की दूसरी प्लेट पर सॉसेज सजाने लगी। फिर उसे कुछ याद आया वह रसोई में गई और अपने साथ मस्टर्ड और केचप की बोतलें ले आई।
मैं ऊपर जाकर पूछता हूँ। --उसने लड़की की तरफ देखा, जैसे उससे अपनी कार्यवाही का समर्थन पाना चाहता हो। जब वह कुछ नहीं बोली तो वह जीने की तरफ जाने लगा।
प्लीज पापा।
उसके पाँव ठिठक गये।
आप फिर उनसे लड़ना चाहते हैं? --लडक़ी ने कुछ गुस्से में उसे देखा।
लडना! --वह शर्म से भीगा हुआ हँसने लगा-- मैं यहाँ दो हज़ार मील उनसे लड़ने आया हूँ?
फिर आप मेरे पास बैठिये। लड़की का स्वर भरा हुआ था। उसकी भूख उड़ ग़यी थी, लेकिन लड़की की आंखें उस पर थीं। वह उसे देख रही थी, और कुछ सोच रही थी। , कभी-कभी टोस्ट का एक टुकड़ा मुंह में डाल लेती और फिर चाय पीने लगती। फिर उसकी ओर देखती और चुपचाप मुस्कुराने लगती । उसे दिलासा सी देती, सब कुछ ठीक है, तुम्हारी ज़िम्मेदारी मुझ पर है और जब तक मैं हूँ डरने की कोई बात नहीं है।
डर नहीं था। टेबलेट का असर रहा होगा या यात्रा की थकान। वह कुछ देर के लिये लड़की की निगाहों से हटना चाहता था। वह अपने को हटाना चाहता था। मैं अभी आता हूँ--उसने कहा।
लड़की ने सशंकित आँखों से उसे देखा-- क्या बाथरूम जाएंगे? --वह उसके साथ-साथ गुसलखाने तक चली आई और जब उसने दरवाज़ा बन्द कर लिया तो भी उसे लगता रहा कि वह दरवाज़े के पीछे खड़ी है।
उसने बेसिनी में अपना मुँह डाल लिया और नलका खोल दिया। पानी झर-झर उसके चेहरे पर बहने लगा और वह सिसकने-सा लगा। आधे बने हुए शब्द उसकी छाती के खोखल से बाहर निकलने लगे, जैसे भीतर जमी काई उलट रहा हो। उलटी, जो सीधी दिल से बाहर आती है। वह टेबलेट, जो कुछ देर पहले खाई थी, अब पीले चूरे सी बेसिनी के संगमरमर पर तैर रही थी। फिर उसने नल बन्द कर दिया और रूमाल निकाल कर मुँह पोंछा। बाथरूम की खूँटी पर स्त्री के मैले कपडे टंगे थे-- प्लास्टिक की एक चौड़ी बाल्टी में अंडरवियर और ब्रेसियर साबुन में डूबे थे। खिडक़ी खुली थी और बाग का पिछवाड़ा धूप में चमक रहा था। कहीं किसी दूसरे बाग से घास काटने की उनींदी सी घुर्र-घुर्र पास आ रही थी।
वह जल्दी से बाथरूम का दरवाज़ा बन्द कर कमरे में चला आया। सारे घर में सन्नाटा था। वह किचन में आया, तो लड़की दिखाई नहीं दी। वह ड्राईंग-रूम में लौटा तो वह भी खाली पड़ा था। उसे सन्देह हुआ कि वह ऊपर वाले कमरे में अपनी माँ के पास बैठी है। एक अजीब आतंक ने उसे पकड़ लिया। घर जितना शांत था, उतना ही ख़तरे से अटा जान पड़ा। वह कोने में गया, जहाँ उसका सूटकेस रखा था । वह जल्दी-जल्दी उसे खोलने लगा। उसने अपने कांफ़्रेंस के नोट्स और काग़ज़ अलग किये और उनके नीचे से वह सारा सामान निकालने लगा जो वह दिल्ली से अपने साथ लाया था--- एम्पोरियम का राजस्थानी लहंगा ( लडक़ी के लिये), ताम्बे और पीतल के ट्रिंकेट्स, जो उसने जनपथ पर तिब्बती लामा हिप्पियों से ख़रीदे थे, पश्मीने की कश्मीरी शॉल ( बच्ची की मां के लिये), एक लाल गुजराती जरीदार स्लीपर जिसे बच्ची और मां दोनों पहन सकते थे, हैण्डलूम के बेडकवर, हिन्दुस्तानी टिकटों का अल्बम और एक बहुत बडी सचित्र किताब, बनारस द एटर्नल सिटी।
फ़र्श पर धीरे-धीरे एक छोटा-सा हिन्दुस्तान जमा हो गया था जिसे वह हर बार यूरोप आते समय अपने साथ ढो लाता था।
सहसा उसके हाथ ठिठक गये। वह कुछ देर तक चीज़ों के ढेर को देखता रहा। कमरे के फ़र्श पर बिखरी हुई वे बिलकुल अनाथ और दयनीय दिखाई दे रही थीं। एक पागल इच्छा हुई कि वह उन्हें कमरे में जैसे का तैसा छोड़कर भाग खडा हो। किसी को पता भी नहीं चलेगा, वह कहाँ चला गया? लड़की थोडा-बहुत जरूर हैरान होगी, किन्तु बरसों वह उससे ऐसे ही अचानक मिलती रही थी और बिना कारण बिछड़ती रही थी। ' यू आर कमिंग एण्ड गोईंग मैन', वह उससे कहा करती थी। पहले विषाद में और बाद में कुछ कुछ हँसी में। उसे कमरे में न बैठा देखकर लड़की को ज्यादा सदमा नहीं पहुंचेगा। वह ऊपर जायेगी और माँ से कहेगी-- अब तुम नीचे आ सकती हो, वह चले गये।
फिर वे दोनों एक-साथ नीचे आएंगी, और उन्हें राहत मिलेगी कि अब उन दोनों के अलावा घर में कोई नहीं है।
पापा।
वह चौंक गया, जैसे रंगे हाथों पकडा गया हो। खिसियानी-सी मुस्कुराहट में लड़की को देखा । वह कमरे की चौखट पर खड़ी थी और खुले हुए सूटकेस को ऐसे देख रही थी, जैसे वह कोई जादू की पिटारी हो, जिसने अपने पेट से अचानक रंग बिरंगी चीज़ों को उगल दिया हो। लेकिन उसकी आंखों में कोई ख़ुशी नहीं थी बल्कि एक शर्म - सी थी। जब बच्चे अपने बड़ों को कोई ट्रिक करते हुए देखते हैं जिसका भेद उन्हें पहले से मालूम होता है, वे अपने संकोच को छिपाने के लिये कुछ ज्यादा ही उत्सुक हो जाते हैं।
इतनी चीज़ें? --वह आदमी के सामने की कुर्सी पर बैठ गई-- कैसे लाने दीं? सुना है, आजकल कस्टमवाले बहुत तंग करते हैं।
नहीं, इस बार उन्होंने कुछ नहीं किया --आदमी ने उत्साह में आकर कहा-- शायद इसलिये कि मैं सीधे फ्रेंकफर्ट से आ रहा था। उन्हें सिर्फ़ एक चीज़ पर शक हुआ था --उसने मुस्कुराते हुए लड़की की ओर देखा।
किस चीज़ पर? --लड़की ने इस बार सच्ची उत्सुकता से पूछा।
उसने अपने बैग से दालबीजी का डिब्बा निकाला और उसे खोलकर मेज पर रख दिया। लड़की ने झिझकते हुए दो-चार दाने उठाये और उन्हें सूंघने लगी। क्या है यह? --उसने जिज्ञासा से आदमी को देखा।
वे भी इसी तरह सूंघ रहे थे, --वह हंसने लगा-- उन्हें डर था कि कहीं इसमें चरस- गांजा तो नहीं है।
हैश? --लड़की की आँखें फैल गईं-- क्या इसमें सचमुच हैश मिली है?
खाकर देखो।
लड़की ने कुछ दालमोठ मुँह में डाल ली और उन्हें चबाने लगी, फिर हलाट-सी होकर सी-सी करने लगी।
मिर्चें होंगी। थूक दो --आदमी ने कुछ घबरा कर कहा।
किन्तु लड़की ने उन्हें निगल लिया और छलछलाई आँखों से बाप को देखने लगी।
तुम भी पागल हो। सब निगल बैठीं --आदमी ने जल्दी से उसे पानी का गिलास दिया, जो वह उसके लिये लाई थी।
मुझे पसन्द है --लडक़ी ने जल्दी से पानी पिया और अपनी कमीज़ क़ी मुड़ी हुई बाँहोँ से आँखें पोंछने लगी। फिर मुस्कुराते हुए आदमी की ओर देखा-- "आई लव इट"। वह कई बातें सिर्फ़ आदमी का मन रखने के लिये करती थी। उनके बीच बहुत कम मुहलत रहती थी और वह उसके निकट पहुँचने के लिये ऐसे शार्टकट लेती थी, जिसे दूसरे बच्चे महीनों में पार करते हैं।
क्या उन्होंने भी इसे चखकर देखा था? --लडक़ी ने पूछा।
नहीं, उनमें इतनी हिम्मत कहाँ थी। उन्होंने सिर्फ़ मेरा सूटकेस खोला, मेरे काग़ज़ों को उलटा-पुलटा और जब उन्हें पता चला कि मैं कॉन्फ्रेंस से आ रहा हूँ तो उन्होंने कहा-- मिस्टर यू मे गो।
क्या कहा उन्होंने? --लडक़ी हंस रही थी।
उन्होंने कहा, "मिस्टर यू मे गो लाइक एन इण्डियन क्रो! आदमी ने भेद भरी निगाहों से उसे देखा-- क्या है यह?
लड़की हँसती रही। जब वह बहुत छोटी थी और आदमी के साथ पार्क में घूमने जाती थी, तो वे यह सिरफिरा खेल खेलते थे। वह पेड़ ओर देखकर पूछता था-- "ओ डियर, इज देयर एनीथिंग टू सी?" और लडक़ी चारों तरफ देखकर कहती थी-- " यस डियर, देयर इज ए क्रो ओवर द ट्री।" आदमी उसे विस्मय से देखता। क्या है यह? और वह विजयोल्लास में कहती-- "पोयम!"
ए पोयम! बढती हुई उम्र में छूटते बचपन की छाया सरक आई। पार्क की हवा, पेड़, हँसी। वह बाप की उंगली पकड क़र सहसा एक ऐसी जगह गई, जिसे वह मुद्दत पहले छोड़ चुकी थी, जो कभी-कभार रात को सोते हुए सपनो में दिखाई दे जाती थी
मैं तुम्हारो लिये कुछ इण्डियन सिक्के लाया था। तुमने पिछली बार कहा था न!
दिखाओ, कहाँ हैं? लड़की ने कुछ ज़रूरत से ज़्यादा ही ललकते हुए कहा।
आदमी ने सलमे - सितारों से जड़ी एक लाल थैली उठाई जिसे हिप्पी लोग अपने पासपोर्ट के लिये खरीदते थे। लड़की ने उसे उसके हाथ से छीन लिया और हवा में झुलाने लगी। भीतर रखी चवन्नियाँ-अठन्नियाँ चहचहाने लगीं। फिर उसने थैली का मुँह खोला और सारे पैसों को मेज पर बिखेर दिया।
हिन्दुस्तान में क्या सब लोगों के पास ऐसे ही सिक्के होते हैं?
वह हंसने लगा। तो क्या सबके लिये अलग अलग बनेंगे? --उसने कहा।
लेकिन गरीब लोग? --उसने आदमी को देखा-- मैं ने एक रात टी.वी.में उन्हें देखा था।-- वह सिक्कों को भूल गई और कुछ असमंजस में फ़र्श पर बिखरी चीज़ों को देखने लगी। तब पहली बार आदमी को लगा कि वह लड़की जो उसके सामने बैठी है, कोई दूसरी है। पहचान का फ्रेम वही है जो उसने दो साल पहले देखा था लेकिन बीच की तसवीर बदल गई है। किन्तु वह बदली नहीं थी, वह सिर्फ़ कहीं और चली गई थी। वे मां-बाप जो बच्चों के साथ हमेशा नहीं रहते, उन गोपनीय मंज़िलों के बारे में कुछ नहीं जानते जो उनके अभाव की नींव पर ऊपर ही ऊपर बनती रहती हैं। लडक़ी अपने बचपन के बेसमेन्ट में जाकर ही पिता से मिल पाती थी। लेकिन कभी-कभी उसे छोड क़र दूसरे कमरों में चली जाती थी, जिसके बारे में आदमी को कुछ भी नहीं मालूम था।
पापा --लडक़ी ने उसकी ओर देखकर कहा-- क्या मैं इन चीज़ों को समेटकर रख दूँ?
क्यों इतनी जल्दी क्या है?
नहीं, जल्दी नहीं लेकिन मामा आकर देखेंगी तो! --उसके स्वर में हल्की सी घबराहट थी, जैसे वह हवा में किसी अदृश्य ख़तरे को सूंघ रही हो।
आयेंगी तो क्या? --आदमी ने कुछ विस्मय से लडक़ी को देखा।
पापा धीरे बोलो! --लडक़ी ने ऊपर कमरे की तरफ देखा, ऊपर सन्नाटा था, जैसे घर एक देह हो, दो में बंटी हुई, जिसका एक हिस्सा सुन्न और निस्पन्द पड़ा हो और दूसरे में वे दोनों बैठे थे। और तब उसे भ्रम हुआ कि लड़की कठपुतली का नाटक कर रही है। ऊपर के धागे से बंधी हुई, जैसे वह खिंचता है, वैसे वह हिलती है। लेकिन वह न धागे को देख सकता है न उसे जो उसे हिलाता है।
वह उठ खडा हुआ। लड़की ने आतंकित होकर उसे देखा-- आप कहाँ जा रहे हैं?
वह नीचे नहीं आयेंगी? --उसने पूछा।
उन्हें मालूम है आप यहाँ हैं। --लडक़ी ने कुछ खीज कर कहा।
इसीलिये वह नहीं आना चाहतीं?
नहीं --लडक़ी ने कहा-- इसीलिये वे कभी भी आ सकती हैं। कैसे पागल हैं। इतनी छोटी सी बात नहीं समझ सकते। ' आप बैठिये, मैं अभी इन सब चीज़ों को समेट लेती हूँ।
वह फर्श पर उकडूं बैठ गई और बड़ी सफ़ाई से हर चीज़ उठा कर कोने में रखने लगी। मखमल की जूती, पश्मीने की शॉल, गुजरात एम्पोरियम का बेडकवर। उसकी पीठ पिता की ओर थी, किन्तु वह उसके हाथ देख सकता था, पतले साँवले, बिलकुल अपनी माँ की तरह, वैसे ही निस्संग और ठंडे, जो उसकी लाई हुई चीज़ों को आत्मीयता से पकडते नहीं थे, सिर्फ़ अनमने भाव से अलग ठेल देते थे। वे एक ऐसी बच्ची के हाथ थे, जिसने सिर्फ़ माँ के सीमित और सुरक्षित स्नेह को छूना सीखा था, मर्द के उत्सुक और पीड़ित उन्माद को नहीं, जो पिता के सेक्स की काली कन्दरा से उमड़ता हुआ बाहर आता है।
अचानक लड़की के हाथ ठिठक गये। उसे लगा कोई दरवाज़े की घंटी बजा रहा है। लेकिन दूसरे ही क्षण फ़ोन का ध्यान आया, जो जीने के नीचे कोटर में था और जंज़ीर से बंधे पिल्ले की तरह ज़ोर-ज़ोर से चीख रहा था। लड़की ने चीज़ें वैसे ही छोड़ दीं और लपकते हुए सीढ़ियों के पास गई, फ़ोन उठाया, एक क्षण तक कुछ सुनाई नहीं दिया। फिर वह चिल्लाई-- मम्मी आपका फ़ोन।
बच्ची बेनिस्टर के सहारे खडी थी, हाथ में फ़ोन झुलाती हुई। ऊपर का दरवाज़ा खुला और जीना हिलने लगा। कोई नीचे आ रहा था, फिर एक सिर लड़की के चेहरे पर झुका, गुंथा हुआ जूड़ा और फ़ोन के बीच एक पूरा चेहरा उभर आया। किसका है? --औरत ने अपने लटकते हुए जूड़े क़ो पीछे धकेल दिया और लड़की के हाथ से फ़ोन खींच लिया। आदमी कुर्सी से उठा। लड़की ने उसकी ओर देखा। हलो --औरत ने कहा। हलो, हलो" --औरत की आवाज़ ऊपर उठी और तब उसे पता चला कि यह उस स्त्री की आवाज़ है, जो उसकी पत्नी थी। वह उसे बरसों बाद भी सैकड़ों आवाज़ों की भीड़ में पहचान सकता था। ऊंची पिच पर हल्के से काँपती हुई, हमेशा से सख़्त, आहत, परेशान, उसकी देह की एकमात्र चीज़ ज़ो देह से परे आदमी की आत्मा पर ख़ून की खरोंच खींच जाती थी। वह जैसे उठा था, वैसे ही बैठ गया। लड़की मुस्कुरा रही थी।
वह हैंगर के आईने से आदमी का चेहरा देख रही थी... और वह चेहरा कुछ वैसा ही बेडौल दिखाई दे रहा था जैसे उम्र के आईने से औरत की आवाज़। उल्टा, टेढ़ा, पहेली सा रहस्यमय! वे तीनों व्यक्ति अनजाने में चार में बंट गये थे-- लड़की, उसकी मां, वह और उसकी पत्नी। घर जब गृहस्थी में बदलता है तो अपने आप फैलता जाता है।
तुम जेनी से बात करोगी? --औरत ने लड़की से कहा और बच्ची जैसे इसी क्षण की प्रतीक्षा कर रही थी। वह उछल कर ऊपरी सीढ़ी पर आ गई और माँ से टेलीफ़ोन ले लिया-- हलो जेनी, इट इज मी!
वह दो सीढ़ियाँ नीचे उतरी। अब आदमी उसे पूरा का पूरा देख सकता था।
बैठो --आदमी कुर्सी से उठ खडा हुआ। उसके स्वर में एक बेबस-सा अनुनय था, मानो उसे डर हो कि कहीं उसे देख कर वह उल्टे पाँव न लौट जाये।
वह एक क्षण अनिश्चय में खड़ी रही। अब वापस मुड़ना निरर्थक था। लेकिन इस तरह उसके सामने खड़े रहने का कोई तुक नहीं था।
वह स्टूल खींच कर टी.वी. के आगे बैठ गई।
कब आये? --उसका स्वर इतना धीमा था कि आदमी को लगा, टेलीफ़ोन पर कोई दूसरी औरत बोल रही थी।
काफ़ी देर हो गई। मुझे पता भी न था कि तुम ऊपर कमरे में हो!
स्त्री चुपचाप देखती रही।
आदमी ने जेब से रुमाल निकाला, पसीना पोंछा और मुस्कुराने की कोशिश में मुस्कुराने लगा। मैं बहुत देर तक बाहर खडा रहा, मुझे पता नहीं था, घंटी खराब है। गैरेज खाली पड़ा था, मैं ने सोचा तुम दोनों बाहर गई हो। तुम्हारी कार?" --उसे मालूम था, फिर भी उसने पूछा।
सर्विसिंग के लिये गई है। --स्त्री ने कहा। वह हमेशा से उसकी छोटी बेकार की बातों से नफ़रत करती आई है, जबकि आदमी के लिये वे कुछ ऐसे तिनके थे, जिन्हें पकड क़र डूबने से बचा जा सकता था। कम से कम कुछ देर के लिये।
तुम्हें मेरा टेलीग्राम मिल गया था? मैं फ़्रैकफ़र्ट आया था, उसी टिकट पर यहाँ आ गया। कुछ पौण्ड ज़्यादा देने पडे। मैं ने तुम्हें वहां से फ़ोन भी किया, लेकिन तुम दोनों कहीं बाहर थे
कब? --औरत ने हल्की जिज्ञासा से उसकी ओर देखा-- हम दोनों घर में थे। घंटी बज रही थी, लेकिन किसी ने उठाया नहीं। हो सकता है, ऑपरेटर मेरी अंग्रेज़ी नहीं समझ सकी और गलत नम्बर दे दिया हो! लेकिन सुनो --वह हंसने लगा-- एक अजीब बात हुई। हीथ्रो पर मुझे एक औरत मिली, जो पीछे से बिलकुल तुम्हारी तरह दिखाई दे रही थी। यह तो अच्छा हुआ, मैं ने उसे बुलाया नहीं । हिन्दुस्तान के बाहर हिन्दुस्तानी औरतें एक जैसी ही दिखाई देती हैं।
वह बोले जा रहा था। वह उस आदमी की तरह था जो आंखों पर पट्टी बांध कर हवा में तनी हुई रस्सी पर चलता है। स्त्री कहीं बहुत नीचे थी, एक सपने में जिसे वह बहुत पहले कभी जानता था, किन्तु अब उसे याद नहीं आ रहा था कि वह उसके सामने क्यों बैठा था?
वह चुप हो गया। उसे ख़्याल आया, इतनी देर से वह सिर्फ़ अपनी आवाज़ सुन रहा है। उसके सामने बैठी स्त्री बिलकुल चुप बैठी थी और उसकी ओर बहुत ठंडी और हताश निगाहों से देख रही थी।
क्या बात है? --आदमी ने कुछ भयभीत होकर पूछा।
मैं ने तुमसे मना किया था। तुम समझते क्यों नहीं?
किसके लिये? तुमने किसके लिये मना किया था?
मैं तुमसे कुछ नहीं चाहती। मेरे घर तुम ये सब क्यों लाते हो। क्या फ़ायदा है इनका?
पहले क्षण वह नहीं समझा, कौन सी चीज़ें? फिर उसकी निगाहें फर्श पर गईं। शांति निकेतन का पर्स, डाक टिकट का एल्बम, दालबीजी का डिब्बा -- वे अब बिलकुल लुटी-पिटी दिखाई दे रही थीं। जैसे वह कुर्सी पर बैठा हुआ था, वैसी वे फर्श पर बिखरी हुई। कौनसी ज़्यादा हैं? --उसने खिसियाते हुए कहा-- इन्हें न लाता तो आधा सूटकेस खाली पडा रहता।
लेकिन मैं कुछ नहीं चाहती। तुम क्या इतनी-सी बात नहीं समझ सकते? --स्त्री की कांपती हुई आवाज़ ऊपर उठी, जिसके पीछे जाने कितनी लड़ाइयों की पीड़ा, कितने नरकों का पानी भरा था, जो बांध टूटते ही उसके पास आने लगा, एक- एक इंच आगे बढ़ता हुआ। उसने जेब से रूमाल निकाला और अपने लथपथ चेहरे को पौंछने लगा।
क्या तुम्हें इतनी देर को आना भी बुरा लगता है?
हाँ --उसका चेहरा तन गया। फिर अजीब हताशा में वह ढीली पड़ ग़ई-- मैं तुम्हें देखना नहीं चाहती, बस!
क्या यह इतना आसान है? वह जिद्दी लडक़े की तरह उसे देखने लगा जो सवाल समझ लेने के बाद भी बहाना करता है कि उसे कुछ समझ में नहीं आया।
वुक्कू! --उसने धीरे से कहा-- प्लीज!
मुझे माफ करो! --औरत ने कहा।
तुम चाहती क्या हो?
लीव मी अलोन। इससे ज़्यादा मैं कुछ और नहीं चाहती।
मैं बच्ची से भी मिलने नहीं आ सकता?
इस घर में नहीं, तुम उससे कहीं बाहर मिल सकते हो?
बाहर! --आदमी ने हकबका कर कहा-- बाहर कहाँ?
उस क्षण वह भूल गया कि बाहर सारी दुनिया फैली है, पार्क, सड़कें, होटल के कमरे। उसका अपना संसार, बच्ची कहाँ-कहाँ उसके साथ घिसटेगी?
वह फ़ोन पर हँस रही थी। कुछ कह रही थी-- नहीं, आज मैं नहीं आ सकती। डैडी घर में हैं, अभी-अभी आ रहे हैं। नहीं, मुझे मालूम नहीं। मैं ने पूछा नहीं। क्या नहीं मालूम? शायद उसकी सहेली ने पूछा था, वह कितन दिन रहेगा? सामने बैठी स्त्री भी शायद यही जानना चाहती थी, कितना समय, कितनी घडियाँ, कितनी यातना अभी और उसके साथ भोगनी पड़ेगी?
शाम की आख़िरी धूप भीतर आ रही थी। टी.वी. का स्क्रीन चमक रहा था। लेकिन वह खाली था और उसमें सिर्फ़ स्त्री की छाया बैठी थी, जैसे ख़बरें शुरु होने से पहले एनाउन्सर की छवि दिखाई देती है, पहले कमज़ोर और धुंधली, फिर धीरे-धीरे ब्राइट होती हुई। वह साँस रोके प्रतीक्षा कर रहा था कि वह कुछ कहेगी हालाँकि उसे मालूम था कि पिछले वर्षों में सिर्फ़ एक न्यूज-रील है जो हर बार मिलने पर पुरानी पीड़ा का टेप खोल देती है जिसका सम्बन्ध किसी दूसरी ज़िन्दगी से है। चीज़ें और आदमी कितने अलग हैं! बरसों बाद भी घर, किताबें, कमरे वैसे ही रहते हैं, जैसा तुम छोड ग़ये थे। लेकिन लोग? वे उसी दिन मरने लगते हैं, जिस दिन से अलग हो जाते हैं। मरते नहीं, एक दूसरी ज़िन्दगी जीने लगते हैं, जो धीरे-धीरे उस ज़िन्दगी का गला घोंट देती है, जो तुमने साथ गुज़ारी थी।
मैं सिर्फ़ बच्ची से नहीं --वह हकलाने लगा-- "मैं तुमसे भी मिलने आया था।
मुझसे? --औरत के चेहरे पर हँसी, हिकारत, हैरानी एक साथ उमड़ आई-- तुम्हारी झूठ बोलने की आदत अभी तक गई नहीं।
तुमसे झूठ बोलकर अब मुझे क्या मिलेगा?
मालूम नहीं, तुम्हें क्या मिलेगा। मुझे जो मिला है, उसे मैं भोग रही हूँ।
उसने एक गहरी ठंडी निगाह से बाहर देखा-- मुझे अगर तुम्हारे बारे में पहले से ही कुछ मालूम होता, तो मैं कुछ कर सकती थी।
क्या कर सकती थीं? --एक ठंडी झुरझुरी ने आदमी को पकड लिया।
कुछ भी। मैं तुम्हारी तरह अकेली नहीं रह सकती। लेकिन अब इस उम्र में अब कोई मुझे देखता भी नहीं।
वुक्कू! --उसने हाथ पकड लिया।
मेरा नाम मत लो। वह सब ख़त्म हो गया।
वह रो रही थी, बिलकुल निस्संग, जिसका गुज़रे हुए आदमी और आने वाली उम्मीद - दोनों से कोई सरोकार नहीं था। आंसू, जो एक कारण से नहीं, पूरा पत्थर हट जाने से आते हैं। एक ढलुआ ज़िन्दगी पर नाले की तरह बहते हुए। औरत बार बार उन्हें अपने हाथ से झटक देती थी।
बच्ची कब से फ़ोन के पास चुप बैठी थी। वह जीने की सबसे निचली सीढ़ी पर बैठी थी और सूखी आँखों से रोती माँ को देख रही थी। उसके सब प्रयत्न निष्फल हो गये थे, किन्तु उसके चेहरे पर निराशा नहीं थी। हर परिवार के अपने दुस्वप्न होते हैं जो एक अनवरत पहिये में घूमते हैं; वह उनमें हाथ नहीं डालती थी। इतनी कम उम्र में वह इतना बड़ा सत्य जान गई थी कि मनुष्य के मन और बाहर की सृष्टि में एक अद्भुत समानता है। वे जब तक अपना चक्कर पूरा नहीं कर लेते, उन्हें बीच में रोकना बेमानी है।
वह बिना आदमी को देखे माँ के पास गई और कुछ कहा, जो उसके लिये नहीं था। औरत ने उसे अपने पास बैठा लिया, बिलकुल अपने से सटाकर। काउच पर बैठी वे दो बहनों-सी लग रही थीं। वे उसे भूल गई थीं। कुछ देर पहले जो ज्वार उठा था, उसमें घर डूब गया था। लेकिन अब पानी वापस लौट गया था और अब आदमी वहाँ था, जहां उसे होना चाहिये था-- किनारे पर। उसे यह ईश्वर के वरदान जैसा जान पडा। वह दोनों के बीच बैठा है अदृश्य! बरसों से उसकी यह साध रही है कि वह माँ और बेटी के बीच अदृश्य बैठा रहे। सिर्फ़ ईश्वर ही अपनी दया में अदृश्य होता है- उसे यह मालूम था। किन्तु जो आदमी गढ़हे की सबसे निचली सतह पर जीता है, उसे भी कोई नहीं देख सकता। माँ और बच्ची ने उसे अलग छोड़ दिया था। यह उसकी उपेक्षा नहीं थी। उसकी तरफ़ से मुँह मोड़कर उन्होंने उसे अपने पर छोड़ दिया था। ठीक वहीं - जहां उसने बरसों पहले घर छोड़ा था।
लड़की माँ को छोड़ कर उसके पास आकर बैठ गई।
हमारा बाग देखने चलोगे? --उसने कहा।
अभी? --उसने कुछ विस्मय से लड़की को देखा। वह कुछ अधीर और उतावली-सी दिखाई दे रही थी, जैसे वह कुछ कहना चाहती हो, जिसे कमरे के भीतर कहना संभव न हो।
चलो, --आदमी ने उठते हुए कहा-- लेकिन इन चीज़ों को तो ऊपर ले जाओ।
हम इन्हें बाद में समेट लेंगे।
बाद में कब? --आदमी ने आशंकित होकर पूछा।
आप चलिये तो। --लडक़ी ने लगभग उसे घसीटते हुए कहा।
इनसे कहो, अपना सामान सूटकेस में रख लें। --स्त्री की आवाज़ सुनाई दी।
उसे लगा, अचानक किसी ने पीछे से धक्का दे दिया हो। वह चमक कर पीछे मुडा-- क्यों?
मुझे इनकी ज़रूरत नहीं है।
उसके भीतर एक लपलपाता अंधड उठने लगा-- मैं नहीं ले जाऊंगा, तुम चाहो तो इन्हें बाहर फेंक सकती हो।
बाहर? --स्त्री की आवाज़ थरथरा रही थी-- मैं इनके साथ तुम्हें भी बाहर फेंक सकती हूँ। रोने के बाद उसकी आंखें चमक रही थीं। गालों का गीलापन सूखे काँच-सा जम गया था, जो पोंछे हुए नहीं, सूखे हुए आँसुओं से उभर कर आता है।
क्या हम बाग देखने नहीं चलेंगे? --बच्ची ने उसका हाथ खींचा और वह उसके साथ चलने लगा। वह कुछ भी नहीं देख रहा था। घास, क्यारियाँ और पेड़ एक गूंगी फ़िल्म की तरह चल रहे थे। सिर्फ़ उसकी पत्नी की आवाज़ एक भुतैली कमेन्ट्री की तरह गूँज रही थी - बाहर, बाहर!
आप मम्मी के साथ बहस क्यों करते हैं? --लड़की ने कहा।
मैं ने बहस कहाँ की? --उसने बच्ची को ऎसे देखा जैसे वह भी उसकी दुश्मन हो।
आप करते हैं। --लडक़ी का स्वर अजीब सा हठीला हो आया था। वह अंग्रेज़ी में 'यू' कहती थी, जिसका प्यार में मतलब 'तुम' होता था और नाराज़गी में 'आप'। अंग्रेज़ी सर्वनाम की यह संदिग्धता बाप-बेटी के रिश्ते को हवा में टांगे रहती थी। कभी बहुत पास, कभी बहुत पराया। जिसका सही अन्दाज़ उसे सिर्फ लड़की की टोन में टटोलना पडता था। एक अजीब से भय ने आदमी को पकड़ लिया। वह एक ही समय में माँ और बच्ची दोनों को वह नहीं खोना चाहता था।
बडा प्यारा बाग है। --उसने फुसलाते हुए कहा-- क्या माली आता है?
नहीं, माली नहीं। --लडक़ी ने उत्साह से कहा-- मैं शाम को पानी देती हूँ और छुट्टी के दिन ममी घास काटती हैं। इधर आओ, मैं तुम्हें एक चीज़ दिखाती हूँ।
वह उसके पीछे पीछे चलने लगा। लॉन बहुत छोटा था-- हरा, पीला, मखमली! पीछे गैराज था और दोनों तरफ झाड़ियों की फेन्स लगी थी। बीच में एक घना, बूढ़ा विलो खडा था। लड़की पेड के पीछे छिप-सी गई, फिर उसकी आवाज़ सुनाई दी--कहाँ हो तुम?
वह चुपचाप, दबे पांव पेड़ के पीछे चला आया और हैरान-सा खड़ा रहा। विलो और फ़ैन्स के बीच काली लकड़ी का बाड़ा था, जिसके दरवाज़े से एक ख़रगोश बाहर झाँक रहा था और दूसरा लडक़ी की गोद में था। वह उसे ऐसे सहला रही थी, जैसे वह ऊन का गोला हो, जो कभी भी हाथ से छूट कर झाड़ियों में गुम हो जायेगा।
ये हमने अभी पाले हैं। पहले दो थे, अब चार ।
बाक़ी कहाँ हैं?
बाडे के भीतर। वे अभी बहुत छोटे हैं।
पहले उसका मन भी ख़रगोश को छूने को हुआ, किन्तु उसका हाथ अपनी बच्ची के सिर पर चला गया और वह धीरे-धीरे उसके भूरे, छोटे बालों से खेलने लगा। लड़की चुप खड़ी रही और ख़रगोश अपनी नाक सिकोड़ता हुआ उसकी ओर ताक रहा था।
पापा? --लड़की ने बिना सिर उठाये धीरे से कहा-- क्या आपने डे रिटन का टिकट लिया है?
नहीं। ऐसा क्यों?
ऐसे ही, यहां वापसी का टिकट बहुत सस्ता मिल जाता है।
क्या उसने यही पूछने के लिये उसे यहां बुलाया था? उसने धीरे से अपना हाथ लड़की के सिर से हटा लिया।
आप रात को कहाँ रहेंगे? --लड़की का स्वर बिलकुल भावहीन था।
अगर मैं यहीं रहूँ तो?
लड़की ने धीरे से ख़रगोश को बाड़े में रख दिया और खट से दरवाज़ा बन्द कर दिया।
मैं हँसी कर रहा था, --उसने हँस कर कहा-- मैं आख़िरी ट्रेन से लौट जाऊंगा।
लड़की ने मुड़कर उसकी ओर देखा-- यहाँ दो-तीन अच्छे होटल भी हैं। मैं अभी फ़ोन करके पूछ लेती हूँ। लड़की का स्वर बहुत कोमल हो आया। यह जानते ही कि वह रात घर में नहीं ठहरेगा, वह माँ से हटकर आदमी के साथ हो गई। धीरे से उसका हाथ पकडा और उसे वैसे ही सहलाने लगी जैसे अभी कुछ देर पहले ख़रगोश को सहला रही थी। लेकिन आदमी का हाथ पसीने से तरबतर था।
सुनो, मैं अगली छुट्टियों में इण्डिया आऊंगी। इस बार पक्का है।
उसे कुछ आश्चर्य हुआ कि आदमी ने कुछ नहीं कहा, सिर्फ़ बाडे में ख़रगोशों की खटर-पटर सुनाई दे रही थी।
पापा, तुम कुछ बोलते क्यों नहीं?
तुम हर साल यही कहती हो।
कहती हूँ, लेकिन इस बार आऊंगी, डोन्ट यू बीलीव मी?
भीतर चलें? ममी हैरान हो रही होंगी कि हम कहाँ रह गये।
अगस्त का अंधेरा चुपचाप चला आया था। हवा में विलो की पत्तियां सरसरा रही थीं। कमरों के परदे गिरा दिये गये थे, लेकिन रसोई का दरवाज़ा खुला था। लड़की भागते हुए भीतर गई। सिंक का नल खोल कर हाथ धोने लगी। वह उसके पीछे आकर खड़ा हो गया। सिंक के ऊपर आईने में उसने अपना चेहरा देखा--- रूखी गर्द और बढ़ी हुई दाढ़ी और सुर्ख़ आँखों के बीच उसकी ओर हैरत से ताकता हुआ। नहीं, तुम्हारे लिये कोई उम्मीद नहीं।
पापा, क्या तुम अब भी अपने आप से बोलते हो? --लड़की ने पानी में भीगा अपना चेहरा उठाया। वह शीशे में देख रही थी। हाँ, लेकिन अब मुझे कोई सुनता नहीं। --उसने धीरे से बच्ची के कन्धे पर हाथ रखा-- क्या फ्रिज में सोडा होगा?
तुम भीतर चलो, मैं अभी लाती हूँ।
कमरे में कोई न था। उसकी चीज़ें बटोर दी गईं थीं। सूटकेस कोने में खडा था। जब वे बाग में थे, उसकी पत्नी ने शायद उन सब चीज़ों को देखा होगा। उन्हें छुआ होगा। वह उससे चाहे कितनी नाराज़ क्यों न हो पर चीज़ों की बात अलग थी। वह उन्हें ऊपर नहीं ले गई, लेकिन उसने उन्हें दुबारा सूटकेस में डालने की हिम्मत भी नहीं की थी। उन्हें अपने भाग्य पर छोड दिया था।
कुछ देर बाद जब बच्ची सोडा और गिलास लेकर आई, तो उसे सहसा पता चला कि वह कहाँ बैठा है। कमरे में अंधेरा था। पूरा अंधेरा नहीं, सिर्फ़ इतना, जिसमें कमरे में बैठा आदमी चीज़ों के बीच चीज़ जैसा दिखाई देता है।
पापा, तुमने बत्ती नहीं जलाई?
अभी जलाता हूँ। वह उठा और स्विच ढूंढने लगा। बच्ची ने सोडा और गिलास मेज पर रख दिया और टेबल लैम्प जला दिया।
ममी कहां हैं?
वह नहा रही हैं, अभी आती होंगी।
उसने अपने बैग से व्हिस्की निकाली, जो उसने फ्रेंकफर्ट के एयर पोर्ट पर ख़रीदी थी। पर गिलास में व्हिस्की डालते हुए उसके हाथ ठिठक गये-- तुम्हारी जिंजर-एल कहाँ है?
मैं अब असली बियर पीती हूँ। --लडक़ी ने हँस कर उसकी ओर देखा-- तुम्हें बर्फ़ चाहिये?
नहीं लेकिन तुम कहां जा रही हो?
बाड़े में खाना डालने। नहीं तो वे एक दूसरे को मार खाएंगे।
वह बाहर गई तो खुले दरवाज़े से बाग का अंधेरा दिखाई दिया, तारों की पीली तलछट में झिलमिलाता हुआ। हवा नहीं थी। बाहर का सन्नाटा घर की अदृश्य आवाज़ों के भीतर से छनकर आता था। उसे लगा, वह अपने घर में बैठा है और जो कभी बरसों पहले होता था, वह अब हो रहा है। वह शावर के नीचे गुनगुनाती रहती थी और जब वह बालों पर तौलिया साफ़े की तरह बांधकर निकलती थी, तब पानी की बूंदे बाथरूम से लेकर उसके कमरे तक एक लकीर बनाती जाती थीं- पता नहीं वह लकीर कहाँ बीच में सूख गई? कौन सी जगह, किस खास मोड़ पर वह चीज़ हाथ से छूट गई, जिसे वह कभी दोबारा नहीं पकड सका?
उसने कुछ और व्हिस्की डाली; हालाँकि गिलास अभी खाली नहीं हुआ था। उसे कुछ अजीब लगा कि पिछली रात भी यही घड़ी थी जब वह पी रहा था। लेकिन तब वह हवा में था। जब उसे एयर होस्टेस की आवाज़ सुनाई दी कि हम चैनल पार कर रहे हैं तो उसने हवाई जहाज की खिड़की से नीचे देखा। कुछ भी दिखाई नहीं देता था। असल में समुद्र कहीं भीतर है - उसकी एक ज़िन्दगी से दूसरी ज़िन्दगी तक फैला हुआ। जिसे वह हमेशा पार करता रहेगा, कभी इधर, कभी उधर, कहीं का भी नहीं, न कहीं से आता हुआ न कहीं पहुँचता हुआ।
बिन्दु कहाँ है? --उसने चौंक कर ऊपर देखा, वह वहाँ कब से खडी थी, उसे पता ही नहीं चला था।
बाहर बाग में । --उसने कहा-- खरगोशों को खाना देने गई है।
वह अलग खड़ी थी, बैनिस्टर के नीचे। नहाने के बाद उसने एक लम्बी मैक्सी पहन ली थी। बाल खुले थे। चेहरा बहुत धुला और चमकीला-सा लग रहा था। वह मेज पर रखे गिलास को देख रही थी। उसका चेहरा शांत था, शावर ने न केवल उसके चेहरे को, बल्कि उसके संताप को भी धो डाला था।
बर्फ़ भी रखी है। --उसने कहा।
नहीं, मैं ने सोडा ले लिया, तुम्हारे लिये एक बना दूँ।
उसने सिर हिलाया, जिसका मतलब कुछ भी था, उसे मालूम था कि गर्म पानी से नहाने के बाद उसे कुछ ठण्डा पीना अच्छा लगता था। अर्से बाद भी वह उसकी आदतें भूला नहीं था, बल्कि उन आदतों के सहारे ही दोनों के बीच पुरानी पहचान लौट आती थी। वह रसोई में गया और उसके लिये एक गिलास ले आया। उसमें थोडी बर्फ़ डाली। अब व्हिस्की मिलाने लगा, तो उसकी आवाज़ सुनाई दी-- बस, इतनी काफी है।
वह धुली हुई आवाज़ थी, जिसमें कोई रंग नहीं था, न स्नेह का, न नाराज़गी का-- एक शांत तटस्थ आवाज़। वह सीढ़ियों से हटकर कुर्सी के पास चली आई थी।
तुम बैठोगी नहीं? --उसने कुछ चिंतित होकर पूछा।
उसने अपना गिलास उठाया और वहीं स्टूल पर बैठ गई, जहां दुपहर को बैठी थी। टी.वी. के पास । लेकिन टेबल लैम्प से दूर । जहाँ सिर्फ़ रोशनी की एक पतली सी झाँई उस तक पहुँच रही थी।
कुछ देर तक दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला । फिर स्त्री की आवाज़ सुनाई दी-- घर में सब लोग कैसे हैं?
ठीक हैं। ये सब चीज़ें उन्होंने ही भेजी हैं।
मुझे मालूम है --औरत ने कुछ थके स्वर में कहा-- क्यों उन बेचारों को तंग करते हो? तुम ढो-ढो कर इन चीज़ों को लाते हो और वे यहाँ बेकार पडी रहती हैं।
वे यही कर सकते हैं --उसने कहा-- तुम बरसों से वहाँ गई नहीं हो, वे बहुत याद करते हैं।
अब जाने का कोई फ़ायदा है? --उसने गिलास से लम्बा घूँट लिया-- मेरा अब उनसे कोई रिश्ता नहीं।
तुम बच्ची के साथ तो आ सकती हो, उसने अब तक हिन्दुस्तान नहीं देखा।
वह कुछ देर चुप रही। फिर धीरे से कहा, अगले साल वह चौदह वर्ष की हो जायेगी। कानून के मुताबिक तब वह कहीं भी जा सकती है।
मैं कानून की बात नहीं कर रहा; तुम्हारे बिना वह कहीं नहीं जायेगी।
स्त्री ने गिलास की भीगी सतह से आदमी को देखा-- मेरा बस चले तो उसे वहां कभी न भेजूँ।
क्यों? --आदमी ने उसकी ओर देखा।
वह धीरे से हँसी-- क्या हम दो हिन्दुस्तानी उसके लिये काफ़ी नहीं हैं?
वह बैठा रहा। कुछ देर बाद रसोई का दरवाज़ा खुला। लड़की भीतर आई, चुपचाप दोनों को देखा और फिर जीने के पास चली गई, जहां टेलीफ़ोन रखा था।
किसे कर रही हो? --औरत ने पूछा।
लडक़ी चुप रही और फ़ोन का डायल घुमाने लगी। आदमी उठा, उसकी ओर देखा-- थोडा-सा और लोगी?
नहीं उसने सिर हिलाया। आदमी धीरे-धीरे अपने गिलास में डालने लगा।
क्या बहुत पीने लगे हो? --औरत ने पूछा।
नहीं --आदमी ने सिर हिलाया-- सफ़र में कुछ ज़्यादा ही हो जाता है।
मैं ने सोचा था, अब तक तुमने घर बसा लिया होगा।
कैसे ? --उसने स्त्री को देखा-- तुम्हें यह कैसे भ्रम हुआ?
औरत कुछ देर नीरव आँखों से उसे देखती रही-- क्यों उस लड़की का क्या हुआ? वह तुम्हारे साथ नहीं रहती? स्त्री के स्वर में कोई उत्तेजना नहीं थी, न क्लेश की कोई छाया थी। जैसे दो व्यक्ति मुद्दत बाद किसी ऐसी घटना की चर्चा कर रहे हों जिसने एक झटके से दोनों को अलग छोरों पर फेंक दिया था।
मैं अकेला रहता हूँ, माँ के साथ। --उसने कहा।
औरत ने तनिक विस्मय से उसे देखा-- क्या बात हुई?
कुछ नहीं, मैं शायद साथ रहने के काबिल नहीं हूँ। --उसका स्वर असाधारण रूप से धीमा हो आया, जैसे वह उसे अपनी किसी गुप्त बीमारी के बारे में बता रहा हो-- तुम हैरान हो? लेकिन ऐसे लोग होते हैं ।
वह कुछ और कहना चाहता था, प्रेम के बारे में, वफ़ादारी के बारे में, विश्वास और धोखे के बारे में। कोई बडा सत्य, जो बहुत से झूठों से मिलकर बनता है। व्हिस्की की धुंध में बिजली की तरह कौंधता है और दूसरे क्षण हमेशा के लिये अंधेरे में लोप हो जाता है
लड़की शायद इस क्षण की ही प्रतीक्षा कर रही थी। वह टेलीफ़ोन से उठकर आदमी के पास आई, एक बार माँ को देखा। वह टेबल लैंप के पीछे अंधेरे के आधे कोने में छिप गईं थीं, और आदमी? वह गिलास के पीछे सिर्फ़ एक डबडबाता-सा धब्बा बनकर रह गया था।
पापा --लड़की के हाथ में काग़ज़ का पुरजा था-- यह होटल का नाम है, टैक्सी तुम्हें सिर्फ़ दस मिनट में पहुँचा देगी। उसने लड़की को अपने पास खींच लिया और काग़ज़ जेब में रख लिया।
कुछ देर तीनों चुप बैठे रहे जैसे बरसों पहले यात्रा पर निकलने से पहले घर के प्राणी एक साथ सिमट कर चुप बैठ जाते थे। बाहर बहुत से तारे निकल आये थे, जिसमें बूढ़ा विलो, झाड़ियों और ख़रगोशों का बाड़ा एक निस्पन्द पीले आलोक में पास-पास सरक आये थे।
उसने अपना गिलास मेज पर रखा, फिर धीरे से लड़की को चूमा, अपना सूटकेस उठाया और जब लड़की ने दरवाज़ा खोला, तो वह क्षण भर देहरी पर ठिठक गया-- मैं चलता हूँ --उसने कहा। पता नहीं, यह बात उसने किससे कही थी, किन्तु जहाँ वह बैठी थी, वहाँ से कोई आवाज़ नहीं आई। वहाँ उतनी ही घनी चुप्पी थी, जितनी बाहर अंधेरे में, जहाँ वह जा रहा था।