एक दिन के लिए उलटफेर / जयप्रकाश चौकसे

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एक दिन के लिए उलटफेर
प्रकाशन तिथि : 29 अक्तूबर 2012


वासु भगनानी चायपत्ती के व्यवसाय से भवन निर्माण के धंधे में आए और साथ ही 'कुली नं.1' जैसी व्यावसायिक डेविड धवन के स्कूल की फिल्में बनाते रहे हैं। उन्होंने अपने पुत्र जैकी भगनानी को सितारा बनाने के प्रयास में अब तक तीन फिल्में बनाईं, जिनमें से एक 'फालतू' नामक फिल्म सफल भी रही है। जैकी में सितारा संभावनाएं हैं। उनकी नई फिल्म 'अजब गजब लव' 'धूम' शृंखला के लिए प्रसिद्ध संजय गड़वी ने निर्देशित की है। फिल्म का अमीरजादा नायक मध्यम वर्ग की ऐसी कन्या से प्रेम करता है, जिसे अमीरों से नफरत है, परंतु उसके पास ऐसा करने के लिए कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं है। उसने माक्र्स नहीं पढ़ा है, वरन मॉल से महंगा पर्स और कपड़े खरीदे हैं, गोयाकि वह सोशलिस्ट नहीं वरन 'चोचलिस्ट' है। दरअसल उसका यह दोषपूर्ण चरित्र-चित्रण ही फिल्म को ले डूबा है। अगर लेखक उसे प्रकाश झा की 'चक्रव्यूह' की नायिका या कम से कम युवा मेधा पाटकर की तरह गढ़ता तो बात बन जाती।

बहरहाल, इस हास्य फिल्म में नायिका से नायक यह झूठ बोलता है कि वह अत्यंत गरीब है और इसी झूठ से घटनाओं की एक शृंखला प्रारंभ होती है, जिसके तहत नायक के अमीर माता-पिता और भाई को गरीबी का स्वांग रचना पड़ता है। पिता को केले बेचने पड़ते हैं। माता को सिलाई मशीन पर अथक काम करते हुए अंधी तक हो जाने की फिल्मी मां की तरह आचरण करना पड़ता है और किरण अनुपम खेर तो इसमें माहिर हैं। वह नाप-तौल से परे जाकर यह स्वांग करती हैं और फराह खान की 'ओम शांति ओम' में फिल्मी मां कर चुकी हैं। इस तरह की भूमिकाओं को बहुत लुत्फ लेते हुए किरण करती हैं। दरअसल इस तरह की हास्य फिल्मों में कलाकारों का आनंद लेकर काम करना ही दर्शक को गुदगुदाता है।

क्या हम यह कल्पना कर सकते हैं कि मुकेश अंबानी या रतन टाटा या हिंदुजा या कोई और धनाढ्य घराने के सदस्य मात्र कुछ दिनों के लिए गरीबी में रहें और गरीब व्यक्ति उनके महलों में रहे? अपने आर्किटेक्ट ईसा आफंदी के कहने से शाहजहां ने वेश बदलकर एक दिन साधारण मजदूर की तरह ताज के निर्माण में काम किया था और सारी रात हकीम साहब उनके दर्द करते हुए बदन का इलाज करते रहे। यह भी संभव है कि फुटपाथ पर सोने वाले को अमीर के महल के नर्म बिस्तर पर नींद ही नहीं आए। अंबानी के घर का भोजन उसे रास नहीं आएगा। गरीब व्यक्ति का जीवन न खत्म होने वाला युद्ध होता है और व्यवसाय की प्रगति के लिए युद्ध कराने वाला धनाढ्य व्यक्ति मात्र एक पहर भी वहां जी नहीं सकता।

राजनीति क्षेत्र में तो कई बार सत्ता पक्ष विरोध की बेंच पर बैठता है और सारा जीवन विरोध करने वाले भी सत्ता की कुर्सी पर बैठते हैं, परंतु नेताओं का आचरण नहीं बदलता। सत्ता में धन कमाने के अवसर अनेक होते हैं तो विरोध पक्ष में भी कुछ अवसर तो होते हैं। गोयाकि इस क्षेत्र में भूमिकाओं के उलटफेर से कुछ खास अंतर नहीं होता। कल्पना कीजिए कि अरविंद केजरीवाल सत्ता पक्ष में बैठे हैं। उनके जो हिटलरी तेवर अभी हम नुक्कड़ पर देखते हैं, वे नहीं बदलेंगे, परंतु प्रतिदिन वह अनेक लोगों को जेल भेज देंगे और केजरीवाल कालखंड में पूरा भारत एक विशाल जेल में बदल जाएगा। सत्तासीन अन्ना हर सोलह वर्षीय युवा को फौज में भर्ती करवा देंगे। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि बाबा रामदेव संसद सत्र में कपालभाति करते कैसे लगेंगे?

इस उलटफेर की कल्पना को आगे बढ़ाएं और तमाम दंभी पुरुषों को स्त्रियों की भूमिकाओं में देखें तो आप बर्तन टूटने की आवाज ही सुन पाएंगे, परंतु स्त्रियां पुरुषों के रूप में काम कर लेंगी। कल्पना करें कि स्वर्ग के देवताओं को आम गरीबों की तरह एक दिन रहना पड़े तो उन्हें नर्क का अनुमान होगा। इस हास्य फिल्म से यह पाठ पढ़ा जा सकता है कि व्यावहारिक जीवन में चंद दिनों के लिए उलटफेर मनुष्य को ज्यादा सहिष्णु बना सकता है। अगर १९४५-४६ में मोहम्मद अली जिन्ना एक दिन के लिए गांधी और गांधी एक दिन के लिए जिन्ना की तरह सोचते तो संभवत: भारत का विभाजन नहीं होता