एक दुनिया इनकी भी / प्रियंका गुप्ता
दुनिया इनकी भी- (विविध लेखकों की बाल-कथाओं का संकलन): संकलन और सम्पादन-श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' प्रकाशक-प्रभास प्रकाशन, नोएडा
कहानी एक ऐसी विधा है, जिसका आरम्भ कब से हुआ, शायद सही-सही कोई भी नहीं जानता। संभवतः भाषा के विकास से बहुत पहले ही मानव ने कहानी कहने या बताने की कला सीख ली थी। प्रागैतिहासिक काल में ही उसने अपने जीवन की मुख्य घटनाओं और परिस्थितियों को गुफाओं के पत्थरों पर उकेर कर अपनी कहानी कहनी शुरू कर दी थी। भाषा के विकास के साथ ही अपने द्वारा अर्जित ज्ञान को पहले तो मौखिक रूप और उसके बाद लिखित रूप में उसने भावी पीढ़ी तक पहुँचाना आरम्भ कर दिया और यहीं से शायद कहानी विधा का जन्म हुआ होगा।
भावी पीढ़ी यानी हमारे बच्चों तक अपनी ज़िंदगी के अनुभवों और ज्ञान को पहुँचाने के लिए एक रोचक कहानी से बेहतर भला और क्या होगा। एक कहानी जो न केवल नौनिहालों को एक अनोखे कल्पनालोक में ले जाती है, जहाँ आपस में मिलजुलकर रहने वाले जीव-जंतु होते हैं, परियाँ और राजकुमार-राजकुमारियाँ और राक्षस भी होते हैं, बल्कि कई बार उन्हीं की तरह इंसान भी होते हैं। इन कहानियों से न केवल उनका मानसिक विकास होता है, वरन उन्हें अच्छे-बुरे का अंतर सिखा कर उनके अन्दर एक सामाजिक और नैतिक दायित्व का भी विकास बहुत आसानी से किया जा सकता है। पर इन सब चीज़ों के लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी है, उन कहानियों को बच्चों की उम्र के ही हिसाब से एक रोचक तरीके से गढ़ना...और इस मापदण्ड पर प्रस्तुत बालकथा-संग्रह-एक दुनिया इनकी भी-बिलकुल खरा उतरता है।
यह संकलन दो भागों में है। पहले भाग में सत्रह कहानियाँ हैं और दूसरे में बीस। तो पहले बात करते हैं संग्रह के पहले भाग की।
संग्रह के इस भाग की पहली बालकथा है श्री श्याम सुन्दर अग्रवाल द्वारा लिखी-घुरकुला मेढक। इस कथा को पढ़ते समय एक पुरानी कहावत याद आ जाती है कि दूसरों के लिए गड्ढा खोदने वाला ख़ुद ही उसमे गिर जाता है। इसी कहावत को इसमें भी चरितार्थ होते दिखाया गया है। इसमें सबसे ईर्ष्या और नफ़रत करने वाला घुरकुला मेढक जब दूसरों का अंत करने की सोच कर एक दुश्मन से मदद लेता है, तो नहीं जानता कि वह असल में स्वयं अपने और अपने परिवार के खात्मे का इंतज़ाम कर रहा।
श्री अग्रवाल जी की इस भाग में दो और बालकथाएँ हैं, जिनमे से एक है-सींग और साहस-यह कहानी ननकू हिरण के साहस और सूझबूझ के माध्यम से बच्चों को बहुत अच्छे से यह बात समझा देती है कि हम में से हर किसी के पास कोई न कोई शक्ति अवश्य होती है, बात सिर्फ़ उसे पहचान कर सही तरीके से उसका इस्तेमाल करने की है। हम अगर चाहें तो बड़े से बड़े खतरे का भी सामना बेहद सफलतापूर्वक करके उससे विजयी होकर निकल सकते हैं।
अग्रवाल जी ने इस भाग की अंतिम बालकथा-एक प्याला पानी-में बच्चों को बेहद रोचक तरीके से पानी के महत्त्व और जीवन के लिए उसके मोल को समझाया है। आज के इस समय में जब हमारे भूजल का इतना तेज़ी से ह्रास हो रहा है, ऐसे में इस तरह की बालकथाओं के माध्यम से बच्चों में पानी बचाने की आदत बहुत अच्छे से डाली जा सकती है।
इस भाग की दूसरी बालकथा सुश्री हरदीप कौर संधू द्वारा-हाँ, हाँ गुलगुले-शीर्षक वाली एक बेहद ही मजेदार बाल कहानी है। किस तरह भुलक्कड़ बंता गुलगुले शब्द की बजाय 'अहुप्ड़े' याद करके एक हास्यास्पद परिस्थिति पैदा कर देता है, उसको पढ़ कर बच्चे ही नहीं, बल्कि बड़े भी बहुत आनंद उठायेंगे।
संकलन के इस भाग में श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी की आठ कहानियाँ संकलित हैं। एक तरफ़ जहाँ 'चींटी और कबूतर' की कथा हमें यह सिखाती है कि निस्वार्थ भाव से किसी के लिए किया गया कार्य हमें उसका सुखद प्रतिफल ही देता है, वहीं 'धोखेबाज भेड़िया' में धूर्त की चालाकी और धूर्तता कभी न कभी खुल ही जाती है और उसे उसका समुचित दण्ड भी मिल जाता है, इस बात को बेहद सरल शब्दों में समझा दिया गया है। 'मेरा कबूतर' कहानी है एक छोटे बच्चे मिक्कू की जिसके घर में कबूतरों ने घोंसला बना कर उसमे अंडे भी दिए। मिक्कू किस प्रकार उनसे स्नेह करने लगता है, इसकी एक नन्हीं-सी दास्तां है ये...जैसी हम अक्सर अपने घरों में भी होती देखते ही रहते हैं। इसी तरह एक अन्य छोटी कहानी 'कछुए की बहन' में भी एक दयालु लड़की और कछुए के क्षणिक स्नेह की कथा सुनाती है। कुछ शैतान बच्चों द्वारा एक कछुए को सताया जाना एक नन्हीं लडकी सहन नहीं कर पाती और अंततः उस निरीह प्राणी की मदद करके वचः असीम आनंद का अनुभव करती है।
काम्बोज जी की अगली कहानी है 'वे तीन मित्र'। इस कहानी में भालू, भेड़िया और लोमड़ी की तथाकथित मित्रता के माध्यम बच्चों को एक बेहद रोचक तरीके से यह बताया गया है कि अपने से अधिक सामर्थ्यवान यदि ख़ुद को आपका मित्र कहे भी, तो भी समय पड़ने पर आपको ख़ुद को उससे नीचे रखना ही पड़ता है, वरना उसके दुष्परिणाम भी सामने आते हैं। अन्य शब्दों में कहूँ तो मित्रता बराबरी वालों में ही हो सकती है। 'भावना का फल' वैसे है तो मूलतः एक लोककथा, परन्तु काम्बोज जी ने उसे अपने शब्दों में बेहद रोचक तरीके से लिखा है। यह कहानी हमें सिखाती है कि हम जो भी करते हैं, उसके पीछे की हमारी भावना जिस प्रकार की होगी, हमें उसका फल भी वैसा ही मिलेगा। अगर किसी का भला करनी की मंशा होगी तो हमारा भी भला होगा और यदि वही कार्य किसी लालचवश किया गया है, तो उसके बदले हमें भी उसका परिणाम भुगतना ही पड़ेगा। 'अपना-अपना जीवन' कथा में बेहद सहजता से यह समझा दिया गया है कि किसी का भी जीवन कभी पूरी तरह से संतोषप्रद नहीं होता। हरेक के जीवन के कुछ पहलू सुखकर होते हैं और कुछ से कष्ट भी मिलता है। इसी लिए अपने जीवन की तुलना किसी और से करने की बजाय जो मिला है, उसमें ही सुख ढूँढना चाहिए और संतुष्ट रहना चाहिए। इस भाग में काम्बोज जी कीई लिखी कहानी 'स्कूल भी उदास है' मानवीयकरण का बहुत सुन्दर उदहारण है। एक स्कूल के माध्यम से उन्होंने दिन भर बच्चों के क्रिया-कलापों का जो मनोहर खाका आँखों के आगे खींचा है, उससे बच्चे ही नहीं, बल्कि बड़ों को भी अपने स्कूल की याद ज़रूर आएगी।
इस संग्रह के पहले भाग में मेरी यानी प्रियंका गुप्ता कि भी पाँच कहानियाँ और दूसरे भाग में चार कहानियाँ संकलित है, पर उनका आकलन मैं सुधी पाठकों पर छोडती हूँ।
अब बात करते हैं इस संकलन के दूसरे भाग की। इस भाग में श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी की पाँच बालकथाएँ, श्याम सुन्दर अग्रवाल जी की दो कहानियाँ, सुश्री रचना श्रीवास्तव, डॉ हरदीप कौर संधू और सुश्री कमला निर्खुपा जी की एक-एक बालकथा और श्री सुकेश सहानी जी की छह बालकथाएँ संगृहीत हैं।
सबसे पहले बात करते हैं इस भाग की पहली कहानी, श्री रामेश्वर काम्बोज जी की बालकथा-हरियाली और पानी-की। जहाँ पानी है, वहीं हरियाली होगी और जहाँ हरियाली भरा वातावरण होगा, पानी का संरक्षण भी वहीँ संभव है। वृक्ष, पानी और हरियाली सब एक दूसरे के पूरक हैं, पर्यावरण की रक्षा के लिए इन सभी का रहना बेहद ज़रूरी है, ये बातें बड़ों और बच्चों सबको समझना होगा और इसी बात को बेहद ख़ूबसूरती और सहजता-सरलता से इस कहानी में समझा दिया गया है। काम्बोज जी की ही अगली कहानी भी एक अलग ही विषय, यानी किसी जंगली जानवर के बस्ती में बार-बार आने के ख़तरे से बचने के लिए उसको किस तरह पकड़ा जाता है, उसके तरीके से बच्चों को परिचित कराने के साथ-साथ चुपके से बच्चों के कानों में यह बात भी डाल देती है कि वन कटेंगे तो उसका नुक़सान जितना पशु-पक्षियों को होगा, उतना ही ख़तरा इंसान और उसके मवेशियों का भी होता है। काम्बोज जी की अगली कहानी-बुद्धिराज और ठग-एक मजेदार कहानी होने के साथ ही हमको ये सिखाती है कि अगर समय पड़ने पर अपनी बुद्धि और विवेक का इस्तेमाल किया जाए तो उस मुसीबत से बहुत सहजता से निकला जा सकता है।
'ऊँटों का बँटवारा' एक ऐसी रोचक कहानी है जो बच्चों के अन्दर गणित जैसे कठिन विषय को सीखने की उत्सुकता जगाने में बहुत कारगर साबित हो सकती है। इस भाग में काम्बोज जी की आखिरी कहानी है-उजाले का सैलाब-बहुत ही सकारात्मक सन्देश देती कहानी है। बेटे-बेटी के भेदभाव से जूझते हमारे समाज के बच्चों को इस कहानी को पढ़ने के लिए ज़रूर प्रेरित करना चाहिए। कहानी के नायक जिलेसिंह की पहली संतान के रूप में जब एक लड़की का जन्म होता है तो एक तरफ़ तो घर-परिवार में भी मातमी माहौल हो जाता है और दूसरी तरफ़ उसकी पत्नी भी इस तरह अपराध-बोध से भर जाती है जैसे बेटी पैदा होने में कोई बहुत बड़ा अपराध हो गया हो। परन्तु कहानी के अंत में जिस तरह जिलेसिंह बेटी का पिता बन जाने की शानदार ख़ुशी मनाता है, उससे न केवल पाठक का मन-मयूर नाच उठता है, बल्कि उसे यह शिक्षा भी मिलती है कि संतान सिर्फ़ एक संतान ही होती है, वह बेटी है या बेटा, इससे किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए।
इस भाग की दूसरी कहानी-धैर्य का फल-श्री श्याम सुन्दर अग्रवाल जी की लिखी हुई है। इस कथा में सब्र और ईमानदारी एक न एक दिन अच्छा फल देती ही है, यही सीख मिलती है। अग्रवाल जी की अगली कहानी है-जंगल का दैत्य-जब हम यह रोचक कहानी पढ़ते हैं तो अपने आप समझ आ जाता है कि भय इंसान के अन्दर जन्म लेता है। जंगल में कुछ नर-कंकाल और लगातार आती घंटियों की आवाज़ें सुन कर किस प्रकार भय-ग्रसित लकड़हारे एक दैत्य की जंगल में मौजूदगी मान कर डर जाते हैं और इस अफवाह से सिपाही तक घबरा जाते हैं, उसी दैत्य के सत्य का पता एक दुर्बल बुढ़िया करती है और सब चैन की साँस लेते हैं। यह कहानी हमको यह भी सिखाती है कि डर का सामना मनोबल से होता है, उम्र या ताक़त से नहीं।
इस भाग में अगली कथाकार हैं सुश्री रचना श्रीवास्तव जी... । आज के तथाकथित उन्नत समाज में भी शिक्षा पर बेटे-बेटी का समान अधिकार नहीं है, इसी सच को आधार बना कर उन्होंने-मुनिया कि पढाई-बालकथा लिखी है। घर में दादी अपनी ज़हीन पोती मुनिया को पढ़ाने के सख्त खिलाफ़ होती हैं, पर वही मुनिया किस प्रकार छुप कर अपने भाई की मदद से पढ़ना सीखती भी है और उसके ज्ञान का उपयोग दादी के प्राण बचाने के लिए करती है। तब कहीं जाकर दादी की आँखें खुलती हैं। समाज को इस कहानी से बहुत सकारात्मक सन्देश मिलता है।
संग्रह के इस भाग में अपनी एक-एक कहानी के साथ डॉ हरदीप कौर संधू और कमला निर्खुपा जी भी शामिल है। डॉ हरदीप कौर संधू की कहानी-दीवार में कील-बच्चों को बेहद रोचक और सहज तरीके से मधुर वाणी का महत्त्व समझा देती है। दीवार में कील लगाने के बाद कभी अगर उसे उखाड़ भी दिया जाए, तो भी उसके निशान बाक़ी रह जाते हैं। उसी तरह कड़वी बोली के घाव बोलने वाले के क्षमा माँगने के बाद भी नहीं मिटते।
कमला निखुर्पा जी की कहानी-पंछी की पीड़ा-बेहद मार्मिक कहानी है। क्रोध के अतिरेक में किस तरह इंसान अपना विवेक खोकर अनहोनी कर गुज़रता है, इस पहाड़ी लोककथा के माध्यम से कमला जी ने यही बताया है।
इस भाग की बाक़ी बची कहानियाँ श्री सुकेश साहनी जी और प्रियंका गुप्ता कि है। सुकेश जी की पहली कहानी-दो भाई-बेहद खूबसूरत कहानी है। दो भाइयों के बीच घर में भले दीवार खिंच जाए, पर दिलों के बीच दीवार खिंच पाना उतना आसान नहीं होता, रिश्तों की इसी छुपी गर्माहट को दर्शाती यह बालकथा दिल को बेहद सकून पहुँचाती है। उनकी अगली कहानी-पीटर का सपना-अपने कथ्य में एक नयापन समेटे हुए है। बच्चे हों या बड़े, सभी सपने देखते हैं। अक्सर वे सपने हमारे अन्दर दबी हुई इच्छाओं और भावनाओं को भी व्यक्त करते हैं। ऐसे ही एक बच्चे पीटर के वायुसेना में जाने की अभिलाषा किस तरह उसके सपने में आती है और उसके इस सपने को उसके शिक्षक समझ लेते हैं, इसी की एक प्रवाहमयी कहानी है यह।
इस भाग की अगली दो कहानियाँ-भूकंप का राज़-और–सही रास्ता भी सुकेश जी की ही लिखी हैं। बच्चों को अगर कठिन विषय भी कहानी के माध्यम से समझाया जाए तो न केवल उन्हें बेहद आसानी से बात समझ भी आ जाती है, बल्कि अपनी रोचकता के चलते वह हमेशा याद भी रहती है। 'भूकंप का राज़' में भी ऐसी ही रोचकता से भूकंप के बारे में समझा दिया गया है।
'सही रास्ता' एक ऐसी कहानी है, जिसका मुख्य पात्र केशव जैसे बच्चे हमको अक्सर अपने आसपास मिल जाएँगे जिनके अन्दर अनेक रुचियाँ उत्पन्न होती रहती हैं, पर वह किसी एक दिशा में अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते। उन्हें अगर इसी प्रकार समझा दिया जाए तो बहुत संभव है, वह अपनी रूचि के क्षेत्र में किसी दिन कीर्तिमान स्थापित कर पाएँ।
एक बेहद अलग तरह के किन्तु रोचक विषय पर सुकेश जी की अगली कहानी-पानी का घर-केन्द्रित की गई है। हमारे आसपास अनगिनत ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें हम अपनी रोज़मर्रा कि ज़िंदगी में देखते ज़रूर हैं पर वे कैसे कार्य करती हैं, या उन्हें उनके वर्तमान स्तर तक कैसे लाया जाता है, इसकी जानकारी बच्चे तो बच्चे, कई बार हम बड़ों को भी नहीं होती। उदाहरण के तौर पर कुएँ में पानी कैसे आता है या पानी धरती के अन्दर कितने परतों के नीचे होता है या फिर पाताल तोड़ कूप (स्त्रुत कूप) क्या है, ये सब बातों की जानकारी बेहद सहज-सरल और रोचक तरीके से इस कहानी में दे दी गई है।
इस भाग की अंतिम कहानी-राहुल की पढाई-भी सुकेश जी की ही लिखी है। इस कहानी को हम लोग अक्सर अपने आसपास के जीवन में घटता देखते ही रहते हैं। राहुल नाम का बच्चा जो दिन भर पढाई में लगा रहता है, उसके फेल हो जाने के पीछे सिएर्फ़ एक ही कारण है और वह है-उसके अन्दर एकाग्रचितता न होना। इस कहानी को पढ़ के हर बच्चे को जीवन भर की एक सीख मिल जाएगी कि किसी काम में सफल होने के लिए उसमें दिन भर जुटा रहना ज़रूरी नहीं, आवश्यकता है तो बस इस बात की कि हम जितनी देर भी कोई कार्य करें, पूरा मन लगा कर करें। ऐसी सीख निश्चय ही बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की ओर उन्हें अग्रसर करेंगी।
इस संकलन के दोनों भागों में अलग-अलग उम्र को ध्यान में रखते हुए कहानियाँ संकलित की गई हैं, जो अलग-अलग विषयों और जीवनोपयोगी शिक्षाओं को अपने अन्दर बेहद सरलता, सहजता और रोचकता से समेटे हुए हैं। बच्चों को अगर उन्हीं के अनुरूप अच्छे मार्ग पर चलना सिखाना है, तो उसके लिए मेरे विचार से ऐसे संकलनों को उनके लिए ज़रूर लाकर देना चाहिए।