एक दु:खद घटना / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
सन 1926 ई. के ही अंत में कौंसिलों का चुनाव होने को था। स्वराज पार्टी के नाम से कांग्रेस के लोग चुनाव लड़नेवाले थे। कांग्रेस के नाम से तो कर नहीं सकते थे। ऐसा ही दिल्ली का समझौता हुआ था। लेकिन कम से कम बिहार में उस चुनाव में जो-जो अनर्थ हुए वे कभी भूलने को नहीं। भीतर ही भीतर गुटबंदी थी। कांग्रेस के प्रमुख लोग जाति पाँति की बात भीतर ही भीतर करते थे। खुल के तो कर सकते नहीं थे। वही चुनाव नहीं, उसके बाद भी आज तक कितने चुनाव हुए हैं उन सबों के अनुभव से मैं कह सकता हूँ 'गुस्ताखी माफ हो' कि अधिकांश बिहारी राष्ट्रवादी नेता भीतर ही भीतर जातिवादी भी है। ठीक भी है। राष्ट्रीयता और जातीयता में बहुत ही कम अंतर है। जाति छोटी है और राष्ट्र बड़ा। बस, इतना ही अंतर है। यह भी ठीक है कि 'ठगठग मौसेरे भाई' के अनुसार प्राय: सबों का अपनी-अपनी जाति के पक्षपात में सट्टा-पट्टा भी लग जाती है। इसीलिए कोई किसी को कुछ भी खुल के कहता नहीं। इसीलिए उस बार भी कुछ ऐसी ही बात देखने में आई।
मुझे तो पहले इसका पता न था। लेकिन पीछे मैंने देखा कि सर गणेशदत्त से कुछ कायस्थ लोग बुरी तरह खार खाते थे। यह बात आज भी है। कुछ लोग तो ऐसे हैं। जो भूमिहार ब्राह्मणों की तरक्की फूटी आँखों देख नहीं सकते। फलत: उन्हें गिराने की पूरी कोशिश करते रहते हैं। यह भी सही है कि कुछ भूमिहार भी कायस्थों या औरों को गिराने में नहीं चूकते। पहले किधर से यह बात शुरू हुई इसका विचार बेकार है। लेकिन स्थिति ऐसी ही है। खास कर 1926 में तो थी ही।
बिहार में दुर्भाग्य से राजनीति के भीतर दो पार्टियाँ हैं, हालाँकि प्रकट रूप से नहीं। फिर भी बड़ी मुस्तैदी से चलती है। एक पार्टी है कायस्थ, राजपूत, मैथिल, ग्वाला, कुर्मी आदि की जो भूमिहारों के खिलाफ है। दूसरी है भूमिहार और राजपूतों की जो कायस्थों के विरुद्ध है। कुछ भूमिहार मुसलमानों को मिला कर भी कायस्थों आदि का जवाब देना चाहते हैं। भीतर ही भीतर यह पैंतरेबाजी खूब चलती है। राजपूतों में दो दल है, एक कायस्थों के साथ, दूसरा भूमिहारों के साथ। यह हमारे लिए, प्रांत के लिए और मुल्क के लिए बड़ी बदकिस्मती की बात है। मगर साथ ही साथ यह बात है। इसे कोई ईमानदार आदमी इन्कार नहीं कर सकता, यदि वह भीतरी बात जानता है। यों तो बाहरी प्रमाण इस बारे में देना आसान नहीं।
इसी के अनुसार 1926 में कौंसिल के उम्मीदवार चुनने में कांग्रेसी लीडरों ने भूमिहार ब्राह्मणों के साथ अन्याय किया। पं. धनराज शर्मा जैसे पक्के कांग्रेसियों को न चुन कर ऐसों को चुना जिनसे कांग्रेस का कोई नाता नहीं था और जो पहले कांग्रेस के शत्रु थे। कुछ ऐसी ही बात और भी हुई। सर गणेशदत्त कहीं से भी चुने न जा सके इसकी भी पूरी बंदिश की गई। श्री नंदन बाबू (छपरेवाले) जिला कांग्रेस कमिटी के उप सभापति थे। पर, उन्हें न ले कर ऐसे सज्जन को लिया गया जिनकी योग्यता यही थी कि वह कुछ बड़े लोगों के संबंधी ठहरे। उनके बारे में और भी शिकायतें पीछे पाई गईं। कम से कम मुझे इसी प्रकार की बातें कही गईं। मेरे सामने ऐसा ही चित्र खड़ा किया गया क्योंकि उस समय भीतरी बातें जानता न था।
दुर्भाग्य या सौभाग्य से कहिए, लेकिन मैं तो इसे अब दुर्भाग्य ही मानता हूँ, कि उस समय सर गणेश के साथ मेरा मनमुटाव, जैसा कि बता चुका हूँ, कुछ समय के लिए हट चुका था। कभी-कभी मेरा आना-जाना भी उनके डेरे पर हो जाता था। एक दिन जो मैं सवेरे ही पहुँचा तो कुछ कांग्रेसी, कुछ जमींदार और अन्य भूमिहार ब्राह्मण सर गणेश के साथ बैठे यही बातें कर रहे थे। करम का मारा न जानें मैं क्यों पहुँच गया। लोगों ने मुझे खामख्वाह रोक के यह चुनाववाली दास्तान सुनाई। मैं तो कुछ जानता न था। मैं था अपरिवर्तनवादी। साथ ही ऐसी गंदी बातों से सदा अलग रहा। मैं तो राजनीति केवल कांग्रेस की ही चीज मानता था। फिर जानता कैसे ये बातें? मुझे विश्वास भी न था कि कांग्रेस के बड़े-बड़े लीडर कभी जातीय पक्षपात या द्वेष की बात उसमें लाएँगे। मैं उन्हें ऐसी बातों से बहुत ऊपर मानता था।
सच बात तो यह कि मैं समझ भी न सकता था कि कांग्रेस में जातिपाँति की बात कैसे लाई जा सकती है। सो भी जहाँ बड़े से बड़े त्यागी हैं। इसीलिए उन लोगों ने बार-बार मुझे समझाने और विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया। कुछ कांग्रेसी भी वहाँ थे। उनकी बात सुन कर विश्वास होने लगा। साथ ही आश्चर्य भी हुआ। पीछे तो ऐसी बातें बताई गईं कि विश्वास होई गया। फिर तो मैंने साफ कह दिया कि अच्छा, तो मैं इसमें आप लोगों का साथ दूँगा और उन लोगों की नीचता का भंडाफोड़ करूँगा। वे लोग बहुत ही प्रसन्न हुए। जैसा मेरा स्वभाव है मुझे इस कपट और पक्षपात पर कांग्रेसी लीडरों के ऊपर बड़ा क्रोध हुआ। उसी का वह फल था कि मैंने वचन दे दिया। यह बात चारों ओर फैल गई। कांग्रेसी लोगों को कुछ घबराहट भी हुई जरूर।
मगर मुझे तो छिपाना न था। इसीलिए जब एक दिन स्टीमर पर बैठा बेगूसराय जाने के लिए पहले घाट जा रहा था तो स्टीमर पर ही कांग्रेस के एक चलता-पुर्जा लीडर मिले। वे इस तुंबाफेरी में बहुत रहते हैं। उनकी यह बात सभी जानते हैं। वे इसीलिए बदनाम भी हैं। उनने पूछा कि कहाँ चले महाराज! मैंने उत्तर दिया कि कांग्रेस में बैठ के आपने जो बेईमानी और पक्षपात किया है उसी का भंडाफोड़ करने। फिर तो वे चुप हो गए। मैंने उस चुनाव में तीन जगह खुल के स्वराज्य पार्टी का विरोध किया और जी जान से काम किया। फलत: श्री नंदन बाबू और सर गणेशदत्त सिंह चुने भी गए, हालाँकि मेरा ज्यादा जोर श्री नंदन बाबू के ही जितवाने में था।
यद्यपि यह चुनाव कांग्रेस के नाम में न था किंतु स्वराज्य पार्टी के नाम में। एक बात और थी। उस चुनाव में पंजाब केसरी लाला लाजपत राय और पं. मदनमोहन मालवीय ने भी स्वराज्य पार्टीं का विरोध किया और स्वतंत्र राष्ट्रीय दल के नाम से वह चुनाव वे लोग लड़ते रहे। उसी दल में श्री नंदन बाबू वगैरह भी शामिल थे। तथापि आज तो मैं मानता हूँ कि वह तोएक प्रकार से कांग्रेस की ही ओर से चुनाव था और स्वराज्य पार्टी का विरोध कांग्रेस का ही प्रकारांतर से विरोध था। मैं तो अब यह भी मानता हूँ कि मैंने गलती की। क्योंकि राजनीति का और दुनियाँ का भी पूरा अनुभव उस समय मुझे था नहीं। कांग्रेस के लीडरों को भी ठीक-ठीक समझ न सका था। अगर आज वैसी बात होती तो मैं कदापि विरोध नहीं करता। ऐसी बातें तो राजनीति में हुआ ही करती हैं।गाँधी जी के आने या कहने से राजनीति का दूषित रूप बदल थोड़े ही गया है। ईधर तो मैंने 1926 से भी गई-गुजरी बातें इस चुनाव में पाई हैं। फिर भी अलग ही रहा हूँ, या कांग्रेस की मदद की है।
इसलिए जिस आधार पर मैंने वह विरोध किया था वह कच्चा था। राजनीति में उसका ख्याल कभी नहीं करना चाहिए। हाँ, सिद्धांतों की बात हो तो उसका विचार होना चाहिए। मगर वे सिद्धांत बहुत ही ऊँचे हों, आर्थिक और सामाजिक हों, क्रांति के समर्थक या विरोधी हों। तभी उनके अनुसार समर्थन या विरोध करने का अधिकार हो सकता है। सो भी बहुत सोच-विचार कर। खुशी की बात यही है और संतोष भी मुझे इसी से है कि उसके बाद फिर कोई दूसरा मौका ऐसी भूल करने का नहीं हुआ। हालाँकि अनेक साथियों को जो क्रांति और रेवोल्यूशन की बातें करते हैं, ऐसी बातें कभी छिप के और कभी प्रकट रूप से बराबर करते देखा है। ये अवसर मुझे विचलित न कर सके, यह मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ।
सन 1926 ई. की दो और घटनाएँ प्रसंगवश संक्षेप में बता के आगे बढ़ूँगा। इन दोनों का संबंध इस दु:खद घटना से साक्षात नही है। असल में जाति-पाँति की चिल्लाहट मचाने और धर्म की दोहाई देनेवाले धनियों एवं उनके समर्थकों के संसर्ग से ही मुझे इस शोचनीय घटना का शिकार होना पड़ा और उन्हीं से उन घटनाओं का भी संबंध है। जैसे उस घटना के संबंध में मैंने अनेक बातें देखीं और सीखीं, ठीक उसी तरह ये बातें भी सामने आईं।
एक तो 1926 वाली भूमिहार ब्राह्मण सभा के पंडाल की ही है। मेरी ही बगल में धारहरा के राय बहादुर बाबू चंद्रधारी सिंह सिर पर चंदन (भस्म) लगाए बैठे थे। उन्होंने मुझे एक बार कहा कि आप संन्यासी हैं। आपको तो काशी रहना चाहिए। मैं चुप रहा कि बूढ़े आदमी से क्या बोलूँ। फिर वह दुबारा यही बात कहने लगे। मैं पुनरपि चुप रहा और सोचने लगा कि इस आदमी को तमीज नहीं। मुझे धर्म सिखाने की हिम्मत करता है। हालाँकि इस धर्म के ढोंग के पीछे इसका भौतिक स्वार्थ हैं। क्योंकि एक तो इसने देखा कि पुरोहिती के मामले में इसी के संबंधी श्री कवींद्र नारायण सिंह ने मुँह की खाई है। दूसरे यह स्वयं पहले दर्जे का जुल्म अपनी जमींदारी में करता है, ऐसा सभी कहते हैं। तब तक तीसरी बार उनने फिर वही बात ज्यों ही निकाली कि मैंने साफ सुना दिया कि आपको शर्म नहीं आती? किससे बातें करते हैं? मैं आपसे अपना धर्म सीख नहीं सकता। फिर तो बेचारे एकाएक सटक गए। इन धनियों की अजीब खोपड़ी होती है। यह सबों को एक ही तराजू पर तौलना चाहते हैं। और है वह तराजू पैसे का।
दूसरी घटना का ताल्लुक भी उस सभा से ही है। यह पहला ही मौका था कि सरकार का बागी उसका सभापति था और यह पहला ही अवसर था जब सभी अमीर, गरीब एक ही सतह में बिछे एक ही प्रकार के बिछौने पर बैठे थे। सभापति के सिवाय किसी भी और के लिए ऊँची या खास जगह न थी। हो भी क्यों? वह तो जातीय सभा थी और जाति के नाते तो सभी बराबर हैं। फिर कोई ऊँचे और कोई नीचे क्यों बैठे? यह भेदभाव क्यों? इस प्रकार लड़ कर मैंने सभा में समानता और गणतंत्र ला दिया था।
लेकिन बाबुओं के लिए यह जहर की घूँट थी, ज्वलंत अपमान था कि साधारण लोगों के साथ एक ही बिछौने पर बैठें। वे लोग मर से गए थे और लाठी से पिटे, पर लोहे के पिंजड़े में बंद काले नाग की तरह भीतर ही भीतर फू-फू कर रहे थे। लेकिन आखिर करते क्या? बस सभा समाप्त होते ही उन लोगों का प्रस्ताव हुआ कि जो लोग साल में बारह रुपए दें वही इसके मेंबर और प्रतिनिधि हो सकते हैं। अब तक केवल एक ही आना चंदा था। इस प्रकार गरीबों को और जनता को सभा से निकाल कर फिर उसे अपना गढ़ बनाने की बात वे लोग करने लगे।
मैंने कहा कि यह नहीं हो सकता। हो भी क्यों? तब कहा गया कि राजा, महाराजे, धनी और गरीब सब बराबर बैठते हैं। किसी की इज्जत नहीं रह गई। मैंने कहा कि इसके लिए सभा को एकमात्र धनियों की चीज बनाने का यह द्रविड़ प्राणायाम क्यों किया जाए? दर्शकों के चंदे हजार-पाँच सौ से ले कर पचास-पचीस रुपए तक रख दीजिए। उसी के अनुसार कुर्सियों, गद्दों आदि का प्रबंध कर दिया कीजिए। जो जितना ज्यादा रुपए देगा वह उतने ही आराम से बैठेगा। ऐसा तो कांग्रेस में भी होता ही है। इतना सुनते ही वे लोग चुप हो गए। इस प्रकार उनकी कलई मैंने खोल दी और देख भी ली।
जातीय सभाएँ पहले तो सरकारी अफसरों को अभिनंदन पत्र देने और राजभक्ति का प्रस्ताव पास करने के लिए बनी थीं। इस प्रकार कुछ चलते-पुर्जे तथा अमीर लोग जातियों के नाम पर सरकार से अपना काम निकालते थे। अब जमाना पलटने से यदि वह न हो सके तो चुनावों में उनकी मदद से वोट तो मिलना ही चाहिए। मुझे खुशी है कि हमने भूमिहार ब्राह्मण सभा के जरिए दोनों कामों का होना बंद कर दिया। सन 1929 ई. की गर्मियों में मुंगेर में तो उसे दफना ही दिया। ताकि 'रहे बाँस न बाजे बाँसुरी'। फिर भी कुछ लोग यदि मेरे ऊपर जातीय पक्षपात का दोष लगाते हैं तो मैं उन्हें रोकने में असमर्थ हूँ।