एक नदी ठिठकी सी / मनीषा कुलश्रेष्ठ

Gadya Kosh से
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आकाशवाणी केन्द्र के स्टूडियो में बैठी केतकी रिकॉर्डस, स्पूल और सीडीज सहेज रही थी। बस छुट्टी! अब एक घण्टे शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम होगा और वह आराम से बैठ कर नॉवेल पूरा करेगी। पहला पन्ना भी पूरा न कर सकी थी कि इन्टरकॉम बजा-

“केतकी ? “

“यस सर!”

“रिकॉर्डिंग्स हैं तुम्हारी, एक काव्यचर्चा है और एक इन्टरव्यू है, जिसे मैं ले रहा हूँ मगर कम्पेयरिंग तुम्हें करनी है।”

“सर काव्यचर्चा तो राजेश कर रहा था।”

“केतकी, वह मेडिकल लीव पर है। मीटिंग खत्म होते ही मेरे ऑफिस में आ जाओ।”

“ठीक है सर।”

सोचा था मीटिंग खत्म होते ही घर जाएगी, सुबह चार बजे से उठी हुई है, कुछ खा-पीकर सीधे सो जाएगी। आज तो टिफिन भी नहीं बना पाई थी। यहाँ आकाशवाणी के आस-पास तो चाय के अलावा कुछ मिलता तक नहीं और आज तीन बजेंगे इन काव्यचर्चा और इन्टरव्यू के चलते। काव्यचर्चा भी किनकी एक से एक धुरन्धर स्थानीय कवियों की। स्क्रिप्ट तो राजेश बना कर गया है, वही फॉलो करेगी।

दिल्ली से रिले होने वाला शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। ग्यारह बजकर उनतालीस मिनट पर उसने टैक्नीकल असिस्टेन्ट को इशारा किया तब उसने रिले डिसकनेक्ट किया। सभा समाप्ति की घोषणा कर जल्दी- जल्दी उसने अपने बाल सवाँरे,टिश्यू से चेहरा पौंछा और हल्की गुलाबी लिप्सटिक होंठों पर फेर अपना बैग और रिकॉर्डस, स्पूल और सीडीज संभाल बाहर चली आई। डयूटी ऑफिस की सारी औपचारिकताएं पूरी कर, एक पूरा हरा-भरा अहाता पार कर वह केन्द्रनिदेशक के ऑफिस पहुँची। बाहर शहर के एस पी की सरकारी गाडी ख़डी थी।

“आज चैन नहीं मिलने वाला। “ वह बुदबुदाई।

“गुड मॉनिंग सर”

“गुड मॉनिंग केतकी, कम इन। इनसे मिलो ये मि पी एस क़ुमार,हमारे शहर के एस पी।”

“गुड मॉनिंग सर”

केतकी के अभिवादन का जवाब उस शख्स ने महज सर हिला कर दिया। एक सांवला परिपक्व पुरूष, अपने पद की गरिमा ओढे बैठा था।सारी औपचारिकताओं के साथ इन्टरव्यू पूरा हुआ। जलपान के दौरान सर ने उसे वहीं रोक लिया। भूख तो थी पर उस औपचारिक माहौल में वह ठीक से कहाँ खा पाई।

“आप ही थीं सुबह अनाउन्सर? “

“जी।”

“आपकी आवाज बहुत अलग है।”

“आपने सुनी ? “

“हाँ, यहीं बैठ कर आपके आने से जरा पहले।”

यहीं खत्म हो जाता यह संक्षिप्त परिचय तो अच्छा होता, पर वे मिले और बार-बार मिले, न चाह कर भी । कभी पुलिस टूर्नामेन्ट्स की रिकॉर्डिंग तो कभी लतिका की पेन्टिंग एक्ज़ीबिशन और कभी एस डी सर की एनीवर्सरी पार्टी में। हर बार वही-

“कैसी हो ? “

“जी ठीक हूँ, आप सुनाइए? “

“बहुत अलग लग रही हो।”

इस बार केतकी को हँसी आगई।

“आज आप बता ही दीजिये कि ये अलग से आपका क्या अर्थ है? रोज से अच्छी या बुरी? “

“देखो केतकी मुझे ठीक से महिलाओं की तारीफ करना नहीं आता,इसलिए या तो करता नहीं। करता हूँ तो आप से लोग हँस पडते हैं और मेरी वाइफ तो नाराज ही हो जाती है। वैसे आज आप अच्छी लग रही हैं। “

“सर तारीफ की जरूरत होनी ही नहीं चाहिये। “

“फिर तो मैं ठीक ही था, तुम अलग किस्म की हो केतकी वरना स्त्री और तारीफ की जरूरत न समझे? “

इस बार दोनों हँस पडे। और लोग तो मशगूल थे पार्टी में मगर आकाशवाणी का सारा स्टाफ यहाँ-वहाँ से उसकी ओर हैरत से ताक रहा था। केतकी वहाँ से बहाना बना कर हट गई। वह एक हद तक लोगों की बातचीत का विषय बनने से कतराती है। फिर भी लोग केतकी के बारे में बात करने से बाज़ नहीं आते हैं।

“दिल्ली की है न।”

“भई केतकी तुम्हें हम महिलाओं की कम्पनी कहाँ पसंद है!”

“केतकी मैडम की एज तो हो गई , शादी का इरादा है कि नहीं? “

“कहीं चक्कर होगा। हमें तो घास भी नहीं डालती। “

“जब वी आई पीज....”

जैसे बस शादी न करना ही सारे फसाद की जड हो गया। शादी करके बस आप स्वयं को लोगों की बातचीत का विषय बनने से बचा सकते हैं। चाहे फिर आप व्यास मैडम की तरह पुरूषों में बैठ कर द्विअर्थी बातें और बेडरूम जोक्स सुन-सुना सकते हैं, तब आप के बारे कोई चूं भी नहीं करेगा क्योंकि शादी का लाइसेन्स और सीनियर होने का ट्रम्प कार्ड जो है।

वैसे उस आयोजन में वह स्वयं को भी कुछ अलग सी लगी, अन्दर श्रीमति जैन की मदद कराते हुए उसने एक बार ड्रेसिंग टेबल के आईने में जरा सा झाँक लिया-

उफ ! इतना करने की क्या जरूरत थी, पता होता वह आएगा तो हँ..उससे क्या मतलब।

कुछ भी हो केतकी अच्छी लग रही थी। बहुत हल्की फिरोजी शिफॉन मेंचाँदी जैसे तारों की महीन कढार्ई वाली साडी, हॉल्टर नैक वाले ब्लाउज क़े साथ पहनी थी । कांधे तक कटे बालों का फ्रेन्चरोल बनाया था और अपने आप ही एक लट गाल पर झूल आई थी। कानों में चाँदी की घुंघरू वाली बालियाँ हर जुम्बिश के साथ हिल जाती थी। केतकी सुंदर है या नहीं इस पर अच्छा-खासा डिबेट हो सकता है। जो लोग थोडा-बहुत भी उसे करीब से जानते हैं उन्हें वह खूबसूरत लगती है और जो सतही तौर पर जानते हैं उन्हें वह स्नॉब भी लग सकती है और बहुत साधारण भी।दरअसल उसके भीतर कहीं चुम्बकत्व है, जो एक निश्चित दूरी पार कर पास चले आते हैं, वे उस खिंचाव से बच नहीं पाते। पार्थ याने हमारे एस पी साहब बस इस चुम्बकत्व के बाहर सीमा रेखा पर ठिठके खडे थे।

केतकी सुलभ स्त्री नहीं थी और पार्थ का इरादा क्या था यह जानने की फुरसत और जरूरत भी केतकी को नहीं थी। इस शहर में वह मेहमान की तरह रहती थी , ज़रा छुट्टी मिलती बस भाग जाती दिल्ली, मम्मी-पापा, भैया-भाभी और उनके छोटे दो बच्चों के मीठे सान्निध्य में। लौट कर आने पर काम में जुट जाती, कोई छोटा-मोटा ऑफ होता तो निकल पडती कैमरा लेकर इस झीलों की नगरी के बाहरी अनछुए से इलाकों में या किन्हीं उपेक्षित उजाड पडी ऐतिहासिक इमारतों में। इस शहर के भीतर जो था बहुत कुछ वह देख चुकी थी और पर्यटन स्थल के नाम पर व्यवसायीकरण ने इस शहर के सौन्दर्य को तो सहेज लिया था मगर उन ऐतिहासिक रूमानी खुश्बुओं को खो दिया था।

कभी-कभी केतकी कुछ मित्रों से भी मिल आती। उसने फुरसत को अपनी दिनचर्या में से जड से निकाल फेंका था। रात भी वह आकाशवाणी कॉलोनी के अपने छोटे से क्वार्टर में देर तक पेन्टिंग करती रहती, यहाँ-वहाँ से लिये गए फोटोग्राफ्स को कैनवास पर उतारती - झील, पहाड, मुर्गाबियाँ, गोधूली में भैंसे लिये लौटता चरवाहा और घूंघट में से झाँकती ग्राम्याएं और जाने क्या-क्या। फिर देर तक टी वी देखती या नॉवेल पढती जब तक कि आँख न लग जाती।

जबसे निशीथ साथ चलते- चलते अचानक अजाने मोड पर मुड ग़या था तो ठिठक कर उस चौराहे पर उसके आस-पास फुरसत ही बाकि रह गई थी और एक अंधेरा खाली कोना। बस एक सप्ताह और वह उबर आई थी नई जीजिविषा के साथ। मम्मी जानती थी उनकी बेटी इतनी कमजोर नहीं और उन्होंने उसे अकेला छोड दिया था , हाँ पापा और भैया घबरा गए थे। जब ठीक आठवें दिन उसे एम्पलॉयमेन्ट न्यूज मेंआँख गडाए देखा तो सब आश्वस्त हो गए थे कि यह वही केतकी है जिसने बचपन में भी कमजोर और पतले पैरों को निरन्तर अभ्यास से चलने के लिये ढाल ही लिया था।

ढाई साल की पतली लम्बी केतकी के पैर क्षीण थे और वह चलने में असमर्थ थी , मम्मी ने घबरा कर आल इन्डिया मेडिकल इन्स्टीटयूट में दिखाया था । फिजियोथैरेपिस्ट के पास महीनों चक्कर काटे। मम्मी बताती हैं जब केतकी ने चलने की ठानी तो घण्टों बॉलकनी पकडे चलती रहती, कोई खींच कर ले जाना चाहता तो रोती थी या कमरे में ही कोई सहारा लिये चलती रहती। अन्तत: वह चल ही पडी।

उसने आइ ए एस की तैयारी अधूरी छोड दी, वह सपना तो निशीथ और उसके साझे का था। बस एक दिन अनाउन्सर बनकर इस छोटे से शहर में डेरा डाल बैठी। मम्मी पापा चिन्तित हुए तो एक बार उन्हें साथ ले आई। आकाशवाणी कॉलोनी देखकर, स्टाफ के लोगों से मिलकर और केतकी में दुगुना आत्मविश्वास पाकर वे आश्वस्त होकर चले गये। अब भी जब केतकी कई दिन घर नहीं लौट पाती है तो वे दोनों आ जाते हैं।