एक नदी बहती है - आकाश में / प्रतिभा सक्सेना

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चारों ओर कुहासा छाया है - सफ़ेद धुँधलका! दुपहरी हो गई पर सूरज का बिंब धुंध के आवरण में ढका झिलमिला कर रह गया है।

मुझे 'बिहारी’ का दोहा याद आ रहा है -

लसत स्वेत सारी ढक्यो तरल तर्योना कान,
पर्यो मनो सुरसरि सलिल रवि प्रतिबिंब विहान

साड़ी का पल्ला सिर पर ओढ़ने की प्रथा शुरू से रही है। सुन्दरी ने भी साड़ी के आँचल से सिर और कान ढाँक रखे हैं, उसका तर्योना (कर्णाभूषण) पट से ढँका हुआ भी झिलमिलकर रहा है। उस मनोरम दृष्य से कवि की आँखें नहीं हट रही होंगी। कल्पना कुलाँचे भरने लगी - लगने लगा गंगा के धवल जल में प्रातःकालीन सूर्य का प्रतिबबिंब झलमल कर रहा हो। कवि तो अपनी नायिका पर सारे उपमान न्योछावर कर देता है- श्वेत साड़ी गंगाजल सी और कर्णाभूषण में सूर्य की कल्पना! कैसा निर्मल मन - दिव्य भाव का उन्मेष शब्दों में छलक आया है, (अगर सुन्दरता की बहक में कुछ और भी कहने लगता तो उसका क्या कर लेता कोई! ) आज तो गंगाजल का छिड़काव कर मन के कल्मष धो डाले हैं -आर-पार निर्मल, एकदम स्वच्छ!

और मैं देख रही हूँ चतुर्दिक पारदर्शी-सी धवलिमा छाई है,सूरज की दमक मंद पड़ गई।

कोहरे का झीना आवरण नभ का पूरा विस्तार घेरे है - जैसे गंगाजल का फैलाव, स्फटिक सा अमल, धवल, शीतल! कभी -कभी लहर जाता है पवन-झोंक से।

त्रिपथ-गामिनी हैं गंगा। धरती, आकाश और पाताल, तीनों में प्रवाहित हो रहा है वह तरल जल-प्रवाह। गगन मार्ग से ही उतरी थीं गंगा। भस्मालेपी के जटा-जूट में समा कर उस आलेपन को धारण कर लिया अपनी अपार जल-राशि में। वही श्वेतिमा लहर-जाल में समा गई जिसका विस्तार सारे आकाश को आपूर्ण किए है। गगन में लहरा रही हैं गंगा। शिव-तन की पावन भस्म घुल-घुल कर बही चली आ रही है। यही तो है आकाश में व्याप्त उनका रूप! लोग तो मन चंगा होने पर कठौती में गंगा का अनुभव कर लेते हैं। मेरा मन तो चंगा होने के साथ भाव-मग्न भी है, फिर गंगा कहां दूर रहेंगी? घिर आईं हैं दिशाओं में, छा गईं चारों ओर। मेरा तन-मेरा मन इस अमल आभा से सिक्त हो रहा है। दिव्य स्पर्श से मुग्ध, इस गगन-गंगा की शीतलता का अनुभव कर रही हूँ। तुहिन-कणों का परस सिहरा रहा है बार-बार। इस अथाह में डूबा हुआ सूर्य बिंब लहर रहा है, जल से सिक्त हो उसका ताप शीतल हो गया है झीने पट से झाँक अपनी चमक बिखेरे जा रहा है।

सचमुच, आकाश में एक नदी बह रही है -दिव्य नदी गंगा, अपनी धवलिमा में समेटे सारे रूप, सारे रंग, दिशाओं के सारे बिंब अपने में समाये अपार प्रवाह ले बही जा रही हैं, धरा से व्योम तक।

कवि की वाणी, ऐसे ही सच हो जाती हैं!