एक नया आन्दोलन / रामचन्द्र शुक्ल
[ उपर्युक्त शीर्षक के अन्तर्गत “ईस्ट ऐंड वेस्ट” के सम्पादक ने एकलिपि और एकभाषा पर (दिसम्बर 1909) अपने कुछ विचार प्रगट किए हैं जिसका सारांश नीचे दिया जाता है। ]
एक भाषा और एक लिपि का होना स्वप्न के समान नहीं है। .... का धारहरा फिर से उठाना असम्भव क्यों समझा जाय? भाषा में जो परस्पर सहानुभूति उत्पन्न करने की शक्ति है उसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। एक भाषा रहने से कोई व्यक्ति अपनी आत्मा का प्रतिबिम्ब दूसरे में देख सकता है। कोई विरोध आ पड़ने पर भी मेल की आशा बनी रहती है। यद्यपि ऍंगरेज और अमेरिकन अलग हो गए हैं पर भाषा के कारण उनमें बहुत कुछ आत्मीयता बनी हुई है।
बहुत काल तक संस्कृत भाषा भारतवर्ष के भिन्न भिन्न भागों को एक किए रही। विलसन ने ठीक ही कहा है-”इस विस्तृत देश के हिन्दुओं को हम संस्कृत ही के सहारे अपनी तरह पहिचान सकते हैं। उनके उद्वेगों, कर्मों, धारणाओं तथा त्रुटियों का उद्गमस्थान संस्कृत है।
संस्कृत किसी न किसी समय कहीं पर ठीक उसी तरह अवश्य बोली जाती रही होगी जैसे अंगरेजी लंडन में और मराठी पूना में। यह भी सम्भव है कि जिस समय वह बोली जाती रही होगी उसका विस्तार भारत में बहुत दूर तक न रहा हो। पर पीछे से उसके साहित्य ने, उसके साहित्य की भाषा ने, देश के प्रत्येक विभाग के विद्वानों को एक दूसरे से मिलकर बातचीत करने योग्य बना दिया। अत: कुछ लोगों ने संस्कृत को भारत की राष्ट्र भाषा बनाने का परामर्श दिया है। पर उसे ग्रहण करने में दो बाधाएँ हैं। एक तो यह कि वह कहीं बोली नहीं जाती, दूसरी यह कि उसका व्याकरण बड़ा विकट और विस्तृत है। इस दूसरी बाधा को दूर करने के लिए किसी किसी ने संस्कृत व्याकरण को सुगम और सरल करने की व्यवस्था दी है। पर कहने की आवश्यकता नहीं कि यदि संस्कृत का व्याकरण परिवर्तित करके सरल कर दिया जायगा तो वह संस्कृत ही न रह जायगी। वह एक नई भाषा हो जायगी जिसे बिना किसी साहित्य के अपने लिए राह निकालनी पड़ेगी।
अब रही अंगरेजी। किसी देशभाषा की अपेक्षा अंगरेजी का सीखना कठिन ही है। प्रत्येक श्रेणी के भारतवासी को उसे अच्छी तरह सीखने भर का समय मिलना एक अनहोनी बात समझिए। हिन्दी उन स्थानों में भी अच्छी तरह समझ ली जाती है जहाँ के लोग उसको बोलने में अभ्यस्त नहीं हैं। महाराष्ट्र के लोग तो समझते ही थे पर मद्रास प्रान्त तक में संस्कृत शब्दों का प्रभाव है। यह थोड़ी बहुत समझी जा सकती है। हिन्दी का व्याकरण भी सीधा है अत: उसका सीखना मद्रासियों को भी अंगरेजी से सुगम ही पड़ेगा। यह सब कुछ सही; पर अब प्रश्न यह है कि उसके सीखने की परवा कौन करेगा? किसको पड़ी है कि बैठे बिठाए एक और भाषा सीखे? इसका उत्तर हिन्दी के पक्षपाती लोग यह देते हैं कि भिन्न भिन्न प्रान्तों के अंगरेजी पढ़े लोग जिस प्रकार देश की बातों पर परस्पर विचार प्रगट करते हैं उसी प्रकार अंगरेजी न जाननेवाले लोग भी करना चाहेंगे। दूसरे प्रान्त के निवासियों के साथ विचार परिवर्तन की आकांक्षा रखनेवालों की संख्या अब दिन दिन बढ़ेगी।
यह एकभाषा विषयक आन्दोलन किसी उद्देश्य से नहीं उत्पन्न हुआ है वरन् सोच समझ कर उठाया गया है। इसकी सफलता के लिए सलाह दी गई है कि समस्त भारतवर्ष के विद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाय। इससे शिक्षा का व्यय अवश्य बढ़ेगा। इस व्यय को कुछ कम करने का एक उपाय यह हो सकता है कि भिन्नभिन्न प्रान्तों से अध्यामपक लोग हिन्दी सीखने के लिए काशी या किसी और स्थान में भेजे जायँ। पर यह तो मानना ही होगा कि शिक्षा का खर्च बढ़ेगा। संस्कृत आदि भाषाओं के लिए जिस प्रकार व्यय करना पड़ता है उसी प्रकार हिन्दी के लिए भी करना पड़ेगा।
यह सब क्यों? इसलिए कि जिसमें भारत के भिन्न भिन्न प्रान्तों के निवासीगण अपनी अच्छाई बुराई के सम्बन्ध में परस्पर बातचीत करें व इस आन्दोलन की उपयोगिता और सफलता का अन्दाज इस परीक्षा से हो। सरकार प्रत्येक बड़े नगर में हिन्दी के दरजे खोले। यदि देखा जाय कि लोग अपनी खुशीसे उसमें आ रहे हैं तो यह समझना चाहिए कि लोगों के हृदय में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की इच्छा जागृत हो गई है। नहीं तो इस आन्दोलन को बालू पर की भीत समझना चाहिए।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, दिसंबर, 1909)