एक परदे के पीछे लिख के हमको चौंका देंगे! / उमाशंकर सिंह

Gadya Kosh से
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26 साल से दैनिक भास्कर में अनवरत चल रहे लोकप्रिय दैनिक कॉलम 'परदे के पीछे' का आज आखिरी दिन रहा। इसकी घोषणा अखबार के प्रबंध निदेशक सुधीर अग्रवाल ने की और उनका कॉलम पहले पन्ने पर छापा, जिसमें उन्होंने अपनी उम्र, अपने स्वास्थ्य और क्रमशः लोप होती जा रही अपनी स्मृृति का हवाला देते हुए पाठकों से विदाई मांगी। अपने कॉलम में उन्होंने कई बार मेरी बातें की हैं। ये मेरी काबिलियत से ज्यादा उनका प्यार था। जब शायद पहली बार 10-11 साल पहले उनसे फोन पे बात हुई थी तब वे मुंबई के एक हॉस्पिटल में अपना कॉलम लिख रहे थे, जहां उनकी पत्नी उषा आंटी अपने एक ऑपरेशन के लिए एडमिट थीं। जब मुंबई आया तो उनसे लगातार मिलना-जुलना हुआ। हमारे बीच उम्र का लंबा फासला था पर वे सबसे, यहां तक कि अपने बेटे जो कि मुझसे काफी बड़े हैं, से भी मेरा परिचय अपने दोस्त के रूप में कराते थे। उनसे काफी बातें हुई हैं। वे सिनेमा और विश्व साहित्य के चलते फिरते इनसाइक्लापीडिया थे। जोश में रहते। उन्हें कुछ अच्छा लगता तो बहुत अच्छा लगता, कुछ बुरा लगता तो बहुत बुरा लगता। जिसे प्यार करते, खूब करते। जिसकी आलोचना करते खूब करते। वे बहुत सारी योजनाएं बनाते। अपने पुराने अधूरी योजनाओं को नित नए तरीके से तामील करने का मंसूबा रखते। 'परदे के पीछे' से उन्हें दुनिया जहान और जीवन का सब कुछ दिखता। उन दिनों मुख्य धाराई मीडिया या पब्लिक स्फेयर में मोदी जी और उनकी नीतियों की आलोचना कुफ्र थी। वो ये कुफ्र लगातार करते। एक तरह से उन्होंने अपने कॉलम को सांप्रदायिक राजनीति से समाज को चेताने का माध्यम बना रखा था। उनके प्रशंसकों में दक्षिणपंथी लोगों का हुजूम था। वे उन पर प्यार लुटाया करते थे। वे चौकसे जी के नए तेवर से असहज थे। कई बार उन्हें फोन पर धमकियों भी मिलीं। वे बताते थे कि भास्कर पर भी उनके कॉलम को बंद करने का दबाव था। पर उनका कॉलम इतना लोकप्रिय था कि कि ये तय था वो कॉलम तभी बंद होगा, जब वे खुद इसे बंद करेंगे। उन्हीं दिनों उन्हें कैंसर भी हो गया था। वे अपनी और समाज की बीामरी से एक साथ जूझ रहे थे।

करीब छह साल पहले कैंसर होने के बाद उन्होंने पूरी तरह मुंबई से इंदौर शिफ्ट होने का फैसला किया। वे कुछ डॉक्टरी सलाह के लिए अपने बड़े बेटे राजू भाई के साथ मुंबई आए थे। दो तीन दिन का उनका टाइट शेड्युल था। लौटने से एक दिन पहले की शाम हमारी मुलाकात तय हुई थी। पर वह कुछ मेरे फंसे होने कुछ उनके लेट होने के कारण हो नहीं पाई। अगले दिन सुबह उनकी फ्लाइट थी। उन्होंने कहा मैं जानता हूं तुम लेट सोते हो, पर अगर सुबह आ सकते हैं तो आ जाएं। हम एयरपोर्ट के रास्ते में बात करेंगे। और ऐसा ही हुआ। मैं उन्हें कैंसर होने की सूचना के करीब एक महीने बाद देख रहा था। वे बेहद दुबले, कमजोर और कोमल हो गए थे। एयरपोर्ट पर चेकइन से जस्ट पहले उन्होंने मुंबई और मुझे ऐसे देखा जैसे कहीं ये आखिरी बाद देखना न हों। वह नजर अभी तक आंखों में टंगी हुई है। पर उसके बाद भी हमने उन्हें और उन्होंने मुंबई और हम सब को देखा है। हर मुलाकात में मैंने उन्हें पिछली बार से ज्यादा स्वस्थ पाया। अभी फिर से वे बेहद बीमार हैं। पर उनमें जीवट बहुत है। जीने की ललक बहुत है। उम्मीद करता हूं वे फिर से स्वस्थ होंगे और अचानक भास्कर या कहीं और एक परदे के पीछे लिख के हमको चौंका देंगे! क्योंकि यह सिर्फ विदा है, अलविदा नहीं।