एक पल / नीरजा हेमेन्द्र
फोन की घंटी बजती रही एक...दो...तीसरी बार। घर में मैं अकेली थी, उस पर कॉलेज पंहुचने की शीघ्रता। लपक कर मैं फोन उठाती हूँ। मेरे हलो कहने के साथ उधर सन्नाटा...पुनः हलो कहने के साथ उधर से आवाज आती है....”.मैम मंै...मैं समीर! पहचाना? में समीर हूँ।” मैं सुन कर पहचानने का प्रयत्न करने लगी।
पुनः वही भारी-सी आवाज.....”मैम आपने नही पहचाना। मंै समीर हूँ।” आवाज मेें ठहराव थी।
“मै आपसे नौ वर्ष पूर्व कालेज के समीप के बस स्टैण्ड पर मिला था। एक दिन आपको प्यास लगी थी। आपने मुझसे पानी मांगा था। मैं प्रतिदिन आपसे पानी के लिए पूछता तथा आपके हाँ कहते ही पानी पिलाता था। याद आया मैम! आप...आप किरन मैम हैं न? “
मेरे “हाँ” कहने पर वह निश्चिन्त हो कर पुनः बोलने लगा, “मैम आपने मुझे पहचान लिया? मैं समीर हूँ।” उसने पुनः अपना नाम बताया। “मैं पढ़ने के लिये बाहर गया था। कल ही लौटा हूँ।” मैं उसकी बातें सुन कर सिर्फ हाँ, हूँ करती रही।
वह पुनः बताने लगा, “मैम आप उसी कॉलेज में पढा़तीें हैं न! मैम, मैं आपसे मिलना चाहता हूँ।”
मैंने कहा, “ठीक है। बाद मंे बातें करते हैं।”कह कर मैंने फोन रख दिया।
मैं शीघ्रता से कॉलेज जाने के लिए बस स्टैण्ड की तरफ कदम बढ़तीं हूँ। बस की सीट पर बैठती हूँ। सहसा नौ वर्ष पूर्व की घटनायें स्मरण हो आतीें हैं। नौ वर्ष पूर्व .........मार्च का महीना। छोटे से कस्बे का कन्या इण्टर कॉलेज। मौसम में गर्मी उतरने लगी थी। पुरवाई हवा का झोंका रह-रह कर एक सुखद अहसास दे रहा था। प्रकृित ने मानों मादकता रूपी वस्त्र धारण कर लिया हो। वसंत का आगमन जो हो चुका था। सड़क के दोनो ओर लगे मोगरे और पलाश के पेड़ फूलों से भर गये थे। अमराईयों में आम के बीच लुका-छिपी करती हुई कोयल की और उसकर कूक अन्य पक्षियों के कलरव के साथ मिल कर मादकता में वृद्धि कर रहे थे। प्रकृति में अजीब-सी सुगन्ध का समावेश हो रहा था।
मैं कॉलेज के समीप स्थित बस स्टैण्ड से प्रतिदिन बस के द्वारा आवागमन करती थी। मेरा घर कॉलेज से लगभग बारह किमी0 दूर विकसित शहर में था। एक दिन मैं घर जाने के लिए पेड़ की छाँव में खड़ी बस का इन्तजार कर रही थी। आस-पास चाय वाले व अन्य फेरी वाले रोजमर्रा की तरह अपनी दिनचर्या में व्यस्त थे। बस के आने में विलम्ब थी। अचानक तेरह-चैदह वर्ष का साँवला-सा, दुबला-पतला लड़का मेरे पास आ कर खड़ा हो गया। मुझसे पूछ बैठा, “मैम, आप पानी पियेंगी।” मैने विस्मय व थोड़ी प्रसन्नता से उसकी तरफ देखा। वह कौन है? उसे कैसे ज्ञात हुआ कि मुझे प्यास लगी है। मेरे, “हाँ “कहते ही वह लड़का भाग कर गया व कुछ पलों के उपरान्त ठंडे पानी की बोतल ले कर सामने खड़ा था। मैने आश्चर्य से उसकी तरफ देखा, “यह तो फ्रिज कह ठंडी बोतल है। “
“हाँ मैम, वो मेरा घर हैै। “कह कर उसने हाथ की उंगुलियों से समीप स्थित एक घर की ओर इशारा किया। उसने बताया कि उसका नाम समीर है। बस तभी से वो लड़का प्रतिदिन मुझसे पानी के लिए पूछता तथा पलक झपकते ही एक ठंड़ी बोतल ले कर खड़ा हो जाता। मुझे भी अनजाने ही कहीं उसकी प्रतिक्षा रहने लगी। समय का पहिया अपनी गति से घूमता रहा। परीक्षायें समाप्त होने के पश्चात् कॉलेज में ग्रीष्मावकाश हो गया।
गर्मी की छुट्टियों के पश्चात् जुलाई में घर से कॉलेज और कॉलेज से घर की वही दिनचर्या प्रारम्भ हो गयी। किन्तु वह लड़का मुझे फिर नही दिखाई पड़ा। मेरे स्मृति-पटल से वह विलीन-सा हो गया।
इन नौ वर्षों में मैंने जीवन के अच्छे-बुरे सभी रंगों को देखा। मैंने अपने दोनो बच्चों की परवरिश, शिक्षा, कैरियर, ब्याह, आदि जिम्मेदारियों को पूरा किया। कुछ माह पूर्व मेरे पति भी मुझे एक रंगहीन रंग दे कर चले बसे।
जीवन के इस मोड़ पर मैंने अपने आप को नितान्त अकेला पाया। मुझे यह अर्थहीन जिन्दगी जीनी है तो सिर्फ अपने लिए, तथा कुछ करना है तो सिर्फ अपने लिए। इस आवश्यकता विहीन आवश्यकता को पूरा करने के लिए मुझे जीना था। कर्म करना था।
शाम को कॉलेज से लौटने के उपरान्त मैं थकी-सी बैठी थी कि फोन की घंटी बज उठी। न जाने क्यों मुझे घंटी के स्वर जाने पहचाने -से लगे। फोन उठाने पर “मैम नमस्ते “की वही पहचानी-सी आवाज सुनाई दी। “मैम मै समीर बोल रहा हूँ।”
मैने कहा, हाँ, बोल रही हूँ। कैसे हो? वह अपने बारे में बताने लगा। वह वो बातें बताने लगा जिसे मैं नही जानती थी या जिसे जानने की आवश्यकता मुझे नही थी। जैसे वह अपनी जिन्दगी का हर पृष्ठ मेरे समक्ष खोल कर रख देना चाहता हो। चन्द दिनो के मुलाकात में मुझे उसके विषय में कुछ भी ज्ञात नही हो पाया था या मंैने जानने या पूछने का प्रयत्न ही नही किया था। अब मुझे ज्ञात हुआ कि वह एक अनाथ लड़का था। उसे किसी सम्पन्न व्यक्ति ने अपनी सन्तान की तरह पाला था। इन्जीनियरिंग की शिक्षा पूण्रकरने के उपरान्त वह अब लौटा है। वह अपने विषय में अनेक बातें मुझसे बताता रहा। यह बात मेरी समझ से परे थी कि इतने वर्षों अन्तराल के उपरान्त तथा उम्र के इतने फासले तय करने के पश्चात् उसने मुझे फोन किया। मैं उसे याद रही।
“पल-पल कर वक्त पिघलता रहा। दिन-रात गुजरते रहे। समीर मुझे प्रतिदिन फोन करता। अब तो साँझ ढ़लते ही मुझे उसके फोन की प्रतीक्षा भी रहने लगी। मुझे समीर के रूप में वही साँवला-सा लड़का याद था। लेकिन एक भारी- भरकम आर्कषक आवाज वाला वह लड़का अब कैसा दिखता होगा? यह मैं अक्सर सोचा करती थी।” एक दिन फोन पर मैंने यूँ ही कह दिया कि, “समीर, समय मिले तो कभी मिलने आना।” और वह समय भी आ गया जब समीर अपनी शादी का कार्ड ले कर मिलने आ गया। मुझे अपनी आँखों पर सहसा यकीन नही हो रहा था कि कोई साँवला-सा, दुबला-पतला, पसीने से लथपथ लड़का इतना आर्कषक युवा हो सकता है। उसने मुझे इस रूप में देखा तो चुप-सा हो गया। मुझे लग ही नही रहा था कि वह फोन पर तमाम बातें करने वाला वही लड़का है। समीर मुझे बार-बार देख रहा।
“मैम, आप मुझे बहुत अच्छी लगतीं थीं। “धीमी किन्तु ठहरी आवाज में वह बोल रहा था। मैम, आपने बताया नही...... मैं ये शादी नही करता। “मैम, मेरे सपने तो आपके साथ....” कह कर वह खामोश हो गया। मेरे पैरों के नीचे से मानो जमीन खिसक गयी। मुझे विश्वास ही नही हो रहा था कि यह कैसा अपनत्व का बन्धन था? क्या था? मैने किसी प्रकार समीर को समझाते हुए अलविदा कहा। हाँ, यह अलविदा ही तो था। मैं समीर से अब नही मिलना चाहती थी।”
पल-पल कर वक्त पिघलता रहा। समीर की शादी हो गयी। मैं उसकी शादी में न जाने क्यों नही गयी। कई दिनों के पश्चात् एक दिन समीर का फोन आया। उसने बताया िक वह नौकरी के लिए विदेश में सपत्नी जा रहा है। अब पुनः जिन्दगी मुझसे मिलने का अवसर दे, न दे। मेरे द्वारा प्रसन्नता व शुभकामनायें व्यक्त किए जाने पर चुप रहा। कुछ पल उपरान्त वह बोला “मैम, अगला जन्म होता है या नही यह तो ईश्वर जानता है। यदि होता है तो मैं अगले जन्म में आपकी प्रतीक्षा करूँगा। मिलेंगी मैम? ” मानो वह मेरे उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हो। मैं फोन पकड़े हुए जड़- सी खड़ी थी। फोन पर दानो तरफ सन्नाटा पसर गया। मैंने फोन रख दिया।
आज समीर जा रहा है। मैं उसकी स्मृतियों में गुम होती जा रही हूँ। यह कैसा बन्धन है। इसमें उम्र, सामाजिक वर्जनायें सब पीछे छूटती जा रही हैं। हथेली में रह गया है तो एक पल! सिर्फ एक पल।