एक पुराने जमाने की नायिका / रवीन्द्रनाथ त्यागी
पुराने जमाने में भी हमारे देश में नायिकाएँ बहुतायत से पाई जाती थीं। हमारे इतिहास में एक समय तो ऐसा भी आ गया था कि नायिका के अतिरिक्त और किसी किस्म की मुसम्मात इस मुल्क में मिलती ही नहीं थीं। ये नायिकाएँ नाना प्रकार की होती थीं और देश के सारे कविगण इनके वर्गीकरण तथा नख-शिख-वर्णन में कई सौ वर्ष तक लगे रहे। हालाँकि कोई नायिक खुदाई वगैरह में तो अभी तक नहीं निकल सकी है पर प्राप्त तथ्यों के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि नायिका किस्म की स्त्री होती काफी दिलचस्प थी।
इन नायिकाओं के बारे में सबसे पहली बात तो यह होती थी कि ये सब-की-सब बेतहाशा खूबसूरत होती थीं। कवि लोगों का इनमें दिलचस्पी लेने का एक कारण यह भी था। चाँद और कमल तभी तक सुन्दर लगते थे जब तक नायिका सीन पर मौजूद नहीं होती थी। इनका माखन-सा मन और दूध-सा जोबन होता था। जिस कवि ने यह पंक्ति लिखी है उसे नायिकाओं के अतिरिक्त दूध-दही और मट्ठे का भी शौक काफी रहा होगा। यूँ तो इनके सारे शरीर से ही कान्ति फूटती रहती थी पर फिर भी जो हिस्सा ज्यादा जिम्मेदारी से काम करता था वह इनका मुखारविन्द होता था। जिन घरों में नायिका रहती थी वहाँ रात-दिन इतना प्रकाश रहता था कि बिना पत्रे के तिथि का ज्ञान नहीं होता था। इनका मुख कमल-जैसा, नेत्र खंजन-जैसे, होठ पलाश-जैसे, दाँत अनार-जैसे, नासिका तोते के जैसी, कुच गेंद जैसे और जंघाएँ केले के पेड़ जैसी होती थीं। दूसरे शब्दों में नायिका शाकाहारी किस्म का भोजन होती थी; उसके प्रत्येक अंग से किसी फल-फूल या साग-सब्जी का आनन्द मिलता था। रात को ये जब कहीं जाती थीं तो अँधेरी रात में भयंकर वनों में भी गुजरने में उन्हें कोई कष्ट नहीं होता था क्योंकि इनके मुखचन्द्र के प्रकाश से डगर साफ-साफ चमकती थी। उन दिनों जो लोग रात को जंगल जाते थे वे टार्च या लालटेन की जगह एक अदद नायिका को ही अपने साथ ले जाया करते थे। वैसा करने में कई प्रकार की सुविधा रहती थी। कुछ सखियाँ वगैरह तो नायिकाओं के शरीर की सुगन्ध की डोर से बँधी-बँधी इनके पीछे इस तरह घिसटती चली जाती थीं जैसे कि इंजन के पीछे डिब्बे जाते हैं। इन नायिकाओं की चाल बड़ी मनोरम होती थी। दुबली-पतली नायिकाएँ, जो कि अपने वजन पर ध्यान रखती थीं, हंस की तरह चलती थीं और सेहतमन्द नायिकाएँ हाथी की तरह चलती थीं। हाथी उन दिनों कैसे चलता था इस पर खोज की जा सकती है, पर मेरे खयाल से जैसे आजकल चलता है, कुछ-कुछ वैसे ही उन दिनों भी चलता होगा। नायिकाएँ अपने यौवन के भार से पैदल चलने में काफी कष्ट का अनुभव करती थीं - लचि-लचि जाति कुच भारन के हलकै। ये आभूषण कम पहनती थीं क्योंकि इनके कदम 'सोभा के ही भार' से सीधे नहीं पड़ते थे। किसी-किसी नायिका के नेत्र इतने तीखे होते थे कि सुरमा लगाते समय उँगली कट जाने का खतरा रहता था। नायिकाओं की आयु प्राय: सोलह वर्ष की ही होती थी। सोलह की गिनती से इनका वैसे ही बड़ा संबंध था:
सोरह कला को चन्द पूरन मुखारविन्द,
सोरह सिंगार किए सोरह बरस की।
इन नायिकाओं के साथ ऐसा भी हादसा होता था कि बचपन पूरी तरह छूटा नहीं कि यौवन आ गया। ऐसी स्थिति में इनकी देह धूपछाँह जैसी छटा देती थी। कवि कहता है कि नायिका की छाती इन दिनों कुछ उभर आई है और मोती की माला देखने के बहाने नायिका इन दिनों उसे ही देखती रहती है। इस रूप को देख कर कोई दलदल में फँसता था, कोई डूबता था और हजारों बह जाते थे। नायिका-रूपी नदी को पार करने के लिए पुल की ईजाद नहीं हुई थी। कवि आगे चल कर फिर कहता है कि यौवन नाम के राजा ने शरीर के क्षेत्र में अपने कुछ सहायकों को विशेष प्रमोशन दिए जिनके नाम थे कुच, नयन और नितम्ब। शरीर-रूपी नए देश को जीत कर यौवन का राजा किसी अंग को घटाता था और किसी को बढ़ाता था। नायिकाओं के बाल इतने प्यारे होते थे कि उन्हें देख कर मनुष्य सुमार्ग और कुमार्ग का अन्तर भूल जाता था। जुल्फे-बंगाल हेयर ऑयल का भी ऐसा ही प्रभाव होता है। जो बिन्दी गिनती में अंकों के आगे लग कर सैकड़ों से हजार का फर्क डालती है वही बिन्दी नायिका के मस्तक पर लग कर उसकी कान्ति में करोड़ों गुना का फर्क डालती थी। किसी-किसी नायिका के दाँतों पर मिस्सी भी मिलती थी। ये दाँत ऐसे लगते थे जैसे 'फूलन की फुलवारिन में मनौ खेलत हैं लरिका हब्सी के'। इन नायिकाओं के कटाक्ष तिरछे होते थे, भौंवें टेढ़ी होती थीं और इन दोनों की निरन्तर संगति से इनकी चाल भी टेढ़ी हो जाती थी। इनके दोनों नेत्र-रूपी सिपाही पलक-रूपी ढाल और कटाक्ष-रूपी तलवार ले कर पैंतरे बदलते थे और हजारों वार करते थे। रूप की रक्षा नेत्रों द्वारा ही होती थी। इस प्रकार की नायिकाओं से चकोर नाम की चिड़िया को खासी परेशानी का सामना करना पड़ता था क्योंकि दिन निकलने पर भी वह नायिका के मुख को चाँद समझती हुई अपनी उछल-कूद जारी रखती थी। नायिका के हँसने पर उसके दाँत इतनी चमक छोड़ते थे कि दृष्टि चकाचौंध हो जाती थी। यहाँ कवि ने यह नहीं बताया कि नायिका टूथपेस्ट कौन-सा इस्तेमाल करती थी। नवयुवती नायिका के स्तन कभी-कभी इतने ऊँचे हो जाते थे कि छोटे-मोटे हिल स्टेशन का काम करते थे। वह ललाट पर बिन्दी लगाती थी, मुख में पान रखती थी, सिर पर बाल सजाती थी और आँखों में काजल छोड़ती थी। एक साहब थे जिन्हें गोरी-गोरी नायिका के गले में जाता हुआ पान का पीक बड़ा प्यारा लगता था - 'खरी लखति गोरी गरे धसति पान की पीक।' एक नायिका को पान चबा कर अटारी से पीक नीचे थूकने की आदत थी जिससे प्रेमियों का कल्याण होता रहता था- 'ऊँचे अटा पर चन्द्रमुखी कवि सम्भु कहैं झुकि पीक चलावै।' इन नायिकाओं के पैर इनते नाजुक होते थे कि गुलाब की पंखुड़ियों तक से उनमें खरोंच पड़ने का डर रहता था।
इतना विशाल रूप होने के कारण उस जमाने की जनता इन नायिकाओं से खासी तंग रहती थी। एक कवि कहता है कि एक हजरत, जो शायद पिकनिक के शौकीन थे, स्तन-रूपी पर्वत पर चढ़ कर मुख देखने की चाह में आगे चले। ठुड्डी के गड्ढे में हजरत इस तरह गिरे कि सारा पिकनिक भूल गए। दूसरे शब्दों में नायिका के स्तन जितने ऊँचे थे, ठुड्डी में गड्ढा भी उतना ही गहरा था। इसी तरह जब एक समझदार सास ने छोटी हथेलीवाली पुत्रवधू को भिक्षा देने की ड्यूटी पर लगा दिया तो उसके रूप के लालच में सारा संसार भिक्षा माँगने आने लगा। कवीन्द्र नामक कवि ने नायिका की तुलना ग्वालियर के किले से की थी क्योंकि इनके लिए दोनों को जीतना बराबर ही कठिन था।
रूपवती होने के साथ-साथ इन नायिकाओं में एक विशेष बात यह होती थी कि 'सोरह बरस' की आयु ही में इनकी आँखें किसी से लड़ जाती थीं। आँखें लड़ने के हजार ढंग होते थे। शुरुआत कहीं नायिका की तरफ से होती थी तो कहीं नायक की तरफ से। एक नायिका थी जो नीली साड़ी की आड़ में से नयनों के बाण छोड़ा करती थी। एक और नायिका थी जो सारे अंग-प्रत्यंग दिखा कर, नायक को अनदेखा करती हुई उसके चित्त में समा कर, लजा कर, संकोच के साथ एक ओर बैठ जाती थी। एक और नायिका थी जो नायक को भोले भाव से देखती थी, गोरे मुख से मुसकुराती थी और फिर लटक कर सखी के गले से लिपट जाती थी। इसके बाद नायक अपना दिल मलता था और सखी अपना गला। उधर एक हजरत थे जो बच्चा गोद में लेने के बहाने नायिका के पास आते थे और बच्चा लेते हुए उसकी छाती में [नायिका की छाती में - बच्चे की नहीं] उँगली छुआ जाते थे। इन शुरुआतों के होने के बाद फिर वह आग दोनों तरफ जलती थी कि सारा रीति काल उसी में जल गया। नायिका नायक के दिल में बरमे की तरह छेद करती थी। प्रेम हो जाने पर नायिका न माँ-बाप की परवाह करती थी, न मुहल्लेदारों की। उसे नींद नहीं आती थी। कभी-कभी उसकी हालत बड़ी नाजुक हो जाती थी। बिहारी कहते हैं कि प्रेमनगर में पुलिस का इन्तजाम काफी ढीला था। मरे हुए को बार-बार मारा जाता था और खून करनेवाला खुशहाल घूमता था। कोई-कोई नायक तो इतने जल्दबाज होते थे कि तंग गली में अगर कहीं नायिका मिल जाती थी तो कंकर फेंक-फेंक कर उससे डेट लिया करते थे। ऐसी स्थिति में नायिका अगर समझदार होती थी तो धीरज से काम लेती थी :
ताकर कुचन बीच काँकरी गोपाल मारि,
साँकरी गली में प्यारी हाँ करी न ना करी।
पता नहीं क्यों, उन दिनों की नायिकाओं को प्रेम होते ही एक और भयंकर रोग आ घेरता था जिसे 'विरह' के नाम से पुकारते थे। प्रेम तो आजकल की लड़कियाँ भी करती हैं, पर यह मर्ज इन दिनों नहीं होता। पुराने जमाने की नायिका तो दकियानूस होती थी और इसी कारण बेचारी विरह में बड़ा कष्ट झेलती थी। बिहारी के शब्दों में वह विरह में जलती भी थी, डूबती और उड़ती भी थी। दूसरे शब्दों में जयशंकर 'प्रसाद' की तरह यह विरह भी सर्वतोमुखी प्रतिभा की चीज होती थी। विरह में नायिका को ज्वर आ जाता था। वह दुबलेपन की सीमा को पार कर जाती थी और कोई-कोई तो बेचारी इसी बीमारी में मर भी जाती थी। विरह में क्या-क्या नहीं होता था! अँगुली की अँगूठी दुबलेपन के कारण कंगन की तरह पहनी जाती थी और आँखें 'मुध की मक्खियाँ' हो जाती थीं जो शहद का छत्ता लगाती थीं। एक नायिका के बारे में रिपोर्ट मिली थी कि उसके दोनों नयन सावन-भादों हो गये थे। इस नायिका को राज्य सरकार ने उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों में भिजवा दिया था जहाँ कि सूखा पड़ गया था। कोई-कोई अबला स्त्री तो इतना रोती थी कि मुहल्ले में पानी भर जाता था और उसके घर तक पहुँचने के लिए नाव की सहायता लेनी पड़ती थी। ये स्त्रियाँ कवि के शब्दों में पावस ऋतु हो जाती थीं और दो-चार मल्लाह नाव लेकर इनके मुहल्ले में आ बसते थे। विरहिणियों में से किसी को रात द्रौपदी के चीर की तरह लगती थी और किसी को वामन देवता के डग जैसी- 'वामन के डग-सी भईं सावन की रतियाँ।' एक नायिका कहती है कि जब किसी निर्मोही से मन लग जाता है तो न रात अच्छी लगती है, न प्रभात अच्छा लगता है। दुपहर का जिक्र नहीं किया- शायद वह अच्छी लगती हो। एक नायिका कहती है कि बसन्त नहीं आया, पलाश नहीं फूले वरन् 'काढ़ि के करेजों डार डारन पै डारिगौ।' ऐसी स्थिति में नायिका की छाती की आग कभी-कभी इतनी ज्यादा जल उठती थी कि एक सखी ने कह ही जो दिया था, 'छाती सों छुवाइ दिया बाती क्यों न बारि ले?' एक और नायिका का तापमान इतना ज्यादा हो गया कि वह कच्चे चावल लेकर आँगन तक आयी नहीं कि भात तैयार हो गया। देखते-देखते चावल उबल गये। परेशानी यूँ भी पड़ती थी कि नायिका का अंग सोने का होता था और विरह की अग्नि में वह बुरी तरह पिघल जाता था 'यह सोनो सो अंग सोहाग भरे, कहो कैसे के आग की आँच सहै?' वन के रास्ते में अगर कभी विरहिणी गुजरती थी तो कोयल-रूपी डाकू आँखें लाल-लाल कर 'कुहों-कुहों' की ध्वनि से सारी दिशाएँ गुंजार देते थे। विरहिणी नायिका को सताने में बादल, चाँद, फूल वगैरह बाकी उपादान भी अपना यथाशक्ति सहयोग बराबर देते रहते थे : 'मारि डारै मदन, मरोरि डारैं दादुर ये, दाबै आवै बादर, दबावै आवै दामिनी।'
विरह में क्या-क्या नहीं किया जाता था? बिहारी की नायिका नायक को गुलाब भेजती थी और उत्तर में नायक उसके पास पान भेजता था। इन चीजों के सांकेतिक अर्थ होते थे। बिहारी ने यह नहीं बताया कि यदि नायक पान भेज सकता था तो खुद ही क्यों नहीं आ सकता था? घण्टा-आधा घण्टा को भी चला आता तो भी बेचारी का कष्ट दूर हो जाता। कवि स्वयं कहता है कि जब तक नायक स्वयं भीगे चीर की भाँति नायिका के शरीर से न लिपटे तब तक शरीर की ज्वाला नहीं मिटती थी। नायक की तो चिट्ठी भी विरह के काटने में तलवार जैसा काम करती थी। नायिका चिट्ठी को चूमती थी, छाती से लगाती थी और उसके समेटकर रखती थी। सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कोई-कोई विवेकशील नायक चिट्ठी की जगह सिर्फ सादा कागज ही भेजा करते थे मगर इस बेलिखी चिट्ठी से भी नायिका को उतना ही सुख मिलता था। विरह में वैद्य काम नहीं करते थे, गुलाबजल सूख जाता था और चन्दन आग उगलता था। 'नारी छूवत वैद के परे फफोल हाथा।' रेफ्रिजरेटर उन दिनों थे नहीं जो नायिका को उसी में रखा जाता। दूतियाँ भेजी जाती थीं; वे जाकर नायक से नायिका के घर के ऊपर पतंग उड़वाती थीं। जहाँ-जहाँ पतंग की छाया पड़ती थी, नायिका हर्ष में उसे पकड़ने के लिए वहीं-वहीं भागती थी। विरह का अन्तिम लक्षण यह था कि यदि बिना प्रियतम के मिले कोई नायिका मर जाती थी तो उसकी आँखी खुली ही रह जाती थीं:
बिना प्रान प्यारे भये दरस तुम्हारे हाय,
मरेहू पै आँखें ये खुली ही रह जाएँगी।
हालाँकि ज्यादातर नायिकाएँ तो विरह में ही जलती रहती थीं मगर कुछ ऐसी भी थीं जिन्हें यह स्थिति हमेशा नहीं झेलनी पड़ती थी। जिन नायिकाओं का विरह मिट जाता था वे हँसमुख, हाजिरजवाब तथा व्यवहारकुशल हो जाती थीं। बिहारी की एक नायिका थी जिसे देवर छेड़ा करता था मगर कुलवधू होने के कारण वह चुप रहती थी और देवर की शरारतों की शिकायत किसी से नहीं करती थी। कैसा उदात्त चरित्र था! कुछ कुलवधुएँ तो अब भी ऐसा ही करती हैं। एक नायिका थी जिसे अपने नायक को चकमा देने में बड़ा मजा आता था : 'सीढ़ी से डगर जौ लौं लाल गए ऊँचे पर, जीना के डगर तौं लौं नीचे को उतर आईं।' एक और होशियार किस्म की नायिका थी जो अपने प्रेमी को बड़ी प्यारी-प्यारी सलाह दिया करती थी : 'जौं लौं घर जागती हैं ननद जिठानी मेरी, तौं लैं कहा मानो चुपचाप ही परे रहौ।' एक नायिका ने नायक से ध्रूमपान करने का कारण पूछते हुए कहा था: 'मो मनु कहा न पी लियो, पियत तमाकू लाल?' और इसी तरह एक और नायिका ने अपने प्रियतम से काफी पते की बात पूछी थी : 'कारज छोड़ि सबै घर के पिय काहे कबूतर पालन लागे?'