एक प्रकाश-स्तंभ के बारे में / कुमार अम्बुज
दैनिक भास्कर अखबार में प्रकाशित होनेवाले स्तंभ 'परदे के पीछे' में अपना आख़िरी आलेख लिखते हुए, जय प्रकाश चौकसे ने, गंभीर अस्वस्थता के कारण इसे आगे ज़ारी रखने में असमर्थता जताई है। पिछले सप्ताह फ़ोन पर बात करने की कोशिश में पता चला कि लंबे समय से उन्हें बोलने में भी कष्ट है। वे अपनी दैहिक तकलीफ़ों में जिस तरह रोज़ाना लिख रहे थे, वह किसी गहरी, ऊर्जासंपन्न प्रतिबद्धता से ही मुमकिन था। इस शारीरिक कष्ट की साम्यता से रशियन लेखक निकोलाई आस्त्रोव्स्की की स्वास्थ्यगत परिस्थितियों की याद आ सकती है। जैसे उनका लिखना एक साथ किसी दवा की खुराक और सामाजिक दायित्व की तरह रहा।
जयप्रकाश चौकसे के विचार, उनके लेखन की बनक नेहरूवियन रही है। एक उदार, लोकतांत्रिक, समतावादी, समाजवादी स्वप्न को वे अपने भीतर अनवरत पोषित, पल्लवित करते रहे हैं। वही उनकी लेखन-दृष्टि का मूल रहा है। इसलिए वे राजकपूर से प्रेम करते हुए कभी ख़्वाजा अहमद अब्बास को विस्मृत नहीं करते। औपचारिक शैक्षणिक काल से ही वे अपने सह अस्तित्ववादी, गैर सांप्रदायिक, जाति विरोधी सोच और श्रेष्ठ साहित्य के साहित्यिक संस्कारों से संचालित रहे। प्रखरतम लेखकों-कवियों चंद्रकांत देवताले, विष्णु खरे, निदा फाज़ली, राजेन्द्र माथुर आदि से उनकी मित्रता के आधार में यही विचार-सरणी और बेहतर दुनिया का सपना कायम रहा।
यदि जय प्रकाश चौकसे का स्तंभ 'परदे के पीछे', इस शताब्दी में किसी हिंदी अख़बार का संभवत: सबसे अधिक लोकप्रिय स्तंभ रहा है तो उसके कारण लिखने की उस बौद्धिकता में निहित हैं जो फिल्मों के बहाने साहित्य, विविध कलाचर्चा और संप्रेषणीय विचारशीलता की शक्ति में अभिव्यक्त होती रही है। स्तंभ में प्रकट उनके वक्तव्य, विचार, संवाद, पड़ताल और कसौटियाँ उनकी सामाजिक आकांक्षाओं, प्राथमिकताओं तथा सर्जना के नैतिक मूल्यों को रेखांकित करते रहे हैं। राजनैतिक विडंबनाओं को विषय बनाने में भी वे अपने विवेकशील साहस का परिचय देते रहे। वे सुनार की तरह बार-बार, छोटी-छोटी चोट करते थे लेकिन उसका प्रभाव लोहार की चोट की तरह होता था। इस लेखन ने उन्हें घर-घर का चहेता बना दिया। हर उस घर में, हर उस जगह जहाँ दैनिक भास्कर पहुँचता है।
लोग उनके स्तंभ को अपने योग-वियोग, रोग-शोक, प्रसन्नता और अवसाद में भी इस तरह पढ़ते रहे मानो उन शब्दों में प्रस्तुत जीवन को लेकर, उनकी अपनी मन:स्थिति, सुख-दुख में कोई बात ऐसी मिल जाएगी जो उन्हें मित्रवत ढाढ़स, आशा या विचारोत्तेजना दे सकेगी। या फ़िल्म, साहित्य, दर्शन, इतिहास या माईथौलॉजी का कोई ऐसा वृहत्तर संदर्भ पेश कर देगी जिससे वे अपनी दिनचर्या में कुछ दिशा, कुछ ताक़त, कुछ ऊर्जा प्राप्त कर लेंगे। किसी स्तंभ से यह अपेक्षा और आशा बन सकती है, यह अपने आप में एक विरल, सुखद उदाहरण है। जैसे उस स्तंभ से कोई रोशनी मिलती हो।
जीवन के प्रति उनकी असंदिग्ध वैज्ञानिक एवं सामाजिक दृष्टि का एक उदाहरण उनके एक साक्षात्कार अंश में देखा जा सकता है- 'आध्यात्मिकता क्या है' प्रश्न के उत्तर में जवाब है- हमने आध्यात्मिकता का हव्वा खड़ा कर दिया है। अपने काम में प्रवीण होना और पूरी निष्ठा से उसे करना ही आध्यात्मिकता है। भौतिक स्तर पर निष्ठा, लगन एवं परिश्रम ही आध्यात्मिकता है। इसी तरह प्रसन्नता को भी वे रुचिसंपन्न काम करते रहने से जोड़कर जवाब देते हैं- साधन का असमान वितरण व्यवस्था द्वारा किया गया है। अन्याय व असमानता पर आधारित व्यवस्था ही सब समस्याओं के मूल में है। ये उत्तर बताने में सक्षम हैं कि समाज के अधिक मानवीय और बेहतर होने की आकांक्षा उनके पास सकारण है, स्पष्ट है। वे किसी वैचारिक कोहरे में नहीं रहते। उनकी निगाह धुंध के पार देखती रही है।
जीवन और सिनेमा, इन दो द्वीपों पर ही जय प्रकाश चौकसे लगातार आवाजाही करते हुए कला, साहित्य और जनसंवेदनाओं के पुलों का निर्माण करते रहे। सिनेमा संबंधी उनके पास अनुभवजन्य, दो टूक एवं इस माध्यम की विडंबनाओं से प्रसूत अचूक, जाग्रत विवेक रहा आया। वे समझते रहे कि यथार्थ और कल्पना एक-दूसरे के पूरक हैं, सहायक हैं लेकिन मानवतावादी दृष्टिकोण को भी शोषक और शोषित, अत्याचारी और पीड़ित के बीच अंतत: अपना पक्ष निर्धारित करना होता है। उसके बिना कोई निस्तार नहीं। इसलिए उनकी निगाह समय की राजनीति, कलाधर्मिता और साहित्य की भूमिका पर चेतस बनी रही। उनका लेखन एकवचनीय या सीमित नहीं हुआ। वह हमारे समय और सभ्यता की समीक्षाकर्म में तब्दील होता रहा। नागरिकबोध से संचलित वह उस जरूरी प्रगतिशील चिंतन का हिस्सा हुआ जो अलौकिक को भी लौकिक बनाता है। और लौकिक को जीवन की उपलब्धि की तरह देखता है। वह खोखले, दंभपूर्ण, झूठे राष्ट्रवाद, अंधविश्वास और पुनरुत्थानवादी झाँसे का शिकार नहीं होता। वह वैश्विक दृष्टि से अनुप्राणित और अद्यतन रहता आया। इसलिए उनके स्तंभ का बंद हो जाना एक अभाव की तरह रहेगा। यह किसी प्रकाश स्तंभ का रोशन न रह जाने जैसा है।
उनके बेहतर स्वास्थ्य के लिए कामना है। उनकी जिजीविषा इसमें सबसे बड़ी भूमिका निबाह रही है। शुभकामनाएँ, माइस्त्रो। और धन्यवाद। इस आशा के साथ कि आप फिर लिखेंगे।