एक फिल्म के बहाने आत्मावलोकन / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :08 मई 2017
इरफान खान अभिनीत फिल्म 'हिंदी मीडियम' का प्रदर्शन होने जा रहा है। यह सभी जानते हैं कि अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई कर रहे भारतीय छात्र की अधिकतम ऊर्जा माध्यम से जूझने में व्यय हो जाती है। वह बेचारा विषय की गहराई में प्रवेश नहीं कर पाता। इस बात का दूसरा पक्ष यह है कि आप कहीं यात्रा करें तो राह में देखेंगे कि छोटे-छोटे गांवों और कस्बों में अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई कराने वाले स्कूल स्थापित हो चुके हैं। हमारे दोहरे मानदंड सभी क्षेत्रों में कहर ढा रहे हैं। यह बात कितने क्षेत्रों में नज़र आती है कि देश में लगभग बीस करोड़ पाठक है, जिनमें से सोलह करोड़ पाठक अंग्रेजी समाचार-पत्र पढ़ते हैं। हिंदी समाचार-पत्र गांवों और कस्बों तक जाते हैं परंतु उनको विज्ञापन के लिए अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित अखबार से कम दरें मिलती हैं। इतना ही नहीं सभी हिंदी फिल्मों की पटकथाएं अंग्रेजी भाषा में लिखी होती हैं, निर्देशक अंग्रेजी भाषा में ही यूनिट व कलाकारों को संबोधित करता है परंतु फिल्मों में देश के विभिन्न क्षेत्रों से आए लोगों के लिए अंग्रेजी का कोई विकल्प नहीं है और सिनेमा पर सारी पाठ्यक्रम समान किताबें भी अंग्रेजी भाषा में लिखी गई हैं। हम एक अदद किताब इस जनप्रिय अवाम की विधा पर नहीं लिख पाए।
सृजन क्षेत्र में बांझपन का यह दौर हमारी चिंताओं का केंद्र होना चाहिए परंतु हमने अनावश्यक छाया-युद्ध छेड़ रखा है। सत्ता केवल यह तय करने में लगी है कि अवाम को क्या खाना चाहिए, क्या पहनना चाहिए और यही सोच अपने अंतिम सोपान पर पहुंचेगी, जब हमें बताया जाएगा कि किससे प्रेम करें, किससे विवाह करें। इतना ही नहीं सत्ता ने हमेशा से सुलगती सरहदों के जलते कोयले अवाम के घर-आंगन में बो दिए हैं।
यह सब भ्रम इसलिए फैलाए जा रहे हैं कि उन्हें काम ही नहीं आता और अपने निकम्मेपन के शरीर को ढांकने के लिए तौलिए खोजते फिरते हैं। किस तरह के मुद्दे और प्रतिक्रिया रची जा रही है, यह इस घटना से मालूम पड़ता है कि एक सिनेमाघर में एक उम्रदराज आदमी राष्ट्रगीत के समय विलम्ब से उठ पाया तो युवा हुड़दंगियों ने उसे पीट दिया। ऐसा क्यों हो रहा है कि हर आम आदमी को अपने राष्ट्रप्रेम का सबूत देना पड़ता है। देश को एक विराट कटघरा बनाया जा रहा है। हाय! कितनी मासूमियत से भारत महान का पाकिस्तानीकरण किया जा रहा है। पोंगा पंडिताई और कठमुल्लापन का यह स्वर्ण काल है।
लगभग दो सौ वर्ष पूर्व इंग्लैंड की संसद में शिक्षा बिल प्रस्तुत करते हुए लॉर्ड मैकाले ने दावा किया था कि अंग्रेजी की शिक्षा के कारण एक पढ़ा-लिखा वर्ग ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज में उच्च शिक्षा ग्रहण करके अपने देश में स्वतंत्रता की लड़ाई में भाग लेगा परंतु साथ ही अंग्रेजी भाषा भारत जैसे अनंत देश में हमेशा जीवित रहेगी। इस देश में सही और गलत दोनों ही लहरें हमेशा प्रवाहमान रहती हैं। आज इंग्लैंड की जनसंख्या से अधिक भारतीय अंग्रेजी भाषा बोलते हैं। किसी दौर में यूएनओ में कृष्ण मेनन ने घंटों अंग्रेजी में भाषण किया, जिसकी प्रशंसा सारी दुनिया में हुई। पंडित जवाहरलाल नेहरू की अंग्रेजी में लिखी डिस्कवरी ऑफ इंडिया अनेक देशों के पाठ्यक्रम में शामिल है।
राजा रमन राव का उपन्यास 'सर्पेंट ऑफ द रोप' क्लासिक का दर्जा रखता है। विक्रम सेठ की किताब 'ए सूटेबल बॉय' इतना लोकप्रिय उपन्यास सिद्ध हुआ है कि करण जौहर ने अपनी आत्मकथा का नाम 'अनसूटेबल बॉय' रखा। उनके लिए मौलिक होना असंभव है। मुद्दा यह है कि हिंदी भाषा के साथ विश्वासघात हिंदी भाषा जानने वालों ने किया है। आज हिंदी किताबों के प्रकाशन का यह हाल है कि सृजनकर्ता को स्वयं चार सौ प्रतियां खरीदनी पड़ती है। प्रकाशक सरकारी वाचनालयों में किताबें बेचता है और रिश्वत के कारण उसे अधिक कीमत रखनी पड़ती है, जिस कारण आम आदमी किताब नहीं खरीद पाता। क्या अब किताबें नहीं पढ़ने के लिए लिखी जाती है गोयाकि सारा मामला अब रस्म अदाएगी मात्र रह गया।
स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में लेखकों ने अपनी रचनाओं की रॉयल्टी से भरे-पूरे परिवार का लालन पालन किया है परंतु आज यह संभव नहीं है। किताबें कम बिकती है और प्रकाशक भी रॉयल्टी देने में विश्वास नहीं करते। चौंका देने वाला तथ्य यह भी है कि एक लोकप्रिय लेखक का न भाषा पर अधिकार है और न ही उसके पास मौलिक विचार है परंतु उसने अपन आपको खूब जमकर प्रचारित किया है और बेचा भी है। वह पुरानी हिंदी फिल्मों से विषय उठाता है और अपनी इस तरह रची नई किताब के फिल्म अधिकार महंगे में बेचता है। इस मंडी में शोर मचाकर कंकर-पत्थर बेचे जा सकते हैं और खामोश रचयिता का महाकाव्य धूल खाता रहता है।