एक बार फिर होली (पृष्ठ-1) / तेजेन्द्र शर्मा
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नजमा की ज़िन्दगी का वर्तमान रंग होली के रंगों से गहराई तक जुडा है. परसों ही नजमा भारत जाने वाली है. नजमा - एक पाकिस्तानी फ़ौजी की विधवा.
कराची के एक बंगले में गुमसुम सी बैठी नजमा आज तक अपने जीवन की भूल-भुलैया समझ नहीं पायी है. इस शहर में, इस देश में, वह कितनी बार आहत हुई है. कितनी बार उसने उस मौत को गले लगाया है जिसमें इन्सान का शरीर तो नहीं मरता लेकिन आत्मा कई कई मौतें मर जाती है. आज भी वह छलनी हुई आत्मा को अपने इस शरीर में ढो रही है जिसमें अपने ही ऊपर चढ़ाए गये कपड़ों को उठाने की ताकत नहीं.
यह सच है कि उसने इमरान को कभी अपना शौहर नहीं माना. वैसे निकाह के समय काज़ी साहब के पूछने पर उसने भी हां ही कहा था. लेकिन अगर अम्मा अपनी मौत का वास्ता दे कर कसमें दिलवाए, या फिर अब्बा मियां इस्लाम के ख़तरे में पड़ने का डर दिखाएं तो वह बेचारी हां के अतिरिक्त कह भी क्या सकती थी. बुलंदशहर में जन्मी नजमा पाकिस्तानी सेना के कैप्टेन इमरान के साथ विवाह कर कराची में आ बसी थी.
कराची एक अलग किस्म का शहर था। बुलन्द शहर और लखनऊ से अलग तो था ही, दिल्ली से भी एकदम अलग था। नजमा ने समुद्र कभी देखा नहीं था। हवा में पानी की नमकीन नमी कभी महसूस नहीं की थी। गांव की खुली हवा में पली नजमा के लिये फ़ौजी छावनी का माहौल खासा दमघोटू था। मलीर कैंट का इलाका भी अजीब सा था। कराची की मुख्य सड़क शाह फ़ैज़ल रोड से एक शाख़ की तरह निकलती हुई एक सीधी सड़क मलीर कैन्ट से जा कर मिलती थी। शहर-ए-गुलशन – नाम तो गुलशन था उसका लेकिन ले जाती थी वीराने की ओर। एक लम्बी अकेली सुनसान सड़क – ख़ौफ़ से भरपूर – नजमा अपने आपको उस सड़क पर कभी सुरक्षित महसूस नहीं कर पाती थी।
घर में भी नजमा कुर्सियों के कुशन और कुर्सियों को सीधा करती रहती; हर कमरे में बिछे महंगे पाकिस्तानी कालीनों से तागे और कूड़ा साफ़ करती। तीन कमरों का घर – घर के भीतर अकेलापन और बाहर वीराना। बुलन्दशहर की अपनी उस बड़ी सी हवेली और उसमें काम करने वाले ग़रीब मुलाज़िमों के बच्चों की दोस्ती उस की यादों में गीलापन पैदा करते रहते। ... यहां घर के कमरों की ऊंची ऊंची दीवारें जैसे उसे अपने ही घर में क़ैदी होने का अहसास देतीं। ड्राइंग रूम, डाइनिंग रूम और रसोईघर सभी जगह नीले थोथे वाला सफ़ेद चूना पुता था। हर कमरे में शीशम की लकड़ी का भारी भरकम फ़र्नीचर रखा रहता। बाहर बग़ीचे में टोकरी-नुमा कुर्सियां थीं – दो चार नहीं पूरी दर्जन भर। जब कभी अतिथि शाम बिता कर वापिस जाते तो इमरान का बैटमैन बेचारा उन भारी भारी कुर्सियों को वापिस रखते रखते हांफने लगता।
गुसलख़ाने की छत और दीवारें भी बहुत ऊंची थीं। दिल्ली के मुक़ाबले कराची में ठण्ड तो ना के बराबर पड़ती थी, लेकिन वहां सब लोग हमेशा गर्म पानी से ही स्नान करते थे। घर में हर वक्त एक ही चर्चा सुनाई देती। नाश्ते में क्या बनेगा, दोपहर के भोजन का मीनू क्या होगा और फिर रात के पकवान क्या होंगे। नाश्ते में भी मीट, लंच में भी और डिनर तो बिरयानी के बिना हो ही नहीं सकता था। दालें तो फिर भी बन जाती थीं लेकिन सब्ज़ियां खाये तो नजमा को क्ई क्ई दिन बीत जाते। अभी नजमा को बहुत सी बातें सीखनी और समझनी थीं। फ़ौजियों के तौर तरीके होते भी तो अजब हैं। प्यार और लड़ाई में कुछ ख़ास अन्तर नहीं महसूस होता। फ़ौजी लोग सिविलियन लोगों को तो इन्सान ही नहीं समझते थे।
इमरान भी ख़ासा ज़िद्दी किस्म का इन्सान था, देखो नजमा, अब तुम मेरी बेगम हो. यू हैव नो चॉयस.
सुनिये, इतनी जल्दी क्या है? मैं आहिस्ता आहिस्ता अपने आप को तैयार कर लूंगी.
मैं यह बिल्कुल बरदाश्त नहीं कर सकता कि मेरी बीवी के पास हिन्दुस्तान का पासपोर्ट हो. अगर किसी को पता चल गया तो लोग क्या कहेंगे. मेरी तो सारी ज्ािन्दगी पर बदनुमा दाग़ लग जाएगा.
आप सोचिये, पूरी ज़िन्दगी एक हिन्दुस्तानी हो कर बितायी है. अचानक अपने वजूद को कैसे बदल लूं? आप तो जानते हैं मैं थोड़ी सेंसिटिव नेचर की लडक़ी हूं. मुझे तो सुहाग रात मनाने में ही कितना वक्त लग गया था.
देखिये बेगम, अल्लाह से डरिये, कुरान-ए-पाक भी कहती है कि बीवी को शौहर की बात माननी चाहिये. इस मामले में हम आपकी एक नहीं सुनेंगे. आप आज ही पाकिस्तानी पासपोर्ट की अर्ज़ी भर दीजिये. इस बात को लेकर हम आपसे अब और बहस नहीं करना चाहते.
रात भर रोती रही नजमा. तकिया भीगता रहा और इमरान करवट बदल कर गहरी नींद सोता रहा. सुबह होने को रोका जा सकता तो नजमा ज़रूर उसे रोक लेती. लेकिन सुबह हुई और सुबह के साथ ही शुरू हो गया इमरान का पासपोर्ट राग. नजमा की रोती हुई आंखों का इमरान के निर्णय पर कोई असर नहीं हुआ. इमरान की अम्मी और दोनो बहनें इस तरह चुपचाप काम कर रही थीं जैसे उन्हें इस मसले से कुछ भी लेना देना नहीं है. ज़ुबेदा ने तो आ कर पूछ ही लिया, इमरान भाई, नाश्ता तो करके ही जाएंगे न आप दोनों? वैसे आलू के परांठे बना दिये हैं.
नजमा ने कह दिया कि उसकी तबीयत ठीक नहीं है. वह नहीं खायेगी नाश्ता. इमरान पर इसका भी कोई असर नहीं हुआ. नजमा हैरान थी कि किस मिट्टी का बना है इमरान इतनी बेरहमी क्यों?
इमरान मियां ने कायदे से बैठ कर आलू के दो परांठे दही के साथ खाये, उस के साथ मसाले वाली चाय पी - एकदम फ़ौजी अंदाज़ में, चाय को प्लेट में डाल कर.
नजमा से रहा नहीं गया, सुनिये, आप ख़ुद ही फ़ार्म वगैरह भर दीजिये, हम साइन कर देंगे. हमसे नहीं भरा जायेगा. और नजमा लगभग भागते हुए बाथरूम में जाकर, अंदर से दरवाज़ा बंद करके खुल कर रोने लगी. उसे याद आ रही थीं अपनी सहेली चित्रा की बातें, देखो नजमा, यह जो संकटमोचन का मंदिर है न, इसकी बहुत मान्यता है. यहां जो भी आ कर मन्नत मानता है, वो ज़रूर पूरी होती है. मंगलवार को संकटमोचन का व्रत रखना होता है. हनुमान जी बहुत भोले हैं, जल्दी ही सबकी इच्छा पूरी कर देते हैं. उसने कितने मंगल को जाकर संकटमोचन के मंदिर से प्रसाद के रूप में मिठाई खाई है. आज तो मंगल नहीं है; भला जुमेरात को हनुमान जी कैसे हमारी बात सुनेंगे? नजमा मन ही मन दुआ मांग रही थी,
हे संकटमोचन मुझे इस हालत से बचा लीजिये, आज दफ़तर बंद हो जाए. मुझे पासपोर्ट देने के लिये अफ़सर मना कर दे. मैं जब भी वापिस अपने मुल्क आऊंगी, आपके मंदिर में चढावा चढाने ज़रूर आऊंगी. किन्तु जुमेरात को मस्जिद की अज़ान के सामने संकटमोचन की दुआ नहीं सुनी गई.
और थोड़ी ही देर में आवाज़ भी आ गई, सुनती हैं बेगम, हमने फ़ार्म पूरा भर दिया है, इस पर साइन कर दीजिये. और नजमा ने अपने डेथ वारंट पर ख़ुद ही अपने हस्ताक्षर कर दिये.
वक़्त ने नजमा के ज़ख्मों के दर्द को कम कर दिया. लेकिन उन ज़ख्मों के निशान नजमा की आत्मा पर स्थायी रूप से चिह्नित हो कर रह गये. वह जीवन भर अपने पति के इस कृत्य को माफ़ नहीं कर पायी. इमरान को कुछ फ़र्क नहीं पडा, वो भी हमेशा जानबूझ कर नजमा के सामने हिन्दुस्तान की बुराई करता. नजमा ने कविता लिखनी शुरू कर दी. उसकी कविताओं में हमेशा दोहरा अर्थ छिपा रहता. वह कभी भी इकहरे अर्थ वाली कविता नहीं लिखती थी. वह अपनी कविताओं में अपने देश, अपनी सहेलियों, अपने परिवार, अपने वजूद को याद करती रहती. एक बार नजमा ने अपनी कविता कुछ यूं शुरू की, मन करे माथे लगाऊं मैं वतन की ख़ाक को / कर के सजदे सिर झुकाऊं उस ज़मीने पाक को.
ज़ुबेदा ने झट से कहा था, भाभी जान ये 'उस' ज़मीने पाक नहीं, 'इस' ज़मीने पाक होना चाहिये. इमरान की झुंझलाहट साफ़ सुनाई पड रही थी, ज़ुबेदा मैं तो ज़िन्दगी भर इंतज़ार करता रहूं, तब भी तुम्हारी भाभी जान इस ज़मीन को पाक नहीं कहने वाली. ये तो मुहाजिरों से भी गई गुज़री है.
मुहाजिरों से गई गुज़री!" - यह कहने वाला मेरा अपना शौहर है !
नजमा कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थी. पराया देश, पराये लोग. अपना पति भी पराया सा क्यों लगने लगता है. गिद्धों का एक समूह और बेचारी सी नजमा ! किन्तु जीवन तो जीना ही होता है. नजमा ने भी अपने आसपास के माहौल में रूचि लेनी शुरू की. मलीर कैण्ट पूरी तरह से फ़ौजी क्षेत्र होने के कारण रहने वाले सभी लोग भी फ़ौजी ही थे। सब एक दूसरे की सहायता करने को तत्पर रहते।
अपने पति के साथ नजमा फ़ौजी पार्टियों में भाग लेती तो उसकी ननदें उसे कराची के उच्च-मध्यवर्गीय माहौल से परिचित करवाती रहतीं. पति इमरान को बस एक ही रट रहती, "कश्मीर आज़ाद करवा कर ही रहेंगे".
नजमा की समस्या यही थी कि उसका शरीर, आत्मा और दिमाग पूरी तरह से भारतीयता में रंगे थे. उसे पाकिस्तान की मिट्टी पर बारिश की हलकी फुहारें पड़ने के बाद मिट्टी से वैसी भीनी भीनी सुगन्ध आती नहीं महसूस होती थी जैसी कि अपने गांव में. उसे लखनऊ विश्वविद्यालय में बिताया एक एक पल परेशान करता है. वहीं तो उसकी मुलाकात हुई थी एक नौजवान से - चन्द्र प्रकाश. सब उसे चंदर कह कर बुलाते थे. कुछ ही दिनों में नजमा चंदर के व्यक्तित्व में इस कदर रंग गयी कि अन्य विद्यार्थियों ने उन्हें चांद तारा कह कर बुलाना शुरू कर दिया. दूर दूर से एक दूसरे को देख कर ख़ुश हो जाने वाले चंदर और नजमा ने धीरे धीरे भविष्य के सपने बुनने भी शुरू कर दिये थे. चंदर वैसे तो डाक्टर बनना चाहता था लेकिन उसके मन में एक कवि पहले से विद्यमान था. कृष्ण और राधा की होली के नग़में वह इतनी तन्मयता से गाता था कि नजमा भाव विभोर हो जाती. उसे होली के त्यौहार की प्रतीक्षा रहती. अपनी सहेलियों के साथ मिल कर होली खेलती और अपनी मां से डांट खाती. उसका होली के रंगों में रंग जाना उसकी आवारगी का प्रतीक था. किन्तु मां को उन रंगों का ज्ञान ही कहां था जो नजमा के व्यक्तित्व पर चढ रहे थे. नजमा अब चंदर की सुधा बनने को व्यग्र थी.
कराची के चिपचिपे मौसम में उसे याद आता था अपना शहर अपना देश। जब नजमा छोटी थी शाम को जैसे ही हल्की सी अंधेरी की बारीक़ सी चादर फैलती, तो चिड़ियां बेचैन हो कर आसमान पर झुण्ड के झुण्ड बना कर उड़ने लगतीं थीं। पूरा अन्धेरा होते ही सन्नाटा सा छा जाता था। छिटपुट झींगुर की आवाज़ सुनाई देती और कहीं कोई जुगनू अपनी रोशनी बिखेरता निकल जाता। फिर धीरे धीरे चांद तारों की रौशनी फैलने लगती। नजमा घर के आंगन में लेटी यह सब तमाशा देखती और उसका आनंद लेती। कभी कभी जब सुबह सवेरे आंख खुल जाती तो नजमा को महसूस होता कि चांद अपनी ठण्डी ठण्डी रोशनी से धर्ती को सराबोर करता डूब रहा होता और कोई सितारा टूट कर ज़मीन की गोद में गिर कर खो जाता। सुबह उठ कर नजमा ज़मीन के उस हिस्से में टूटा हुआ तारा खोजने ज़रूर जाती। उसे आज भी वही लगता कि जैसे अपने हिस्से के सितारे वहीं अपनी जन्मभूमि को सौंप कर आ गई हो। कराची का महानगरीय जीवन कभी भी उसके छोटे से शहर बुलंदशहर की यादों को ढक नहीं पाया। अपने गांव की होली आज भी दिल में गुदगुदी मचाने लगती।
होली खेलने की आदत, सखियों के साथ मौज मस्ती, मावे से भरी गुजिया का आनंद, नजमा का बस चलता तो सारा साल होली ही खेलती रहती. बंगला देश के जन्म के बाद की होली नजमा के जीवन की आख़री होली बनने जा रही थी. पहली बार चंदर ने अपने हाथों से नजमा के कंवारे गालों पर गुलाल मला था. गुलाल के बिना ही नजमा के गालों की शर्म ने उसे जो लाली दी थी, गुलाल उसके सामने पीला पड रहा था. और उन गालों को लाल होते देख लिया था दुर्गा मासी ने. दुर्गा मासी अपनी भांजी सुपर्णा के साथ चंदर के विवाह के सपने सजाये थी. नजमा के लाल होते गालों ने जैसे दुर्गा मासी पर लाल सुर्ख लोहे की छड़ ज़ैसा काम किया था. शाम होते होते इस्लाम ख़तरे में पड चुका था, नजमा का कॉलेज जाना बंद; अचानक पूरा घर अभागा हो गया था, मैं तो उस वक्त भी कहती थी, कि जब सभी लोग पाकिस्तान जा रहे हैं, तो हम ही क्यों यहां रहें. उस वक्त मेरी किसी ने नहीं सुनी. इस अभागन को पूरे शहर में एक भी मुसलमान लडक़ा नहीं मिला, जो काफ़िरों के घर जाने को तैयार बैठी है. हमारा तो परलोक ही बिगाड दिया है.
अम्मा चिल्लाए जा रही थी और अब्बा गुस्से से आग उगल रहे थे. इससे पहले कि नजमा कुछ भी समझ पाती, उसे विमान में बैठा कर कराची भेज दिया गया था - इमरान मियां के घर. एमए हिन्दी बीच में ही रह गयी. शरीर पर इमरान की मोहर लग गई थी, लेकिन दिल और आत्मा पर चंदर का कब्ज़ा था. होली के रंग में रंगे चंदर की सूरत ही चंदर की अंतिम तस्वीर थी जो कि नजमा के दिल में बसी उसके साथ कराची चली आयी थी.
ज़ुबेदा तुम्हें मालूम है कि पाकिस्तान में मोहन जोदड़ों और हड़प्पा कहां हैं?
वो क्या होता है भाभी जान?
अरे, तुमने यह नाम कभी नहीं सुने? हमारे हिन्दुस्तान में तो स्कूल के बच्चे भी जानते हैं उनके बारे में.
नहीं तो. वैसे भाभी जान आप बार बार हिन्दुस्तान के गुण गाने कम कर दीजिये. भाई जान को ये कतई पसंद नही है.
हैरान, चुप नजमा अपनी ननद को बताती तो क्या बताती. लेकिन ज़ुबेदा ने उसकी मुश्किलों को बढा ही दिया,
भाई जान ये मोहन जोदड़ों और हड़प्पा कहां हैं पाकिस्तान में?
तुम्हें क्या करना है वहां जा कर?
भाभी जान पूछ रहीं थीं.
क्यों नजमा साहिबा क्या आपके हिन्दुस्तान वाले मोहन जोदड़ों और हड़प्पा को भी कश्मीर की तरह हडप जाना चाहते हैं? उनको कहना कि यहां तो तक्षशिला भी है. उनका बस चलता तो उसे भी बांध कर अपने साथ ले जाते.इन सब शहरों का इस्लाम से कुछ नहीं लेना देना. वहां जा कर आप क्या करना चाहती हैं बेगम साहिबा? अगर आपको कहीं चलना ही है तो मक्का मदीना का सफ़र करिये, शायद अल्लाह मियां तुम्हारा भी कुछ भला कर दें.
चुभती बातें, कटु वचन, हर वक्त याद दिलाया जाना कि वह हिन्दुस्तान की यादों से बाहर आए - नजमा अब रात को चांद से बातें करने लगी थी. उसे पूर्णमासी के चांद में कृष्ण और राधा होली खेलते दिखाई देते. कृष्ण की पिचकारी से निकला रंग, चांद को भी रंगे हुए था. चांद की चांदनी का रंग उस पर चढने लगता. एक फ़ौजी की पत्नी चाहे किसी भी देश में क्यों न हो, अकेलापन उसका सबसे बडा साथी होता है. फिर नजमा तो अपने साथ अपना अकेलापन सरहद के पार ले गयी थी. वह कभी कभी सोचती कि उसकी सास और ननदें उसकी मनःस्थिति को समझ क्यों नहीं पातीं. फिर शीघ्र ही अपने आपको समझाने लगती कि इसमें उनका क्या कसूर. वे बेचारी उतना ही तो सोच सकती हैं जितना उन्होंने सीखा है. उसकी सास हैरान भी होती कि उसे कैसी बहू मिली है।
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